hindisamay head


अ+ अ-

आलोचना

मानव अनुभूतियों की नई क्राइसिस से साक्षात्कार

रवि रंजन


मलयज के आलोचना-कर्म पर केंद्रित

'यह शब्दों की शताब्दी है
जिसकी आड़ में भड़कते रंग पानी में डूबकर
लपकते हैं एक महीन ब्रुश की नोंक पर
पकड़ते हैं उस आँख में दीवार के सामने
जो मुँदी है बाहर से भीतर से खुली
आधी कम नकली, आधी कम असली।'
           - मलयज (पूर्वग्रह-43. पृ.3)

फ्रेडरिक जेम्सन ने समीक्षक की भूमिका को एक अग्नि प्रज्ज्वलक प्लग के रूप में स्वीकारते हुए उसे यथार्थ के बीहड़ में पाठकों का पथ प्रशस्त करने वाला बताया है। उनके अनुसार समीक्षा-कर्म उन असत्यों को बेनकाब करने की अनेक चेष्टाओं में से एक है जिनसे इतिहास भरा पड़ा है। यदि साहित्य-समीक्षा अपने इस प्रयास में सफल होना चाहती है तो बहुत जरूरी है कि वह उन जोखिम भरी चिंतन-क्षमताओं को पुनरुज्जीवित करे जो न तो प्राचीनता की दुंदुभि सुनकर आंतकित हों और न समकालीनता की रूढ़ियों से ग्रस्त होकर सिर्फ स्वीकृति की मुद्रा अख्तियार कर ले। वस्तुतः साहित्य समीक्षा अपने दायित्व का सफलतापूर्वक तभी निर्वाह कर पाती है जब वह अतीत के साथ-साथ अपने समय की रचनात्मकता की चुनौतियों से रू-ब-रू होकर इतिहास-बोध के साथ उसकी गति की दिशा का निर्धारण करती है।

कहना न होगा कि परिणाम की दृष्टि से अल्प तथा आलोचना के औपचारिक ढाँचे का अतिक्रमण करने के बावजूद मलयज का आलोचनात्मक लेखन अपने आप में सार्थक और समर्थ आलोचना की एक मिसाल है। यदि जेम्सन से शब्द उधार लेकर कहें तो वह यथार्थ के बीहड़ मार्ग में पाठकों का पथ प्रशस्त करने वाली आलोचना है। ऐसे, उनकी कविता, कहानी, निबंध, डायरी एवं पत्र आदि में भी सूक्ष्म विचारशीलता और अनुभव सजगता का साक्ष्य मिलता है और इसे उनके आलोचना कर्म में से बिल्कुल अलगा कर देखना अनुचित होगा। अशोक वाजपेयी ने उनके बारे में ठीक ही लिखा है कि 'उनकी कविता और आलोचना के बीच फाँक नहीं थी, बल्कि एक ऐसी एकता थी, जो अन्यत्र प्रायः दुर्लभ है।' वाजपेयी जी की ही बात को अपने ढंग से विस्तार देते हुए मलयज के अभिन्न कवि मित्र शिवकुटीलाल वर्मा कहते हैं कि 'उनकी रचना और आलोचना के संसार स्वायत्त और एक-दूसरे के आमने-सामने होते हुए भी एक ही दृष्टि से उद्भूत दो मित्र-दिशाएँ हैं।'

'कविता से साक्षात्कार' नामक अपनी आलोचना-पुस्तक की भूमिका में रचना (विशेषतः कविता और आलोचना) को अपने ढंग से परिभाषित करते हुए मलयज ने लिखा है कि 'कविता मेरे लिए अपने अनुभव को महसूस करने और उसे रचने का नाम है और आलोचना उस कविता के कवि को खोजने का। कविता अपने से बाहर दूसरों से जुड़ने का एक माध्यम है, आलोचना इस जुड़ने को संभव बनाने का एक साधन। मैं कविता में जो रचता हूँ, आलोचना में उसी को पहचानता हूँ। कविता मेरे लिए आत्म साक्षात्कार है और आलोचना उसी कविता से साक्षात्कार। आलोचना का संसार कविता के संसार का विरोधी, उसका विलोम या उसका प्रतिद्वंदी संसार नहीं है, बल्कि वह कविता के संसार से लगा हुआ समानांतर संसार है। अर्थ का एक व्यापक संसार है, जिसमें वह अनुभव है और उस अनुभव में कविता है और आलोचना भी। अनुभव ही कविता को आलोचना से जोड़ता है, पर कविता में इस जुड़ने की भाषा अनुभूति है और आलोचना में विचार।'

इस लंबे उद्धरण से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत हो सकता है कि मलयज की आलोचना के केंद्र में खुद उनका कवि ही विराजमान है। जबकि असलियत उलटी है। वस्तुतः मलयज की आलोचना उनके अपने काव्यानुभव का पूरा लाभ उठाने के बावजूद केवल अपनी ही कवि-चेतना तक कतई सीमित नहीं है। सच तो वह है कि आलोचना-क्रम में उन्होंने अपने काव्य संसार से बहुत हद तक निस्संग होकर कविता की तमाम समस्याओं पर अन्य कवियों के रचना-संदर्भ में ही विचार किया है। इसलिए उनकी आलोचना की महत्ता का निर्धारण करते हुए उसे उनकी अन्य सृजनात्मक कृतियों के महत्व से पृथक करने देखना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य है।

