यह एक ऐसी यात्रा थी
जो असल में हुई ही नहीं
जो असल में हुई
वह यात्रा नहीं थी
यात्रा की महज आहट थी
काशी से सिक्किम की यात्रा असल में मेरे भीतर वर्षों की यात्रा का निचोड़ थी जो हकीकत में होने से पहले ही मन के चमकदार घोड़ों पर बैठकर कई बार संपन्न हो चुकी थी। यहाँ आठवीं सदी के बौध संत गुरु रिनपोछे, जिन्हें पद्मसंभव भी कहा जाता है, से मिलन की उत्सुकता थी। तो तीस्ता की धार के साथ के लंबी दूरी तय करने का संकल्प। यहाँ के नए महलों में विचरण का ख्वाब था (सु-खीम) तो उस इंद्र के बाग के दर्शन की इच्छा भी थी जिनके नाम पर इसे इंद्रकील भी कहा जाता था। इसमें स्वर्ग के परियों की कथाएँ थी तो शिव के दुनिया के सर्वोच्च आसन पर विराजने के किस्से, जिसे सुन व् गुन कर बड़ा हुआ था लेकिन जिसे छूने के अहसास से सर्वथा दूर! दूर नहीं वंचित। लेकिन जो इस तरह संपन्न हुई थी वह भाषा में ढलने के पहले ही विपन्न हो गई। इसलिए यह जो यात्रा थी, इसे खुद के लिए एक प्रशिक्षण ही मानता हूँ, भीतर व् बाहर की साहचर्यमूलक यात्रा का प्रशिक्षण जो अभी तक तो सधी नहीं, आगे भी सधेगी कहना कठिन है।
" नार्थ ईस्ट " से उत्तर बंग
पिता पीछे छूट रहे थे
और पता था कि मिल नहीं रहा था
तो यात्रा के इन्हीं अनुभव हीनता व् आशंकाओं के बीच एक दिन काशी से उत्तर बंग की ओर वरास्ते नार्थ ईस्ट एक्सप्रेस निकल पड़ा और यह एकदम पुरानी बात नहीं है जब यह यात्रा गंगा से तीस्ता की यात्रा के रूप में संपन्न हुई थी। इसे यूँ भी कह सकते हैं की तीस्ता तो मेरे पास ही थी बस उसके बताए हुए रास्तों पर मुझे चलना था, अपने आँखों देखा हाल सुनाने के लिए। आखिरकार जो यात्रा मेरे भीतर चल रही थी उसे बाहर से पुष्ट करना था और जो बाहर थी उसे भीतर से संतुष्ट! तो साहब, पुष्टि व् संतुष्टि की इन्ही चक्रीय व्यवस्था में वर्षों से मेरे भीतर की संचित उत्तर पूर्व की यात्रा को बाहर निकलने, कहें कि कुलाँचे मारने का अवसर सिलीगुड़ी की सुपरिचित कवयित्री मनीषा झा के उस नेवते से मिला जो उन्होंने अपने विश्वविद्यालय के अकादमी कार्यक्र्म में भाषण देने के संदर्भ में भेजा गया था। यूँ तो इस न्योते को और कई न्योते की तरह ही मुझे अस्वीकार करना था क्योंकि वृद्ध व् जर्जर पिता का ख्याल मुझे भाषण से ज्यादे करना था किंतु एक तो इस क्षेत्र को देखने की ललक व् दूसरे इसमें मेरी पत्नी सुनीता जी की पहल ने इसको स्थगित करने से मुझे रोक दिया और यह तो स्पष्ट ही है कि जब आपकी पत्नी ही आपको परदेश भेजने के लिए प्रेरित करे तो फिर आप कम से कम आत्मग्लानि से बच सकते हैं। वह आत्मग्लानि जिसमें आप जितना ही बाहर जाते हों उतना ही भीतर के बारे में परेशान होते हों
...अगर पिता इसी बीच बीमार हो गए तो! अस्पताल ले जाना पडा तो! कहीं मर वर गए तो! कोई क्या कहेगा कि 92 वर्ष के पिता को पत्नी व् दो छोटे बच्चों के सहारे छोड़कर हिमालय पर ऐश कर रहे है। इस अवसर पर वे ज्यादे बोलेंगे जो सबसे कम साथ देते हैं या जिनमें सबसे कम संवेदना बची है। अनुभव कहता है कि ऐसा वे अपनी आत्मग्लानि से बचने के लिए करते हैं जैसे कि जो सबसे निकम्मा होता है वह सबसे ज्यादे चिल्लाता है! यह सब भी असल में अपने सामाजिक भय के कारण होता है। हमारा भय सामाजिक होता है और हमारी साहसिकता वैयक्तिक। अर्थात जो डरता है वह सामाजिक है और जो निडर है वह वैयक्तिक व् भारी बेहया। तो बेहयाई एक वैयक्तिक मनोवृत्ति है साहब जो व्यक्ति को अलौकिक और इसीलिए अलग करती है। यह भी कह सकते हैं कि जो बहुत बेहया होते हैं उनकी जड़ें काफी कम होती हैं (आचार्य द्विवेदी क्षमा करेंगे!)।
तो साहब, असमंजस की इन्ही स्थितिओं के बीच मैंने उत्तर बंग की यात्रा पर निकलने का मन बनाया, मन क्या बनाया बस बने मन को बाहर निकलने दिया और उसकी रोशनी में आगे बढ़ने का निश्चय किया। बढ़ना क्या बस उस रोशनी के पीछे पीछे चलना शुरू किया। यह रोशनी जाहिर सी बात थी हिमालय के उन्नत स्वर्ण शिखरों से आ रही थी जो धूप के चमकदार परतों के बीच रंगीन फॉयल पेपर की तरह रखे हुए थी। चलते समय मैडम ने (आगे मैडम का मतलब श्रीमती जी ही समझा जाय) पहाडी यात्रा की कुछ हिदायत भी दी और अपनी भर बाँह पकड़कर मेरी आँखों में आँखें डालकर देखा और कहा की इन आँखों में तैरती यात्रा को अपनी यात्रा से जोड़कर देखिएगा। इतना सटीक नक्शा आपको गूगल का जी.पी.एस. सिस्टम भी नहीं दिखा पाएगा।
तो ऐसी ही कुछ स्थितिओं में इसी वर्ष की 19 फरवरी को नार्थ ईस्ट एक्सप्रेस से। वाया सिलीगुड़ी, सिक्किम के लिए निकल पड़ा। सिक्किम की स्वर्ग परी से पहले सिलीगुड़ी की उस मुर्गी को देखना था जिसकी गर्दन से समस्त उत्तर पूर्व जुड़ा रहता है और कई बार सिलीगुड़ी की चर्चा में मुर्गी के गर्दन की यह छवि हमें बचपन से ही दिखाई जाती रही है।
मुगलसराय स्टेशन पर नार्थ ईस्ट एक्सप्रेस शाम 6 बजे थी और जब 5 बजे पहुँचा तब पता चला कि यह रात 9 बजे आएगी। चूँकि मैं भारतीय रेल की इस अदा से परिचित था कि इसे कहीं भी पहुँचने की कोई जल्दी नहीं रहती। रास्ते की ऊब से बचने के लिए अद्वैत मल्ल्बर्मन के १९५६ में प्रकाशित (जिसे बंगला दलित साहित्य व् विमर्श में दलित अभिव्यक्ति की पहली महत्व पूर्ण कृति माना जाता है) बंगाली उपन्यास "तितास एक नदी का नाम है" को अपने साथ रख लिया था जिसे हिंदी के सुधी समालोचक व् भरोसेमंद मित्र अरुण होता के कहने पर कोलकाता से प्रो. चंद्रकला पांडे ने (इन्होंने ही इसका हिंदी में अनुवाद किया है) मुझे भेज दिया था जिसे थोड़ा उलट-पलट कर घर पर ही जान लिया था की यह तितास तीस्ता नहीं है और इस उपन्यास की तितास अब सूख चुकी है। मैं स्टेशन पर एक जगह बैठ कर इसको पढ़ने लगा कि सूचना प्रसारित हुई कि यह ट्रेन अब 11 बजे आएगी। इस तरह अपने खास अंदाज में हर घंटे इसका समय बढ़ता रहा और उद्घोषक की सुरीली आवाज और हमारी आत्मा पर चढ़ती नीद की इस्पाती चादर के बीच मैं एक ही पेज पर पिछले कई घंटे से अटका रहा। नींद थी की अपने आगोश में मुझे बाँध रही थी और मैं था कि उसे कसकर पकड़े हुए था कि वह मेरी आत्मा पर सवार न होने पाए। बाकी लोग ऊँघ रहे थे और मैं रेल की पटरियों पर ट्रेन के पहुँचने को सुन रहा था। हर हलचल नार्थ ईस्ट का पता देती थी और हर पते पर कोई और ही ट्रेन मिलती थी। उधर रात गहरी हो रही थी और इधर पिता की स्मृति भारी हो रही थी। रात ढल रही थी पिता ढाल की तरह मेरे व् नींद के बीच खड़े थे...
