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कविता

प्रतीक्षा

मुकेश कुमार


जब मैं देख रहा था भोर में
शरद के बाद वसंत का सपना
अँधड़ ने झोंक दी आँखों में धूल
मौसम के मुँह पर पोत गया काली राख

मेरा सपना झड़ गया
हरसिंगार की तरह
आर्तनाद करने लगा श्मशान का सन्नाटा
नृत्य करने लगे अतीत के प्रेत

कोई शिशु-स्वप्न फिर भी किलकारियाँ भरता रहा

मैंने उछाल दिया उसे अँधेरे में छिपे आकाश की ओर
और करने लगा दिन निकलने की प्रतीक्षा

 


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