कहा जाता है कि सृजन की कोई विधि नहीं हो सकती क्योंकि सृजन में सबसे मुख्य बात है प्रत्येक कलाकार की अपनी युक्तियाँ, अपने साधन, और उससे भी बड़ी चीज है हर कलाकार का अपना विजन। लेकिन नाटक और फिल्में चूँकि सामुदायिक कला-विधाएँ हैं इसलिए उसमें हर कलाकार को अपनी युक्तियों और साधनों का मनचाहे ढंग से उपयोग करने की उतनी छूट नहीं मिलती, जितनी अन्य कलाओं में। प्रायः निर्देशक और अभिनेता की युक्तियों और साधनों में एक तनावपूर्ण अंतर्विरोध दिखाई देता है। जहाँ निर्देशक ही पूरी बिंब योजना बनाता है और प्रदर्शन के लिए उपयुक्त सारी युक्तियाँ भी उसी की होती हैं, वहाँ किसी अभिनेता का विजन क्या हो सकता है अगर उसका कोई विजन है तो वह किस रूप में सामने आएगा और अगर उसका कोई विजन नहीं है तो अभिनय को कला का दर्जा या अभिनेता को कलाकार का दर्जा कैसे मिलेगा?
क्या अभिनेता सिर्फ अदाकार है वह कलाकार नहीं है अगर वह कलाकार है तो उसकी निजी रचनादृष्टि या उसकी वैचारिक तैयारी का फिल्म या नाटक की पूरी बिंब योजना में कोई रचनात्मक या वैचारिक योगदान क्यों नहीं स्वीकार किया जाता?
आम तौर पर यह देखा गया है कि एक निर्देशक के लिए जितना महत्व सेट की डिजाइन, कास्ट्यूम, ध्वनि अथवा प्रकाश व्यवस्था, लोकेशन या फिल्मांकन अथवा मंचन के दौरान उपयोग में आने वाले टेबल, कुर्सी, लिबास, खिड़की, दरवाजे और पर्दे का है, उतना ही महत्व अभिनेता का भी है। दूसरी तमाम वस्तुओं की तरह वह भी एक वस्तु है। वह एक ऐसी वस्तु है जो स्वचालित तो है पर स्वनियंत्रित नहीं है। बेशक कोई भी बात कहने का हर अभिनेता का अपना अंदाज होता है लेकिन बात तो वह वही कहेगा जो उससे कहलाई जाएगी, बेशक उसे सौंपी गई भूमिका में वह कई तरह के उतार-चढ़ाव लाता है और अपनी भंगिमाओं और क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से दर्शकों के बीच अपनी छवि प्रस्तुत करता है लेकिन वह छवि निर्धारित विषयवस्तु के दायरे से बाहर नहीं जा सकती। क्योंकि विषयवस्तु पर निर्देशक का पूरा नियंत्रण होता है और उसे प्रतिपादित करने का पूरा अधिकार भी निर्देशक के पास होता है और निर्देशक यह मान कर चलता है कि अभिनेता के पास सिर्फ 'एक्ट' करने की योग्यता होनी चाहिए उसकी बाकी योग्यता का कोई महत्व नहीं है।
तारकोवस्की से एक बार यह पूछा गया था कि जरा बताइए आप अपने अभिनेताओं के साथ कैसे काम करते हैं उन्होंने साफ जवाब दिया था, 'मैं उनके साथ काम नहीं करता, मैं मार्सेल कार्ने और रेने क्लेयर की बात में यकीन करता हूँ, जिन्होंने इस सवाल के जवाब में पहले ही कह दिया है कि 'मैं उनके साथ काम नहीं करता, मैं उन्हें पगार देता हूँ'।' साथ ही साथ तारकोवस्की ने ये भी कहा था - 'मैं यह बिल्कुल जरूरी नहीं समझता कि किसी अभिनेता को किसी खास दृश्य की योजना या उसके प्रयोजन के बारे में भी सब कुछ बताया जाए यानी निर्देशक के काम की गहराई या उसकी अहमियत के बारे में कुछ भी सोचने की अभिनेता को कोई जरूरत नहीं है। उसे विभिन्न सिक्वेंसेज के बीच के संबंधों को भी जानने की जरूरत नहीं है।' तारकोवस्की बहुत जोर देकर यह बात कहते हैं कि ज्यादा विश्लेषणपरक बुद्धि वाले दिमाग-चलाऊ अभिनेता को हमेशा मुगालता रहता है कि वह जान सकता है कि फिल्म क्या शक्ल अख्तियार करेगी। ऐसे अभिनेताओं को 'पूरी पटकथा पढ़ने नहीं देनी चाहिए। पटकथा के अध्ययन से उसे फिल्म के अंतिम रूप की पूर्व-कल्पना के लिए जोरदार दिमागी मशक्कत करने की इच्छा हो जाती है और इस बात का अनुमान लगा लेने के बाद कि फिल्म अंततः कैसी होगी, अभिनेता उत्पादित हो चुकी; भूमिका खेलने लगता है; ऐसा कर वह फिल्मबिंब के सृजन के मूल सिद्धांत को ही नकार देता है।'
