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कविता

दो ध्रुवों के बीच

राजेंद्र प्रसाद सिंह


दो अपरिचित भी नहीं,
हैं सिर्फ दो अजनबी, अनजाने-
रहे अज्ञात क्षण से असंबद्ध किसी निमिष तक
किंतु अपरस्पर नहीं कोई कहीं जीता :
बँधे इतिहास से हैं स्थान
से हैं बँधी संख्याएँ
सदा बाँधे प्रकार
बाँधे रूप
बाँधे नाम
गुण में
गुण-परस्पर, सुसंबद्ध, विश्रुत, अभिन्न, अटूट
तो शायद किसी का अपरिचित रहना असंभव है
तभी हम अपरिचय का उभयनिष्ठ समय व्यतीत किए,
हुए परिचित गुणों से, नाम से, रुचि से,
अमित संभावनाओं से, प्रयासक स्वप्न से !
हम परस्परता प्राप्त कर भी रह गए हैं
दो ध्रुवों पर, भिन्न - !
जो कुछ है विदित या बाहरी अभिव्यक्ति,
उससे मौन अंतस् का न मिलता बिंब;
यों हम दो ध्रुवों के बीच उलझी प्रक्रिया की
व्याख्या में जी रहे या मर रहे -
अनुमान के अनुमान के - अनुमान - के अनुमान के -
अनुमान को

 


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