मलयज उत्तरशती में हिंदी समीक्षा के क्षेत्र में 'आलोचना के हथियार' से 'हथियारों की आलोचना' का काम लेने को उत्सुक उन दुस्साहसी तथा लकीर-पीटू आलोचकों से नितांत भिन्न हैं जिनके पास हरेक सवाल का एक बना-बनाया जवाब हमेशा मौजूद रहा करता है और इसी कारण उनकी आलोचना रचना की चुनौतियों का दृढ़ता के साथ सामना करने के बजाय प्रायः सरलीकरण का मार्ग अपनाने के लिए अभिशप्त होती है। इससे विलग मलयज की आलोचना की प्रकृति समावेशी है। उसमें रचना को समग्रता में पकड़ने के लिए बेचैनी दिखाई पड़ती है और इसके चलते कई बार वहाँ अंतर्विरोध की स्थिति भी पैदा हो गई है। शुक्ल जी के संदर्भ में विचारते हुए मलयज ने अंतर्विरोध को इस प्रकार परिभाषित किया है : 'समग्र सत्य को जब उसके द्वंद्वात्मक सिरों से पकड़ने की कोशिश की जाती है, तब अंतर्विरोध का जन्म होता है। यह अंतर्विरोध शुक्ल जी में भी था। किंतु बिना इस अंतर्विरोध के आचार्य रामचंद्र शुक्ल वह न होते, जो कि वे हैं।' यह बात जितनी शुक्ल जी पर लागू होती है उतनी ही खुद मलयज पर भी। नमूने के तौर पर उनके दो परस्पर विरोधी वक्तव्य देखे जा सकते हैं। एक स्थान पर जहाँ वे कहते हैं - 'कविता कुछ भी सिद्ध नहीं करती सिवाय एक अनुभव को रचने के। आलोचना कुछ भी प्रमाणित नहीं करती सिवाय उस रचे हुए अनुभव को व्यापक अर्थ-विस्तार देने के' - वहीं थोड़ा आगे चलकर उनकी स्वीकारोक्ति है कि आलोचना-क्रम में 'मैंने जितना इस आधुनिक रचना के भीतर देखना चाहा है उतना ही उसके बाहर भी।'

मलयज की स्थापना में निहित वदतोव्याघात दोष की ओर इशारा करते हुए अरुण कमल ने बिल्कुल सही सवाल उठाया है कि 'यदि आलोचना कुछ भी प्रमाणित नहीं करती तो रचना के बाहर जाने की जरूरत ही क्या है? तब तो कविता की शर्तों पर ही देखना पर्याप्त होगा।' परंतु आलोचना-क्रम में मलयज स्पष्ट ही रचना को अपने समय के यथार्थ की कसौटी पर बार-बार घिसकर उसकी थाह लेने के लिए उत्सुक दिखाई पड़ते हैं। मुक्तिबोध से शब्द उधार लेकर कहें तो मलयज की आलोचना में 'साहित्य के लिए साहित्य से निर्वासन' की आदर्श स्थिति बहुत हद तक विद्यमान है। किंतु यहाँ भी वे अंतर्विरोधों से मुक्त नहीं हैं। उनकी स्थिति का अंतर्विरोध यह है कि अपने यथार्थ के पटल पर वे सबके विरुद्ध अकेले रह जाते हैं और चेतस् के फलक पर सबके साथ अकेले पड़ जाते हैं। मलयज का रूपक हमें अपने समय के प्रगतिकामी बुद्धिजीवी के अकेलेपन तक ले जाता है और वहीं जूझने को छोड़ देता है।

'कविता से साक्षात्कार' के क्रम में मलयज कुछ सवालों से लगातार जूझते रहे हैं, जैसे 'एक प्रासंगिक कविता कैसे सार्थक कविता भी होती है? सार्थक कविता क्या होती है - वह जो आज के मनुष्य की धमनी में समय के दबाव को शिद्दत से महसूस करा दे या वह जो इस महसूस किए हुए को कर्म की प्रखरता तक ले जाए? वह जो संपन्न अर्थच्छटाओं से युक्त कला का कीमती दस्तावेज हो या वह जो जीवन संघर्ष के जुझारुपन में घटित होकर सर्जनात्मकता की एक नई कसौटी सामने ला दे?' आलोचना के दरम्यान इन प्रश्नों से टकराते हुए प्राप्त निष्कर्षों के बारे में वे कहते हैं कि - 'उन्हें मैं समकालीन जीवन और कविता के परस्पर संबंधों की खोज में आए विभिन्न पड़ाव कहना ज्यादा पसंद करूँगा। आलोचना कविता द्वारा उठाए गए प्रश्नों का उत्तर नहीं देती, वह सिर्फ प्रश्नों की अर्थवत्ता और पृष्ठभूमि का उद्घाटन करती है, ताकि इस रहस्योद्घाटन के प्रकाश में कविता स्वयं अपना उत्तर या प्रश्न रचे।'

इस लंबे वक्तव्य के आलोक में मलयज के आलोचनात्मक लेखन पर विचारने से स्पष्ट होता है कि यह घोषित करने के बावजूद कि आलोचना कुछ भी प्रमाणित नहीं करती, वे आवश्यकतानुसार रचना से बाहर जाकर कुछ प्रमाणित करने के लिए हमेशा सचेष्ट दिखाई देते हैं। अरुण कमल ने ठीक ही इंगित किया है कि उन्होंने अनुभव को व्यापक अर्थ-विस्तार देने की ही नहीं, बल्कि स्वयं अनुभव का मूल्य लगाने की कोशिश की है। कहने की जरूरत नहीं है कि समकालीन जीवन और कविता के परस्पर संबंधों की खोज करने के लिए प्रयत्नशील शब्दकर्मी की आलोचना का ध्येय केवल अनुभव को व्यापक अर्थ-विस्तार देने तक कदापि सीमित नहीं हो सकता। वह रचना की विषयवस्तु और सामयिक स्थितियों के बीच उत्पन्न अंतराल को अर्थ-संदर्भ देने के लिए निश्चित तौर पर एक पृष्ठभूमि प्रदान करेगा। मलयज की आलोचना में इसे लक्षित करना जरा भी मुश्किल काम नहीं है। युवा लेखन पर विचारते हुए वहाँ निर्वासन की अब तक प्रचलित भाववादी व मार्क्सवादी व्याख्या से भिन्न नवीन व्याख्या के साथ-साथ तद्युगीन राजनीति का भी मौलिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है।