तारकोवस्की की इस बौद्धिक व्याख्या का सार चाहे जो कुछ भी हो लेकिन यह बात एक अदना सा दर्शक भी जानता है कि कोई भी पटकथा बिना किसी विषयवस्तु के नहीं बनती और सृजन का कोई भी सिद्धांत जीवन-जगत से अछूता नहीं रहता। ऐसे में अगर गौर से देखा जाए तो अभिनेता को पटकथा से दूर रखने का मतलब है उसे विषयवस्तु और प्रकारांतर से जीवन जगत से भी दूर रखा जाए। यह एक घोर व्यक्तिवादी सोच है इसका सीधा-सा मतलब ये हुआ कि आप अपने साथ काम करने वाले अपने सहकर्मी को इनसान नहीं समझते।
अभिनेता के बारे में जब इस तरह की बातें सामने आती हैं तो हम सोच में पड़ जाते हैं कि एक अभिनेता की निजी स्वायत्तता क्या है क्या वह सिर्फ निर्देशक की मनमानी व्याख्याओं को ढोने वाला एक पशु भर है
यह विषय का एक पहलू है। आइए अब हम दूसरे पहलू पर भी जरा नजर डालें क्योंकि सारी बातें अगर अभिनेता के पक्ष से उठाई जाएँगी तो वह एकतरफा हो जाएँगी। हमें अभिनेताओं की कमजोरियों को भी देखना होगा और हमें इस बात को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि बहुत से निर्देशक ऐसे भी होते हैं जो अपने नाटक या फिल्म का ढाँचा पहले से तैयार नहीं करते, वे बहुत लचीली व्याख्या कलाकारों के सामने प्रस्तुत करते हैं और उन्हें खेलने का भरपूर मौका देते हैं। लेकिन अक्सर देखा गया है, बहुत कम अभिनेता इस छूट का फायदा उठा पाते हैं क्योंकि उनमें स्वतःस्फूर्तता तो होती है मगर गंभीर रचनात्मक बेचैनी नहीं होती। वे अपनी स्वच्छंद ऊर्जा को किसी एक बिंब में केंद्रित करने के बजाय उसे बिखर जाने देते हैं। जाहिर है, ऐसे अभिनेता सोच-विचार से काम लेने वाले अभिनेताओं के दायरे में नहीं आते। इसके बरअक्स कुछ अभिनेता बड़े गंभीर और सजग होते हैं लेकिन मंच पर या कैमरे के सामने आने के बाद वे इतने अनुशासित ढंग से अभिनय करते हैं कि ऐसा लगता है जैसे वे किसी चरित्र को जी नहीं रहे हैं बल्कि अपने अब तक के प्रशिक्षण का प्रदर्शन कर रहे हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और रंगमंडल के कुछ अभिनेताओं में यह सबसे बड़ा दोष रहा है।
लेकिन यहाँ बात हम सिर्फ नाट्य अभिनेता की नहीं कर रहे हैं। हम सिनेमा के अभिनेता की भी बात कर रहे हैं हालाँकि सिनेमा और नाटक दोनों बिल्कुल भिन्न माध्यम हैं और दोनों ही माध्यमों में अगर वह सिनेमा है तो सिनेमाई बिंब और अगर वह नाटक है तो मंचीय बिंब के निर्माण की जिम्मेदारी निर्देशक के ऊपर होती है और भूमिका के निर्वाह की जिम्मेदारी अभिनेता के ऊपर और अभिनेता चाहे कितना भी प्रखर और प्रतिभाशाली हो आखिरकार वह है तो सिनेमाई या मंचीय बिंब का सिर्फ एक हिस्सा ही।