कहने को घर बड़ा है लेकिन संकीर्णताएँ भी उतनी ही बड़ी है। पिता बिस्तर पर हैं। लोग मरने का इंतजार कर रहे हैं। अनुष्ठानिक सेवक भी कुछ आँसू बहा कर जा चुके है। जिन्हें उम्मीद थी कि बस कुछ ही दिन में ये चल बसेंगे वे एक दौर में समस्त पुन्य लाभ के भागी बनने की इच्छा से सेवा कर रहे थे और वे भी अब थक हार कर अपने अपने अड्डे को लौट चुके हैं। पिता ने मरने से इनकार कर दिया है और लोगो की रुचि उनके जीने में नहीं है। धीरे धीरे पिता के नाम पर थिहाई हुई संपन्नता में सड़न पैदा हो रही थी और लोग हैं कि पिता के शरीर में बदबू से बच रहे हैं। किसी को कुछ पता नहीं कि यह बदबू कहाँ से आ रही है और यह भी कि अगर बिलकुल करीब से आ रही है तो खतरनाक है! (...यूँ यह मन का भ्रम है। नींद से संघर्ष भी कह सकते हैं। भीतर की कोई सूखती हुई ग्रंथि भी यह हो सकती है। आशंका व् कुंठा का सहमेल भी। इसे फिलहाल यथार्थ न माना जाय। यह और बात है जिसे कई बार हम नहीं मानते सच के करीब होता वहीं है - लेखक!)
तो साहब भारतीय रेल ने मुझे बहुत कुछ सोचने का मौका दिया और इसी बीच घोषणा हुई की अपनी ट्रेन आ रही है। किंचित अविश्वास से मैंने घड़ी देखी तो रात के तीन बज रहे थे। साथ में यह उद्घोषणा भी हो रही थी कि अब यह ट्रेन तीन नंबर प्लेटफार्म की बजाय एक नंबर पर आ रही है। धत तेरे की। फिर उसी पुल से वापस जाना होगा। तभी मन के बहुत भीतर से आवाज आई - 'कोई बात नहीं। जिस तरफ से हम आते हैं, कई बार उसी तरफ से लौटना भी पड़ता है।'
और इस तरह मैं ट्रेन पर चढ़ गया। चढ़ क्या गया। लोट गया। जमीं पर नहीं साहब, अपनी बर्थ पर। और गनीमत थी यह अब तक यह सुरक्षित थी। आरक्षित का वैसे भी इसके आगे कोई मतलब नहीं है। मुझे तो सिक्किम तक जाना है और यह पूरी ट्रेन बिहार से होकर जाएगी!
बिहार का नाम आते ही मेरे मन में जो पहली छवि उभरती है वह मेरे विभागीय मित्र रामाज्ञा राय की होती है। जिन्हें 'शशिधर' नाम से जाना जाता है। वे मेरे स्वभाव के बेहद करीब स्वाभाविक मित्र थे जो अब अस्वाभाविक शत्रु हो गए हैं। लेकिन मन की किसी बहुत गहरी तलहटी में आज तक वह पुरानी यादें सुरक्षित हैं जिसे समय समय पर मेरा अवचेतन बकता रहता है, कई के विरोध के वावजूद!
स्वप्न कथा... एक बकबकाहट
यहाँ तक तो याद है कि ट्रेन में हूँ और अभी प्लेटफार्म पर ही हूँ। आगे कहाँ हूँ सब गड़बड़ हो गया है। सपना या हकीकत, कहना कठिन। सपना हकीकत जैसा लगा और हकीकत यह थी कि अचानक बेगुसराय स्टेशन पर मैं जब पहुँचा तो देखा दिनकर जी मेरे बगल में बैठे हैं। बगल में रामाज्ञा राय भी बैठे हैं और अप्रत्याशित रूप से आज चुप हैं। सहसा दिनकर जी ने रामाज्ञा का परिचय देते कहा कि इनसे मिलो - "ये बुनकर हैं और हमारे ही क्षेत्र के हैं। क्षेत्र ही नहीं हमारा ही गोत्र समझो!" मैंने कहा - "अरे साहब, इन्हें कौन नहीं जानता। लेकिन हैं ये काशी के"। "तुम लोगों की यहीं मुश्किल है कि हर जगह काशी के लोग ही दिखते हैं। काशी न हुई कोई बाइस्कोप हो गई है। आखिरकार अपना भी तो कोई देश होता है। अपने भी शहर के भी तो घाट होते है। केवल अस्सी ये घाट थोड़े ही होता है। आखिर केवल झाड़ू लगा देने से कोई घाट अमर थोड़े ही हो जाता है। सेमरिया भी तो घाटे ही है।" मैंने स्वीकार में सर हिलाया और सामने घाट के वर्तमान फेसबुकिए संकट की तरफ इशारा किया तो कहे - 'ओ सब हमें मालूम है। आखिरकार अभिव्यक्ति की आजादी भी तो कोई चीज होती है। तुम बनारसी केवल सूखे सूखे लिखते हो। यह देखो सिमरिया घाट यहाँ से करीबे दिख रहा है। यह वहीं का है और इसके भीतर का गीलापन यही से मिला है।" मैं फिर स्वीकार में सिर हिलाया तो उन्होंने कहा - "अब समझा। ये सही ही कह रहा था कि आजकल तुम सिर्फ मुस्कुराते हो। लेकिन देखो भाई। मुस्कुराओ। मिलजुल कर मुस्कुराओ। बदमासी व् व्यंग में मत मुस्कुराओ अन्यथा हलचल और बढ़ेगी। सिक्किम जा रहो। जाओ लेकिन खिलखिलाओ। मत मुस्कुराओ। और हाँ, वो तुम्हारे "मैत्री में महाभोज" का का हुआ? "
मैं फिर हाँ किया तो रामाज्ञा जी ने धीरे से मेरे हाथ में एक पुड़िया थमा दी और कहा कि पहाड़ी इलाके में भूख लगेगी तो इसे खा लीजिएगा। सात दिन तक भूख नहीं लगेगी और गर्मी भी बनी रहेगी। मैंने धीरे से पूछा की क्या है यह। तो उन्होंने जोर से कहा - 'वहीं एलोवेरा। बी.एच.यू. वाला अलोवेरा जिसे वर्धा की यात्रा में आपको दिया था लेकिन जिसे बीच में आपने फेंक दिया था। फिर ये दे रहा हूँ, आखिर बसंत का मौसम है। कितना ख्याल करता हूँ। और सच मानिए तो यहीं देने पैदल ही यहाँ तक चला आया हूँ। बी.एच.यू. में इसे देना चाहता था लेकिन आप 'फोसला प्रसाद' से घिरे थे और गुपचुप तरीके से निकल गए। आप नहीं जानते, या कि जानते ही होंगे, यह फोसला प्रसाद कितने खतरनाक हैं। आप का सब कुछ लूट लिया फिर भी आप नहीं चेते! पूरा का पूरा व्याघ्र की खाल पहने स्वर्ण कुश दान करते! ...लिख दिया है सब कुछ फेसबुक पर।' मैं बात को बदलने के लिए जब कहता हूँ कि अरे अभी तो मैं स्वर्ग की यात्रा पर जा रहा हूँ तो फिर जोर से चिल्ला कर कहते है - "मुझे मालूम है कि आप स्वर्ग यात्रा पर ही जा सकते हैं। तभी तो यह बताने आया हूँ की आपके संपादकीय लिखने के बाद भी इस फोसला प्रसाद ने आपके शिष्य रविशंकर की आत्मा को मुक्ति नहीं दी। क्या उखाड़ लिया आपने यह सब लिखकर। कहीं कुछ असर पड़ा इस प्रोफेसर पर। जब वह आपके स्वर्ग में आपसे पूछेगा तो क्या जवाब देंगे! वहाँ भी मेरी ही गलती निकालेंगे। मुझे ही बदनाम करेंगे! करिए। खूब करिए लेकिन हकीकत भी जानते रहिए। आप सब जगह दो मुखी व्याघ्र से घिरे हैं जनाब! यही अहसास कराने के लिए यहाँ तक चला आया कि रास्ते में बाबा मिल गए तो कहे की चलो जिसकी तुम इतनी चर्चा करते हो तनिक उससे मैं भी मिल लूँ और यात्रा की शुभकामनाएँ दे दूँ।'
मैं फिर मुस्कुराता हूँ। तब वे चिढ़ कर कहते हैं - "अरे यहाँ तो ठठाकर हँस लीजिए। यहाँ थोड़े "फोसला" के लोग देख रहे है" और शरारत करते हुए एक टोकरी बर्फ मेरे झोले में रख देते हैं, इस हिदायत के साथ कि इसको सिक्किम की असली बर्फ से मिलाकर देखिएगा। थोड़ी देर में मैं देखता हूँ कि मैं पूरी तरह से भीग गया हूँ और जैसे ही कपड़ा उतारने की कोशिश करता हूँ तो देखता हूँ कि मेरे बर्थ के ऊपर से पानी चू रहा है। मैं जोर से चिल्लाया तो पता चला कि मेरे ऊपर खर्राटा भरते एक साहब के बोतल का पानी नीचे चू रहा था...
