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आलोचना

वैचारिक प्रतिबद्धता और आलोचना

शंभुनाथ मिश्र


प्रतिबद्धता एक समय सापेक्ष धारणा है। साहित्य में प्रतिबद्धता की अवधारणा और उसके स्वरूप को लेकर लगातार विमर्श होता रहा है। आलोचना के संबंध में इस धारणा को स्पष्ट करने के लिए इससे संबंधित आधुनिक विचारधाराओं को समझना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक आलोचना के जटिल स्वरूप को भी समझना है। प्रतिबद्ध रचनाओं पर अधिक जोर पश्चिमी साहित्य जगत में सबसे पहले दिया गया, इसलिए प्रतिबद्धता के ऐतिहासिक संदर्भ भी पश्चिम की वैचारिकी से जुड़ते हैं। अपने मूल रूप में यह विचार कि साहित्य को समाज की समस्याओं के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिए, युद्धोतर यूरोप के व्यापक अनुभवों से जुड़ता है। विश्वयुद्ध के बाद पहले फ्रांस में और फिर ब्रिटेन के साथ-साथ अन्य यूरोपीय देशों में प्रतिबद्ध साहित्य की अवधारणा का विकास हुआ। इसका मुख्य कारण संभवतः यही है कि उस समय के प्रतिष्ठित साहित्यिक सृजन में सामाजिक चेतना को लेकर एक गहरी उदासीनता का भाव विद्यमान था। इसके विपरीत उस समय की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ यह माँग कर रही थीं, कि साहित्य सामाजिक हस्तक्षेप का भी कार्य करे। इसलिए उस समय के रचनाकारों ने खुलकर प्रतिबद्ध रचना के महत्व पर जोर दिया। प्रतिबद्ध साहित्य के प्रबल पक्षधर लेखक मैक्स ऐडेरेथ ने लिखा - ''प्रतिबद्ध साहित्य की धारणा का जन्म साहित्य पर आधुनिक विचारधाराओं के प्रभाव के कारण हुआ। भिन्नताओं के बावजूद इन विचारधाराओं में एक समानता यह है कि इनमें हमारे समय के गहरे और तीव्र राजनीतिक परिवर्तनों का अक्स है और इसलिए ही ये हममें से हर एक को इस बात के लिए विवश करती हैं कि वह दुनिया में अपनी हालत पर तथा दूसरे मनुष्यों के प्रति अपनी जिम्मेदारी के प्रश्न पर आलोचनात्मक ढंग से पुनर्विचार करे।''1

हिंदी में प्रतिबद्धता शब्द का प्रयोग 'कमिटमेंट' के हिंदी अनुवाद के रूप में स्वीकृत हुआ, जबकि यूरोपियन लिटरेचर में एक खास साहित्यिक मोड़ के रूप में इसे फ्रांस के इंगेजे (लिटरेचर इंगेजे) शब्द के अनूदित रूप में लिया गया था। यह आधुनिक युग का शब्द है और इसके साहित्यिक संदर्भ का निर्माण भी आधुनिक विचारधारा के कारण हुआ है। मैक्स ऐडेरेथ का कथन इस बात की पुष्टि करता है कि प्रतिबद्धता को साहित्य की एक प्रासंगिक विचारधारा के रूप में स्वीकार करने के पश्चिमी अनुभव के पीछे उस समय की विचारधाराओं का प्रभाव था, बल्कि यह भी स्पष्ट होता है कि उस समय की सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों में ऐसे कारण मौजूद थे, जो लेखक की मूल्य चेतना को झकझोर रहे थे। साहित्य की जो मान्य समाजिक स्थिति थी उसके अतिरिक्त लेखक एक ऐसी सामाजिकता की जरूरत महसूस कर रहे थे जो उन्हें समय की राजनीति से संबद्ध कर सके।

