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कहानी

विसर्जन से पहले

शरद आलोक


मेरे सामने मेरे पति की अस्थियाँ रखी हैं। मैंने उसे मिट्टी के एक सुंदर लोटेनुमा कलश में रक्खा है। कलश ढूढ़ने के लिए मैंने कितने प्रयत्न किए थे। भला हो मेरी कलाकार मूर्तिकार मित्र अनीता का जिसने मुझे कलश दिया। विदेश में और वह भी स्वीडेन में बहुत मुश्किल से मिल पाती हैं, भारतीय चीजें। प्रवासी दुकानों पर अभी भी अंतिम संस्कार का सामान आना शुरू नहीं हुआ है। शायद इसलिए क्योंकि अभी यहाँ प्रवासियों ने सत्तर के दशक में ही आना शुरू किया था। अब प्रवासी मरते भी हैं तो ज्यादातर लोग भारत का लोभ भले ही जीवित रहते अपने कलेजे से लगाए रखें पर जब अंतिम विदाई का समय आता है तो परिजन अंतिम संस्कार स्वीडेन में ही कर देते हैं। अंतिम संस्कार... अपनों से बिछुड़ने का दुख इतना बड़ा होता है और वह इतने गमगीन हो जाते हैं कि उन्हें मरने वाले प्रिय की गंगा में अस्थियाँ विसर्जन की अंतिम ईच्छा का ध्यान नहीं रख पाते।

मेरा पति भारतीय था। इस छोटे से कलश में जो अस्थियाँ हैं वह उसी की हैं। पूरे जीवन भर हम दोनों लड़ते रहे अपनी-अपनी संस्कृति के लिए। मुझे पश्चिमी संस्कृति सीधी-सादी, प्रायोगिक, पारदर्शी लगती तो मेरे पति जयशंकर को आदिकाल की, आदर्श, परंपरा में जकड़ी भारतीय (पूर्वी) संस्कृति मानो उसके प्राण लगती थी। बेशक हमारा उसका जीवन भर झगड़ा रहा पर आज जब वह दुनिया से विदा हो गया है भारतीय संस्कृति में अपने को खोजने जा रही हूँ।

मुझे पूरे जीवन भर समझ नहीं आया कि क्या बात है, कि स्कैनडिनेवियायी (नार्वे, स्वीडेन, डेनमार्क और फिनलैंड) लोग अवकाश में अलग-अलग देशों की यात्रा करते। ऐश करते, आनंद उठाते। जीवन भी तो आनंद के लिए बना है, यही मेरा मानना है। जीवन एक बार मिलता है। पर मेरा पति जब भी उसे अवकाश मिलता था वह भारत की यात्रा पर चला जाता था। कभी कुंभ स्नान करने तो कभी बदरीनाथ-केदारनाथ, तो कभी वैष्णव देवी मंदिर को और अपने दोस्त और रिश्तेदारों को ढूँढ़-ढूँढ़कर मिलता था। उसे मानो भारत में ही स्वर्ग मिलता था। जय कहता था कि हमको अच्छे संस्कार और कर्म करने चाहिए ताकि अगला जन्म भी सफल और सुंदर हो। मैं वर्तमान और भविष्य को दूसरे जन्मों के लिए नहीं जीना चाहती थी। और मैं कभी-कभी उससे जब कोई कार्य के लिए निवेदन करती तो उससे व्यंग्यात्मक लहजे में कहती थी,

'अगले जन्म के लिए मेरा यह काम कर दो।' वह मुस्कराता और कार्य कर देता। उसने ना कहना नहीं सीखा था। जय सच्चा इनसान था। आज मुझे उसके न रहने पर अहसास हो रहा है।

मैं कालेज के दिनों में बियर पीने लगी थी, चौंकिए नहीं जैसे जय मुझे नशे की हालत में देखकर चौंक जाता था। यहाँ स्वीडेन में बियर वाइन पीना भोजन का एक हिस्सा है, विशेषकर शुक्रवार, शनिवार या कभी भी शाम को। पर मैंने अपने बच्चों के घर पर रहते बियर-वाइन नहीं पी थी, जय कहता था,