युवा लेखन के संदर्भ में 'एलियनेशन' को स्पष्ट करते हुए मलयज लिखते हैं कि 'उस ऐतिहासिक मोड़ को जिनके आगे का रास्ता युवालेखन की यात्रा से सीधे जुड़ जाता है, चाहे उसे हम नेहरू युग की समाप्ति की संज्ञा दें या सन् आठ के बाद जैसी सीमा विभाजक काल-रेखा से परिभाषित करें, इस स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ता कि तभी से वह प्रक्रिया अपने नंगे और क्रूर रूप में तेज होती गई है, जिसे व्यक्ति के निर्वासन की प्रक्रिया कहा जाता है।' हिंदी में इस मुद्दे को लेकर अब तक हुआ विमर्श उनके अनुसार अवैज्ञानिक एवं अपर्याप्त है, क्योंकि अपने यहाँ अभी तक इसको 'प्रायः समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के चश्मे से ही देखा जाता रहा है जो कुछ हुआ भी है वह भी समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के साहित्यिक उच्छिष्ट के रूप में।' ऐसे में उन्हें यह जरूरी लगता है कि चूँकि पिछले दशक में समसामयिक जीवन-बोध को तीव्र करने में सबसे अधिक हिस्सा राजनीति का रहा है, अतः साहित्य के संदर्भ में राजनीति द्वारा लाए गए व्यक्ति के निर्वासन की चर्चा' की जाए।

मलयज द्वारा निर्वासन की राजनीति केंद्रित व्याख्या में कई असंगतियाँ हैं और स्पष्ट ही इसका कारण कहीं न कहीं समाजशास्त्रीय प्रविधि के प्रति उनके अनुदार रवैए में निहित है। वे यह देखने में चूक जाते हैं कि इतिहास के किसी भी कालखंड की राजनीतिक विसंगतियों को केवल राजनीतिक विश्लेषण द्वारा मुकम्मल तौर पर समझना लगभग असंभव है। वस्तुतः राजनीतिक विसंगतियों का गहरा संबंध उस व्यवस्थापोषक राजनीति से होता है जो उस व्यवस्था से लाभ उठाने वाले वर्गों के हित-अहित के आधार पर टिकी होती है। इसलिए व्यवस्थापोषक राजनीति के विभिन्न घटकों की आड़ से नेहरू युग के बाद की पूरी राजनैतिक सक्रियता को समान रूप से सिद्धांतहीन बताते हुए उसे ही आम आदमी की राजनीति की संज्ञा देना और कुछ नहीं, बल्कि आलोचक के पास सुस्पष्ट राजनीतिक दृष्टिकोण और परिभाषित विचार-व्यवस्था के अभाव का सूचक है। बावजूद इसके, यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि मलयज की आलोचना लगातर जोड़-तोड़ से निर्मित तथा सामाजिक उत्पीड़न और उस पर टिकी हुई व्यवस्थापोषक राजनीति के खिलाफ एक संवेदनशील कवि-आलोचक की जीवंत एवं साहसपूर्ण प्रतिक्रिया है। प्रसंगात् मलयज ने लिखा है : 'जिस राजनीति के अंतर्गत न्यूनतम कार्यक्रम का झंडा पार्टी सिद्धांतों के चिथड़े को सिलकर बनाया गया हो वहाँ मोहभंग की कोई गुंजाइश रह ही नहीं जाती : आम आदमी की राजनीति स्थिति के इस कटु स्वीकार से ही शुरू होती है। पिछले दशक का साहित्य बुनियादी तौर पर इस स्थिति के कटु स्वीकार और उससे उत्पन्न प्रतिक्रियाओं का साहित्य रहा है।'

जहाँ तक सर्जनात्मकता के संदर्भ में व्यक्ति के निर्वासन की प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने का सवाल है, यह सर्वविदित है कि हिंदी में इसकी शुरुआत 'नई कविता' आंदोलन के दौर में उसके तथाकथित शलाका पुरुषों द्वारा की गई थी। 'नई कविता' के सर्वाधिक द्वंद्वग्रस्त नारों - 'व्यक्तित्व की खोज' (Quest of personality) और 'पहचान की तलाश' (Search of identity) का संबंध पूँजीवादी समाज व्यवस्था के उस एकांतवादी एवं व्यक्तिनिष्ठ पहलू से रहा है, जिसमें व्यक्ति अपने पूरे अस्तित्व का सामूहिक नियति से निर्वासन (Alienation) अनुभव करने लगता है, पर समूह से जुड़ा रहने के लिए स्वयं को विवश महसूस करता है। इस आंतरिक क्षोभ के फलस्वरूप् वह समूह से भी भिन्न और आत्मिक रूप से स्वतंत्र रहने के लिए अपनी पहचान की तलाश करता है। उल्लेखनीय है कि विदेशों में एंग्री-हिप्पी-बीट जेनरेशंस के अनुभव एवं अभिव्यक्ति की पद्धतियों में सक्रिय रह चुके इन दोनों गड्डमड्ड नारों ने भारत में भी अनेक भाषाओं की साठोत्तर रचनाशीलता में प्रतिवादी नाटकीयता को उत्प्रेरित किया था। इसे अज्ञेय के अनुयायी कवियों से भिन्न मुक्तिबोध सरीखे नई कविता के कवियों ने जल्दी ही भाँप लिया था। लगभग उसी समय प्रकाशित कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह के 'मैं का गीत' शीर्षकीय रचना से गुजरते हुए शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है कि उस जमाने की अनेकानेक कविताओं एवं गीतों में जिस व्यक्तित्व-बोध को अभिव्यक्ति मिल रही थी उसका अभिप्राय सामूहिक सापेक्षता में आम आदमी का ही बोध था :

