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विमर्श

1857, राष्ट्रवाद और नवजागरण : मिथक और यथार्थ का द्वंद्व

अजय वर्मा


'यदि आज हमें भारत छोड़कर भागना पड़े तो हमारे शासनकाल के शर्मनाक वर्षों की कहानी कहने के लिए जो चीजें बच रहेंगी उनसे यही पता चलेगा कि यहाँ का शासन किसी भी अर्थ में ओरांग-उटांग या चीते के शासन से बेहतर नहीं था।' - एडमंड बर्क

इतिहास लेखन पर औपनिवेशिक विचारधारा का प्रभाव इतना सशक्त रहा है कि भारतीय इतिहास लेखक भी इससे बच नहीं पाए। इस विचारधारा के विरुद्ध राष्ट्रवाद के अध्ययन से संबंधित एक नई छोटी-सी विचारधारा अवश्य निकली किंतु उसमें राष्ट्रवादी नेतृत्व के यशोगान की प्रधानता रही या फिर उनका क्षेत्र राष्ट्रवादी आंदोलन के प्रमुख राजनीतिक विचारों और गतिविधियों तक ही सीमित रहा। (बिपन चंद्रा : 'भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद', भूमिका)। आज इन दो धाराओं के अतिरिक्त एक उत्तर-आधुनिक प्रवृत्ति भी इतिहास लेखन में दिखलाई पड़ती है जो अस्मिताओं को राष्ट्र के आख्यान से अलग करके विवेचित करती है और इस प्रकार राष्ट्र उसके लिए सत्ता का विमर्श बन जाता है। इतिहास लेखन की यह सबाल्टर्न पद्धति अस्मिताओं की मुक्ति के विमर्श का दावा करती है और वर्गीय नजरिए को खारिज करती है। इस प्रकार यह उत्तर-औपनिवेशिक मूल्यों का पोषण करती है। बाजार ने जिस गति से अपना भूमंडलीय स्वरूप बनाया है, उसी गति से नस्लों, प्रजातियों, लैंगिक विभेदों, जातियों और वर्णों के स्वायत्त अध्ययन की होड़ लग गई है। सोवियत संघ के विघटन के बाद साम्राज्यवाद के विजय अभियान में वर्ग को अपदस्थ करके उपर्युक्त अस्मिताओं को केंद्र बनाकर मुक्ति का विमर्श चलाया जा रहा है। आज के इतिहास लेखन में यह प्रवृत्ति साफ-साफ देखी जा सकती है और कहने की जरूरत नहीं कि पुरानी औपनिवेशिक इतिहास दृष्टि की यह उत्तर-आधुनिक परिणति अराजक है।

1857 के गदर को लेकर जो इतिहास लेखन हमारे औपनिवेशिक वैचारिक साए में हुआ उसका सार यह है कि अंग्रेज जड़ एशियाई ग्राम व्यवस्था को तोड़कर पूँजीवादी क्रांति करना चाहते थे इसीलिए सामंती तत्वों ने विद्रोह किया और इस प्रकार गदर पुराने सामंतवाद के पुनरुत्थान के लिए हुआ था। यानी अंग्रेज अज्ञान और रूढ़ियों के गर्त में पड़े भारतीय समाज में जागरण लाना चाह रहे थे और इस प्रकार 'सभ्यतागत ऐतिहासिक दायित्व' का निर्वाह कर रहे थे। यह निष्कर्ष 'ऑक्सफोर्ड हिस्ट्री ऑफ इंडिया' (1931) का है और यही मत बंगला नवजागरण को भारतीय ज्ञानोदय के रूप में स्थापित करनेवाले इतिहासकारों का है। इस प्रकार गदर संबंधी इतिहास लेखन का एक औपनिवेशिक ढाँचा बन गया जिसको डॉ. रामविलास शर्मा ने तोड़ा और 1857 से भारतीय राष्ट्रवाद और नवजागरण का संबंध स्थापित किया।

डॉ. शर्मा ऐसे मार्क्सवादी विचारक के रूप में प्रसिद्ध हैं जो भारतीय परिवेश और सांस्कृतिक विशिष्टता की उपेक्षा नहीं करता किंतु परिवेश और सांस्कृतिक विशिष्टता के प्रति उनका मोह इतना सघन है कि इनके इतिहास लेखन की पद्धति अत्यधिक ठोस हो गई है और यही कारण है कि गदर, नवजागरण और राष्ट्रवाद के संबंध पर विचार करते हुए इन्होंने इसे ''हिंदी अस्मिता' से जोड़ा। पर यह हिंदू अस्मिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मिथक को स्थापित करने के काम आई और निश्चय ही रामविलास जी ऐसा नहीं चाहते थे किंतु 'विभेद' का हर विमर्श अंततः किसी-न-किसी अस्मिता के वर्चस्व में ही केंद्रीकृत होता है इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है। यही विभेद का विमर्श अत्यंत एकांगी, डिस्टॉर्शन की सीमा को छूने तक सरलीकृत रूप में इतिहास लेखन की सबाल्टर्न पद्धति से प्रभावित अस्मितावादी लेखकों में दिखलाई पड़ता है। इनके द्वारा गदर के बारे में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि अंग्रेज निम्न जातियों के लोगों को सवर्ण सामंती वर्चस्व से मुक्ति दिलाने आए थे और इसी की प्रतिक्रिया में इन असभ्य, बर्बर सवर्ण लोगों ने विद्रोह कर दिया और निरपराध अंग्रेजों को निर्दयतापूर्वक मारा। यह निष्कर्ष सुरेंद्रनाथ सेन, आर.सी. मजूमदार जैसे इतिहासकारों के औपनिवेशिक विचारधारा से ग्रस्त इतिहास लेखन का अस्मितावादी विस्तार है जो मानता है कि अंग्रेज यहाँ प्रगतिशील भूमिका निभाने आए थे और अगर गदर सफल हो जाता तो फिर से पुरानी ब्राह्मणवादी-सामंतवादी व्यवस्था लागू हो जाती। (यह ध्यातव्य है कि विधिक रूप में ब्राह्मणवादी व्यवस्था नाम से कोई व्यवस्था भारत में लागू नहीं हो सकी कभी)। यह अस्मितावादी लेखन आज के वैश्विक बाजार के वैचारिक परिप्रेक्ष्यों की देन है जो उत्तर-आधुनिक मसीहाई नारे के साथ महावृत्तांतों को नष्ट करने और अलग-अलग नस्लों, प्रजातियों और जातियों पर आधारित अस्मिता लेखन को मुक्ति का अभियान कहता है।