यह सुबह के 6 बजे का समय था और ट्रेन अभी पटना ही नहीं पहुँची थीं। तो बेगुसराय कहाँ से आया। शायद सपना था या की हकीकत जो सपने के शक्ल में सामने खड़ी थी। ट्रेन धीरे धीरे हिलने लगी थी और जब उस पुड़िया को खोला तब पता चला यह मेरा ही टिकट था जिसे लिए लिए मैं सो गया था! होश आने पर मुझे हँसी आई और रामाज्ञा जी की याद पर बेहद आश्चर्य! सोचने लगा कि जिससे इतनी निकटता, उससे इतनी मानसिक दूरी! यह कैसा समय है कि बेहद करीब के आदमी से मिलने के लिए इतनी दूर से आना पड़ता है! आप इसे जाना भी समझ सकते हैं।
खैर, मैं थोड़ा सहज होने के बाद टी.टी. से पूछा कि सिलीगुड़ी कब तक! जवाब मिला - "शाम तक" और मुस्कराते कहा कि "आप अभी सो जाइए। ट्रेन 10 घंटे लेट है। और हाँ - परेशाँ मत होइए। अन्यथा ऐसे ही बड़बड़ाते रहेंगे। स्वर्ग स्वर्ग!" तो क्या सब कुछ मैं ही बड़बड़ा रहा था? नींद नहीं थी, यह नींद का आख्यान था!
तो बड़बड़ाहट के इन्हीं स्थितिओं के बीच शाम को सिलीगुड़ी पहुँचा और दो दिन रहने के बाद 22 फरवरी की सुबह गंगटोक के लिए रवाना हुआ। सिक्किम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अतिथि प्रवक्ता मेरे बी.एच.यू. के ही छात्र आदित्य विक्रम सिंह मुझे साथ, साथ नहीं विश्वास देने के लिए, सिलीगुड़ी पहले ही आ चुके थे और सिलीगुड़ी के बारे में कुछ कुछ बता चुके थे। इसकी "मुर्गी गर्दन" (अंगेजी में इसे चिकेन्स नेक कहते है) की व्यंजना को समझाते हुए उन्होंने यह संकेत भी किया कि इसका पड़ोस तो विकसित है लेकिन भूटान, नेपाल और बंगलादेश की सीमा से लगे होने के वावजूद इसके विकास पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता और इसकी गर्दन को हर कोई मरोड़ता ही रहता है। यह बाहर से जितना आकर्षक है भीतर से उतना ही विकर्षक क्योंकि यहाँ ज्यादेतर लोग कहीं जाने के लिए आते हैं।वे या तो यहाँ से जा रहे होते है या फिर यहाँ से लौट रहे होते हैं। इसीलिए इसका एक नाम "गेटवे तो द नार्थ इस्ट " भी है। यह चार टी - tea, transport, timber, tourist के लिए मशहूर होने के बाद भी केवल प्रस्तावक की भूमिका में रहता है। इसी के पूर्व उत्तर में थोड़ी ही दूर नक्सलबाड़ी है जहाँ 25 मई 1967 को "land to the tillers" नाम का एक बड़ा बाम आंदोलन हुआ था जहाँ "बंगई जोती" गाँव में पुलिस ने 11 बेगुनाहों को गोलिओं से भून दिया था जो अपने जमीं पर मालिकाना हक पाने का आंदोलन कर रहे थे। जाहिर बात है इसकी पर्याप्त चर्चा हिंदी साहित्य में हुई है और सत्तर के दशक की एक पूरी पीढ़ी ही इस आंदोलन की उपज रही है। आंदोलन न कहिए साहेब, चेतना कहिए!
गांतो पर गंगटोक ( Gangtok Sikkim)
उनके सोने के कई किस्से थे
समतल मैदान में
जगने के किस्सों में दरारें ही दरारें थीं!
सिक्किम की राजधानी गंगटोक जाने का मन 1998 में हुई शादी के बाद से ही था क्योंकि बनारस की जमीन से जुड़े रहने के बावजूद मेरी पत्नी सुनीता का पूरा बचपन इसी शहर में बीता जिसके कई किस्से वे समय समय पर सुनाती रहती थीं। यहाँ के स्कूली शिक्षा की कठिनाइयों व् ऊँची नीची पहाड़ियों पर कठिनाई से गुजरते बचपन को पर्याप्त भावुकता के साथ मैं इन वाक्यों के साथ सुना करता था कि "श्रीप्रकाश बाबू तुम समतल वाले क्या जानो पहाड़ी लोगों का पगतल दर्द"! और इसीलिए यहाँ आने के साथ ही मैंने चुपचाप उन सभी स्कूलों को देख लिया (पॉल जर, होलिक्रोस और सिक्किम कॉलेज। पॉल जार स्टेडियम भी इसी के पास दिखा जो यहाँ का एक मात्र स्टेडियम है) जिसमे paul jar स्कूल में खेलती छात्राओं को देखकर थोड़ा भावुक भी हुआ (लेकिन वह काव्य का विषय है।)
आदित्य तो सिल्लीगुड़ी से ही हमारे साथ रहे।
सिल्लीगुड़ी से गंगटोक की यात्रा में "कोरोनेशन ब्रिज" व् रंगपो नामक दो जगहों पर हम रुके। इसमें कोरोनेशन ब्रिज के बारे में पहले ही सुन रखा था की यह सिर्फ किनारे के दो पायों पर वर्तुल आकर में बनाया गया है जो गंगटोक को दार्जिल्लिंग से जोड़ता है। तीस्ता नदी पर बने इस पुल को सिवोकी पुल भी कहते हैं। यह रानी एलिजाबेथ और जोर्ज 6 के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में 1937 में यहाँ अंग्रेजों के द्वारा बनाया गया था जिसकी आधार शिला तत्कालीन बंगाल के गवर्नर जों एंडरसन ने रखी थी। इसे स्थानीय भाषा में "लौह पुल" भी कहते हैं। यहाँ से गुजरने वाले हर यात्री की नजर इस पुल पर पड़ती है। अपनी 309 किलोमीटर की लंबाई लिए तीस्ता हमारे साथ थी अपने विपरीत प्रवाह के वावजूद। यह 23000 फुट की ऊँचाई पर स्थित पहुनरी ग्लेशियर से निकलती है जो थांगू व् दोंकिया-ला रेंज से पानी पाती हुई रंगपो में सिक्किम से पश्चिम बंगाल को अलग करती है। इस यात्रा में तीस्ता नदी वैसे ही हमारा साथ दे रही थी जैसे मंडी से मनाली की यात्रा में व्यास नदी ने पिछली जून यात्रा में दिया था लेकिन तीस्ता में वह अदा कहाँ जो व्यास नदी में है।
तीस्ता न तो डरावनी है न ही आह्लादक। इसके पानी में भी वह प्रवाह नहीं जो व्यास में है। व्यास व्यास ही है। एक महान साधक के श्रम जनित पसीने से निकली नदी जिसमें जितनी गहरी खाइंयाँ हैं उतनी ही प्रवाहमयता! संभव है इसीलिए अवसाद व् संघर्ष के क्षणों में लोग महाभारत के व्यास को याद करते हैं जबकि नीति व् उल्लास के क्षणों बाल्मीकि को...
खैर शिवालिक की निचली ऊँचाई पर लगभग 5500 फुट की ऊँचाई पर बसा पूर्वी सिक्किम का शहर गंगटोक बुद्धिस्ट का पर्यटन स्थल रहा है जहाँ नाथु ला व् जलेप ला के रास्ते तिब्बती पर्यटक यहाँ आते थे। यहाँ राजशाही की एक लंबी परंपरा रही है जिसके शासक चोगियल हुआ करते थे और इन्ही में से एक शासक थूताब नामजीयल ने 1894 में तुम्लोंग से राजधानी हटाकर गंगटोक को सिक्किम की राजधानी बनाया। इसके बाद तो यह शहर अंग्रेजों की नजर में चढ़ा और वे न केवल इसके प्राकृतिक सौंदर्य से प्रभावित थे बल्कि इसकी सामरिक व् वाणिज्यिक महत्व के भी कायल होकर इस क्षेत्र के विकास पर ध्यान दिए। बीसवी सदी में यह तिब्बत के ल्हासा व् कोलकाता के बीच मुख्य वाणिज्यिक मार्ग बना। गंगटोक असल में भूटिया भाषा का "गांतो" है जिसका मतलब पहाड़ी से घिरा होता है और यह गांतो अपने साथ कई टोक tok को भी छिपाए हुए है जिसमे हनुमान टोक, गणेश टोक, और रूमटोक महत्वपूर्ण हैं। हनुमान टोक पर हनुमान की संजीवनी कथा इस इलाके में भी व्याप्त है और शिमला के मंकी पॉइंट (हनुमान गढ़ी) पर भी यही कथा है कि संजीवनी लेकर जाते समय हनुमान जी यहीं रुके थे। अब हनुमान जी कितने विशाल रहे होंगे कि उनके लेटने भर में पूरा शिवालिक छोटा पड़ गया होगा! यह फिलहाल सोचने का विषय है और यह भी कि इनके लेटने में पूरा नेपाल ही बिस्तर बन गया होगा! एकादश रुद्र हनुमान का यह अपना क्षेत्र भी है जहाँ शिव का निवास है।
हनुमान के इस वीरोचित स्वाभाव के बारे में इस जगह पर मुझसे आदित्य ने पूछा और इससे जुडी एक कथा मुझे याद आ गई जिसे अंतर्कथा के रूप में आपको बता रहा हूँ जिसे बी.एच.यू. के चलते फिरते सुकरात कहे जाने वाले श्रीनिवासन ने कभी सुनाया था।
एक अंतर्कथा
Pavans are the God of the blow.It regulates velocity in Nature.