'मैं अरुण-नील अंबर की सुधा अगर पी लूँ
तो गरल हवा का, लपट धरा की कौन पिए ?
.............................................................
जो नागिन डँसकर मुझे, तुम्हें, उन लोगों को,
बन गई रूप से चित्र और निवसी मन में
वह और न कोई सिर्फ आधुनिक छलना है
वह ज्वालाओं की सेज बिछाती जीवन में।
मैं भी लूँ मुखड़ा ढाँक घुटन की चादर से
तो तार-तार आँचल जनता का कौन सिए ?'
          - गीतांगिनी, पृ. 20

इसलिए मलयज की यह स्थापना विवादास्पद है कि नेहरू युग के निवार्सन में व्यक्ति भीतर से बाहर कर दिया गया था तथा नेहरू युग के बाद इस दूसरे निर्वासन में व्यक्ति बाहर से भी बाहर कर दिया गया। पर इस बार शरण लेने के लिए भीतर जैसी कोई वैकल्पिक सत्ता नहीं थी। इस तरह यह निर्वासन एक स्तर पर व्यक्ति का दुहरा निर्वासन था - भीतर से भी, बाहर से भी। पिछले दशक के लेखन में 'अस्मिता की तलाश', 'जड़ों की खोज', 'आदिमता की ओर' आदि के स्वर प्रकारांतर से उस क्षत-विक्षत 'भीतर' की पुनर्रचना कर उसे स्थापित करने के ही प्रयत्न जाहिर करते हैं और ऐसे में निराला की 'बाहर मैं कर दिया गया हूँ / भीतर से भर दिया गया हूँ' काव्यपंक्ति की सार्थकता अक्षुण्ण है।

'युवालेखन' के मद्देनजर मलयज को महसूस होता है कि तेज होती गई जीवन-प्रक्रिया के मुकाबले सृजन-प्रक्रिया में तेजी नहीं आ पाई है। साथ ही, उन्हें यह भी शिकायत है कि पिछले दशक का ज्यादातर युवालेखन सर्जनात्मक अपेक्षाओं को जगाकर उन्हें पूरा न कर पाने का लेखन रहा है। सवाल यह उठता है कि मलयज की शिकायत युवालेखन के किस निकाय से है। डॉ. जगदीश गुप्त के साक्ष्य पर यदि कहें तो कविता के क्षेत्र में जहाँ इसे लगभग पचास नामों से प्रचलित काव्यांदोलनों में पहचाना गया था, वहीं रचनात्मक गद्य के क्षेत्र में प्रायः दस नामों से उछाले गए कथांदोलनों में भी इसकी छवि देखी गई थी। यह ठीक है कि सांगठनिक स्तर पर प्रगतिशील आंदोलन के बिखराव का नाजायज फायदा उठाकर पनपी औपनिवेशिक आधुनिकतावादी काव्य-प्रवृत्तियों से युवालेखन के आरंभिक दौर की रचनाएँ प्रभावित थीं। परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सन् 1967 की नक्सलबाड़ी कृषि क्रांति के बेरोक प्रभावों से प्रगतिशीलता की टूटी-छूटी कड़ियों को जोड़कर जनपक्षधर वैचारिक युवा कविता के पुनरोदय के साथ पूर्वागत छद्म क्रांतिकारिता तथा निषेधवादी प्रवृत्तियों का परित्याग कर युवालेखन ने आम आदमी की समस्याओं और संपूर्ण मानवीय क्रिया-व्यापारों से चेतना के स्तर पर जुड़कर उस समय आगामी रचनाशीलता के जनवादीकरण का मार्ग भी प्रशस्त किया था। 'साहित्य की पारिस्थिकी' नामक अपने ग्रंथ में युवा-लेखन की रचनात्मक परिस्थिति का आकलन प्रस्तुत करते हुए कवि-आलोचक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने स्पष्ट लिखा है कि '1965 ई. के आसपास युवा लेखन के जो नव्यतर रचनाकार उभरने लगे और आज जिनकी रचनाओं में राजनीतिक प्रतिबद्धता और दलीयता का आग्रह या उन्मुक्त सामाजिक बोध है, वे अपनी समग्र जनवादी ग्रहणशीलता के ताजगी-भरे संवेदना-पटल पर नई रचनात्मकता की मुद्राएँ उकेर रहे हैं। उनका दृष्टिकोण नारे, फतवे और भावुकता से गठित आतंकवादी नहीं - विचारधारात्मक स्तर मार्क्सवादी है। उनकी नीयत है - जनमानस का क्रांतिकारी पुनर्निर्माण और उनकी रचनाशीलता की विशेषता है, जनवादी दृष्टि से छिछला और यांत्रिक प्रचार मात्र नहीं, गहरी मानवीय अनुभवगम्यता।'

