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कविता

एक जीवन

राजेंद्र प्रसाद सिंह


एक जीवन
है किरण का सिंधु-कर्षण,
एक जीवन
है धुआँ की रेख का विस्तार...!
स्वप्नवर्ती गीत में या
मथी-सी नीहारिका में या
असह्य सुगंध के अभिशाप से
मुरछी, झुकी चंपा-कली की
पीतिमा में... क्या भरा?

उफ!
समय का दर्द
कितने प्रश्न-चिह्नों में बँटा है !
देख लो -
वैदूर्य मणि कोई जड़ी है
मृत्तिका के पात्र में जिसके लिए, -
वह अनागत... सदा प्रस्तुत है;
नहीं खुलता यों कभी वह
अकिंचनता का मुखौटा खोल !

फिर भी जानता है निखिल सागर,
जानता है, - वीचि, उर्मि, तरंग में,
अनथके ज्वारों में
सदा पद-चिह्न उतराते रहेंगे;
अंत-हीन, अमेय नीलाकाश भी
पहचानता है, - निज विकुंचन में,-
अथिर होंगे न पर्वत शिथिल
छाती पीटने से;
- इंद्र हो या वरुण,-
सारे पर्वतों के पंख लौटा दे,
फिर भी वे न डोलेंगे, - न बोलेंगे...,
एक जीवन
है तिमिर की धड़कनों में गूँजता स्वीकार !

 


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