पूर्व काल में ऋषि कश्यप की पत्नी दिति के गर्भ में इंद्र के द्वारा वज्र प्रहार से 49 टुकड़ों के फलस्वरूप जो उनचास मरुत गण पैदा हुए उन्हें ही उनचास पवन कहा गया। ये सभी पैदा होने के साथ ही दौड़ पड़े और बिना थके व् विश्राम किए अपने देव पद की महत्ता के अनुसार सृष्टि के कार्य में लग गए। इन्हें कालांतर में समीर व् वायु भी कहा गया। जो स्वतः हवा नहीं हैं बल्कि हवा के पार्श्व हैं। पौराणिक कथा के अनुसार जब सती के अग्निदाह के पश्चात् शिव उनका शव लेकर मृत्युलोक में भटकने लगे तब विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर शिव को काम प्रेरित किया और इस प्रक्रिया में शिव से जो वीर्य टपका, उसे नग नामक ऋषि ने अपनी परखनली में सुरक्षित कर लिया। एक बार जब केसरी की पत्नी अंजनी ने शिव की ताकत वाला बच्चा पाने की इच्छा व्यक्त की तब इसी नग ऋषि ने अंजनी के गर्भ में इस वीर्य को डाल दिया जिससे हनुमान का जन्म हुआ और वे केशरीनंदन कहलाए। चूँकि यह बालक अकूत ताकत से संपन्न था इसलिए पैदा होते ही यह सूर्य को निगलने दौड़ा और इंद्र के बज्र प्रहार से मूर्क्षित हुआ। इस पर पवन रूपी प्रभंजन बहुत कुपित हुआ और अपने सारी गतिविधि से उदासीन हो गया, यह एक पिता का शोक था जिसे क्रोध न समझा जाय। परिणामस्वरूप सभी देवताओं के पेट फूलने लगे। हवा गायब थी और तब दवा थी नहीं। सभी देवता मिलकर शिव के पास गए और हनुमान के स्वस्थ होते ही पवन वेग चलने लगा। यहीं प्रभंजन है जो हनुमान के रूप में समस्त कैलाश को आक्क्षादित किए है और यहीं वेलोसिटी है जिसके सहारे पवन पुत्र हनुमान ने संजीवनी लाकर लक्षमण की जान बचाई थी। यह संजीवनी असल में हवा का पुनरागमन है और यह पुनरागमन धरती पर गति व् शक्ति का परिचालक है। इसीलिए समस्त शिवालिक पर हनुमान की उपस्थिति महसूस की जाती है। यदि यह न हों तो इतनी ऊँचाई पर हवा का कम दबाव होने से हम लौट नहीं सकते और यह कथा यहाँ आकर हनुमान-टोक में मुझे इसीलिए याद आ रही थी। शिमला का मंकी पॉइंट रहस्य यूँ यहाँ समझ में आया...!
खैर, यहाँ नेपाली, भूटिया और लेपचास भाषाएँ बोली जाती हैं जहाँ भूटिया में ऊँचाई को tok कहा जाता है। लेपचास यहाँ की मूल भाषा है जो अब नेपाली के सामने छोटी पड़ गई है। इस शहर में अंग्रेजों ने नेपाली भाषा को जमकर प्रोत्साहित किया क्योंकि इससे तिब्बती व् भूटिया भाषी लोगों का प्रभाव कम हो सकता था और हुआ भी कुछ ऐसा ही। नेपाली प्रमुख भाषा बन गई और यहाँ की मूल भाषा लेप्चास पिछड़ती चली गई। यह शहर पहले तिब्बत के ल्हासा व् kolkata के बीच व्यापारिक मार्ग था जो आजादी के बाद स्वतंत्र राजतंत्र था जो 1975 में भारतीय गणराज्य का बाईसवाँ राज्य बना। यह पूरा शहर रानीखोला की धारा के दोनों और बसा है और हनुमान टोक से अपने वैली में बसे होने का विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है। यहाँ की यात्रा में मेरे साथ दिनेश साहू व् श्रीकांत द्विवेदी भी जुड़ गए थे और ये तीनों लोग वहीं पर लगभग आधे शहर में फैले केंद्रीय सिक्किम विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक हैं। दिनेश को नेपाली आती है और वे बीच बीच में अपनी इस प्रतिभा का प्रदर्शन भी कर रहे थे। स्थायी होने के कारण इनमें आत्मविश्वास थोड़ा ज्यादे था और इसी कारण इस ऊँचाई से अपेक्षाकृत लगाव भी अतिरिक्त था। हमने 'व्यू पॉइंट' और 'गणेश टोक' पर से फोटो भी खिंचवाई और 'हनुमान टोक' से कंचनजंघा का सुंदर नजारा देखकर अभिभूत भी थे, वहाँ विचरते एक सुंदर जोड़े से अपनी समूह फोटो भी खिंचाई और बदले में आदित्य ने उनकी कई तस्वीरें अनोखे अंदाज में खींची। इन जगहों पर फोटो खींचने में आदान प्रदान बहुत होता है और कैमरे की सामाजिकता सभी को प्रभावित भी करती है।
यहाँ से हम 'रूमटोक' गए जो यहाँ का प्रसिद्ध बौध मठ है। गंगटोक को रूम टोक से 'रानी खोला' नदी विभाजित करती है जहाँ से गंगटोक का सुंदर नजारा दिख रहा था। असल में यहाँ का सबसे पुराना मठ तो 'इंची मठ' है जो तिब्बती बौध परंपरा में 'निंगमा निर्णय' (order )के अंतर्गत आता है। सिक्किम में बौध मठ का इतिहास भी बड़ा रोचक है जिसका मुख्य सिरा तिब्बती बौद्ध चिंतन की परंपरा से जुड़ता है। असल में आठवीं सदी में तिब्बत के त्रिसोंग ने दूसरे बुद्ध कहे जाने वाले पद्मसंभव व् नालंदा के शांतिरक्षित को तिब्बत बुलाया था और बर्फ से आक्षादित इस जमीं पर बुद्ध की पुस्तकों के अनुवाद के माध्यम से बौध धर्म का प्रचार शुरू किया। बाद में इस तिब्बती स्कूल के चार स्कूल आगे विकसित हुए - निंगमा निर्णय, काग्यू निर्णय, साक्य निर्णय,और गेलुग निर्णय। इसमें 'निंगमा निर्णय' सबसे पुराना है जिसके आधार पर यहाँ सिक्किम के गंगटोक में इंची मठ का निर्माण हुआ। इसका मतलब ही पुराने से है जब आठवीं शताब्दी में तिब्बत में लिखित आधार पर इसका विकास हुआ। दूसरा निर्णय 'काग्यु निर्णय' है जिसे मौखिक निर्णय कहा जाता है। इसमें गुरु योग व् चमत्कार को बहुत महत्व दिया जाता है और यह वज्रयान का ही हिस्सा है। इसका विकास बारहवी सदी में माना जाता है। 'रूमटोक मठ' इसी निर्णय के आधार पर अठारहवीं सदी में बारहवें कर्मापा - चंग्यु दोरजी के द्वारा बनाया गया था लेकिन बाद में यह टूट गया। यह तो 1959 की बात है जब सोलहवें कर्मापा - रांगजुंग दोरजी चीनी हमले के बाद तिब्बत से भागकर गंगटोक आए और इस मठ का जीर्णोधार कराया। उन्ही के नेतृत्व में 1966 में रूमटोक को "धर्म चक्र केंद्र" के रूप में घोषित कर दिया गया और 1981 में जब कैंसर से पीड़ित इस सोलहवें कर्मापा का अमेरिका में निधन हो गया तब से इनके उत्तराधिकार को लेकर विवाद शुरू हो गया, विवाद चीन समर्थित ओजियान्न दोरजी और थाई दोरजी के बीच हुआ जिसका मुकदमा सुप्रीम कोर्ट तक गया। मामला पुनर्जन्म का है क्योंकि इनके पुनर्जन्म के प्रमाणस्वरूप ही सत्ता दी जाती है। फिलहाल यहाँ दलाई लामा समर्थित ओरजिया दोरजी के समर्थकों का कब्जा है और बाहर पुलिस का पहरा रहता है। गेट से ही पहचान पत्र देखने के बाद ही अंदर जाने दिया जाता है। यहाँ पर सोलहवें कर्मापा की राख रखी है जिसके दर्शन के लिए दूर दूर से पर्यटक आते हैं।
इस पृष्ठभूमि में मैं भी अपने गंगटोक के साथियों के साथ यहाँ पहुँचा तो भीतर की व्यवस्था देखकर अच्छा लगा। कई विदेशी पर्यटक भी मिले जिसमें एक जापान के तकाशाकी मिले जिन्होंने स्वयं पहल कर हमारी कुछ तस्वीर भी उतारी। उनके समूह के कुछ लोग बिछड़ गए थे जिससे वे परेशान भी थे और उनको बगल की एक दीवार के सहारे पेशाब करते देख मुझे भी बनारसी अंदाज में पेशाब करने का मन किया। मैं इस पूरी प्रक्रिया को काफी देर से रोके हुए था और सहयोगिओं से संकोच बस कह नहीं पा रहा था। आदित्य ने पहले ही बता दिया था कि यहाँ पर गलत जगह पर थूकने व् पेशाब करने पर फाइन लगती है। मुझे डर फाइन का नहीं, अपने कनिष्ठ सहयोगिओं के सामने लगी फाइन से था! खैर 'रूम टोक' के इस फुसफुसाहट भरे स्कूल से निकलकर मैं बाहर चला तो सिक्किम बहुत सुंदर दिखा। जाते समय तो चढ़ाई के कारण मेरी साँस फूल रही थी लेकिन आते समय सब कुछ सामान्य था। इन स्कूलों के साथ तिब्बत के दो और स्कूल - साक्या और गेलुग भी महत्वपूर्ण हैं जिसमें गेलुग तो नया है जिससे स्वयं दलाई लामा जुड़े हैं जो अपना मूल मंगोलिया को मानते हैं और इसीलिए जब अंग्रेज फौजों ने 1904 में ल्हासा पर कब्जा किया तो 13वें दलाई लामा मंगोलिया ही भागे थे। गेलुग सोलहवीं सदी का स्कूल है जिनमें पहले "ग्यात्सो" लिखा जाता था जो बाद में दलाई लिखा जाने लगा जिसका अर्थ 'समृद्धि' से होता है। 1956 में वर्तमान दलाई लामा -तेनजिंग ग्यात्सो नातू-ला के रास्ते सिक्किम आए थे और बोध गया में बुद्ध के 2500 वें जयंती पर शामिल हुए थे लेकिन तिब्बतियों की यह सारी सक्रियता अंग्रेजों के नेपाली समर्थन के कारण हाशिए पर ही रही।
इस समय तक हम काफी थक चुके थे और इतिहास के बौध निर्णयों में विचरण करते मैंने आदित्य से कहा था की भाई यहाँ लंबे समय तक नहीं रहा जा सकता। यही बात पिछले जून की शिमला यात्रा में मैंने कवि राजेश जोशी से कही थी जिस पर एक पहाड़ी मित्र नाराज भी हो गए थे लेकिन मुझे लगता है कि पहाड़ में एकरूपता तो है ही। प्रकृति व् मनुष्य के बीच साहचर्य नहीं है। दोनों अलग हैं और सामानांतर भी। कई बार तटस्थता की हद तक निर्लिप्त। लेकिन जीवन तो यहाँ भी है और कई बार समतल से ज्यादे जिंदादिली भी!