सच तो यह है कि मानवीय अनुभवगम्यता 'युवालेखन' के आरंभिक दौर की रचनाओं में भी, बीज रूप में ही सही, अवश्य विद्यमान है। इसलिए मलयज का यह कहना अक्षरशः सही है कि 'युवा लेखन में मानवीयता की अनुपस्थिति ढूँढ़ना या उसे नैतिक असंवेदन का लेखन करार देना उसके साथ ज्यादती करना है।' जिन कवियों की कुछेक रचनाओं के आधार पर संपूर्ण युवा लेखन को 'देह की राजनीति' का पर्याय घोषित किया जाता रहा है, वे कवि राजनीतिक विवेक से कितने संपन्न थे, इसे युयुत्सा, (अगस्त 67) में प्रकाशित कवि राजकमल चौधरी द्वारा श्रीराम शुक्ल को लिखित एक पत्र के इस अंश से गुजरते हुए शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है : 'स्त्री-शरीर बहुत स्वास्थ्यप्रद वस्तु है - लेकिन कविता के लिए नहीं, संभोग करने के लिए। कविता में स्त्री-शरीर अन्य सभी विषयों की तरह मात्र एक विषय है - कविता का कारण या कविता का प्रतिफल नहीं, मैं ऐसा ही मानता हूँ। अब कविता के लिए हमारी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मान्यताएँ अधिक आवश्यक विषय हैं। स्त्री-शरीर को राजनीतिज्ञों, सेठों, बनियों और इनके प्रचारकों ने अपना हथियार बनाया है - हम लोगों को अपना क्रीतदास बनाए रखने के लिए। बेहतर हो, हम पत्रिकाओं के कवर पर छपी हुई, कैलेंडरों पर छपी हुई अधनंगी स्त्रियों और अपने पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर के मालिकों के लिए हमारा ईमान, हमारा जेहन, हमारी ताकत खरीद कर हमें नपुंसक बनाने वाली अधनंगी स्त्रियों को अब अपने साहित्य में उसी प्रकार प्रश्रय नहीं दें, न आत्मरति के लिए और न पर-पीड़ा के लिए। मैं श्लील-अश्लील नहीं मानता हूँ, लेकिन हम कवि हैं, हमें न तो नपुंसक और न स्त्री-अंगों का वकील बनना चाहिए।' इन पंक्तियों के बावजूद यदि युवा लेखन और विशेषतः कवि राजकमल की काव्य-प्रकृति को लेकर किसी प्रकार के भ्रम की गुंजाइश बनी रहे तो उनकी कविता के एक टुकड़े से गुजरना मददगार साबित हो सकता है, जिसमें अपने समय के तेजाबी यथार्थ के साथ अराजक कल्पना के संयोग से राजकमल चौधरी के कवि ने मुख्य समस्या को सीधे नाम से संबोधित किया है -

'आदमी को तोड़ती नहीं है लोकतांत्रिक पद्धतियाँ
केवल पेट के बल उसे झुका देती हैं,
धीरे-धीरे अपाहिज, धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए
उसे शिष्ट राजभक्त, देश-प्रेमी नागरिक बना लेती है
आदमी को इस लोकतंत्री संसार से अलग हो जाना चाहिए
चले जाना चाहिए कस्साबों, गाँजाखोर साधुओं,
भिखमंगों, अफीमची, रंडियों की काली और अंधी दुनिया में
मसानों में अधजली लाशें नोंच कर खाते रहना श्रेयस्कर है,
जीवित पड़ोसियों को खा जाने से;
हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है
इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए खत्म कर देने की साजिश में।'

सवाल उठ सकता है कि युवा-लेखन से परवर्ती रचनाशीलता को क्या कोई दिशा मिली? इस मुद्दे पर यदि युवा लेखन की कोख से उत्पन्न हमारे समय के एक प्रतिनिधि कवि आलोकधन्वा की ही सिर्फ दो रचनाओं के मद्देनजर विचारें तो स्पष्ट होगा कि इस नई रचनाशीलता का एक पहलू उनकी उस कविता में व्यक्त हुआ है, जो कवि के शब्दों में कविता नहीं है, बल्कि -

'यह गोली दागने की समझ है
जो तमाम कलम चलाने वालों को
तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है।'
- और दूसरा पहलू 'पुरुष-7' में प्रकाशित एक अन्य कविता की इन पंक्तियों में -
'शरद आया
पुलों को पार करते हुए अपनी नई चमकीली
साइकिल तेज चलाते हुए
घंटी बजाते हुए जोर-जोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके...
दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज उड़ सके...
बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके...
कि शुरू हो सके सीटियों, किलकारियों और तितलियों की
इतनी नाजुक दुनिया।'

