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कविता

मानवीकरण

वीरेन डंगवाल


चीं चीं चूँ चूँ चींख चिरौटे ने की माँ की आफत
'तीन दिनों से खिला रही है तू फूलों की लुगदी
उससे पहले लाई जो भँवरा कितना कड़वा था
आज मुझे लाकर देना तू पाँच चींटियाँ लाल
वरना मैं खुद निकल पड़ूँगा तब तू बैठी रोना
जैसी तब रोई थी जब भैया को उठा ले गई थी चील
याद है बाद में उसकी खुशी भरी टिटकारी ?'

माँ बोली, 'जिद मत कर बेटा, यहाँ धरी हैं चींटी लाल ?
जाना पड़ता उन्‍हें ढूँढ़ने खलिहानों के पास
या बूरे की आढ़त पर
इस गर्मी के मौसम में
मेरा बायाँ पंख दुख रहा काफी चार दिनों से
ज्‍यादा उड़ मैं न पाऊँगी
पंखुड़ियाँ तो मिल जाती हैं चड्ढा के बंगले में
बड़ा फूल-प्रेमी है, वैसे है पक्‍का बदमाश
तभी रात भर उसके घर हल्‍ला-गुल्‍ला रहता है
उसके लड़के ने गुलेल से उस दिन मुझको मारा
अब तो वो ले आया है छर्रे वाली बंदूक

बच्‍चे मानुष के होते क्‍यों जाने इतने क्रूर
उन्‍हें देख कर ही मेरी तो हवा संट होती है
इनसे तो अच्‍छे होते हैं बेटा बंदर-भालू
जरा बहुत झपटा-झपटा ही तो करते हैं'

 


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