लो चला , नाथु-ला!
पहाड़ बहुत गरम हैं
बर्फ ने उन्हें नमी दी है
अपनी जमीं खोकर
सिक्किम की राजधानी गंगटोक से 50 किलोमीटर की दूरी और 14500 फुट की ऊँचाई पर स्थित नाथुला Natu-La (pass of the listening ears - भूटिया भाषा में कर्ण गुंजित दर्रा। यहाँ ला का अर्थ लेप्चास भाषा में पवित्र स्थल होता है) तिब्बत व् सिक्किम का बॉर्डर है जिस पर "ड्रैगन' रूपी चीनी सरकार की आए दिन चालाक निगरानी रहती है और वे कब घुस जाएँ कहा नहीं जा सकता। इसीलिए यह पूरा इलाका सेना के सजग नियंत्रण में रहता है और जब इसके पास में फहराते तिरंगे को हम देखते हैं तो हमारा सर सेना के सिपाहियों के सम्मान में झुक जाता है। ऐसा कहा जाता है कि पाँचवी शताब्दी में चीनी यात्री फाह्यान और छठी शताब्दी में बुद्धिष्ठ अध्येता हुएन सांग इसी रास्ते भारत आए थे और अगर यह सच है तो वे सचमुच फरिश्ते थे क्योंकि तब यहाँ कितनी बर्फ रही होगी यह सोचकर ही हमें ठंड लगने लगती है। हमें यह भी बताया गया कि सिक्किम के लुंगथु से तिब्बतियों को भगाने के लिए 1888 में ब्रिटिश सरकार के कर्नल ग्रैहम ने एक अभियान चलाया था और इसी नाथुला के रास्ते उन्हें वापस भेजा था। 1959 में जब चीन ने तिब्बत पर हल्ला बोला था तब तमाम तिब्बती, जिसमें सोलहवें करमापा भी थे, इसी रास्ते भारत में भागे थे और 1967 में इसी जगह पर भारत व् चीन के बीच के टकराव में दोनों तरफ के कई सैनिक मारे गए थे। 2006 में तब के प्रधानमंत्री वाजपेयी जी की पहल पर व्यापार के लिए इस सीमा को खोल दिया गया और अब जब देश के वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मोदी जी ने लगभग 19000 फुट की ऊँचाई पर स्थित 90 वर्ग किलोमीटर में फैले शिवधाम के रूप में समादृत धरती की छत कहे जाने वाले तिब्बत में स्थित कैलाश मानसरोवर की यात्रा की पहल इसी नाथुला के पुराने सिल्क मार्ग से की है तब यह इलाका फिर से चर्चा में है क्योंकि नाथुला से ही ल्हासा होते इसका रास्ता आगे जाता है। तिब्बती इस क्षेत्र को 'खोंग रिंपोछे' (बर्फ का मूल्यवान रत्न) कहते हैं और यह क्षेत्र अब चीन के नियंत्रण में है।
खैर इतनी सूचनाओं के साथ मैं अपने दो सहयोगियों - आदित्य विक्रम और श्रीकांत के साथ 23 फरवरी की सुबह ही नाथुला के लिए निकल पड़ा। बीच बीच में ग्राम देवता के नाम पर पहाड़ देवता के भी दर्शन हो रहे थे जिससे लगता है कि स्वर्ग के रास्तों में भी इन देवताओं से मुक्ति नहीं है! आगे के रास्ते में भयानक गहरी खाइंयाँ मिल रही थीं जिसे देखकर कलेजा मुँह को आ रहा था लेकिन हर पचास मीटर पर सेना के सिपाहियों को देखकर भय कम हो जाता था। इस रास्ते पर सड़क निर्माण का कार्य चल रहा था जिसमें यह देखकर एक अनूठा अनुभव हो रहा था कि ज्यादेतर मजदूर स्त्रियाँ थीं। इसे देखकर आदित्य ने कहा कि लगता है सर, निराला जी ने यहीं कहीं पत्थर तोड़ते युवती को देखकर 'तोड़ती पत्थर' कविता लिखी थी और स्थान की जगह इलाहाबाद लिख दिया। रास्ते भर स्कूल एकदम नहीं दिखा और जब ड्राइवर जय से पूछा तो उसने कहा कि स्कूल जहाँ हैं भी, वहाँ शिक्षक नहीं हैं। आदित्य ने मजाक किया - 'चलकर काशी से भेज देते हैं'।
इस पूरी यात्रा में जहाँ भी सेना की गाड़ी दिखाई देती, ड्राइवर सलाम साधक की तरह सलाम ठोंकता। मैंने धीरे से पूछा - 'आप इसके पहले क्या सेना में थे' जवाब आया - 'नहीं'। इस पर आदित्य ने कहा - 'असल में सर, सेना के बहाने ये यहाँ के पर्वत देवताओं को सलाम कर रहे हैं। यूँ भी ये पक्के सलाम साधक हैं जो सेना के क्षेत्र में सेना का मिजाज भाँपकर चलते हैं।'
आगे के रास्ते में मैं अपनी जानकारी से अपने इन दोनों सहयोगियों को समृद्ध भी कर रहा था और स्वयं उनसे समृद्ध हो रहा था। चलते चलते बारह माईल नामक जगह के बारे में ड्राइवर जय ने बताया की यह अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए रास्ते का विभाजन किया था अन्यथा यहाँ बगैर किसी माईल के चीनी व् तिब्बती यात्राएँ करते थे। चीनी शब्द सुनकर मुझे चीनी यात्री फाह्यान की याद् हो आई जो पाँचवी सदी का एक बीहड़ यात्री था और जो नालंदा तक भी गया था। आदित्य ने तपाक से कहा - "सर ये चीनी कितने साहसिक हुआ करते थे जो बताइये इस बीहड़ पर्वत क्षेत्र को पारकर भारत घूम रहे थे।" उसने यह भी जिज्ञासा की कि क्या सिक्किम क्षेत्र का भी कोई संबंध चीन से हो सकता है क्योंकि इनके अनुसार स्वयं सिक्किम में भी काफी चीनी शब्द प्रचलित हैं जैसे 'रंफू'। आदित्य की इस चीनी जिज्ञासा को सुनकर मुझे फाह्यान का वह यात्रा वृत्तांत याद आ गया जिसे बनारस की नागरी प्रचारणी सभा ने पं. जगन्न मोहन शर्मा के अनुवाद के साथ 1973 में प्रकाशित किया था।
इसके आधार पर हम कह सकते हैं की चीन में बौद्ध धर्मं का प्रचार तिब्बत से भी बहुत पहले हुआ था और यह सब सम्राट अशोक के कारण हुआ जिन्होंने बौद्ध धर्म के शिक्षकों को मध्य एशिया में धर्म के प्रचार के लिए भेजा था। यह भी एक तथ्य है कि ईशा के करीब सौ साल पहले चीनी सम्राट मिन्ग्तो ने भारतवर्ष से बौद्ध शिक्षकों को अपने यहाँ बुलाकर बौद्ध धर्म का प्रचार करवाया था। इसमें 'कश्यप मातंग' और 'धर्म रक्षक' नामक दो शिक्षक चीन गए थे और इनकी प्रेरणा से बौद्ध धर्म के अनेक ग्रंथों का चीन में अनुवाद हुआ था। आदित्य को मैं इसके पीछे की 'स्वप्न कथा' जब बताया तब वह अपने यहाँ के चमत्कारी बौद्धों की कथा से काफी अभिभूत थे...