1857 के विद्रोह को दलित विरोधी मानकर उसके जन विद्रोही स्वरूप को खारिज करना उपर्युक्त अभियान का ही नमूना है। बहादुरशाह ज़फ़र के घोषणा पत्र के खंडित अंश को प्रस्तुत करके यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि अंग्रेज सवर्ण वर्चस्व पर आधारित जाति व्यवस्था को तोड़ रहे थे, इसलिए विद्रोह हुआ। ('तद्भव', जन. 7 में प्रकाशित वीरेंद्र यादव का लेख '1857 का मिथक और विरासत', पृ. 125) बादशाह के घोषणापत्र का यह अंश कुलीन हिंदुओं-मुसलमानों को संबोधित है। यह कई खंडों में बँटा हुआ है और इसका एक खंड दस्तकारों, कारीगरों (चमड़े का काम करनेवाले भी इसमें शामिल हैं, जातिसूचक शब्द का प्रयोग नहीं है) को संबोधित है जिसमें यह वादा किया गया है कि दरबार में काम दिया जाएगा। ध्यातव्य है कि ये वे लोग हैं जिनके रोजगार अंग्रेजों ने छीन लिए। यह कहा जाना कि इन्हें दरबार में रोजगार देने का वादा करना इन्हें फिर से उसी सामंती व्यवस्था में लाना है (द्रष्टव्य, वही, पृ. 148) जो इनके श्रम का शोषण करती थी, इतिहास की विकास-प्रक्रिया को सतही ढंग से देखने का लक्षण है। अपरिवर्तनीय सामंती तंत्र में जो शोषण इनका होता था, उसकी गुंजाइश अब नहीं थी, यह विद्रोह की प्रकृति और उसके राजनीतिक स्वरूप ग्रहण करने की प्रक्रिया पर ध्यान देने से पता चलता है। यह घोषणा पत्र अराजनीतिक सामंती फरमान नहीं है, इसमें जनता से संवाद करने की झलक मिलती है और पहली बार इस संवाद में दस्तकारों, कारीगरों को शामिल किया गया है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें रोजगार देने की बात कही गई है जो अंग्रेजों द्वारा छीन लिए गए थे और ए. आर. देसाई के अनुसार अंग्रेजों की राजस्व व्यवस्था से बदतर स्थिति प्राप्त कर चुके किसानों के साथ दस्तकारों-कारीगरों का असंतोष भी विद्रोह में परिलक्षित है ('भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि', पृ. 248)। पूर्व सामंती व्यवस्था में बेगार की प्रथा थी, पर यहाँ जब रोजगार देने की बात कही जा रही है तो इसका स्पष्ट अर्थ है कि उन्हें उनके श्रम का मूल्य मिलेगा। यह पूँजीवादी दृष्टिकोण है, न कि सामंती। यह ध्यान देने की बात है कि जिन अंग्रेजों के प्रति यह भरोसा व्यक्त किया जा रहा है कि वे इन्हें सामंती और सवर्णवादी वर्चस्व से मुक्त करा रहे थे, उन्होंने ही इनके रोजगार छीने थे और गाँवों में जाकर ये खेत मजूर बन गए। अंग्रेजों ने रोजगार छीनकर और जनता को भूखों मारकर ही अपनी जनतांत्रिक दृष्टि का परिचय दिया। रोटी और रोजगार अंग्रेजी शासन के एजेंडे में शामिल ही नहीं था। जब भारत सीधे विक्टोरिया के शासन में आ गया तभी इन मुद्दों पर कुछ ध्यान दिया गया। हालाँकि 1813 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी की इजारेदारी पर ब्रिटिश सरकार हावी हो चुकी थी।

अस्मिता पर आधारित यह विमर्श अंततः यूरोपीय चर्चवाद में जाकर दम लेता है और हमारे सामने 1857 के गदर की बड़ी दागदार तस्वीर उभरती है कि मानवीय करुणा से ओत-प्रोत अंग्रेजों को, जो भारत के उत्पीड़ित लोगों को उबारने आए थे इन असभ्य, नस्लवादी, बर्बर सवर्णों-सामंतों ने बेरहमी से मारा। इस गढ़ी गई फंतासी में यह भी जोड़ दिया गया है कि दलित-उत्पीड़ित लोग यह समझ रहे थे कि यह विद्रोह पुनः उन्हीं को गुलाम बनाने के लिए हुआ है, इसलिए उन्होंने इसमें हिस्सा नहीं लिया। मगर विद्रोह में आम जनता के भाग लेने के ढेर सारे दस्तावेजी प्रमाण हैं इसलिए थोड़ा संशोधन कर दिया गया कि यह तो इनकी भलमनसाहत थी कि इन्होंने अंग्रेजों की मदद नहीं की। उल्टे सामंतों के जुर्म की सजा इन्हें भुगतनी पड़ी। इस प्रकार 1857, तथा राष्ट्रवाद और नवजागरण से इसके रिश्ते को लेकर पहले से ही परस्पर विरोधी बातें हो रही थीं - अस्मितावादियों के अति उत्साह ने इसको और उलझा दिया है। इसलिए इस पर काफी सावधानीपूर्वक विचार करने की जरूरत है।

इस संदर्भ में सबसे पहले इस पर विचार करना जरूरी है कि अगर अंग्रेज इतने बड़े 'सभ्यतागत दायित्व' का निर्वाह करने आए थे तो उनके विरुद्ध इतना बड़ा विद्रोह कैसे हो गया, जबकि गिने-चुने सामंतों के अलावा अधिकांश तो उन्हीं के साथ थे। पर इसकी विवेचना करने के पहले जरा एक नजर इस पर डालें कि उन्होंने दुनिया भर में सभ्यतागत दायित्व का निर्वाह किस प्रकार किया। एक पादरी ने कहा है कि मेक्सिको की खानों के आस-पास सड़कों, गुफाओं में आदिवासियों के इतने अस्थिपंजर थे कि उन पर पाँव रखे बिना चलना असंभव था। (रामविलास शर्मा : 'भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद', खंड-1, पृष्ठ 30) रामविलास शर्मा कहते हैं कि अमेरिका में गण गणसंघ में परिणत हो गए थे। इसका मतलब है कि कबीलाई समाज सामंती समाज में बदल चुका था और इस सामंती ढाँचे को बचाने के लिए रेड इंडियन लड़े। अंग्रेजों ने वहाँ नरसंहार किया। क्या इस नरसंहार को यह कहकर माफी दी जा सकती है कि अंग्रेज वहाँ प्रगतिशील भूमिका निभाने गए थे? 'माया सभ्यता' मध्य एवं दक्षिण अमेरिका की विकसित सभ्यता थी। अंग्रेजों ने इसका विनाश किया। मेक्सिको के अज्तेक लोग वीर एवं युद्ध विद्या में पारंगत थे। इन्होंने विशाल पिरामिडों का निर्माण किया था एवं तीन सौ पैंसठ दिन वाले वर्ष की शुरुआत की थी। इनका भी अंग्रेजों ने विनाश किया। इनकी पुस्तकों को पादरियों ने यह कहकर जला दिया कि ये शैतान की पुस्तकें हैं। 16वीं शती के मध्य तक स्पेन के उपनिवेशों में डेढ़ करोड़ लोगों की हत्या हुई। अनेक लोगों ने अपने बच्चों को गुलाम बनने से बचाने के लिए गला घोंटकर मार डाला। इनके पास बारूद नहीं था, तोप नहीं थी, अंग्रेजों ने इनकी नृशंसतापूर्वक हत्या की। जो बच रहे उन्हें शराब की लत लगाई, सिफलिस और मलेरिया इन्होंने ही वहाँ फैलाया और इनके पादरी धर्म का प्रचार कर रहे थे। जबरदस्ती लोगों को ईसाई बनाया गया। दासों के व्यापार के लिए भी ये ईसाई धर्म का उपयोग करते थे। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया में इन्होंने आदिवासियों की नस्लें समाप्त कर दीं। सभ्यताओं को मिटाकर 'सभ्यतागत दायित्व' ये इसी प्रकार निभा रहे थे।

