परतें खोलता हूँ शब्दों की अनावृत देखना चाहता हूँ उन्हें हथेली में रगड़कर सूँघना चाहता हूँ मैं अर्थों को गूँथकर बनाना चाहता हूँ कुछ रोटियाँ जब थककर चूर हो जाएँगे हम और भूख से बिलबिलाएँगी हमारी आँतें खाएँगे उन्हें नमक लगाकर कच्ची प्याज के साथ
हिंदी समय में मुकेश कुमार की रचनाएँ