प्रतिबद्धता लेखन में सीधे और सायास तरीके से मौजूद हो, यह हमेशा आवश्यक नहीं है। प्रतिबद्धता की धारणा का एक अन्य तात्विक पक्ष भी है। वह इस अर्थ में कि -''अपने बुनियादी स्वभाव के चलते अपने को भाषा में अभिव्यक्त करने वाला लेखक हर हालत में प्रतिबद्ध होने को बाध्य है।''2 भाषा का उपयोग इस बात को प्रमाणित करता है कि मनुष्य एक निश्चित संबंधों से बनी दुनिया में रहकर ही अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है। मनुष्य अन्य प्राणियों से इस अर्थ में भिन्नता रखता है कि वह प्रकृति को अपने अनुकूल बना सकता है जबकि मानवेतर प्राणी अपनी जीवन रक्षा के लिए खुद को प्रकृति से अनुकूलित करता है। इस बुनियादी मानवीय स्वभाव को ध्यान में रखकर ही, साहित्य की सामाजिक चेतना को गहराई से जाना जा सकता है। ऐसी स्थिति में प्रतिबद्धता मात्र परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया ही नहीं रह जाती, बल्कि मनुष्य की सामाजिकता को उसके नैतिक आग्रहों के संदर्भ में खोजने का एक साधन भी बन जाती है।

प्रतिबद्धता को लेकर बीसवीं शताब्दी में काफी बहसें हुई हैं। प्रतिबद्धता चूँकि क्रांतिधर्मी लेखन की पक्षधर है, इसलिए इसे क्रांति की निरंतरता में ही समझा जा सकता है। बीसवीं शताब्दी तक पहुँचने से पूर्व वैचारिक जगत को अनेक क्रांतियों से गुजरना पड़ा है। मार्क्स (1818-1883), एंगेल्स, लेनिन, माओ-त्से-तुंग से लेकर नए रूस-चीन तक चिंतनधारा में जो विकास और परिवर्तन हुए हैं, उन्हें ध्यान में रखा जाय तो ज्ञात होगा कि प्रतिबद्धता का मूल रूप स्वीकारते हुए भी उसे क्रियान्वित करने को लेकर पर्याप्त विवाद हुए है'। ऐसी स्थिति में प्रतिबद्धता की कोई स्पष्ट परिभाषा दे पाना कठिन है। वैसे भी - ''जिस क्लासिकल अर्थ में 'प्रतिबद्धता' का प्रयोग होता आया है उसे ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि रचना के केंद्र मे उस मनुष्य की उपस्थिति अनिवार्य है जिसे हम सही मायने में सामान्यजन मानते हैं - दलित, पीड़ित, सर्वहारा।''3 यानि रचनाकार को हर हाल में अपनी आवाज सही दिशा में उठानी होगी, नहीं तो ऐसी विचारधाराओं को भी प्रश्रय मिलेगा जो स्वभावतः रचना विरोधी हैं। इसीलिए मुक्तिबोध को भी कहना पड़ा - ''अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। तोड़ने ही होंगे गढ़ और मठ''। प्रतिबद्धता इसलिए भी अनिवार्य है क्योंकि यह साहित्य के व्यापक मानवीय सरोकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है। प्रतिबद्धता की बाते करते हुए सदैव 'सर्वहारा साहित्य' का आग्रह किया गया और कहा गया कि सामाजिक रूपांतरण में रचना की भूमिका 'पक्षधर विपक्ष' की होनी चाहिए। यहाँ पक्षधरता किसी संकुचित अर्थ में नहीं समझी जानी चाहिए। पक्षधरता का प्रयोग जब हम प्रतिबद्धता के अर्थों में करें तो उसका एक निश्चित आशय ही होगा। संभवतः पक्षधरता अधिक फैला हुआ ओैर कुछ हद तक बिखरा हुआ शब्द भी हैं। इसलिए साहित्य के लिए 'पक्षधर' की बजाय प्रतिबद्ध शब्द अधिक परिभाषित है।

हिंदी साहित्य में देखा जाए तो सच्चे अर्थों में प्रतिबद्ध साहित्य का प्रारंभ प्रगतिवादी युग से ही हुआ।4 इसे इस अर्थ में नहीं समझा जाना चाहिए कि इससे पूर्व का साहित्य मानवीय सरोकारों से विमुख था, बल्कि इसे इस तरह समझा जाना चाहिए कि प्रगतिवादी आंदोलन ने साहित्य और प्रतिबद्ध विचारधारा को एक बिल्कुल नई अर्थ-भंगिमा दी। रचनाओं का मूल स्वर राजनीति के अधिक निकट आया और वर्ग विभाजित समाज की स्थितियों का अधिक साफ और स्पष्ट ढाँचा साहित्य में उभरने लगा। इसने अपने समय के साहित्य को पूर्व के लेखन से अलग और सार्थक पहचान दी। इसके पहले 19वीं सदी के नवजागरण के प्रारंभिक वर्षों में द्विवेदी युग के कवियों, लेखकों, पत्रकारों ने भी राजनीतिक क्षेत्र की हलचलों पर वैचारिक प्रतिक्रिया करने की कोशिश की थी, लेकिन एक रचनाकार के लिए राजनीति और सामाजिक स्थितियों को दरकिनार रखकर रचना करने की संभावना उस समय तक मौजूद थी। प्रगतिवादी युग के प्रारंभ से ही सिर्फ आनंद और मनोविनोद की उत्पत्ति वाला साहित्य पूर्णतः त्याज्य माना जाने लगा और प्रतिबद्ध साहित्य को ही साहित्य की श्रेणी में रखे जाने का आग्रह बढ़ा। इन स्थितियों ने हिंदी साहित्य में प्रतिबद्धता की बहस को एक नया आयाम दिया।