'तुम खूब पियो, जूली! पर बच्चों के सामने नहीं।'

मेरे माता-पिता मेरी बियर पीने की आदत नहीं छुड़वा सके थे जो जय ने छुड़वा दी थी। क्या खास बात है भारतीय संस्कृति में? भारतीय फिल्मों से लगता है कि वह पहनावे, क्लब-जीवन, खाने-पीने की आदतों में और पार्टनर बदलने में हमसे भी आगे हैं। पर स्वीडेन में जय और दूसरे भारतीय परिवारों को देखकर मुझे कभी नहीं लगा। हाँ अपनी बातें छिपाना, कमियों पर पर्दा डालना कोई भारतीयों से ही सीखे। मिल-जुलकर बिना कोई औपचारिकता के उत्सव मनाना भी कोई भारतीयों से ही सीखे। जहाज पर यात्रा करते समय जय की यादों में खोई रही। दिल्ली एयरपोर्ट पर जहाज लैंड होते ही हम अपना सामान लेकर कस्टम से होकर गुजर ही रही थी कि कस्टम वालों ने अर्थियों से भरा कलश को रोक लिया था, दक्षिणा देकर कस्टम से बाहर आ गई थी। विदेशी लोगों में भारतीयों का आकर्षण बहुत है। वह मैं अपने देश में भारतीय पर्वों पर आयोजित उत्सवों में देख चुकी थी।

पहले हवाई यात्रा की थकान, फिर दिल्ली एयरपोर्ट में टैक्सी से रेलवे स्टेशन पहुँची, वहाँ चार-पाँच कुलियों का समूह आ गया। मेरे पास तीन सूटकेस (बैग) थे वह भी भारी भरकम सो मैंने तीन कुलियों को एक-एक बैग पकड़ा दिया। उनमें से एक ने कहा कि वह सभी बैग खुद उठा कर अपने सर पर लाद लेगा। पर मैंने तीनो में से एक-एक बैग उठवाया। मुझे याद है मेरा जय मुझे कभी भी कोई बोझ नहीं उठाने देता था अब-जब उसका अहसास है तो उसके देशवासी से कैसे तीनों बैग एक साथ उठवा लूँ। लोग कहते हैं कि जय के मरने के बाद मैं भावुक हो गई हूँ। मुझे भारतीय मित्रों ने स्टाकहोम में चलते समय कहा था कि ध्यान रखना कहीं कोई कुली, टैक्सी वाला या फेरीवाला आपका सामान न साफ (गायब) कर दे। इन तीनो बैगों में जय का ही सामान है जो मैं यहाँ दान करने लाई हूँ। मैं उसकी यादों को कपड़े के रूप में नहीं रखना चाहती। यदि कोई कुली बैग ले भी गया तो मुझे कोई दुख नहीं होगा। यदि मेरा बैग ले भी गया तो भारतीयों की तरह मैं समझूँगी कि मेरी किस्मत में नहीं था। नियति को यही मंजूर था। यात्रा में ऐसा लग रहा था कि यादों के साथ जय मेरे साथ यात्रा कर रहा है। जय के मरने के बाद उसकी यादें हर पल मेरा पीछा कर रही थीं। वह भारत में अपनी यात्राओं के बारे में इतनी बार बता चुका था कि मुझे नई जगह पहली बार ही देखा क्यों न हो पर वे जगहें चिर परिचित लगती थीं।

पहले मैं सोचती थी कि जय कैसा भारतीय है जो दिन रात भारत की तारीफ में पुल बाँधते नहीं थकता था वह अपने देश चला क्यों नहीं जाता? क्या वह भारत से प्रेम नहीं करता? जय ऐसा भारतीय था जिसे अपने देश से प्रेम नहीं है क्या? वह अपना परिवार, देश, मित्र सभी कुछ छोड़कर चला आया था। कभी-कभी मैं कहती कि क्यों नहीं तुम खुशी-खुशी अपने देश चले जाते हो, बेशक मुझे परेशानी होगी। तुम्हारी खुशी के लिए मैं तुम्हें पैसे भी भेजती रहूँगी। पर वह कभी हमेशा के लिए जाने को तैयार नहीं हुआ था।