उल्लेखनीय है कि एक समय में आलोकधन्वा की 'गोली दागो पोस्टर' कविता के बहाने तत्कालीन युवा कविता के रचनात्मक विवेक पर अँगुली उठाते हुए कुछ तथाकथित व्यवस्थित मार्क्सवादी साहित्य-समीक्षकों द्वारा जो सवाल दागे गए थे, संभव है कि वे आज भी कुछ लोगों के लिए प्रासंगिक हों। मुख्य सवाल था कि गोली दागने की यह समझ कवि की दृष्टि में केवल हल चलाने वालों से तमाम कलम चलाने वालों को ही क्यों मिल रही है? तब इसका जवाब देते हुए मुजफ्फरपुर (बिहार) से संपादित-प्रकाशित अपनी पत्रिका 'आईना'-6 के संपादकीय में राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा था : 'यथास्थिति में पुरानी परिपाटी से कैद श्रमजीवी, दमन के शिकार हड़ताली और यंत्रीकरण के शिकार मजदूर तो स्वभाव और शरीर की सीमा तक जीवंतता के तोड़ दिए जाने की त्रासदी जी रहे हैं, मगर जिन हल चलानेवालों को, गोली दागने के बल पर ही जमींदार और बिके हुए कानूनी मुसाहिब, इनसानी सुरक्षा के नाम पर रहने-सहने की जमीन से बेदखल कर देते हैं, उनकी जीवंतता को पीढ़ी दर पीढ़ी संभावना की हद तक टूटने-मिट जाने का खतरा है। उनसे उनके पाँव तले की जमीन आमने-सामने गोली दागने के बल पर छीनकर उन्हें अरक्षित, निराश्रित और शरणार्थी बना देने की जो साजिश होती है और कानून की गोली जिस साजिश को अंजाम देती है, उसके खिलाफ और प्रकारांतर से पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ गोली दागने की समझ तो बेदखली की तत्क्षणता के फलस्वरूप हल चलानेवालों से ही मिल सकती है। कलम चलाने वाले ही पूँजीवादी साजिश का पर्दाफाश कर मामूली आदमी की जीवंतता के टूटने की परख और गोली दागने की समझ का समझदारी के स्तर पर जनप्रशिक्षण में उपयोग कर सकते हैं। इसलिए वह समझ इन्हें हल चलाने वालों से बाहरी तौर पर नहीं मिल रही है, अपनी ही संवेदित चेतना की उत्तेजना में उद्भूत हो रही है, फलतः यह पुराने अर्थ में कविता नहीं और अगर है तो गोली दागने की समझ ही है, कविता के बहाने।'

सन् 1977 में 'पूर्वग्रह' के दो अंकों में प्रकाशित 'मिथ में बदलता आदमी' शीर्षकीय अपने एक निबंध में मलयज ने समकालीन काव्य परिदृश्य के प्रति क्षोभ व्यक्त करते हुए लिखा था : 'कभी-कभी लगता है जैसे जनसंघर्ष के तेवरवाली कविता की तनी हुई मुट्ठियाँ लूट में अपने हिस्से की माँग के लिए हैं।' आज यह निश्चित तौर पर तय कर पाना जरा मुश्किल है कि उनकी इस टिप्पणी के रचना-संदर्भ क्या थे? उनकी यह बात विचारधारात्मक आवेश की आत्यंतिकता तथा अंधलोकवादी रुझान से ग्रस्त कुछ अग्निवर्षी लेखकों के घिसे-पिटे पार्टी लेखन के संदर्भ में भले ही सच हो किंतु सारे युवा लेखन तथा प्रतिबद्ध लेखकों पर इसे कतई चस्पाँ नहीं किया जा सकता।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना पर विचारते हुए मलयज अपनी मनोवांछित कविता की रूपरेखा इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं : 'भाषा के भीतर जो अनुभूति है, भाषा के बाहर वही कर्म है। कविता इन दोनों की संधि पर है। कविता सच्ची बनती है भाषा के भीतर की अनुभूति से और बड़ी बनती है भाषा के बाहर के कर्म से। बौने जीवन से बड़ी कविता नहीं पैदा होती। पर जीवन बौना कर्म की असिद्धि से नहीं, कर्म-क्षेत्र की विविधता का अनुसंधान न करने से बनता है। कर्म-विस्तार का हर रेशा एक नई संपृक्ति से जीवन के राग को वस्तु से बाँधता है, जो सिर्फ एक बिंब है उसे सत्य, जो महज चमकता अहसास है उसे प्रखर किरणों वाला सूर्य बनाता है। कविता सीधा-सीधा कर्म नहीं, पर हमने जीवन में कर्म की जो दिशाएँ खोजी हैं, उनका वह फलक है। कविता की नब्ज को छूकर हम महसूस कर सकते हैं कि उसमें हमारा कितना रक्त कितने ताप और दबाव और प्रवाह के साथ दौड़ रहा है। कविता बड़ी होगी महज अनुभूति की चरितार्थता से नहीं, बल्कि अनुभूति की संभावना से', और स्पष्ट ही यह संभावना अनुभूति को व्यक्त करने वाली भाषा के बाहर कर्म-क्षेत्र में है।

