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कविता

मानसून का पहला पानी

वीरेन डंगवाल


मानसून का पहला पानी पड़ता है
लंबे व्याकुल इंतजार के बाद
सुबह से,
अति ऊभ-चूभ मन
याद वही सब करता है
जो याद नहीं अब, फिर भी रह-रह बजता है
ज्यों काँसे की गागर पर बजती हों बूँदें ।

वह गागर, यों तो फूट चुकी है अब कब की,
पर रक्खी है फिर भी सहेजकर पेटी में ।

 


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