डार्विन ने दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की यात्रा की थी। उन्होंने लिखा कि भोजन की कमी, बीमारी आदि के अलावा आमतौर से कोई और रहस्यमय उपकरण भी काम करता मालूम पड़ता है। जहाँ भी यूरोपियन पहुँच गया है, मौत आदिवासी का पीछा करती हुई मालूम पड़ती है। दोनों अमेरिका के विशाल प्रसार, पोलीनेशिया, केप ऑफ गुड होप और ऑस्ट्रेलिया को देखें तो एक ही नतीजा दिखलाई देगा। (रामविलास शर्मा : 'सन सत्तावन की राज्य क्रांति और मार्क्सवाद', पृ. 53)। यह गौर करने की बात है कि दुनिया भर में जातियों का विनाश करनेवाले अंग्रेज भारत में आकर प्रगतिशील कैसे हो गए? भारत में उनकी भूमिका पर एकल ढंग से विचार नहीं हो सकता। यह देखना पड़ेगा कि उन्होंने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि में क्या किया, आयरलैंड में केल्टिक लोगों को खत्म करके सेक्शन को क्यों स्थापित किया! स्वयं इंग्लैंड में पूँजीवादीकरण की क्या स्थिति थी? औद्योगिक क्रांति के बावजूद इंग्लैंड में सत्ता पर भूस्वामी वर्ग का कब्जा था। उद्योगपतियों के प्रतिनिधि जॉन ब्राइट ने ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत में मचाई जा रही लूट की कड़ी आलोचना की थी। 1862 में लंकाशायर की मिलों में रुई की भारी कमी हो गई थी। ब्राइट ने कहा था कि ब्रिटिश सरकार की मूर्खतापूर्ण और दुष्ट नीति के कारण भारत में कपास की खेती बर्बाद हो गई।

पहले इंग्लैंड के व्यापारी भारत से माल इंग्लैंड ले जाकर बेचते थे। आगरा में बड़े थोक व्यापारी थे जो हुंडियों के जरिए कारोबार करते थे। बीमा भी होता था। बुखारा, समरकंद में भारतीय व्यापारी रहते थे। अवध में शोरे और नमक का काम होता था। लोहा गलाने की भट्टियाँ थीं जिनसे दस्तकारी के उद्योगीकरण की ओर बढ़ने का संकेत मिलता है। वस्त्र-उद्योग तो बेमिसाल था ही। इंग्लैंड के बाजार में यहाँ के वस्त्रों की धूम थी। अंग्रेजों ने सबको नष्ट किया और इंग्लैंड में बना माल लाकर यहाँ बेचने लगे। उन्होंने यहाँ के सामंती ढाँचे को तोड़ा पर इसके बाद कोई नया ढाँचा नहीं बनाया। केवल लूटा। ऊपर से इनकी लफ्फाजी बेहद शर्मनाक है। कंपनी ने 1858 में संसद में याचिका प्रस्तुत की जिसे मिल ने लिखा था। इसमें दावा किया गया कि कंपनी के लोगों ने भारत में परोपकार के जो काम अब तक किए हैं, वह मानव जाति के लिए बेमिसाल हैं। इसके विपरीत जॉर्ज कार्नवल लीविस ने संसद में कहा कि इस धरती पर इतनी भ्रष्ट और लुटेरी सरकार कहीं नहीं पाई गई (रजनी पाम दत्त : 'आज का भारत', पृ. 127)। पलासी की लड़ाई के बाद ही बंगाल से धन ब्रिटेन पहुँचने लगा और वहाँ औद्योगिक क्रांति को संभव बनाने में इसकी अहम भूमिका थी। (वही, पृ. 135) थोड़े ही दिनों बाद 1870 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा जिसमें लगभग एक करोड़ लोग मर गए। इसके बावजूद 1881 में कंपनी की कलकत्ता कौंसिल की रिपोर्ट में कहा गया कि बंगाल और बिहार में लगान बढ़ा देने से भुगतान में वृद्धि हुई है (वही, पृ. 131)।

जनता त्रस्त थी। लगान बढ़ाकर दो सौ की जगह तीन सौ कर दिया गया। एक जिले से काम की तलाश में दूसरे जिले जाने पर छह पाई चुंगी देनी पड़ती थी। लाखों लोग काम की तलाश में विस्थापित हो रहे थे। पाँच साल पर अंग्रेज जमींदारियाँ बेचते थे और हर बार दाम बढ़ा देते थे। लिहाजा लगान बढ़ता था जिसका बोझ किसानों पर पड़ता था। यह भारत में उनकी पूँजीवादी क्रांति का नमूना है। इंग्लैंड के किसी मजदूर नेता ने भारत के गदर को प्रतिक्रियावाद के पुनरुत्थान का प्रयास नहीं कहा जबकि वहाँ इस प्रकार के खूब प्रचार किए गए थे। चार्टिस्ट नेता अर्नेस्ट जोन्स ने गदर के दौरान भारत में हताहत अंग्रेजों की मदद के लिए इंग्लैंड में खोले गए रिलीफ फंड में चंदा देने के लिए लोगों को मना किया। खुद इंग्लैंड में सत्ता में उद्योगपतियों का कोई महत्व नहीं था। कैसे समझा जाए कि भारत में वे पूँजीवादी क्रांति करने आए थे। दरअसल अंग्रेज यहाँ सामंतवाद को पूर्णतः नष्ट नहीं करना चाहते थे और जहाँ तक उनके लिए हितकर हो, पूँजीवादीकरण भी करना चाहते थे। इसी संक्रमण की अवस्था में बंगाल में मध्य वर्ग का उदय हुआ। यह उपनिवेशवाद का दूसरा चरण था जब राममोहन राय चर्चा में आए।