अभिनेता के सृजन की प्रकृति में निहित इस विरोधाभास को सबसे पहले स्तानिस्लॉवस्की ने पहचाना था और अपनी इस खोज को उसने एक ऐसी विशेष प्रस्थापना का रूप दे डाला जो कलाकार और भूमिका का निर्माण के नाम से ज्ञात है उनका यह मानना है कि अभिनेता मंचीय बिंब का निर्माता-स्रष्टा होने के साथ-साथ मनो-शारीरिक तंत्र भी होता है और खुद अपने सृजन की सामग्री भी होता है। वह साधन भी है और साध्य भी। उसे खुद अपने आप को बिंब में रूपांतरित करते हुए दी गई भूमिका में एकाकार हो जाना पड़ता है और इसके साथ ही, पूरे शो के दौरान या पूरी शूटिंग के दौरान किसी न किसी रूप में सृजन पर नियंत्रण भी बनाए रखना पड़ता है। वह यह बात अच्छी तरह जानता है कि वह सिर्फ मंचीय या सिनेमाई बिंब का हिस्सा है लेकिन इसके बावजूद वह कहीं न कहीं अपने दर्शकों और श्रोताओं से भी सीधे संबोधित है।
स्तानिस्लॉवस्की की इस प्रस्थापना को ध्यान में रखते हुए यह मान लेना चाहिए कि किसी भी भूमिका को अदा करते समय अभिनेता को किसी न किसी रूप में अपने मंचीय आचरण पर नियंत्रण बनाए रखना पड़ता है क्योंकि भूमिका के विकास की प्रक्रिया में दो परिप्रेक्ष्य सामने रहते हैं एक है भूमिका का परिप्रेक्ष्य और दूसरा स्वयं कलाकार का परिप्रेक्ष्य। इन दोनों पहलुओं को ध्यान में रखना जरूरी है क्योंकि जिस तरह नाटक या फिल्म के हरेक पात्र की निजी विशेषता होती है, उसी तरह हर अभिनेता की सृजनात्मक आंतरिक शक्तियाँ भिन्न होती हैं। लेकिन फिर भी अभिनेता के लिए हर समय सारा परिप्रेक्ष्य ध्यान में रखना जरूरी है वरना वह फिल्म या नाटक के कुछ अंतर्गुंफित हिस्सों को सँभाल नहीं पाएगा। उसे ये भी ध्यान में रखना पड़ता है कि जिस पात्र की भूमिका वह निर्वाह करने जा रहा है उसकी मानसिक बनावट कैसी है और वह किस परिवेश से आया है। नाटककार या पटकथा लेखक ने उसे किस संदर्भ में अपने नाट्यलेख में शामिल किया है और निर्देशक किस कोण से उसे मंच पर प्रस्तुत कर रहा है।
यहाँ हम इस बात पर जरा गौर करें कि अभिनेता के ऊपर तो यह शर्त लागू है कि वह दोनों परिप्रेक्ष्य का ध्यान रखे लेकिन निर्देशक के लिए ऐसी किसी अनिवार्यता क्यों निर्धारित नहीं हुई क्या इसलिए कि निर्देशन अपने आप में एक स्वतंत्र इकाई है। निर्देशन अगर एक वैयक्तिक कला है तो उनका क्या जो सेट की डिजाइन करते हैं या साउंड इफेक्ट देते हैं या फिल्म के लिए संगीत की रचना करते हैं। जब कोई फिल्म या नाटक बहुत सफल होता है तो हम कहते हैं कि फलाँ निर्देशक की वह फिल्म बहुत अच्छी है या फलाँ निर्देशक का वह नाटक बहुत अच्छा है। यानी हम पूरे प्रदर्शन का सेल्फ क्रेडिट सिर्फ निर्देशक को देते हैं। मैंने आज तक कोई ऐसी फिल्म या नाट्य समीक्षा नहीं पढ़ी जिसमें पूरे ग्रुप को क्लेक्टिव क्रेडिट दिया गया हो। और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हम फिल्मांकन और मंचन की पूरी प्रक्रिया पर कभी गौर नहीं करते।
नाटककार या स्क्रीन प्ले राइटर जब कहानी सोचता है तो उसके सामने होती है कुछ स्थितियाँ, कुछ घटनाएँ, स्मृतियाँ और चरित्रों के कुछ खास तरह के मॉडल जिन्हें वह रचा पचाकर एक-दूसरे के सामने रखता है। नाट्यलेख या स्क्रीन प्ले जब निर्देशक के पास जाता है तो वह अपने हिसाब से उन चरित्रों को या पूरी थीम के मतलब को देखता है और अंत में जब अभिनेता के पास चरित्र आता है तो सारे दृश्य रूप और चारित्रिक विशेषताओं की व्याख्या के साथ। यह व्याख्या निर्देशक तैयार करता है और इसके साथ अभिनेता को अपना