'स्वप्न कथा '
...चीनी सम्राट मिन्गतो को एक दिन स्वप्न आया कि पूरे चीन पर एक कांचन वर्ण पुरुष की छाया मंडरा रही है और वह छाया अपनी आभा में समस्त नक्षत्रों को अपने भीतर समाहित किए है। वह जलती बुझती भी नहीं, अपनी चमक के साथ मौजूद रहती है और सम्राट को अपने यहाँ बुला रही है। सम्राट डर गया और अपने सभापति से जब इस स्वप्न कथा के बारे में पूछा तब उन्हें यह बताया गया कि ये वही बुद्ध नामक देवता हैं जिनके बारे में आपको पहले भी बताया गया और जिनको आप नहीं मानते। आदित्य ने कौतूहल से पूछा - "अरे सर। यह तो अपने यहाँ के पंडितों जैसी कथा लग रही है।" मैंने हँसते हुए कहा कि संभव है राज पुरोहितों में कोई बौद्ध पंडित रहा हो जिसने राजा को इस तरह से प्रभावित कारने की कोशिश की।
खैर, यह सब मैं बता रहा था तभी मृदु अल्प भाषी श्रीकांत ने धीरे से मेरे भटकाव को रोकते हुए फाह्यान कथा को बताने की याद दिलाई और यह भी कहा कि यह इसलिए बता रहा हूँ कि आप जब हम लोगों को कक्षा में पढ़ाते थे तो वहाँ भी कथा में कथा कहते ऐसे ही भटक जाते थे। मैं थोड़ा सजग हुआ और यह स्वीकार करते हुए कि कथा में कथा कहने की यह शैली मुझे बहुत अच्छी लगती है, फिलहाल तुम लोग फाह्यान की वह कथा सुनो जो उसकी उस भारत यात्रा से जुड़ती है जिसकी शुरुआत ही उसने अधूरे पिटक ग्रंथों की खोज के लिए की थी -
कथा यह है कि फाह्यान (बचपन का नाम कुंग) जब चीन के उयंग गाँव पैदा में हुआ तब उसके माता पिता ने डरकर सामनेर (बौद्ध ब्रह्मचारी जिसने परिव्रज्या ग्रहण न की हो) बनाकर जनमते ही भिक्षु संघ के एक बिहार में भेज दिया क्योंकि इसके पहले उनके तीन पुत्र जनमते ही मर गए थे। यह अपसगुन से मुक्ति का मार्ग था जिसने कुंग को फाह्यान बनाने में मदद की। एक दिन बौद्ध बिहार में वह अपने अन्य साथियों के साथ धान काट रहा था। कुछ चोर आए और बलपूर्वक धान ले जाने लगे। जहाँ अन्य साथियों ने विरोध किया वहीं कुंग ने उनसे पूरे धान को ले जाने को कह दिया। लेकिन साथ में यह भी कहा कि इस जन्म में जो तुम यह चोरी कर रहे हो इसी कारण अगले जनम में भी दरिद्र रहोगे क्योंकि दूसरे के श्रम पर कोई भी पुण्य फल नहीं मिलता। बस क्या था उन चोरों ने उसका पैर पकड़ लिया और वे भी बिहार में शामिल हो गए। इसके बाद प्रवज्या के उपरांत कुंग फाह्यान बना और उसके चमत्कार की यह कथा चारों ओर व्याप्त हो गई। उसके कई अनुयायी बन गए और वह तीनों पिटक ग्रंथों - विनय पिटक, सूत्र पिटक और अभिधम्म पिटक - का अभ्यास करने लगा। इसी बीच उसे पता चला कि यहाँ उपलब्ध सभी पिटक ग्रंथ अधूरे हैं। वह मुख्यतः 'विनय पिटक' को लेकर परेशान था क्योंकि इसमें भिक्षुओं के आचरण के बारे में बताया गया था और इसी की खोज में भारत जाने का निश्चय किया।
आदित्य ने लगभग अधैर्य से पूछा - "फिर क्या हुआ सर। वह भारत कैसे आया।" मैंने हँसते हुए कहा जैसे मैं सिक्किम आ गया हूँ और आपके साथ नाथुला जा रहा हूँ। मजाक मत कीजिए सर। आप इस कथा को बताइए क्योंकि यह हमारे लिए बेहद नई है। मैंने कहा कि देखो उसका पूरा वृत्तांत तो यहाँ बताना संभव नहीं है और जितना मैं जानता हूँ वह बहुत भरोसे का भी नही है लेकिन यह जान लो कि जिस जमीन पर हम लोग अभी गाड़ी से दौड़ रहे है उस पर वह पैदल चला था और सिक्किम का यह मार्ग तब से चीनी यात्रियों के लिए कौतूहल का विषय रहा है। व्यापार व्वापार तो बाद में हुआ। पहले अपने बुद्ध साहब सब जगह पहुँचे और इससे उनकी ताकत का पता चलता है। संक्षेप में इसे भी सुनो -
यह लगभग 400 ई. की बात है जब वह चंकांग प्रांत से भारत के लिए विनय पिटक की खोज में चला। इसमें निकलने के पहले वह चीन, ल्हासा, नाथुला और तुम्लुक के प्राचीनतम सिल्क मार्ग को जानता था जो दुनिया का पहला 'इनफार्मेशन सुपर हाई वे' कहलाता था। चंकांग से वह चंगाई आया जहाँ 'चुंबी घाटी' है। यह चीन की प्रसिद्ध दीवार के पास की कोई जगह थी जहाँ से वह वर्षाकाल बिताकर नाथुला के रास्ते (यह जलेप-ला भी हो सकता है) घुसकर पश्चिम की ओर मुड़ा और शेनशेन पहुचकर काश्मीर के रास्ते गांधार होते तक्षशिला पहुँचा जहाँ से श्रावस्ती, लुंबिनी व् वैशाली होते पाटलिपुत्र के रास्ते अंततः तुम्लुक पहुँचा जो उस समय का कलकत्ता का प्रसिद्ध बंदरगाह था जहाँ से लंका, जावा आदि देशों का व्यापार होता था। लंका के इसी रास्ते वह चीन लौटा था लेकिन चंकांग न पहुँचकर नानकीन तक ही पहुँच पाया जहाँ ८८ वर्ष की अवस्था में उसने दम तोड़ दिया।सब मिलकर कुल पंद्रह वर्ष की कठिन यात्रा कर वह चीन पहुँचा था और अपने साथ तमाम मुश्किलों के बीच बौध धर्म की कई पुस्तकें यहाँ से ले कर गया।" श्रीकांत ने धीरे से कहा -"सर बड़ा जीवट का व्यक्ति रहा होगा "।जीवट का नहीं जी, जिंदादिल भी रहा होगा क्योंकि ज्ञान की ऐसी भूख उसके बाद अपने राहुल बाबा (राहुल सांकृत्यायन )में ही दिखी।मैंने यह भी कहा की कुछ हद तक नागार्जुन बाबा में भी यह संकल्प था और ऐसा लगता है की यह सब लोग फाह्यान से परिचित थे।
मैं यह सब बता ही रहा था कि आदित्य ने उछलकर कहा - 'य देखिए छंगू झील'। मैंने कहा - 'कहाँ है'। उसने बताया कि सामने है जबकि मेरे सामने तो अभी भी फाह्यान ही मौजूद था या यह भी कह सकते हैं कि यदि ये मेरे सहचर साथ न होते तो संभव था कि मैं भी यहाँ से अति उत्साह बस सीधे चीन के लिए चल दिया होता और फिर जो होता, वह सभी को पता है। लोग यही कहते कि आखिरकार मैं कोई चिड़िया तो नहीं कि जब चाहूँ बॉर्डर पार कर जाऊँ! तो यही न कि अब कोई फाह्यान नहीं बन सकता। बॉर्डर इस जीवट को बार बार रोकते हैं और अंततः मनुष्यता को संकीर्ण व् विपथगामी बनाते हैं।
खैर इस यात्रा का पहला पड़ाव "छांगू झील" आ गया जो बर्फ से ढकी हुई थी। मैंने आदित्य से पूछा कि इस छांगू का क्या मतलब है। वहाँ के लोगों व् अपने नेपाली चालक जय से पूछने पर भी जब संतोषजनक जवाब नहीं मिला तब हम तीन बनारसी थोड़ा "घोखना" शुरू किए और मुझे लगा कि यह हो न हो 'छोटे 'के अर्थ में हो क्योंकि यह एक बहुत ही छोटी झील है और भोजपुरी में 'छांगू' छोटे कद के व्यक्ति को कहते हैं।