उपनिवेशवाद के विकास के इस दूसरे चरण में अंग्रेजों को ऐसे मध्यवर्ग की जरूरत थी जो उनके हित को सुरक्षित रखे और इसके लिए यह आवश्यक था कि वह उन्हें प्रगतिशील समझे। इस मंशा का प्रमाण यह है कि उन्होंने सती प्रथा पर रोक लगाकर भारतीय पारंपरिक जड़ता पर प्रहार तो किया, पर यह मातहत प्रहार था, समूल रूप से भारतीय पारंपरिक व्यवस्था को नष्ट करने का उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। इसका कारण यह है कि जिस मध्य वर्ग का निर्माण उनकी निगरानी में हुआ था उसे पूरी तरह प्रगतिशील होने देना भी उनके हित के लिए ठीक नहीं था। राममोहन राय में उनकी इस दुरंगी नीति को लेकर गहरी बेचैनी थी। पर उनके अलावा या बाद में जो बुद्धिजीवी हुए वे गहराई तक अंग्रेजों की प्रगतिशीलता और उदारता से प्रभावित थे। कई तो उन्हें नस्लभाई भी मानते थे। केशवचंद्र सेन ने भारत में अंग्रेजों के आगमन को दो बिछड़े बंधुओं का मिलन (आर्य नस्ल) कहा था (सुबीरा जायसवाल, 'तद्भव', जन., 07) बिपन चंद्रा इस मध्य वर्ग के बारे में कहते हैं कि यह ब्रिटिशों के खिलाफ अधिक आलोचनात्मक हुए बिना राष्ट्रवाद की सैद्धांतिकी गढ़ना चाहता था। जाहिर है कि ऐसा राष्ट्रवाद मुसलमानों को अपना शत्रु मानता। इसीलिए गदर के नेताओं की उपेक्षा करके नवजागरण के दौरान पुरानी छवियों का महिमामंडन शुरू हुआ जिन्होंने मुसलमानों के साथ संघर्ष किया था। हिंदू राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि यहीं से बनने लगती है। गदर के बाद नवजागरण के दौरान जिस मध्य वर्ग ने राष्ट्रवाद की सैद्धांतिकी बनाई, वह अंग्रेज प्राच्यविदों से प्रभावित था। इस मध्य वर्ग का वैचारिक आधार अंग्रेजों द्वारा किया गया यह दुष्प्रचार था कि मुसलमानों ने हिंदुओं पर शासन किया, उनके धर्म को नष्ट किया, वे तो उनके अतीत की महानता का उन्हें बोध कराने आए हैं। जाहिर है कि यह दृष्टिकोण हिंदुओं-मुसलमानों के बीच ऐतिहासिक घृणा उत्पन्न करने के लिए था। ये प्राच्यवादी थे। जो चर्च के लोग थे, वे कह रहे थे कि हम पाप और अज्ञान के गर्त में पड़े भारतीयों का उद्धार करने आए हैं (ईसाई बनाकर) और जो ईस्ट इंडिया कंपनी के लोग थे वे जड़ भारतीय ग्राम व्यवस्था और सामंती ढाँचे को तोड़कर आधुनिकीकरण का दावा कर रहे थे। इस प्रकार तीन ओर से भारत को सभ्य बनाने के प्रयास हो रहे थे।

यह कहना कि 1857 का गदर सवर्ण हिंदुओं और कुलीन मुसलमानों की धार्मिक भावना का परिणाम था, बिलकुल अनर्गल है। भारत में राष्ट्रवाद का ढाँचा जब स्पष्ट नहीं था तो जाहिर है कि लोगों को जोड़नेवाला विचार धर्म ही था। इसीलिए विद्रोहियों ने धर्म के नाम पर लड़ने का आह्वान किया। यह बिलकुल स्वाभाविक बात थी। स्वयं अंग्रेजों ने क्या किया, यह भी देखना चाहिए। वे तो पूँजीवादी विकास की उत्कृष्ट अवस्था में थे, आधुनिकता के वाहक थे, फिर उन्होंने स्वयं ही इस युद्ध को धर्मयुद्ध का रूप क्यों दिया? धर्म के नाम पर ही देशी ईसाइयों ने उनकी मदद की। आगरे के किले से इन देशी ईसाइयों ने बागियों पर तोपें चलाईं। दक्षिण भारत के देशी ईसाइयों ने गवर्नर को अपनी सेवा अर्पित की। स्वयं इंग्लैंड में चर्च और राजसत्ता का जबरदस्त गठजोड़ था। फिलिप्स कहता था कि हमारा ईसाई धर्म पवित्र और कल्याणकारी है तथा हिंदू विश्व की सबसे कम सभ्य जाति हैं। ये अनैतिकता और पापकर्मों के गड्ढे में गिरे हुए हैं। (प्रदीप सक्सेना : '1857 और भारतीय नवजागरण', पृ. 323)। इसी प्रकार के विचार वे मुसलमानों के बारे में भी रखते थे। एक पादरी ने मुसलमानों से कहा कि तुम्हारे मोहम्मद साहब तो दोजख में पड़े हुए हैं, तुम भी दोजख में जाओगे (कर्मेंदु शिशिर : 'पहल' पुस्तिका, जन., 07)। रामविलास शर्मा का कहना है कि सन् सत्तावन की क्रांति ने अंग्रेज, अमेरिकन, जर्मन सभी यूरोपीय मिशनों का रुख स्पष्ट कर दिया। ये मिशन न तो राज्यनिरपेक्ष थे और न अंग्रेजों का राज्य यहाँ धर्मनिरपेक्ष था। ('सन् सत्तावन की राज्यक्रांति और मार्क्सवाद', पृष्ठ 61)।

अगर यह मान भी लिया जाए कि भारत में जातिभेद के कारण अंग्रेजों की भूमिका का महत्व था तो आयरलैंड में यूनियन जैक के साथ मिशन क्या कर रहे थे? यह भी ठीक है कि भारतीय शिक्षा का रूप धार्मिक था पर इसके विकल्प में जो शिक्षा अंग्रेजों के द्वारा दी जा रही थी वह सही मायनों में वैज्ञानिक शिक्षा थी या ईसाइयत का प्रचार, यह विचारणीय है। पिछड़े, विशेषतः आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों ने जो स्कूल खोले उनसे उन इलाकों के लोगों को वैज्ञानिक प्रगति की धारा में लाया गया? क्या यह सत्य नहीं है कि उन्हें उसी स्थिति में बनाए रखकर उनका ईसाईकरण कर दिया गया? कठिनाई यह है कि इस प्रसंग में औपनिवेशिक दृष्टिकोण से प्रभावित लेखकों ने तो विचार नहीं ही किया और यह उनकी मानसिक निर्मिति के अनुकूल ही था; परंतु प्रगतिशील और वाम चिंतकों ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया। दरअसल देशीयता, संस्कृति और विश्वबोध के बीच संतुलित दृष्टि नहीं बना पाने के कारण भारतीय वामपंथ साम्राज्यवाद के चरित्र को समझने में असफल रहा और इसीलिए संघबद्ध हिंदुत्व को गदर की परंपरा से भिन्न 'हिंदू जागरण' को नवजागरण पर प्रभावी बनाने में सहायता मिली। जिस धार्मिक पुनरुत्थान को प्रश्न बनाकर आज सबाल्टर्नवादी विचारक गदर को प्रतिक्रियावादी सिद्ध करते हैं उसी धार्मिक पुनरुत्थान का सूत्रा पकड़कर संघबद्ध हिंदुत्व ने रूप ग्रहण किया।