मेल मिलाना पड़ता है। अगर मेल मिल जाए तो बहुत जल्दी वह थीम गति पकड़ लेती है और अगर न मिले तो एक अजीब तरह का द्वंद्व शुरू हो जाता है। जिस दिशा में अभिनेता को यह लगता है कि यहाँ वह ठीक तरह अपने परिप्रेक्ष्य को रख सकता है। उससे निर्देशक सहमत नहीं होता। ऐसे मतभेद कई बार वाजिब भी होते हैं। क्योंकि यह भी संभव है कि अभिनेता अपने एक्ट के दौरान मंचीय या सिनेमाई बिंब से बहुत अलग जा रहा हो यानी वह एक्ट तो बहुत अच्छा कर रहा हो लेकिन उस परफार्मेंस और विषयवस्तु की माँग के बीच कोई संतुलन न बन पा रहा हो। लेकिन ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब निर्देशक खुद अपने द्वारा की गई व्याख्या का कोई मतलब नहीं निकाल पाता। ऐसे में सिर्फ अभिनेता ही नहीं, ग्रुप के सारे सदस्य गुमराह हो जाते हैं कि यह सब क्या हो रहा है और वे निर्देशक के कहे अनुसार जो कुछ भी कर रहे हैं उसका औचित्य या प्रयोजन क्या है ऐसी स्थिति में अगर एक अभिनेता निर्देशक से बात करना चाहे कि इस नाटक या फिल्म की थीम जिस दिशा में जा रही है उसे मैं समझ नहीं पा रहा हूँ या जो चरित्र मैं खेल रहा हूँ वह मुझे विश्वसनीय नहीं लग रहा है तो क्या निर्देशक उसकी बात को सुनेगा क्या वह उसकी बात को सुनने के बाद अपनी पूर्व निर्धारित व्याख्या में कोई परिवर्तन करना पसंद करेगा अमूमन नब्बे फीसदी मामलों में निर्देशक अपनी बात पर अड़े रहते हैं और अभिनेता के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं होता कि वह या तो दी गई भूमिका को यंत्रवत स्वीकार कर ले या उस फिल्म या नाटक को छोड़ दे।
ऐसे अनेक उदाहरण गिनाए जा सकते हैं जब एक निर्देशक ने थीम के साथ अपने मनमाने रवैये के चलते परफार्मर्स को वह स्पेस नहीं दिया जिस स्पेस की उस सीन में दरकार थी।
कलकत्ते में श्यामानंद जालान 'तुगलक' नाटक तैयार कर रहे थे तब तुगलक की भूमिका कर रहे शंभु मित्रा ने श्यामानंद जालान से कहा था कि मुझे यह चरित्र विश्वसनीय नहीं लग रहा है और मैं इसे नहीं कर पाऊँगा। श्यामानंद जालान शंभु मित्रा की समझ को चुनौती नहीं दे सकते थे क्योंकि वे एक सोचने-समझने वाले एक्टर थे।
आखिरकार किसी भी तरह उन्होंने शंभु मित्रा को राजी कर लिया। उन्होंने तुगलक की भूमिका निभाई पर अंत तक वे असहमत थे। श्यामानंद जालान उनसे जो कुछ भी करवाना चाहते थे, वह उन्होंने कर दिया लेकिन आखिर तक उन्हें समझ नहीं आया कि वे जो कुछ भी कर रहे हैं उसमें एक अभिनेता का व्यक्तिगत योगदान क्या है।
यही नाटक दिल्ली में भी हुआ। इस बार तुगलक की भूमिका प्रबुद्ध अभिनेता मनोहर सिंह ने निभाई उन्हें यह भूमिका अविश्वसनीय तो नहीं पर कठिन जरूर लगी। एक लंबी कशमकश के बाद उन्होंने कठिनाइयों को समझा और निर्देशक की युक्तियों के साथ तालमेल बैठाने की कोशिश की। लेकिन जब वे 'सिक्स कैरेक्टर्स इन सर्च ऑफ एन ऑथर' कर रहे थे तब निर्देशक उनकी शंकाओं को दूर नहीं कर पाया।
यही हाल उत्तरा बावकर का तब था जब वे 'सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक' नामक नाटक में बजाज के निर्देशन में काम कर रही थीं। निर्देशक ने नाटक का पूरा ढाँचा पहले से तय कर लिया था - इतना मजबूत कि किसी भी कलाकार को अपनी मौलिक परफार्मेंस देने की गुंजाइश ही न रही। उत्तरा बावकर को लगा कि वह कठपुतलियों की तरह मंच पर हरकत कर रही हैं उन्हें लगा कि वह कुछ नहीं कर पा रही हैं सिवाय उसके, जो उनसे करवाया जा रहा है।