हाँ, हर पल जब भी मेरे पास होता था। किसी न किसी बहाने अपने, माता पिता, भाई-बहन, दोस्त और उनकी बातें करके कभी नहीं थकता था। जब आज वह नहीं है, मुझे ज्ञात हुआ है कि वह मुझे बेहद प्यार करता था।

उसने स्वीडेन में मेरे माता-पिता, दादी-दादा और नानी-नाना को अपना घरबार छोड़कर बुढ़ापे में वृद्धागृह में अकेले जाना पड़ा था। उन्हें वृद्धागृह में रहते देखा था जिन्हें परिवार वाले एक महीने में एक बार और बाद में केवल त्योहारों : क्रिसमस-ईस्टर आदि अवसरों पर देखने जाते थे। जिंदगी के आखिरी मोड़ पर उसे मेरे बुजुर्गों की हालत और हालात पर रोना आया। मेरे पिता की मृत्यु के बाद जब मेरी बूढ़ी माँ अकेली हो गईं थी, उसने कहा था,

'जूली क्यों न अपनी मामा (माँ) को अपने पास रख लेते हैं। शैली (बेटी) भी घर छोड़कर चली गई है। उसने अपना फ्लैट ले लिया था। उसी कमरे में मामा रह लेगी।' उस समय मुझे लगा था कि जय पागल तो नहीं हो गया है। मैंने उसे जवाब दिया था,

'नहीं-नहीं, मैं मामा के साथ नहीं रह सकती। हमारी आजादी का क्या होगा? '

'मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता, जूली! तुमने कभी सोचा है, माँ के पास स्वर्ग होता है।' जय ने मुझे समझाने की कोशिश की थी। मुझे मालूम था मेरे खानदान में कभी भी किसी ने अपने माता-पिता को साथ नहीं रक्खा तो मैं ही क्यों रक्खूँ। मैंने जय से कहा था,

'मामा (माँ) बहुत बूढ़ी है, और बीमार भी रहने लगी है। मैं रोज नौकरी पर जाती हूँ। शाम को अपनी मर्जी से क्या हर कुछ आसानी से कर पाऊँगी, नहीं बाबा! मैं माँ को साथ नहीं रख सकती।' जय ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था,

'तुम चिंता न करो, मैं तुम्हारी माँ की सेवा कर दूँगा। माँ बस एक बार जीवन में मिलती है।'

मैं उसे देखते ही रह गई थी। मैं जय के तर्कों का जवाब न दे सकी थी परंतु मैं माँ को अपने साथ नहीं रख सकी थी। आज सभी कुछ स्मरण हो रहा है। मेरी बेटी शैली सप्ताह में केवल एक बार बहुत चाहने पर मिलती थी।

जब मैं जय पर झल्लाती थी तो कुछ भी कह जाती थी। एक बार मैंने माँ की बात करते हुए जय से कहा था,

'जय जब हम बूढ़े होंगे हम तुम्हारे साथ नहीं रहेगें। हम अलग रहेंगे।' तब जय ने व्यंग्य कसते हुए कहा था,

'इसमें क्या खास बात है? तुम्हारी दादी ने 70 साल की उम्र में तुम्हारे बाबा को तलाक देकर अपनी आयु से सात साल कम के बूढ़े के साथ रहने लगी थी। कपड़े ऐसे पहनती थी जैसे कोई युवा लड़की हो। मजे से कैसे सिगरेट से कश मारकर बातें करती थी जैसे वह फिल्म की हीरोइन हेलेन या मैडोना हो।'

जय कहता था,

'जब जूली (जूलिए) तुम बूढ़ी होगी तो मैं तुम्हें वृद्धाघर में नहीं जाने दूँगा। मैं तुम्हारी सेवा घर पर ही कराऊँगा।'

कितने नेक विचार थे उसके मेरे बारे में। वह वायदे का पक्का नहीं था। वह मुझे छोड़कर मुझसे पहले ही दुनिया से विदा हो गया।