गाय और सुअर की चर्बी को गदर का कारण बताकर सबाल्टर्नवादी उपनिवेश और साम्राज्य के वास्तविक चरित्र पर पर्दा डाल देते हैं। इससे नव साम्राज्यवाद को समझने में बाधा उत्पन्न होती है। फौज में भारतीय और ब्रिटिश सैनिकों के बीच भेदभाव किया जाता था। भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के मुकाबले बहुत कम तनख्वाह मिलती थी - सात रुपए, उसी में वर्दी और खाने का खर्च शामिल था। सिपाही घर के खर्चों के लिए महाजनों से कर्ज लेते थे और ब्याज के चक्रव्यूह में पड़कर तबाह होते थे। अंग्रेज सैनिक उन्हें बात-बात पर अपमानित करते थे। तरक्की की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि सेना में कमीशन खरीदे जाते थे और यह भारतीय सैनिकों की पहुँच के बाहर था। अंग्रेज सिपाही ऐयाशी करते थे। 1857 से पहले कई जगह सैनिकों ने विद्रोह किया था और उन्हें तोप से उड़ा दिया गया था। उस समय चर्बीवाली बात नहीं थी। बर्मा की लड़ाई में भेजे जाने के समय भत्ता माँगा तो कई सैनिकों को तोप से उड़ा दिया गया। लारेंस ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि देशी सेना में हर बार तनख्वाह को लेकर ही असंतोष उभरे।

यह सत्य है कि विद्रोह शुरू करने में मंगल पांडे के एक्शन के पीछे धार्मिक भावना थी पर यह तात्कालिक कारण था, और यह भी ध्यातव्य है कि मंगल पांडे गदर के सिद्धांतकार नहीं थे। उनका महत्व यही है कि उन्होंने हथियार उठाकर गदर की शुरुआत कर दी और शहीद हुए। उनकी शहादत का कम-से-कम इतना सम्मान तो होना ही चाहिए कि उन्होंने देश के लिए जान दी, भले ही देश की भौगोलिक अवधारणा उनके लिए बहुत सीमित थी और कारण के रूप में धर्म था।

वास्तव में कारतूस सिर्फ बहाना था। जब विद्रोह शुरू हो गया तो सिपाहियों ने वही चर्बी वाले कारतूस झोलों में भर लिए। ('बांबे टाइम्स' 15 अगस्त, 1859) दीमापुर में मेजर आयर की बटालियन के बागी सिपाहियों ने एनफील्ड रायफल और कथित चर्बी वाले कारतूसों का ही प्रयोग किया था। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि विद्रोह के कारक के रूप में धर्म की कितनी सीमित भूमिका थी। जहाँ तक सती प्रथा की समाप्ति और विधवा विवाह की स्वीकृति का प्रश्न है, यह और भी बेमानी है क्योंकि सती प्रथा बंगाल और राजस्थान में ही आम प्रचलन में थी और ये दोनों प्रदेश विद्रोह के केंद्र नहीं थे। मुसलमानों में सती प्रथा थी ही नहीं। क्या यह गौर करने लायक प्रश्न नहीं है कि सती प्रथा और विधवा विवाह जैसे एक धार्मिक समुदाय के प्रश्न को लेकर अगर गदर हुआ तो लड़ाई दो धर्मों की एकता के बैनर तले क्यों लड़ी जा रही थी? यह भी ध्यातव्य है कि अंग्रेजों से पहले मुगलों के समय सती प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया गया था, उस समय तो इसको लेकर विद्रोह नहीं हुए। दरअसल बेंटिक ने सामाजिक परिवर्तन की दिशा को भाँपकर ही कानून बनाया था और इसीलिए यह प्रभावी भी हुआ वरना सामाजिक मुद्दों से संबंधित कोई भी कानून तब तक व्यवहार में नहीं आता है जब तक उसे सामाजिक स्वीकृति न मिल जाए। स्त्रियों से संबंधित ही ऐसे कई कानून हैं जो सामाजिक स्वीकृति न मिलने के कारण कागजों तक ही सीमित रह गए हैं, जैसे पिता की संपत्ति में पुत्री का अधिकार।

विधवा विवाह की समस्या सिर्फ ऊँची जातियों तक सीमित थी, निम्न जातियों के बीच विधवा विवाह निषिद्ध नहीं था। इस प्रश्न को आधार बनाने के पीछे यह भ्रम काम करता है कि निम्न जातियों के लोग विद्रोह में शामिल नहीं थे और सबाल्टर्नवादी विचारक ऐसा ही स्थापित करना चाहते हैं। किंतु विद्रोह जब पूरे इलाके में फैला तो सभी जातियों के लोग इसमें शामिल हो गए थे। गदर पर सुंदरलाल, रामविलास शर्मा, प्रदीप सक्सेना आदि के लेखन में इसके दस्तावेजी प्रमाण मौजूद हैं। स्वयं अंग्रेज जनरल मैकवल ने लिखा था कि यहाँ विदेशी साम्राज्य के विनाश की बातें साधारण बातचीत में होती थीं। किंतु अंग्रेज इतिहासकारों ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। 'एनसायक्लोपीडिया ब्रिटैनिका' में कहा गया है कि डलहौजी द्वारा विधवा विवाह बिल लाए जाने के कारण पुरातनपंथी ब्राह्मणों का वर्चस्व टूट रहा था, इसीलिए विद्रोह हुआ। यही धारणा आज के अस्मितावादी लेखन पर हावी है।

वास्तविक प्रश्न उपनिवेशवाद से मुक्ति (जो साम्राज्यवाद का रूप ग्रहण करने लगा था) का था और धर्म लोगों को जोड़ने का काम कर रहा था। इसकी इतनी ही भूमिका थी क्योंकि गदर जो राष्ट्रवादी रूप ले रहा था, वह दो धर्मों की एकता की धारणा पर टिका हुआ था। संघर्षशील एकता किसी विचार के तहत निर्मित होती है और उस समय राष्ट्र विचार के रूप में मौजूद नहीं था, सो उसकी प्रारंभिक भूमिका धर्म निभा रहा था और निश्चय ही वह राष्ट्र के विचार की ओर उन्मुख था और गदर जैसे-जैसे राष्ट्रवादी लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था, धर्म की भूमिका कम होती जा रही थी। यह धर्म से राष्ट्र की ओर बढ़ने की प्रक्रिया थी और इसमें धर्म की भूमिका लगातार राष्ट्र से अलग होते चलने की थी। गदर की असफलता और अंग्रेजों के वैचारिक साए में बने मध्य वर्ग के प्रभावशाली होते जाने के कारण यह अलगाव की प्रक्रिया रुक गई और धर्म राष्ट्र के दो विचारों का वाहक बन गया। इसीलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि द्विराष्ट्र सिद्धांत की नींव गदर के बाद शुरू हुए खंडित नवजागरण के समय ही पड़ गई थी। हिंदुओं और मुसलमानों को दो जातीय अस्मिताओं के रूप में प्रचारित करना अंग्रेजों की दूरगामी योजना का परिणाम था। अंग्रेजों ने भारत को राष्ट्र के रूप में इसी विभेद दृष्टि के साथ स्वीकार किया वरना जान स्ट्रेची ने केंब्रिज के छात्रों को समझाया था कि दुनिया में भारत नाम का कोई देश नहीं है, वहाँ पंजाबी हैं, बंगाली हैं, मुसलमान हैं, भारतीय राष्ट्र नहीं (सुमित सरकार, 'मॉडर्न इंडिया', पृ. 2)। यह भी दिलचस्प है कि भारतीयों को जाति के रूप में संगठित करने का श्रेय भी अंग्रेजों ने खुद ही ग्रहण कर लिया।