खैर हमने अपना काम निकाला और इसका नामकरण 'लहुरी झील' करते आगे के बारे में सोचने लगे क्योंकि नाथुला तक का पूरा पैसा लेने के बाद भी ड्राइवर जय आगे जाने को तैयार नहीं था जबकि इसके आगे ताम्जे मोरे, थिगू, शेराथान वार मेमोरियल जैसी जगहें थीं। वह बार बार कह रहा था कि आगे का पास नहीं है और हम जिद पर थे कि चूँकि हमने पैसा दिया है इसलिए हम तो नाथुला जाएँगे ही। हम बहुत परेशान थे क्योंकि गंगटोक में जिन के माध्यम से टैक्सी बुक करायी गई थी उनसे नेटवर्क न होने के कारण हमारा संबाद संभव नहीं था और चालक किसी भी रूप में आगे जाने को तैयार नहीं था। हमें भीतर भीतर बहुत गुस्सा आ रहा था लेकिन किससे कहते कि तभी लहुरी झील में भटकते कलकत्ता से आया एक जोड़ा मिल गया जो अभी अभी बाबा धाम से लौटा था। वह बता रहा था कि बाबा धाम जो कि नाथुला से बिल्कुल सटा हुआ है, तक जाने की कोई मनाही नहीं है और आपका ड्राइवर ही बदमाशी कर रहा है। उसने यह भी बताया कि यहाँ सेना का बहुत दबदबा है। इसलिए यदि हम लोग सेना को इस बारे में बताएँगे तो वह हमारी मदद कर देंगे। इतना सुनने के बाद आदित्य को जोश आ गया और वह पूरे जोश के साथ सेना के सिपाही को खोजने निकल पड़ा, लेकिन मुश्किल यही थी कि हमारे पास प्रमाण नहीं था कि टैक्सी हम कहाँ तक बुक कराए हैं। आदित्य इस परेशानी से परेशान था और मृदु भाषी श्रीकांत बार बार समाधान के लिए मेरे तरफ देख रहे थे कि मैं किसी प्रकार इसे खोजूँ। शायद वह बुकिंग की परची आपके पाकेट में हो। मैं भी बार बार खोज रहा था लेकिन सब कुछ खोजने के बाद मिल नहीं रही थी कि तभी मुझे 'लघु शासन' की इच्छा हुई और जैसे ही अपना बेल्ट खोला शर्ट के नीचे से वह टपक पड़ी। (यहाँ यह समझाना जरूरी है की ठंढक से बचने के लिए मैंने ढेर सारे कपड़े पहन रखे थे और गलती से वह पर्ची कोट के पाकेट में जाने की जगह गंजी व् इनर के बीच फँस गई थी।)
बस क्या था आदित्य के चेहरे पर हँसी आई और तेजी से सेना के एक सिपाही की ओर हाथ में परची लहराते बढ़े। संशय गहराता जा रहा था और हमारे उल्लास पर जमी बर्फ पिघलने का नाम नहीं ले रही थी। इसी बीच मैं वहाँ उपस्थित ड्राइवर्स से जोर जोर से बताना शुरू किया कि यहाँ के ड्राइवर बहुत बईमान हैं। पैसा पूरा लेते हैं और यात्री को परेशान करते हैं। मैं गुस्से में बड़बड़ा रहा था कि तभी एक ड्राइवर मुझसे उलझ गया। भाई साहब, सबको गाली मत दीजिए। हम बईमान नहीं हैं। एक के कारण यह सब हो रहा है। और तेजी से उस ड्राइवर की ओर लपका। इसी समय इसी बदमाशी के दायरे में एक जोड़ा पंजाब का था जिसका ड्राइवर भी आगे जाने को तैयार नहीं था और उस जोड़े की पत्नी बार बार बड़बड़ा रही थी। खैर आदित्य की सूझ-बूझ से सिपाही के कहने पर ड्राइवर आगे जाने को तैयार हुआ और हम आगे बढे, लेकिन मुश्किल इस बार यह थी कि ड्राइवर बहुर गंभीर हो गया था और वह पूरे जोश से गाड़ी चला रहा था। हम बहुत डरे हुए थे और ड्राइवर को बार बार नार्मल करने की कोशिश में कुछ बहकी बहकी बातें कर रहे थे।
बहक की इसी कोशिश में सामने एक 'याक' दिखाई दिया जो लबे सड़क धीमे धीमे चल रहा था। याक शब्द तिब्बती मूल का है और ये मनुष्य से दोस्ताना रिश्ता रखते हैं। इस इलाके में याक पालतू होते है और इनके दूध की बड़ी कीमत होती है। इनके अवशिष्ट ईंधन के काम आते हैं लेकिन अभी जो याक दिखा था, इसके साथ कोई नहीं था और यह संभव है इसका पालक भी कहीं आस पास रहा हो। खैर आदित्य ने कहा - 'सर यह गाय है क्या।' अरे नहीं जी, यह याक है जिसे अभी शिमला की पिछली यात्रा में देखा था। 'लेकिन सर यह तो गाय जैसे दिख रहा है'। मैंने मजाक में कहा - 'हाँ याक के बाल झड़ने से ही गाय की उत्पत्ति हुई है'। सब लोग हँस दिए और इस ज्ञान प्रवाह की मौलिकता पर आदित्य ने कहा कि सर यह मौलिक खोज है और इसे आप हिंदी समाज के बीच इस शर्त के साथ ले जाएँ कि इसका खंडन करने के लिए वही अधिकृत है जो नाथुला की यात्रा करे और अपने ड्राइवर से थोड़ा झगड़ा भी। हम और आगे बढ़े की एक घोड़ा दिखा। आदित्य ने कहा कि सर यह भी याक जैसा है तो मैंने कहा कि हाँ - 'याक का कम बाल झड़ता है तो वह घोड़ा होता है और जब पूरा झड़ जाता है तब गाय'। हम अपनी इस मौलिक खोज पर मगन थे, हँस भी रहे थे लेकिन कमाल की बात थी कि ड्राइवर बेहद गंभीर था। इस प्रकार बेहद तनाव पूर्ण स्थितिओं में बर्फीले रास्तों पर तेजी से हम आगे बढ़ रहे थे कि एक नई झील दिखाई दी।
नाथुला के लिए आगे बढ़े तो श्रीकांत ने एक थोड़ी बड़ी झील को दिखाया जहाँ कोई न तो रुक रहा था और न ही फोटो खिंचवा रहा था। उसने इसका नाम "जेठरी झील" रख दिया। थोड़ा और शेरथान के आगे बढ़े तो एक और बरफीली बड़ी झील मिली तो आदित्य ने इसका नाम "जेठरी झील" रख कर पिछली को "मँझली" नाम दिया। इतना ही नहीं इस मौलिक खोज में "लघुशंका" को हमने एक नया नाम "लघु शासन" भी दिया और यह नाम हमें हमारे नेपाली चालक की तरफ से मिला और इस तरह एक मौलिक खोज के साथ हम एक सघन बर्फीले इलाके बाबा हरभजन मंदिर में प्रवेश किए। हम जितना ही नाथुला के करीब होते गए उतनी ही बर्फ बढ़ती गई। इस बर्फीले क्षेत्र में हम सौंदर्य खोज रहे थे गो कि यहाँ लंबे समय तक आत्मा रूपी केवल देवता रह सकते हैं।
तो क्या जन्नत में बर्फ ही बर्फ होती है और दोजख में धूल ही धूल। लेकिन ऐसी जन्नत में तो केवल आत्माधारी देवता रह सकते हैं। जिनके पास चेतना है उनके लिए धूल में ही सौंदर्य है, इस समझ के साथ हम काँपते हुए थोड़ा और ऊपर गए तो बाबा मंदिर के क्रांतिकारी वीर हरभजन की समाधि के दर्शन हुए जिनके बारे में वहाँ "काशी के वीरों" वाली धारणा है कि ये अपनी सीमा की सुरक्षा में इलाके में दिन रात घूमते रहते हैं जिन्हें सेना के पोशाक में बंदूक ताने कई बार चीनी सिपाहियों ने भी देखा है और डर कर भाग गए हैं। हमने देखा कि यहाँ जो भी सेना का कर्मचारी आता था सबसे पहले बाबा की समाधि पर श्रद्धा में सर झुकाता था और कई यात्री एक बोतल पानी चढ़ा रहे थे। मान्यता यह है कि इस पानी के पीने से कई असाध्य रोगों से मुक्ति मिल जाती है... इस बाबा हरभजन सिंह का जन्म 30 अगस्त 1946 को पाकिस्तान के सद्रना में हुआ था जो पूर्वी सिक्किम के 23 पंजाब बटालियन के सिपाही थे और 4 अक्टूबर 1968 को उनकी तब नाले में फिसलने से मौत हो गई थी जब वे घोड़ों के एक काफिले को 'तुकु-ला' से 'दोंग्चुयी-ला' ले जा रहे थे। नाले में गिरने के बाद लगभग वे २ किलोमीटर बह गए और एक दिन जब उन्होंने सपना दिया तब खोजने पर इनका शव उसी जगह पाया गया जहाँ का सपना आया था। बस तभी से इनका इस क्षेत्र में बहुत मान है।
इसके साथ ही लहराते तिरंगे में अपने फहराते स्वाभिमान को देखकर हम भावुक हो गए। वहाँ एक जगह लिखा था - 'ड्यूटी बियॉन्ड डेथ'। यहाँ मुगलसराय का एक सिपाही भी मिला और बड़े संकोच के साथ हमसे बात कर रहा था। थोड़ा डरा डरा क्योंकि यहाँ किसी भी सिविलियंस से बात करने की मनाही है। बगल के 'कुपुप्: में दुनिया का सबसे ऊँचा गोल्फ का मैदान भी दिखा और यह भी पता चला की तुक्ला वैली भी इसी के पास है जहाँ ब्रिटिश सिपाहियों के नाम एक स्मारक भी बनाया गया है। जेलेप-ला दर्रा भी इसी के पास है। और जब असल नाथुला पहुँचने का समय आया तो पता चला की भारी बर्फबारी से अब हमें जल्दी ही नीचे उतरना होगा। इस समय तक हम 14000 फुट की ऊँचाई पर थे और लौटते समय केवल यही सोच रहे थे कि क्या हमारे सिपाहियों के लिए भी यह वैसा ही सौंदर्य है जैसा हमारे लिए होता है। उत्तर नहीं ही होगा और यदि हाँ है तो यही की इनका सौंदर्य श्रम का सौंदर्य है जो अपने पसीने की गर्मी से हमारे भीतर की जमी बर्फ को पिघलाते रहते हैं। फिलहाल इन सभी के लिए हमारा सलाम!