गौरतलब है कि बीसवीं शताब्दी के तमाम जिम्मेदार आलोचक कला और नैतिकता के मुद्दे से किसी न किसी रूप में अवश्य रूबरू होते रहे हैं। 'द ग्रेट ट्रेडिशन' नामक अपने ग्रंथ में एफ.आर. लिविस ने तो ऐसे तमाम लेखकों की जमकर खबर ली है जो तकनीक को अपने आप में चरम साध्य मानते हुए उसे किसी विशेष जीवनानुभव से नहीं जोड़ सके हैं, विशेषकर ऐसे अनुभव से जो नैतिक दृष्टि से शक्ति ग्रहण करता हो। असल में कविता का शिल्प, उसकी भाषा शैली आदि से जुड़े तमाम सवाल किसी न किसी रूप में कवि की अनुभूतियों के मूल्य से अवश्य संबद्ध होते हैं और कहने की जरूरत नहीं है कि ये अनुभूतियाँ कवि के निजी व्यक्तित्व तथा परिवेश के बीच परस्पर घात-प्रतिघात से पैदा होती हैं। इसलिए सर्वेश्वर की कविता पर विचारते हुए मलयज द्वारा की गई यह टिप्पणी बिल्कुल जायज मालूम होती है कि 'नए औजारों की तलाश रचनात्मक स्तर पर मानव अनुभूतियों की नई क्राइसिसों के साक्षात्कार में होती है।' अपनी इस स्थापना के तहत जब मलयज 'एक सूनी नाव' नामक सर्वेश्वर के काव्य संग्रह पर दृष्टिपात करते हैं तो उन्हें लगता है कि 'थकान के जिस मूड में कवि इस संग्रह की कविताओं में पहुँच चुका है उसमें वह किसी नई क्राइसिस में पड़ना नहीं चाहता। इस ठहराव से मुक्त होने के लिए उसे अपने को नई रचनात्मक क्राइसिसों में झोंकने के साथ-साथ लड़ाई के नए औजार भी तलाश करने होंगे।' स्पष्ट ही जो रचनाकार इन दोनों पक्षों में एक को तरजीह देते हुए दूसरे पक्ष को दरगुजर कर देते हैं उनके यहाँ अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच फाँक दिखाई देती है। फिर भी यदि प्राथमिकता तय करनी ही हो तो विवेकशील लेखक को रूप के बजाय रचना की अंतर्वस्तु पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। प्रसंगात् मलयज ने लिखा है : 'कविता में नया सृजनात्मक अर्थ भरने एवं उस अर्थ का नया आयाम रचने के लिए भाषा के नियम-विधान का ज्ञान आवश्यक है। किंतु यथार्थ के संश्लिष्ट सृजनात्मक अनुभव की गत्यात्मकता ही भाषा के इस पक्ष को शक्ति प्रदान कर सकती है। जितने ही अंशों में अनुभूति क्षेत्रों का विस्तार होगा, उनसे क्रियात्मक संपृक्ति होगी, जितने ही अधिक अनुभूति के क्रास-सेक्शन होंगे उतने ही अंशों में भाषा द्वारा नया अर्थ संप्रेषित करने की कठिनाइयाँ बढ़ती जाएँगी और कवि-सामर्थ्य की परख हो सकेगी। नहीं तो कालांतर में यह नियम-विधान एक ऐसी कविता को जन्म दे सकता है जो हुनरमंदों की कविता बनकर रह जाएगी और मिस्त्रीगिरी के काम की तरह एक विश्लेषित क्रिया का स्थान ग्रहण कर लेगी।'

मलयज की आलोचना में बहुप्रयुक्त 'तनाव' वस्तुतः एक कुंजी शब्द (key word) है। रचनाओं की श्रेष्ठता को परखने के लिए उन्होंने सर्जनात्मक तनाव को कसौटी के रूप में स्वीकार किया है : 'व्यक्ति जितना परिवेश के प्रति जुड़ता जाता है उतना ही इस जटिल संश्लिष्ट अनुभवों के संसार के प्रति भी जुड़ता जाता है। रचनाकार के लिए यह स्थिति ही तनाव का उत्स बनती है और परिवेश के प्रति तनाव के साथ और चेतना पर उसके कारण स्पष्ट से स्पष्टतर अंकित होते जाने वाले जटिल अनुभव संसार के साथ यह तनाव भी बढ़ता जाता है। व्यक्ति और परिवेश के इस दुहरे संबंध-बोध से उपजने वाले तनाव को बरकरार रखने में होती है।'

सर्जनात्मक तनाव की मलयज कृत इस व्याख्या के संदर्भ में यह रेखांकन योग्य है कि उन्होंने व्यक्ति और परिवेश के बीच परस्पर घात-प्रतिघात से उत्पन्न दुहरे संबंध-बोध वाली सर्जनात्मकता की परिणति जिस दुहरे संबंध-बोध से उपजने वाले तनाव को बरकरार रखने में देखी है वह और कुछ नहीं, बल्कि कविता में 'तनाव सिद्धांत' के प्रस्तावक अमेरिकी समीक्षक और कृती कवि एलेन टेट द्वारा वांछित आंतरिक तनाव (इंटेंशन) तथा बाहरी तनाव (एक्सटेंशन) के बीच समतोल की स्थिति ही है। अपनी तनाव संबंधी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए टेट ने लिखा है कि "मैं इस शब्द का प्रयोग विशिष्ट रूपक के रूप में कर रहा हूँ, जिसे तर्कशास्त्र के शब्दों 'एक्सटेंशन' और 'इंटेंशन' के उपसर्गों को हटाकर निकाला गया है। कविता का अर्थ उसका 'तनाव' है, यह तनाव उसके सारे बाहरी तनाव और आंतरिक तनाव का पूर्ण व्यवस्थित कलेवर है, जिसे हम कविता में ढूँढ़ सकते हैं।' टेट की धारणा है कि बुद्धिवादी होने के कारण मेटाफिजिकल कवियों के यहाँ यदि बाहरी तनाव के सिरे से शुरुआत करके दूसरे सिरे तक की यात्रा संपन्न होती है तो अबुद्धिवादी होने के चलते रोमांटिक या प्रतीकवादी कवियों की रचनाओं में आंतरिक तनाव से शुरू होकर विपरीत दिशा की ओर अग्रसर होने की कोशिश दिखाई पड़ती है। इन दोनों प्रकार की रचनाओं में वस्तुतः 'को बड़ छोट कहत अपराधू' वाली स्थिति है। फिर भी यह कहना अयुक्तियुक्त न होगा कि महान रचनाएँ प्रायः इस दोहरी कोशिश का सार्थक प्रतिफलन हुआ करती हैं। इस संदर्भ में अंतिम बात यह कि एलेन टेट जिस तरह श्रेष्ठ कविता से पुरानी समाजव्यवस्था के ध्वंस और नई समाज-व्यवस्था के निर्माण की संधि-बेला में उत्पन्न 'ऐतिहासिक तनाव' की अभिव्यक्ति की अपेक्षा रखते हैं वैसी किसी जरूरत का अहसास मलयज की आलोचना में दिखाई नहीं देता।