मैनेजर पांडेय का मानना है - ''प्रतिबद्धता का गहरा संबंध लेखक की सामाजिक दृष्टि, उसे आगे बढ़ने वाली राजनीतिक दृष्टि और उन दोनों को लेखन में व्यक्त करने वाली रचना दृष्टि से होता है। आज के समय में अगर किसी लेखक को अपने समय और समाज की ऐतिहासिक स्थितियों और सामाजिक तथा राजनीतिक वास्तविकताओं का सही -सही बोध न हो तो उसे प्रतिबद्ध नहीं माना जा सकता है।''5 और भी स्पष्ट तरीके से कहा जाय तो अपने समय के प्रति सचेत होना और उसको रचनात्मकता का आधार बनाना, प्रतिबद्ध होना कहा जा सकता है। हिंदी में प्रतिबद्धता शब्द आमतौर पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण के संदर्भ में प्रयुक्त किया जाता रहा है, जो कि उसकी न्यायपूर्ण परिभाषा नहीं है, इसीलिए हिंदी के गैर-मार्क्सवादी आलोचकों ने साहित्य में प्रतिबद्धता जैसे विचार का लगातार विरोध किया है। उनका मानना है कि 'प्रतिबद्धता' जैसी चीजें रचना के स्वाभाविक सौंदर्य को नष्ट करती हैं। इन गैर-मार्क्सवादी आलोचकों में एक अशोक वाजपेयी का विचार है - ''रचना प्रतिबद्धता से मुक्त भी रह सकती है। आप चाहें तो कुछ द्रविण प्राणायाम करके हर रचना को प्रतिबद्धता के खाँचे में खींच सकते हैं।''6 हालाँकि यह विचार किसी भी सिद्धांत की 'टोटैलिटेरियन' छवि स्थापित होने से रोकने का संकेत है, फिर भी प्रतिबद्ध रचनात्मकता का कोई मजबूत विकल्प हमारे सामने मौजूद नहीं है। प्रतिबद्धता सीधे तौर पर समय और राजनीति से जुड़ी हुई है, हिंदी आलोचना या रचनाकर्म का पूरा इतिहास प्रतिबद्धताओं की एक क्रमिक सुसंगति से निर्मित हुआ है इसीलिए अच्छा रचनाकार अपने को कभी 'तटस्थ' नहीं घोषित करता। कहना न होगा कि तटस्थता भी एक तरह की राजनीति है किंतु प्रगतिशील कम, प्रतिक्रियावादी अधिक। राजनीति और साहित्य एक दूसरे से इतनी सघनता से जुड़े हुए हैं कि उनकी आपसी संगति में ही उनका उचित अर्थबोध संभव होता है। जिस तरह रचनाएँ अपने समय की राजनीति से टकराती हैं, वही स्थिति आलोचना की भी है। अनेक स्थितियों में आलोचना तो रचना से भी आगे बढ़कर अपनी सामाजिक-राजनीतिक भूमिका निभाती है। विश्व-साहित्य में कई बार साहित्यिक आलोचना को राजनीतिक हथियार के बतौर प्रयोग किया गया है, और यह संभव होता है आलोचक की प्रतिबद्ध आलोचना दृष्टि से। डॉ. नामवर सिंह ने इसकी भूमिका पर लिखा - ''रूस में बेलिंस्की जैसे तेजस्वी और प्रखर आलोचक ने साहित्यिक आलोचना को जिस तरह सामाजिक और राजनैतिक चेतना के प्रखर अस्त्र के रूप में प्रयोग किया, वह उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के इतिहास का संभवतः सबसे शानदार अध्याय हैं। हिंदी में भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से चलकर बीसवीं सदी में महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा से आती हुई साहित्यिक आलोचना का वह सामाजिक-राजनीतिक तेवर अब भी बरकरार है।''7