...अंतर्कथा
यहाँ से कैलाश मानसरोवर का रास्ता शुरू करने के लिए ल्हासा के रास्ते भारत सरकार ने अच्छी पहल की है। अभी आदित्य से कह रहा था कि जब यह रास्ता खुले लेखकों के एक समूह के साथ इस यात्रा पर जाने की पहल करना और शर्त यह होगी की हर लेखक लौटने के बाद अपना अनुभव दर्ज करे जिसे लौटने प्रकाशित किया जाय। हाँ इस यात्रा के ठीक पहले लेखकों का शुगर व् रक्तचाप का परीक्षण करना मत भूलना...।
इस सलाम के साथ शाम तक हम गंगटोक लौट आए। ड्राइवर अभी भी गंभीर था और इधर मुझे भूख जोरों की लगी थी। मैंने अपने दोनों सहयोगियों से तत्काल कुछ खिलाने का अनुरोध करने लगा। मैंने यह भी चेतावनी दी की अगर भूख के कारन मेरे स्मृति मेरे पेट में आ गई तो पेट पहाड़ होकर दहाड़ने लगेगा और तुम लोगों को यहाँ मुझे सँभालना मुश्किल हो जाएगा। खैर इन लोगों ने क्षुधा तृप्ति का प्रयास किया और मैं अतिथि गृह में जाकर बिस्तर पर लोट गया, थकान बहुत थी लेकिन इस यात्रा को याद कर रोमांचित भी हो रहा था। रात नौ बजे अतिथि गृह का सेवक दरवाजा पिटते हुए खाना खाने की चेतावनी दे कर चला गया क्योंकि नौ बजे के बाद यहाँ भोजन नहीं मिलता। मैं तेजी से उठा और डायनिंग हॉल में पहुँचकर खाना निकालने लगा। इस समय यहाँ कोई नहीं था, संभव है सभी लोग खा कर जा चुके हों। मुझे जो भी दिखाई दिया लेकर खाने लगा की तभी एक आदमी आकर धीरे से कहा - आप तो वेज हैं न। मैंने स्वीकार में सर हिलाया तो उसने कहा कि आप तो मुर्गा खा रहे हैं। धत तेरे की तो यह पकौड़ी नहीं है! उसने कहा - नहीं, यह मुर्गा है। बस क्या था सिलीगुड़ी में मुर्गे की छूटी गर्दन अंततः यहाँ मिल ही गई। मैं सीधे अपने कमरे में गया और मुर्गे की इस गर्दन के बारे में सोचता हुआ जाने कब सो गया। अचानक कानों में मुर्गे के बोलने की आवाज सुनाई पड़ी। मैं सोचा की शायद यह मेरा ही भ्रम है। घड़ी देखा तो सुबह के चार बज रहे थे। तो क्या यह असल में मुर्गे की आवाज है जो सुबह सुबह बोलता है और पौ फटने का संकेत करता है। लेकिन फिर वहीं बात। पहाड़ पर इतने कम तापमान में क्या कोई मुर्गा बोल सकता है। थोड़ा सामान्य होकर जब खिड़की से झाँका तो पूरा सिक्किम सो रहा था और एक मुर्गा बे-धड़क बोले जा रहा था। उस रात जो कुछ भी मैंने उस मुर्गे से सुना, वही कथा यहाँ दर्ज कर सका हूँ। जिन्हें इसमें तथ्य चाहिए, वे जाकर उस मुर्गे से पूछ लेंगे। मैंने तो उसकी गूँज ही सुनी है जो न जाने कब से भारत के पूर्वी मानचित्र के भीतर से निकलकर मेरे भीतर बोल रहा था !
घर निकलने के लिए होता है
घर लौटने के लिए नहीं
निकलने के लिए होता है
घर से निकलना
घर में लौटना है
तो 2015 की 19 से 24 फरवरी की इस यात्रा को एक मुर्गे के माध्यम से सुनने के पश्चात काशी की ओर प्रस्थान किया। इस यात्रा में सजीव सपनों की तरह सिलीगुड़ी में जिन लोगों से मुलाकात हुई उसमें लेखक/प्राध्यापक मनीषा झा, सुनील कुमार द्विवेदी व् शोध छात्र संतोष कुमार गुप्त तथा रविशंकर शुक्ल से हुई बातचीत अच्छी रही। आदित्य तो लगातार मेरे साथ थे और दिनेश व् श्रीकांत गंगटोक में छूट गए थे। इन सभी के याद के बीच इस समय तक घर की याद सताने लगी थी। पीछे यात्रा की तमाम स्मृतियाँ थीं तो आगे घर वापस पहुँचने की जल्दी। गाड़ी में बैठने के बाद जब तीस्ता के समानांतर उसकी धारा के साथ मैं सिलीगुड़ी स्टेशन के लिए निकला तब पहाड़ी जीवन की मुश्किलों व् उनके प्रस्तर संघर्ष से उनके प्रति मेरा मन सम्मान से भर गया। इस क्रम में सबसे ज्यादे पत्नी के प्रति कृतज्ञता से मन पुलकित हो रहा था क्योंकि उनके इस क्षेत्र में गुजरे बचपन की जो कहानियाँ उन्हीं के मुख से मैं सुना करता था, वह आज अपने सामने देख कर लौट रहा था। यहाँ के उबड़ खाबड़ मार्ग, चढ़ने उतरने दोनों में संघर्ष, एक रैखिक जीवन, नई चुनौतियों का नितांत अभाव, समतल व् पहाड़ का भेद, नौकरियों की मारामारी, लोकल व् बाहरी का संघर्ष जैसे सामान्य भाव मेरे मानस को विचलित कर रहे थे। मैंने जिन स्कूलों को देखा उनमें दौड़ने भर का समतल मैदान भी बड़ी मुश्किल से मिला था। सायकिल। रिक्शा। टैंपो, बाईक जैसे समतल शहरों के सामान्य साधन यहाँ अनुपस्थित थे। खुद जिस सिक्किम विश्वविद्यालय का अतिथि था, वह तादोंग से गंगटोक के डेवलपमेंट क्षेत्र तक पूरे १० किलोमीटर में फैला था और इस तरह से आधे गांतोक को उलझाए हुए था। इस उधेड़बुन में ट्रेन पर शाम को सवार होते ही सबसे पहले और सबसे ज्यादे पत्नी सुनीता के प्रति भी आभार व्यक्त करने के लिए फेसबुक पर एक पोस्ट लिखा - "पत्नी सुनीता के प्रति भी आभार कि उन्होंने मुझे इस आश्वस्ति के साथ इस यात्रा में निकलने का अवसर दिया कि मेरी अनुपस्थिति में वे अवकाश, अवैतनिक ही सही, लेकर पिता की सेवा करती रहेंगी क्योंकि पिछले जून से ही वृद्ध व् अशक्त पिता के साथ होने के कारण मैं बाहर जाने के ज्यादेतर प्रस्ताव को मना कर देता था जिस कारण कई लोग नाराज भी हुए।"
यह पोस्ट मैंने सिलीगुड़ी स्टेशन से लिखी तो इस पर मेरी बेटी दर्शिता का एक जोरदार त्वरित कम्मेंट आया - "we also proceeded on leave without study"। यह कमेंट पढ़ने के बाद मैं स्वाभाविक रूप से भावुक हो गया क्योंकि ऐसा कई बार हुआ है कि घर पर मेरे न होने की स्थिति में बेटी ने अपना स्कूल छोड़कर घर पर पिता की देखभाल की है और यह इस बार भी हुआ था। आजकल के बच्चे इस तरह भी अपना हक माँगते हैं और यह हमारी सभ्यता का सबसे उज्जवल बिंदु है
कुल मिलाकर इस यात्रा स्मृति के साथ इतना और कि जीवन का यह भी एक पक्ष है कि दूसरा आपको हमेशा अपने पक्ष के लिए उत्साहित करता रहता है। और यह भी कि आपको जीवन जिस हाल में मिले उसे स्वीकार करें और उसके भीतर जो सर्वोत्तम कर सकें, करें। जिंदगी में हालात पूछकर नहीं आते तो उन्हें बताकर मत जाने दीजिए। कई बार हमारे पाँव बर्फ में धँस जाते हैं लेकिन यकीन कीजिए जमीन उसके नीचे भी है।