आज जब जय मेरे साथ नहीं है उसकी अस्थियों की राख मेरे हाथों में है। मेरा मन नहीं होता कि उसकी अस्थियों को अपने से अलग रक्खूँ। जिस गंगा नदी को वह जीवन भर पूजता रहा और मैं उसकी आस्था को समझ नहीं पाई। वह गंगा नदी को माँ कहता था। भारतीय नदियों को ज्ञानस्थली कहता था जहाँ ऋषि मुनियों ने अपना डेरा डाला, ज्ञान पाया और ज्ञान दिया। जब वह कुंभ के मेले में गंगा स्नान करने आया था। वह बहुत संतुष्ट था। बहुत खुश। उसका मानना था कि उसके सारे पाप धुल गए हैं पर वह यह भी कहता कि पवित्र गंगा को बहुत गंदा और कलुषित कर दिया है प्रदूषण ने।

रेल वाराणसी पहुँच गई। कुछ सोते-जागते और कुछ जय की यादों में समय कट गया। मेरा मन बहुत दुखी था। मुझे जय की अस्थियों से भी लगाव बढ़ गया था। यह अस्थियाँ भी मुझसे दूर हो जाएँगी, पर जय की अंतिम ईच्छा पूरी हो जाएगी और उसकी आत्मा को शांति मिलेगी, यह जानकार संतोष था। मेरे मन में विचारों की शृंखला कसमसाने लगी।

मुझे अपनी स्वतंत्र-उदार पश्चिमी संस्कृति से बेहद प्रेम है और मैं उसकी आदी हूँ। पर भारत में सभी कुछ है। यदि मैं जय से भाषा सीख लेती और कभी-कभी मैं सोचती थी कि यदि मैं जैसे भारतीय संस्कार भी सीख लेती तो मैं यहाँ भारत में रह जाती। भारत में धूप की कमी नहीं। स्वीडेन में जिस दिन सूरज निकलता है और धूप होती है तब हम सभी पूरे दिन भर चर्चा करते हैं और धूप खाने की फिराक में होते हैं।

भारत में सामूहिक और सामाजिक जागरण की कमी है जबकि लोग सरल, संस्कारवान और दयालु होते हैं। हमारे देश में सभी साक्षर हैं और सभी कानून का तथा अपने और दूसरों का दोनों का ध्यान रखते हैं। यहाँ भारत में अमीर और गरीब में बहुत अंतर है और क्लास सिस्टम हावी है। यदि मैं भारत में रहती तो समानता लाने में, और क्लास में अंतर को अपने आसपास कम करने का प्रयास करती।

भारत में पर्यावरण पर लोग जागरूक नहीं हैं। मैं कैसे समझाऊँ की बिना वातावरण और प्रकृति को साफ सुथरा रखकर कैसे अपना जीवन स्तर कैसे ऊँचा रख सकते हैं?

वाराणसी रेलवे स्टेशन पर बाहर निकलते ही मैंने अपने जय के परिवार के पुस्तैनी पंडे (पंडित) परिवार के बारे में पूछा। मैंने उनके नाम की तख्ती ऊपर उठा रखी थी। जय इन पंडे (पंडित) जी से मिलने आया करता था उसके पिता और दादा भी इन्हीं पंडित जी से अपनी सारी पूजा अर्चना कराते थे।

एक व्यक्ति जिसका भारी भरकम शरीर, जिसका चौड़े माथे पर चंदन और टीका लगा हुआ था पास आया और उसने मुझे वहाँ तक पहुँचाने को कहा। जय के साथ रहकर मैं हिंदी सीख गई थी मैं टूटी-फूटी हिंदी बोल सकती थी और समझ लेती थी। यह जानकर लोग थोड़ा हैरान हुए कि मुझे हिंदी आती है।

