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					प्यार कीदूरागता पहली पुजारिन-सी
 आ रही नभ में उषा !
 मौन संशय की अँधेरी छाँह
 घिर पड़ी धुँधले क्षितिज पर,
 - दूर नावों पर ;
 अब उसे सस्मित समेटे जा रही
 कल्पना की दिशा !
 यही सुधिमय समर्पण की घड़ी,
 छाया-जगत को
 यों चूमती अरुणिमा,
 जैसे बरसती हो
 उच्छ् वसित आसंग की माधुरी l
 हाँ, चिरंतन प्रीति की प्रतिबिंब गाथा-सी
 तरंगित रंगिनी गंगा;
 एक डुबकी ले सहज अभिषेक को
 आ गई जल में उषा !
 ओ उषा !
 ओ चेतना की माँ !
 (ऐसी सन्निकटता के लिए करना क्षमा),
 रह रहा कैसे तुम्हारा रहस और अखंड यौवन,
 दिप रहा सद्यस्क अंगों में भला कैसे -
 आनंद यह निस्संग ?
 दे रही क्यों
 जरठता को दान शैशव का ?
 मैं मुसाफिर वंचना की रात का,
 विश्वास भी अपमान !
 लो, तभी यों हो गई ओझल
 स्वयं उजला अँधेरा ओढ़कर
 यह मुँहजली मेरी तृषा !
 ओ डूबती जल में उषा !
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