भारत में उपनिवेशवाद के साथ धर्म किस प्रकार सहयोगी भूमिका निभा रहा था, इसका अंदाजा इससे मिल जाता है कि 'पयामे-आजादी' नामक पत्र के संपादक मिर्जा बेदारबख्त को सूअर की चर्बी मलकर फाँसी दी गई। सभ्य अंग्रेज पुस्तकें जला रहे थे, मूर्तियाँ तोड़ रहे थे। बंगाल आर्मी की लेबोरेटरी में भारतीय, किसी भी देश के काले आदमी या किसी भी देश के रोमन कैथोलिक का प्रवेश निषिद्ध था। रोमन कैथोलिक से विवाह करनेवाले फौजी को नौकरी से हटा दिया जाता था। नौजवान अंग्रेजों के बीच ईसाइयत का सैन्यीकरण हो रहा था। 1727 से 1840 तक तेरह मिशन ईसाइयत के प्रचार के लिए भारत आ चुके थे जिनमें तमाम यूरोपीयन चर्च शामिल थे। ब्राइट ने 1853 में हाउस ऑफ कॉमंस में प्रश्न उठाया था कि भारत में हमारी चर्च व्यवस्था क्या है, तीन बिशप और तद्नुसार पादरियों पर एक लाख पौंड सालाना खर्च? इसलिए यह कहना कि अंग्रेज प्रगतिशील थे और गदर में शामिल लोग पुनरुत्थानवादी तथ्यों के परे जाना है। धर्म राजनीतिक एजेंडे का माध्यम था। गदर की तैयारी बहुत पहले से और व्यापक प्रचारतंत्र के जरिए चल रही थी। कर्नल जी.बी. मैलीसन ने लिखा है कि रोटी स्कीम देहात की जनता को सूचित करने के लिए थी कि अंग्रेजों के खिलाफ कुछ करने का समय आ गया है।

नंदलाल चटर्जी ने लिखा है कि इसका रूप राजनीतिक था और इसमें धर्म राजनीति के साथ मिल गया था। पी.सी. जोशी ने लिखा है कि लक्ष्मीबाई ने राजा मरदान सिंह को जो पत्र लिखा था उसमें आधुनिक शब्द 'स्वराज' का प्रयोग किया था। विद्रोह शुरू हो गया तो झंडा बादशाही और पेशवाशाही के नाम पर नहीं, स्वाधीनता के नाम पर लहरा रहा था। इसमें कोई शक नहीं कि नाना साहब या लक्ष्मीबाई प्रारंभ में अपने स्वार्थ से प्रेरित थीं, मगर विद्रोह ने उन्हें बदला, अन्यथा अंग्रेजों का साथ देकर ये अपनी जागीरें पुरस्कारस्वरूप पा सकते थे। अधिकांश सामंत तो अंग्रेजों के साथ थे ही। बिहार में बाबू कुँवर सिंह अंग्रेज अफसरों के मित्र थे। उन्होंने विद्रोह में भाग लिया। मार्क्स-एंगेल्स ने इनकी तारीफ की थी और सुनी-सुनाई बातों के आधार पर नहीं। विद्रोह के समय की छोटी-छोटी बातों पर भी मार्क्स ध्यान दे रहे थे जो उनके लेखन से पता चलता है।

कंपनी के अधिकतर सिपाही किसान वर्ग से थे और वे अपने गाँवों-कस्बों से जुड़े हुए थे। इन्होंने आम लोगों के बीच अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की चेतना जगाई। बहादुरशाह ज़फ़र को बादशाह घोषित करने के बाद जो शासनतंत्र लागू किया गया, वह मुगलिया शासनतंत्र नहीं था। 'कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन' की स्थापना की गई थी, जमाखोरी पर रोक लगाई गई और कीमतें नियंत्रित की गईं। संपन्न लोगों पर युद्ध के लिए टैक्स लगाया गया और आम लोगों को इससे बरी रखा गया। इस 'कोर्ट ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन' का पहला अध्यादेश था गोवध पर रोक लगाना। इससे संबंधित पत्र में 'राजनीति के अनुसार राज्य संचालन' की बात कही गई है।

यह कोर्ट बख्त खाँ की भी आलोचना करने की क्षमता रखता था। इसके गठन के लिए जो प्रणाली अपनाई गई तथा इसके काम करने के जो तरीके थे, उसमें बहुमत पर आधारित जनतांत्रिक पद्धति के बीज देखे जा सकते हैं। सामंती व्यवस्था से पूँजीवादीकरण की ओर बढ़ने के लक्षण भी इसके निर्णयों में दिखलाई पड़ते हैं। युद्ध के खर्च के लिए इसने बादशाह को सलाह दी कि महाजनों से कर्ज लिया जाए और शांति के बाद वह कर्ज लौटा दिया जाए, सूद सहित। विश्व की सर्वाधिक नस्लभेदी, लुटेरी सत्ता के विरुद्ध इतना सशक्त विद्रोह क्या सिर्फ सवर्णों की धार्मिक रूढ़ियों के कारण संभव हुआ? विद्रोह का स्वरूप राजनीतिक था। सात-आठ सौ वर्षों से समुदायगत विभाजन में जीनेवाले हिंदुओं-मुसलमानों के बीच क्या सिर्फ जागीरें और धर्म बचाने के लिए इतनी जबरदस्त एकता बन गई? मार्क्स विद्रोह को फौजी नहीं राष्ट्रीय मानते थे। विद्रोहियों ने व्यापक रूप से प्रचार किया। छोटे किसान, दस्तकार तथा विभिन्न ग्रामीण पेशों से जुड़े लोगों के बीच सघन प्रचार चलाया गया - डाक, इश्तिहार, नारे, गीतों आदि का उपयोग किया गया। विद्रोहियों का नारा ध्यान देने योग्य है।

''खलक खुदा का, मुल्क बादशाह का, अमल सिपाही का'' यानी अमल सिपाही का था और इन सिपाहियों में सुदूर देहात के लोग शामिल हो गए थे। अपील की गई कि किसी जमींदार को न सताया जाए। यहाँ जमींदार शब्द पर विचार करने की जरूरत है। यहाँ जमींदार जमीन पर स्वामित्व रखनेवाले का वाचक है, न कि यह सामंत का पर्यायवाची है। यह विदित है कि उत्तर प्रदेश, विशेषतः अवध के इलाके में उस तरह के जमींदार न थे जिस तरह के जमींदार बिहार और बंगाल में थे। जनता से अपील की गई कि सरकार को टैक्स के रूप में एक धेला मत दो। जनता ने इस पर अमल किया। सामंत घरानों की स्त्रियों के अलावा विभिन्न वर्गों, वर्णों की स्त्रियों ने युद्ध में भाग लिया। झलकारी बाई के बारे में तो पता ही है, दिल्ली की सड़क पर एक गुमनाम घुड़सवार स्त्री देखी गई जिसके बारे में कर्नल कीथ ने लिखा कि वह बूढ़ी और बदसूरत है इसलिए रोमांस के योग्य नहीं है। हडसन ने लिखा कि वह शैतान की तरह लड़ी।