कलाकार की अंतर्निष्ठा या इंटेग्रिटी का सवाल मलयज ने मुख्यतः सर्जनात्मकता के मद्देनजर उठाया है। अंतर्निष्ठा उनके मत से एक अर्थगर्भ शब्द है। इसमें यदि एक और नैतिक मूल्य-बोध की पहचान ध्वनित होती है तो दूसरी ओर यह शब्द मनोविज्ञान की भाषा में व्यक्तित्व के भावनात्मक एवं बौद्धिक संवेगों की जटिल बनावट तथा इसके संतुलन को व्यक्त करने वाले अर्थ की छाप लिए हुए है। अंतर्निष्ठा शब्द नैतिक अर्थ-संदर्भ में एक निर्णय (जजमेंट) को सूचित करता है और मनोविज्ञान के अर्थ-संदर्भ में एक स्थिति को। सर्जनात्मक साहित्य की विवेचना में अंतर्निष्ठा का प्रत्यय इन दोनों ही अर्थच्छवियों को समेट कर चलता है। उल्लेखनीय है कि 'इंटेग्रिटी' के प्रश्न पर प्रख्यात रूसी कथाकार मैक्सिम गोर्की ने जो विवेचन प्रस्तुत किया है वह ज्यादा वैज्ञानिक है, वस्तुस्थिति के ज्यादा करीब है जिसे मलयज भारतीय संदर्भ में पुनर्विवेचित कर सकते थे। 'व्यक्तित्व का विघटन' शीर्षकीय अपने लेख में गोर्की ने लिखा है कि 'कवि अब शब्दकार बनता जा रहा है। सत्य और चिंतन निरीक्षण के उत्तुंग शिखरों से गिर कर वह क्षुद्र स्तर की परेशानियों के दलदल में फँस गया है। उसकी निगाहें अब नीरस घटनाओं पर टिक गई हैं, जिनको वह बाहर से उधार लिए हुए विचारों की मदद से समझने की कोशिश करता है, और उन शब्दों में उनको अभिव्यक्ति देता है, जिनके अर्थ उनके लिए विदेशी हैं। कला का रूप उसके निकट अधिक महत्वशाली बनता जा रहा है, शब्दों में अब जैसे शीत बसता जा रहा है और विषय-वस्तु नगण्य होती जा रही है, भावना की सच्चाई भी विरल हो गई है और उसमें उदात्त कुछ भी नहीं रहा। इन पंखों के कट जाने पर विचार निर्जीव होकर दैनंदिन जीवन की क्षुद्रताओं में फँसता जा रहा है, विघटित हो रहा है और धुंधला, पस्त और बीमार हो गया है। यहाँ भी निर्भीकता के स्थान पर हमें निस्तेज हिंसा ही मिलती है, सच्चे आक्रोश का स्थान पलायनकारी ईर्ष्या ने छीन लिया है, घृणा चारों ओर चोर निगाहें फेंकती हुई भद्दे कंठ से फुसफुसाती है।'

रामचंद्र शुक्ल पर लिखते हुए जब मलयज अपने समय की कविता में बहुत बारीक, बहुत नफीस कात रही अघाई हुई शब्द-चेतना द्वारा शब्दों का भोग लगाते हुए केवल शब्द-बाजा बजाने का जमकर विरोध करते हैं तो अपनी शक्ति एवं सीमा में उनका कथन यथार्थ के बहुत निकट है। पर विभिन्न कवियों की कविता के विश्लेषण-क्रम में यह सूझ कई बार दरकिनार-सी कर दी गई प्रतीत होती है। संभवतः इसी कारण यहाँ अज्ञेय में उन्हें दो टूक ओजस्वी विचारशीलता दिखाई देती है वहीं त्रिलोचन में काव्य-विवेक के अत्यंत पुष्ट होने के बावजूद समय के विवेक का अभाव खटकता है और अपने इसी आलोचनात्मक विवेक के तहत वे कवि त्रिलोचन को अपनी कविता का कायाकल्प करने का जोखिम उठाने की सलाह दे डालते हैं। इसी प्रकार मलयज द्वारा कवि श्रीकांत वर्मा की सर्जनात्मक प्रेरणा में अक्सर अंतर्निष्ठा की कमी रेखांकित करने के बावजूद खंड-खंड की सर्जनात्मकता की तारीफ करते हुए इसे आज की सर्जनात्मक प्रतिभा के लिए एकमात्र विकल्प बताना कुछ अजीब-सा लगता है।

ऐसी कई बातों के बावजूद हिंदी में एक समर्थ कवि-आलोचक के रूप में मलयज की अपनी एक विशिष्ट पहचान है। समीक्षा-कर्म की बुनियादी प्रतिज्ञाओं के बोध से गहरी संपृक्ति के कारण उनकी समीक्षा दायित्व-बोध से लैस एक निष्ठावान शब्दकर्मी की अविस्मरणीय सृजनात्मकता का साक्ष्य सिद्ध होती है।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में रवि रंजन की रचनाएँ