ऐसी घटनाएँ सिर्फ मंचों पर ही नहीं फिल्म के सेट पर भी आए दिन होती रहती हैं। यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि विषयवस्तु की अपेक्षा अभिनेताओं की कला को कुछ कम महत्व दिया जाता है। खास तौर से फिल्म या नाटक के घटना बहुल भाग (किसी बड़ी ऐतिहासिक या सामाजिक घटना) के शोरगुल में या कुछ ज्यादा प्रभावशाली दृश्य संयोजन में अभिनेताओं का व्यक्तित्व छिप जाता है।
लेकिन ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब हम यह देखते हैं कि एक अभिनेता की निजी स्वायत्तता का क्षेत्र कितना विशाल हो सकता है। सबसे बड़ा और इस विषय में सबसे ज्यादा प्रासंगिक उदाहरण है - चार्ली चैप्लिन जिसने दुनिया को यह बता दिया कि स्वतंत्र अभिनेता होने का क्या मतलब होता है। चैप्लिन को हम क्या कहेंगे क्या चैप्लिन सिर्फ एक कॉमेडी कलाकार थे क्या वे सिर्फ फिल्म निर्माता या निर्देशक थे नहीं, चैप्लिन अपने आप में एक विलक्षण फिनोमेना थे, जो कभी दोहराया नहीं जा सकता। वे सिर्फ बड़ी वैश्विक घटनाओं के साक्षी नहीं थे बल्कि अपने आप में एक घटनाचक्र थे। चैप्लिन के अंदर का कलाकार पर्दे पर अपनी उपस्थिति को इतने अबाध और इतने बेबाक तरीके से दर्ज करता था जो एक कलाकार की बिल्कुल निजी अभिव्यक्ति से ही संभव है। चैप्लिन की फिल्मों का नायक (स्वयं चैप्लिन) किसी निर्देशक का मोहताज नहीं था। उसका नायक अपने चारों ओर बसे अतिशयोक्ति पूर्ण संसार और उसकी वीभत्स और डरावनी विसंगतियों की रत्ती भर भी परवाह नहीं करता। वह बिना किसी खौफ के अपनी ठुमकती हुई चाल से बहुत सजग ढंग से और बिल्कुल निर्दोष भाव से उन विभीषिकाओं के बीच से गुजरता है जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पैदा हुई थीं। लेकिन तब हम नहीं जानते थे कि इन बड़ी विभीषिकाओं के बीच ठुकमता यह अदना सा किरदार अपने आप में एक 'हाइपरबोल' था। दुनिया की किसी भी एब्सर्ड स्थिति के बीच से चैप्लिन जिस स्वाभाविक सरलता से गुजरता है और अपने कलात्मक आचरण से हमें आश्चर्यचकित करता है, वह तभी संभव है जब कोई कलाकार केवल अपने स्वभावगत अंशों को जीता है और कोई भी कलाकार केवल तब अपने स्वभावगत अंशों को जी सकता है, जब उसका खुद का कोई विजन हो और वह संपूर्ण रूप से स्वायत्त हो। चैप्लिन की फिल्मों का थीम मेकर कोई और नहीं, वे खुद थे। चैप्लिन ने किसी के निर्देशानुसार 'एक्ट' नहीं किया बल्कि दर्शाए गए दृश्य उन्होंने खुद गढ़े थे। और वे दृश्य आज भी हमारे लिए एक क्लासिक हैं, क्योंकि उन दृश्यों को गढ़ने वाला कलाकार सिर्फ एक अभिनेता या एक निर्देशक नहीं था, वह एक सर्जक था। उसके हरेक काम में एक सर्जक के हस्ताक्षर साफ दिखाई देते हैं। चैप्लिन ने किसी तथाकथित निर्देशक की तरह फिल्म के वृहद ढाँचे को सिर्फ अपने 'आंतरिक आग्रहों' के अधीन नहीं रहने दिया बल्कि उसे इतिहास की चेतनाओं के साथ सम्मिलित कर दिया। उसने सिर्फ अपने व्यक्तिगत आइडिया के लिए फिल्म के तमाम दूसरे पक्षों की बलि नहीं चढ़ाई बल्कि हर बार अपनी टीम में एक खरी सृजनात्मक फिजा निर्मित करने की कोशिश की। उनकी फिल्मों में उनके अलावा दूसरे