गदर के मूल में राष्ट्रीय चेतना थी, पर भारत में राष्ट्रीय चेतना के विकास की प्रक्रिया यूरोप से भिन्न थी क्योंकि यहाँ खुद ब्रिटेन के औपनिवेशिक हितों के लिए व्यापार, तकनीक और राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए दो प्रक्रियाएँ समानांतर रूप से चलीं - एक ओर यूरोप के आधुनिक सुधारवादी विचारों का लाभ उठाकर अपनी धर्म-संस्कृति के प्रति आलोचनात्मक रुख अपनाया गया तो दूसरी ओर नए संगठित हो रहे मध्य वर्ग ने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और आधुनिक शिक्षा का लाभ उठाते हुए उपनिवेशवाद द्वारा पैदा वैचारिक चुनौतियों का सामना करने का प्रयास किया। इसी प्रक्रिया में राष्ट्र और इतिहास के संबंधों को नए ढंग से उठाया गया और धर्म राष्ट्रीय अस्मिता को परिभाषित करने का एक माध्यम बन गया। यही वह बिंदु है जहाँ राष्ट्रवाद के अभिलक्षणों को गौण करके हिंदू अध्यात्मवादी और गौरवपूर्ण अतीत-कथाओं से प्रेरित राष्ट्रवाद की शुरुआत हुई जिसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू महासभा की वैचारिक उत्तेजना सनातनी कांग्रेसियों में भी कमोबेश दिखलाई पड़ने लगी। उनके बारे में पंडित नेहरू ने कहा कि सनातनी लोग जिस रफ्तार से पीछे की ओर चल रहे हैं, उससे हिंदू महासभा मात खा गई है। सनातनियों में धार्मिक कट्टरता के साथ ब्रिटिश सरकार के प्रति बहुत तेज या कम-से-कम जोरदार शब्दों में प्रकट होनेवाली वफादारी भी होती है (रजनी पाम दत्त : 'आज का भारत', पृष्ठ 476)

स्वामी दयानंद ने जिस नवजागरण की शुरुआत की उसका केंद्रीय पक्ष हिंदू पुनरुत्थान ही था, जातिभेद का विरोध इसका सहायक तत्व था। इसका परिणाम हुआ कि 1857 के गदर की असफलता के साथ ही वह चेतना बिखर गई जो हिंदुओं, मुसलमानों एवं अन्य सामाजिक इकाइयों को राजनीतिक निर्मिति का रूप दे सकती थी और तब स्वभावत जातिभेद समाप्त होता। डॉ. रामविलास शर्मा दयानंद से नवजागरण की शुरुआत मानते हैं, यह गलत नहीं है। पर वे इसका सूत्र 1857 से जोड़ते हैं तो यह अटपटा मालूम पड़ता है क्योंकि दयानंद का आंदोलन अपनी विकसित अवस्था में 1857 की वैचारिकता की उल्टी दिशा में चल रहा था। यह पूरबवादी अंग्रेजों के एजेंडे का ही परिणाम था जो अपनी विशिष्ट शैली में उपनिवेशवाद की मदद कर रहे थे यानी अतीतोन्मुख राष्ट्रवाद का निर्माण। मध्य वर्ग इसी अतीतोन्मुख राष्ट्रवाद का प्रणेता था और जाति तोड़ने के लिए इसने उसी संरचना को अपनाया जो इसको मजबूत बनाने के लिए जिम्मेदार थी। यह पूरबवादियों के भारत-बोध से प्रेरित अतीत राग था जो अपनी व्यापकता से दूर था और इस्लामी आक्रमण का मिथक इसी की देन है। भारत पर विभिन्न जातियों के आक्रमण हुए, यूरोपियन जातियाँ इस देश को लूटकर धन अपने देश ले जाती रहीं और उनकी मिशनरियाँ उनकी सहायता कर रही थीं पर उनकी इस लूट को, भारत पर साम्राज्यवादी आक्रमण को ईसाई आक्रमण नहीं कहा जाता। इन मिशनरियों के बारे में यहाँ यह कहना भी जरूरी मालूम पड़ता है कि मुसलमानों के साथ जो सूफी संत आए थे उनमें और इनमें बुनियादी फर्क है। यह विचारणीय प्रश्न है।

बहरहाल पूरबवादी यह बतला रहे थे कि भारतीय अतीत में महान थे और वर्तमान में मुसलमानों के कारण पतित हो गए। आर्य नस्ल के बंधुत्व की अवधारणा का उल्लेख पीछे किया जा चुका है। इस प्रकार नवजागरण आंदोलन राष्ट्र के रूप में भारत की अवधारणा को विखंडित करता है और हिंदू तथा मुस्लिम अस्मिता को दो भिन्न राष्ट्रीयताओं के रूप में परिभाषित करता है। हिंदू मध्य वर्ग अंग्रेजी शिक्षा के कारण नौकरियों, पेशों में आगे निकल गया और इस प्रकार 1857 में बनी एकता में दरार पड़ गई क्योंकि यह मध्य वर्ग अंग्रेजों की स्तुति करता था। हिंदी लेखक प्रताप नारायण मिश्र ने अपनी कविता में 'धन्य धन्य' कहकर विक्टोरिया की वंदना की। बंगला कवि ईश्वरचंद्र गुप्त ने अपनी कविता में कहा कि 'नाना पापों में पटु है, अधर्म के अंधकार में काना हो गया... बड़ा शुभ समाचार है, बादशाह और बेगम दोनों कारागार भोग रहे हैं। उनके दो प्रिय कुमार मारे गए हैं। आओ सब भाई ब्रिटिशों की जय बोलो।'

सर सैयद अहमद खाँ मुसलमानों के उच्च-मध्य वर्ग के प्रतिनिधि थे। वे उच्च-मध्य वर्ग के विकास के लिए चिंतित थे, उन मुसलमानों के लिए नहीं जो निम्न वर्ग के थे। इनमें भी वही अंग्रेजपरस्ती थी जिसके उदाहरण ऊपर दिए गए हैं। अंग्रेजों से नफरत करनेवाले देवबंद शाखा के मुसलमान थे। इन्होंने गदर में हिस्सा लिया था। इस प्रकार हिंदू और मुस्लिम उच्च-मध्य वर्ग अंग्रेजपरस्त था। ट्रैवेलियन ने लिखा कि 'उच्च-मध्य वर्ग अंग्रेजों के साथ बैठने के लिए लालायित रहता है, पर करोड़ों हिंदू-मुस्लिम हमें काफिर, आक्रांता, देश छीन लेनेवाला मानते हैं।' (प्रदीप सक्सेना - '1857 और भारतीय नवजागरण', पृष्ठ 325) इसी उच्च-मध्य वर्ग के हिंदू-मुसलमानों ने मिलकर मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा का गठन किया। उस समय आम लोगों को इन दोनों संगठनों में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

