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कविता

उलटबाँसी

वीरेन डंगवाल


जैसे ही बटन दबाता हूँ
गंगा के पानी का बना रोशनी का एक जाल
छपाक् से मुझे ले लेता है
अपने पारदर्शी रस्‍सड़ गीले लपेटे में

क्‍या पता कि रात है
कि आसमान काला है
कि मूँगफली के बीज में जो कि
दरअसल जड़ भी है और फल भी
तेल कब पड़ना शुरू होता है
जिसमें छानी जाती हैं उम्‍दा सिकीं पूड़ियाँ

क्‍या पता कि वे सिर्फ गेंदे हैं रबड़ की
जो इस कदर नींदें हराम किए रहती है
उन लड़कों की
और वह भी फितुर फकत
सपनों में ठूँसूँ वे सारे छक्‍के चउए
और आखिर यह इलहाम भी कब जाकर हुआ

दिल के टसकते हुए फोड़े पर
कच्‍ची हल्‍दी
या पकी पुलटिस बंधवाने के बजाय
नश्‍तर लगवा लो
जिनकी
कोई कमी नहीं

 


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