सभी कलाकार और सेट डिजाइनर और कैमरामैन और ध्वनि तथा प्रकाश व्यवस्था में जुटे सभी तकनीशियन एक सर्जक की हैसियत से अपना योगदान देते हैं। उनके सेट की दीवारों के भीतर मानवीय आत्माएँ वास करती थीं क्योंकि उस सेट के निर्माता सिर्फ पगार पर काम करने वाले कर्मचारी नहीं थे। उनमें से हर किसी के पास अपना युगबोध था वे फिल्म की अवधारणा को चरितार्थ करने में एक साथ जोर लगाते थे। क्योंकि उन्हें भरोसा था कि वे किसी निर्देशक के निजी खयालों को नहीं बल्कि उन खयालों को अभिव्यक्ति दे रहे हैं जो सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं की घनी गहराइयों में से फूटकर निकले थे।
चैप्लिन की फिल्मों को देखने के बाद हमें साफ पता चल जाता है कि किसी भी फिल्म की जीवंत संरचना तभी संभव हो सकती है जब सेट पर मौजूद हर इनसान की इंटेंसिटी फिल्माए जा रहे शॉट से जुड़ी हो। चैप्लिन की फिल्मों में और तथाकथित दूसरे 'महान फिल्म निर्देशकों' की फिल्मों में सबसे बड़ा यही फर्क था। चैप्लिन निर्देशक नहीं थे। उनका सिनेमा ग्रुप के सदस्यों में फैला हुआ था जहाँ छायाकार, सेट के सज्जाकार, कास्ट्यूम डिजाइनर, मेकअप मैन और अभिनेता और यूनिट के तमाम सदस्य यह जानते थे कि उन्हें क्या करना है। वे अपने काम को सिर्फ तकनीकी तौर पर निरूपित करने वाले यांत्रिक पुर्जे नहीं थे जैसा कि आमतौर पर तारकोवस्की, फेलिनी, मार्सेल कार्ने या रेने क्लेयर के साथ काम करने वालों को महसूस होता था कि वे सिर्फ कर्मचारी हैं, उन्हें सिर्फ वही करना है जो उन्हें कहा गया है।
हमारे यहाँ मणि कौल और कुमार शहाणी की फिल्मों में यही बात साफ दिखाई देती है। ऊपरी तौर पर उनकी फिल्में यह दावा करती हुई प्रतीत होती हैं कि इन फिल्मों की तासिर ये है कि हर फ्रेम में स्वाभाविक स्वतंत्रता के साथ 'हर चीज को' और समय को बहने दिया जाए ताकि दर्शक ऐसा जरा भी महसूस न करें कि उनके अवबोध पर किसी भी तरह की जबर्दस्ती की जा रही है। लेकिन अंदरूनी तौर पर देखा जाए तो इन दोनों निर्देशकों का खुद का कोई समयबोध ही नहीं है उनकी फिल्में कभी किसी चीज को रेखांकित करती हुई नहीं दिखतीं और इन फिल्मों में कोई ऐसा कालखंड नहीं है जिसे किसी विशेष सामाजिक परिघटना के साथ संबद्ध किया जा सके और ऐसा कोई अनुभव भी नहीं है जिससे यह साबित हो सके कि मनुष्य के बारे में कोई बात कही जा रही है। वहाँ हर चीज सपाट पुर्जे की तरह हरकत करती रहती है। अभिनेता भी वहाँ सिर्फ एक वस्तु है। एक ऐसी वस्तु जिसका कोई नाम नहीं है। जो अपने आप में कोई किरदार भी नहीं है। वह सिर्फ एक पदार्थ है, निर्देशक की अपनी निजी शैलीगत विशिष्टता के फ्रेम के अंदर दृष्टव्य रूप से दर्ज एक पदार्थ, जो मनुष्य और उसकी जिंदगी से संपृक्त नहीं है। अगर इन फिल्मों में किसी खास संयोजना के साथ मनुष्य के अस्तित्व को भौतिक सामग्रियों के समतुल्य हो जाने के भयानक संकट को दिखाने का प्रयास गहरे विवेक और अत्यंत सावधानी से किया जाता तो भी कुछ ऐसी बात निकलकर आती जिसे हम किसी हद तक कोई सार्थक प्रयास कह सकते लेकिन इसके विपरीत यहाँ मनुष्य के अस्तित्व का पदार्थीकरण किया गया है।
जाहिर है कि इस तरह के दिशाहीन और निरर्थक फिल्मांकन में एक अभिनेता के लिए कहीं भी ऐसा अवसर नहीं मिलता कि वह अपनी स्वयं की कला से कोई लयात्मक रूपरेखा खींच सके जिससे उसके अभिनेता होने की कोई सार्थकता साबित हो।