विद्रोह का क्षेत्र छोटा नहीं था, काफी व्यापक था। बंगाल भी इससे प्रभावित था, इसलिए वहाँ इसके बाद 'नील विद्रोह' हुआ। बंगाल के पूँजीपतियों ने युद्ध के समय ईस्ट इंडिया कंपनी को कर्ज देने से मना कर दिया था। पंजाब के बारे में भ्रम फैलाया गया कि वह 'लॉयल' था पर वास्तविकता यह थी कि पूरा पंजाब संवेदनशील था, सिख रेजीमेंट को छोड़कर। गुजरात, सतारा, नागपुर, सागर और मैसूर विद्रोह से प्रभावित था और अफ़ग़ानिस्तान को बेहद संवेदनशील माना गया था। फ्रांसीसी अखबार ने इसे उस समय की महान घटना कहा। इटली, रूस ने इसे स्वाधीनता संग्राम कहा। सामंती नारे के बावजूद इसका वर्गीय स्वरूप था जिसमें किसानों, मजदूरों, दस्तकारों और कारीगरों की सहभागिता थी। इसीलिए मार्क्स ने विद्रोह का समर्थन किया। ये वही मार्क्स थे जिन्होंने 'न्यूयॉर्क ट्रिब्यून' को भेजे प्रारंभिक डिस्पैच में अंग्रेजों की भारत में प्रगतिशील भूमिका बतलाई थी। तब उनके पास भारत को लेकर सूचनाएँ कम थीं। उसी मार्क्स ने लक्षित किया कि अंग्रेजों के काम से भारतीय जनता को लाभ नहीं मिलेगा। 1857 का मूल्यांकन करते हुए मार्क्स इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यह भारत का राष्ट्रीय संग्राम था और इस रूप में उन्होंने इसका स्वागत किया। (एजाज अहमद : 'इन थ्योरी', पृष्ठ 229) 'ग्रुंड्रिसे' लिखने के समय मार्क्स ने भारत के बारे में विस्तृत अध्ययन किया। तब उन्होंने जड़ ग्राम व्यवस्था के विकल्प के रूप में अंग्रेजों की भूमिका को अस्वीकार कर दिया और उनकी हड़प नीति की आलोचना की (इरफ़ान हबीब : 'उत्तर गाथा', जुलाई-सितंबर 1983)।

वस्तुतः किसी तर्कपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए मुद्दों की जटिलता और उनके द्वंद्वात्मक पक्षों पर विचार करना जरूरी होता है। यह बेहद सरलीकृत निष्कर्ष है कि गदर दलित विरोधी था और अंग्रेज दलितों का उद्धार करने आए थे। रजनी पामदत्त का कहना है कि छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष अंग्रेजों ने नहीं, प्रगतिशील राष्ट्रीय आंदोलन ने किया। पहली बार दक्षिण भारत के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों के दरवाजे गांधी के आंदोलन की प्रेरणा से खोले गए। दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने के लिए अंग्रेज सरकार ने इस दलील के साथ पुलिस भेजी कि इससे जनता की धार्मिक भावनाओं को ठेस लगेगी। यह हास्यास्पद मालूम पड़ता है कि 1857 के विद्रोह से ब्रिटिश सरकार सामंतों-सवर्णों से इतना डर गई थी कि उसकी हर हाँ में हाँ मिलाती थी जबकि विद्रोह के बाद भारत में ब्रिटिश शासन इतना सशक्त हुआ कि भारत सीधे ब्रिटेन का उपनिवेश बना और लूट-खसोट में अपने हित के लिए बर्बरतापूर्ण कार्रवाई करने में अंग्रेजों को भय नहीं होता था। दरअसल यह उनकी कूटनीति का हिस्सा था जिसका खुलासा करते हुए अंबेडकर ने कहा कि ब्रिटिश सरकार हमारी दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों का प्रचार इसलिए नहीं करती कि वह इन्हें दूर करना चाहती है। वह इसलिए करती है कि इस बहाने वह भारत की राजनीतिक प्रगति को पीछे की ओर ले जाना चाहती है। (अगस्त 1980 में दलितों के सम्मेलन में दिए गए अध्यक्षीय भाषण से उद्धृत)। आगे उन्होंने स्पष्ट कहा कि केवल स्वराज के संविधान में दलितों को राजसत्ता लेने का मौका मिल सकता है (वही)। तात्पर्य यह कि एक पक्ष को ध्यान में रखकर समीचीन निष्कर्ष तक नहीं पहुँचा जा सकता। उस समय ज्योतिबा फुले ने भी अंग्रेजों की जाति विरोधी धारणा के मिथक से प्रभावित होकर विद्रोहियों के खिलाफ लड़े सैनिकों के वापस आने पर उनका अभिनंदन किया था। क्या इससे उन्हें सवर्ण-विरोधी मान लिया जाए, जबकि यह भी एक तथ्य है कि स्त्रियों के कल्याण के लिए उन्होंने जो संस्था बनाई थी उसका लाभ सवर्ण स्त्रियों को भी मिला। एक समाज के भीतर कुप्रथाओं, वर्चस्व पर आधारित शोषण या सामाजिक-धार्मिक भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष को राष्ट्र के भीतर विभिन्न राष्ट्रीयताओं की मुक्ति के संघर्ष के रूप में देखना आज की अराजक उत्तर-आधुनिक दृष्टि है जो अस्मिताओं की मुक्ति के नाम पर नए साम्राज्यवाद के लिए रास्ता बनाती है। पुराने साम्राज्यवाद ने हिंदुत्व और इस्लाम को दो राष्ट्रीयताओं के रूप में प्रचारित किया जिससे नवजागरण और राष्ट्रीय आंदोलन प्रभावित हुआ और परिणाम भारत विभाजन के रूप में सामने आया। नए साम्राज्यवाद के दौर में 'अध्यात्मोन्मुख बौद्धिकों' का एक नया वर्ग उभरा जिसकी जड़ें पुराने नवजागरण में हैं और इन एलीट हिंदू बुद्धिजीवियों के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिणति बाबरी मस्जिद ध्वंस में हुई। इन नए एलीट हिंदू बुद्धिजीवियों का एक छोर पुराने नवजागरण में है तो दूसरा नए भूमंडलीय साम्राज्यवाद में (मीरानन्दा - 'इकोनोमिक एंड पॉलीटिकल वीकली,' जन. 6, 2007)। इसी प्रकार जातिगत अस्मिताओं के विमर्शवादी भी जो मुक्ति का विखंडनकारी विमर्श चला रहे हैं और हर प्रकार की एकता, संरचना को उत्पीड़न का कारण मानकर खारिज कर रहे हैं, वे नए साम्राज्यवाद की नीतियों के अनुकूल ही काम कर रहे हैं। इन उत्तर-आधुनिक परिप्रेक्ष्यों को ध्यान में रखकर ही हम 1857 का सही मूल्यांकन कर सकते हैं और आज की विभेदकारी प्रवृत्तियों को समझ सकते हैं।


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