हिंदी आलोचना का विकास क्रम देखें तो उसके मूल में आलोचक की वैचारिक निर्मिति और समाज चेतना की एक स्पष्ट दखल रही है। यह प्रतिबद्धता का ही रूप है जो बिना किसी घोषणा के आलोचक की सर्जनात्कता को नियंत्रित करता है। जरूरी नहीं है कि आलोचक हर जगह अपनी प्रतिबद्धता की घोषणा करता रहे। समकालीन आलोचना दूसरे तरह की प्रतिबद्धताओं की माँग कर रही है, जिसमें शोर कम, सक्रियता ज्यादा हो। साठ के दशक की आलोचना को देखने पर लगता है कि जैसे आलोचक अपनी प्रतिबद्धता की पहचान न हो पाने के डर से भयभीत है। इसीलिए मार्क्सवाद की स्थूल समझ रखने वाले आलोचक अपनी प्रतिबद्धता की जगह-जगह घोषणा करते चलते हैं। डॉ. नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में यह बात स्वीकार की है कि मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होकर आलोचनात्मक लेखन करने वाले आलोचकों को - ''अपनी रचनाओं में, आलोचनाओं में बार-बार आस्था की स्पष्ट घोषणा करनी पड़ रही है। एक तरह से यह कसम खाने जैसी बात है। प्रबुद्ध, प्रौढ़ लेखक के लिए इसकी जरूरत नहीं रह जाती, कि वह बार-बार कहता फिरे कि देखो-देखो मैं मार्क्सवादी हूँ।''8 अपनी बात के समर्थन में नामवर सिंह 1956 के पहले के लेखों की ओर देखने की बात करते हैं ''जिनमें कोई भी लेख बिना मार्क्स, ऐंगिल्स, स्तालिन के उद्धरण के पूरा नहीं होता था। बाद में धीरे-धीरे ये उद्धरण कम होते गए। इससे आलोचना में परिपक्वता आई साथ ही प्रमाणवाद कम हुआ।'' 9

हिंदी आलोचना में प्रतिबद्धताओं की स्पष्ट घोषणा प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र के साथ ही सुनाई देने लगती है। इसके बाद से हिंदी आलोचना में प्रतिबद्धता का दखल बढ़ने लगा जो कि सामाजिक-राजनैतिक प्रतिबद्धता के अतिरिक्त 'पार्टीबद्ध विचारधारा' के रूप में भी हावी हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच जैसे लेखक संगठनों का गठन हुआ जिसमें समान वैचारिकता का समर्थन करने वाले आलोचक-रचनाकार शामिल हुए। अनेक वैचारिक भिन्नताओं के बावजूद इन सारे संगठनों की मूल विचारधारा 'मार्क्सवाद' ही रही, जिस तरह मार्क्स का विश्वास था कि - ''जीवन की भौतिक प्रणाली ही अंततः मनुष्य के जीवन का बौद्धिक निर्धारण करती है।'' उसी तरह समाज के शोषित-वंचित वर्गों के साथ इनका लेखन अधिक आत्मीयता से जुड़ा। इस तरह आलोचना की विकास प्रक्रिया में वैचारिक प्रतिबद्धता एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक की भूमिका निभाती रही है, जिससे आलोचना की सार्थकता में वृद्धि हुई है।

संदर्भ

1. मैक्स ऐडरेथ, प्रतिबद्धता और मुक्तिबोध का काव्य - प्रभात त्रिपाठी, पृ-1

2. प्रभात त्रिपाठी, प्रतिबद्धता और मुक्तिबोध का काव्य, पृ-10

3. प्रेमशंकर, रचना और राजनीति, पृ-35

4. प्रभात त्रिपाठी, प्रतिबद्धता और मुक्तिबोध का काव्य, पृ-79

5. मैनेजर पांडेय, साक्षात्कार, समयांतर फरवरी 2010, पृ-72

6. अशोक वाजपेयी, साक्षात्कार, समयांतर फरवरी 2010, पृ-75

7. नामवर सिंह, आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना, नामवर संचयिता, पृ-24

8. नामवर सिंह, कहना न होगा - सं. समीक्षा ठाकुर, पृ-24

9. 'साहित्य का मार्क्सवादी दृष्टिकोण' लेख में उद्धृत, इतिहास और आलोचना के वस्तुवादी सरोकार, पृ-69


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