अभी तक हमने फिल्म और नाटक दोनों विधाओं से जुड़े अभिनेताओं और निर्देशकों के बारे में बात की है जिसमें शहरी रंगमंच या फिल्म में अभिनय तथा निर्देशन के अंतर्द्वंद्वों को रेखांकित करने की कोशिश की गई। लेकिन इन दोनों माध्यमों में काम करने वाले अभिनेताओं से इतर अभिनय की दुनिया का एक और पक्ष भी है जो प्रायः नजरअंदाज कर दिया जाता है। हम फिल्मों के और शहरी रंगमंच के बड़े नामी-गिरामी अभिनेताओं को तो जानते हैं लेकिन उन लोक नाटकों के अभिनेताओं को बिल्कुल नहीं जानते, जिनके बिना हमारे निर्धारित विषय 'अभिनेता की निजी स्वायत्तता' की संपूर्ण व्याख्या संभव नहीं है।
फिल्मों और शहरी रंगमंच के प्रोडक्शन आमतौर पर प्रचार माध्यमों में कहीं न कहीं अपनी उपस्थिति दर्ज करवा लेते हैं जबकि लोकनाटकों और लोक अभिनेताओं पर कभी कोई 'फोकस' नहीं होता। वे अपने सीमित आंचलित दायरे में अपनी आडंबरहीन प्रस्तुतियों में मगन रहते हैं। भारत में हालाँकि लोकनाटकों की अनेक परंपराएँ हैं लेकिन फिलहाल हम एक फार्म को चुन लेते हैं। यहाँ छत्तीसगढ़ में नाचा या गम्मत के नाम से प्रचलित फार्म को केंद्र में रखकर कुछ बातें कही जा सकती हैं। इस फार्म को चुनने की सबसे पहली वजह यह है कि यह एक ऐसा फार्म है जिसमें प्रस्तुत किए जा रहे नाटक की कोई पूर्व रूपरेखा या कोई लिखित पाठ नहीं होता और सबसे बड़ी बात तो ये है कि इस फार्म में अभिनय करने वाले अभिनेताओं का कोई निर्देशक भी नहीं होता। यह एक निर्देशन विहीन स्वतंत्र रंगमंच है जिसमें सिर्फ अभिनेता ही पूरी प्रस्तुति का नियामक और स्रष्टा है। इस शैली के रंगमंच की सबसे बड़ी ताकत है 'इंप्रोवाइजेशन'। यहाँ हर अभिनेता को अपनी मनमानी बात अपने ढंग से बिना किसी झिझक के कहने और अपने एक्ट में अपनी भाव-भंगिमाओं और शारीरिक मुद्राओं को प्रभावी ढंग से प्रदर्शित करने की खुली छूट होती है।
जाहिर है, यह एक स्वतःस्फूर्त नाट्य विधा है क्योंकि इसमें कोई बनी-बनाई थीम नहीं होती जिसे नपे-तुले अंदाज में प्रस्तुत करना पड़े। इस फार्म में हर अभिनेता को बात में से बात निकालते चले जाने (इंप्रोवाइजेशन) की छूट होती है। इसलिए वे समकालीन स्थितियों के प्रति सचेत भी होते हैं और बहुत बोल्ड भी।
वे किसी भी तरह की सामाजिक विसंगति पर बड़ी बेबाकी से अपनी बात कहते हैं और अपनी तमाम कूद-फाँद और नाचने-गाने के बावजूद सिर्फ मनोरंजन के पात्र नहीं होते बल्कि हर तरह की कुरीतियों पर खुला प्रहार करने वाले एक संस्कृतिकर्मी भी हैं। जबकि नब्बे फीसदी फिल्म अभिनेता सभ्यता के नाम पर फैलाए गए दुर्गुणों को भी आँख मूँद कर स्वीकार लेते हैं। उसके अंदर न तो कोई कर्तव्यबोध होता है और न कोई दृष्टिकोण, जबकि ग्रामीण अभिनेता अनपढ़ होने के बावजूद दृष्टि संपन्न होता है। अपने सहज विवेक से वह जान लेता है कि गाँव में आर्थिक पिछड़ेपन की वजह क्या है। क्यों हमेशा निर्धन लोगों को धनी लोगों पर आश्रित होना पड़ता है। किस तरह भूस्वामी, सूदखोर, महाजन और दलाल गाँव में शोषण का जाल बिछाते हैं। वे जितने सहज विवेक से इन सब विसंगतियों को जान लेते हैं, उतनी ही सहजता से उसे व्यक्त भी कर देते हैं। उनके अनुभवों में और उनकी अभिव्यक्तियों में कभी कोई मिलावट नहीं होती।