मैं रिक्शे पर सवार होकर पंडित जी के साथ चाल दी थी। पंडितजी बहुत सहयोग कर रहे थे। घाट पर पहुँचने के पहले ही उन्होंने अंतिम संस्कार और पूजा के सामान का प्रबंध करा दिया था। घाट पर बैठकर पंडित जी ने पूजा शुरू कराई थी तब से अस्थि विसर्जन तक जय की स्मृतियाँ मेरे मस्तिष्क में छाया की तरह लगी रहीं। जय सदा कहता था, ' जूली! देखना यह पैसा धरा (रखा) रह जाएगा। हम लोग पैसा एकत्र करते रहते हैं अंतिम दिनों तक चाहे हमारे पैर कब्र में लटक रहे हों। जय ने मेरे नाम से दिल्ली के एक बैंक में बहुत सा पैसा और लखनऊ में एक फ्लैट ले रक्खा है। जब तक जय जीवित था मैं उसके साथ भारत में नहीं रह सकी। अब जब उसकी यादें हैं क्या उनके सहारे पूरा जीवन बिता सकूँगी। जय आयु में मुझसे 10 वर्ष बड़ा था। वह बहुत जल्दी जीवन त्याग गया अभी वह अवकाश प्राप्त भी नहीं हुआ था। वह जब कहता था कि भारत में कुछ महीने घर वालों और रिश्तेदारों के साथ बिना नौकरी किए भी गुजारा कर सकते हैं। खासकर मुसीबत के समय, और स्वीडेन में किसी के पास समय और पैसा नहीं है जो जरूरत पड़ने पर दूसरों को दे सके। यदि मैं भारतीय नृत्य नहीं सीखती तो शायद जय भी हमारे करीब नहीं आ पाता। बच्चे अपनी राह पर और 55 साल की छोटी आयु में मैं नितांत अकेले, क्या करूँगी। अकेले कैसे रहूँगी। स्वीडेन में आम आदमी की औसत आयु 85 वर्ष है जबकि भारत में 55-57 बरस। पंडित जी ने मेरी ईच्छा के अनुसार मुझसे ही सारे क्रियाकर्म कराए। औए मैं भी पंडित जी को मुँह माँगा दान देती रही।

पंडित जी से मैंने पूछा, पंडित जी अस्थियों का विसर्जन कहाँ करना शुभ होता है? उन्होंने जवाब दिया : बीच नदी में, नाव द्वारा जाना पड़ेगा। मैं पंडित जी और उनके दो सहयोगियों के साथ नाव पर सवार हो गई। मैंने देखा कि अन्य लोग भी अस्थियों का विसर्जन कर रहे थे। पुरुष ही नंगी पीठ अस्थियों का विसर्जन कर रहे थे। मैंने स्वयं महिला होकर विसर्जन की बात कही। पहले पंडित जी नहीं माने बाद में मान गए। और मैंने अपने शरीर में अंदर पहले से ही स्वीमिंग ड्रेस पहन रक्खी थी। पंडित जी ने पहले से ही नदी के बारे में उसकी गहराई आदि बात बता दी थी। साथ ही दुर्घटना होने पर बचाने के लिए दो आदमी साथ रखे थे। मेरे वस्त्र उतारते ही स्वीमिंग ड्रेस में सभी की आँखें मेरी ओर लग गई थी। जैसे कोई तमाशा हो। मुझे उनका आश्चर्य से देखना जायज लग रहा था। क्योंकि एक महिला वह भी यूरोपीय विदेशी महिला अस्थियाँ विसर्जित करने आई है। बीच नदी में नाव से उतरने पर मेरे शरीर में काफी कीचड़-मिट्टी चिपक गई थी।

पंडित जी ने सफेद वस्त्र पहनने के लिए कहा था पर मैं अपने साथ वह साड़ी लेकर आई थी जिसे जय ने मुझे मेरे जन्मदिन में उपहार में दिया था। उस समय मैं वह गुलाबी साड़ी न पहन सकी थी और इनकार कर दिया था, पर आज जब वह दुनिया में नहीं है उसका वचन निभा रही हूँ। मेरे जिद करने पर पंडित जी ने कुछ नहीं कहा।

लोग फुसफुसा रहे थे कि देखो विधवा ने रंगीन साड़ी पहनी है। मैं उनको क्या समझाऊँ कि जय मुझे हमेशा रंग-बिरंगे कपड़ों में देखना चाहता था। जय की अस्थियों का अस्तित्व गंगा नदी मिल गया था। आदमी का जन्म हुआ, शिशु, बाल, युवा वृद्ध और एक दिन दुनिया से प्रस्थान। मानो काल चक्र में पहले से ही बँधा हो जीवन।


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