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कविता

गोधूलि

हरीशचंद्र पांडे


दुनिया की रंगत देख चुका वह युगल
धीरे-धीरे चल रहा है

गोधूलि बेला है

मांसपेशियाँ पहले का आकार छोड़ चुकी हैं
काले बाल रूई का आकार ले चुके हैं

न चाल में त्वरा, न आवाज में वजन
वही बोल रहे हैं, वही सुन रहे हैं

चक्की के दो पात हैं ये
चलते-चलते थक गए अब
अपने हिस्से का पूरा पिसान दे चुके हैं दुनिया को

मोटे को महीन बनाया
बहुत सुपाच्य
दोनों चल रहे हैं, हल्का-सा फासला लिए
लगातार घिसने के बाद जैसे पाट ले लेते हैं

न लें, तो टकरा जाएँ बार-बार

बीच में छूट गई यह जगह
वह गलियारा है
जहाँ से हवा गुजरती है

और स्मृतियाँ भी...।

 


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