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कविता

इधर मैंने उठाई है

हरीशचंद्र पांडे


वह उधर बजा रही है ढोलक
जो नहीं देख पा रहे हैं वे भी सुन रहे हैं उसकी थापऽऽऽ

काफी दिनों से पड़ी थी अनजबी यह
साफ किया इसे टाँड़ से निकाल कर
दोनों घुटनों के बीच अड़ा इसके ढीले छल्लों को कसा

कसते ही तन गई हैं डोरियाँ
चमड़े खिल उठे हैं दोनों पूड़ों के
नहीं थी जो अभी-अभी तक वो गूँज उभर आई है
ढोलक में

इधर मैंने उठाई है एक अधूरी कविता
पूरी करने

 


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