लेकिन यहाँ भी सब कुछ अच्छा ही अच्छा नहीं था। गाँव-गाँव में फैली इन नाट्य मंडलियों में प्रदर्शन के स्तर पर कई गड़बड़ियाँ भी थीं जो मंचीय आचरण के कुछ मूलभूत नियमों का उल्लंघन करती थीं बल्कि कभी-कभी तो वे खुल्लमखुल्ला अश्लील हरकतों और फूहड़ संवादों का प्रयोग भी करते थे। आजादी के बाद भारत में जितने बड़े पैमाने पर अपसंस्कृति का विस्तार हुआ, उतनी ही बड़ी तादाद में लोक जीवन भी भ्रष्ट हुआ। जिसका सीधा असर नाट्य मंडलियों पर भी पड़ा और पहले जो ग्रामीण अभिनेता जिस सजग मूल्य संयोजन, संबंधों की स्थापना और स्थितियों के उन्नयन की मानसिकता को प्रेरित करते थे, उसके स्थान पर अब वे जीवन यथार्थ में विकसित विकृतियों को स्वीकारने के लिए विवश हो गए।
इस सांस्कृतिक दुर्घटना को सबसे पहले हबीब तनवीर ने देखा। न सिर्फ देखा बल्कि परिवर्तन की संपूर्ण प्रक्रिया में लोक-तत्वों की स्थिति और नियति को पहचानने और उस पहचान के जरिए इतिहास-प्रक्रिया की निर्ममता से जूझने के लिए उपयुक्त मानसिकता का निर्माण भी किया। रचनात्मक स्तर पर हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों के साथ काम करके ऐसे रंगकर्म को प्रामाणिक बना दिया जो बहुत ही पारंपरिक कथात्मक सामग्री और रंगमंचीय तत्वों से भरपूर था।
एक ऐसे दौर में, जब छत्तीसगढ़ के नाचा थियेटर के ग्रामीण एक्टर सही दिशा-निर्देश के अभाव में अपसंस्कृति की चपेट में आ रहे थे, हबीब तनवीर ने उन्हें बाहर निकाला और उनके मासूम सौंदर्य, उनकी हँसी-मजाक और व्यंग्य से भरी अभिव्यंजना शक्ति और उनके स्वभाव के जीवंत स्फुरण को बिना डिस्टर्ब किए उनकी देह भंगिमाओं और नृत्य गतियों को बिना तोड़े-मरोड़े उन्हें एक नई पद्धति और मुहावरे के विकास की प्रक्रिया से जोड़ा। इस मुहावरे का मुख्य मुद्दा परंपरा से साक्षात्कार करने आधुनिक और पारंपरिक रंगकर्म के बीच सेतु बनाने और पारंपरिक नाटय व्यवहारों और पद्धतियों को सम सामयिक प्रासंगिकता देना था इसके साथ लोक अभिनेताओं की रचनात्मक ऊर्जा का संरक्षण और परिष्कार का मुद्दा भी इस योजना में शामिल था।
हबीब तनवीर की इस पहल के बाद तो जैसे एक आंदोलन ही छिड़ गया। अलग-अलग क्षेत्रों में बंसी कौल, कवालम नारायण पणिक्कर, तमिलनाडु के.एम. रामास्वामी, चंडीगढ़ में नीलम मानसिंह चौधरी और मणिपुर के कन्हाई लाल तथा रतन थियम ने पारंपरिक तत्वों का उपयोग करके अभिनेता के प्रशिक्षण की ऐसी पद्धति का विकास किया, जिसके कारण अभिनेता की कला पहली बार उजागर हुई। वह क्षेत्रीय दायरों से निकलकर विश्वस्तरीय बनी और हम उसकी शक्ति और संभावनाओं से परिचित हुए।
इस मुहावरे के रंगकर्म में हमें अभिनेता की वापसी और उसकी सार्थक उपस्थिति दिखाई पड़ती है। ये ऐसे निर्देशक थे जिन्होंने रंगकर्म को फैलाया और ग्रुप के सभी सदस्यों के लिए ऐसा माहौल बनाया, जिसमें हर एक के लिए अपनी प्रतिभा को निखारने के अवसर थे और सबने अपनी प्रतिभाओं को नए आयाम भी दिए और साथ ही साथ, पूरी प्रस्तुति में अपने व्यक्तित्व को विलीन भी कर दिया।
कला का वह कितना अद्भुत क्षण होता है जब एक कलाकार अपने विशिष्ट योगदानों के लिए भी पहचाना जाता है और वह नाटक या फिल्म के बिंब में भी समाविष्ट हो जाता है।