एक साथ बहुत सी बातें कह देना चाहती हूँ - कुछ सनसनीखेज मारक तथ्य, कुछ दहशतभरी अमानवीय खबरें, मूक क्रंदन में छिपे प्रतिशोध को उभारती कुछ मार्मिक कविताएँ। एक सी प्राथमिकता और गंभीरता के साथ। तथ्यों को सिलसिलेवार सँजोने का प्रयास करती हूँ तो निर्जीव गणितीय आँकड़े एक ओर आधी दुनिया की यातना के इतिहास का खुलासा करने लगते हैं -
कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर 54 मिनट में एक महिला के साथ बलात्कार होता है,
कि पुलिस के मुताबिक 80 फीसदी बलात्कार नियोजित होते हैं,
कि बलात्कार के सोलह फीसदी मामले ही पुलिस थाने में दर्ज हो पाते हैं जबकि करीब 84 प्रतिशत महिलाएँ तरह-तरह के दबावों के अधीन एफ.आई.आर. तक दर्ज नहीं करा पातीं,
कि सौ में से बमुश्किल चार बलात्कारियों को ही अदालत से दंड मिल पाता है। शेष समाज में सरेआम सीना तान कर संभ्रांत अभिजन की जिंदगी जीते हैं,
कि 2001 यानी महिला सशक्तीकरण वर्ष के प्रारंभिक महीनों में दिल्ली में हुए एक सर्वेक्षण के जरिए सामने आए बलात्कार के 366 मामलों में 321 आरोपी परिवार के ही सदस्य थे,
कि छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार की 80 प्रतिशत घटनाओं में अभिभावकों का हाथ होता है,
तो दूसरी ओर दूसरी आधी दुनिया (पुरुष समाज) की सामंती मानसिकता का उद्घाटन करते हैं -
कि चंडीगढ़ के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलेपमेंट एंड कम्यूनिकेशन की महिला उत्पीड़न विषयक वर्ष 2000 के सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार 52 फीसदी पुरुष पीड़ित महिला के 'अनुचित' पहनावे, व्यवहार और चाल-चलन को बलात्कार/छेड़खानी का मूल कारण मानते हैं तो 54 फीसदी लोग बलात्कार के लिए पुरुषों के दुराचार की जगह शराब के नशे को जिम्मेदार ठहराते हैं,
कि दिल्ली पुलिस के आयुक्त आर.एस. गुप्ता का कहना है कि ''महिलाएँ पहनावे में सावधानी बरतें, अपनी सीमाएँ पहचानें और असुरक्षित व्यवहार न करें तो उनके खिलाफ अपराध 50 फीसदी तक घट जाएँ।''
आँकड़ों के बाद आँकड़ों की पुष्टि करती कुछ 'खबरें' जो यकीनन अखबारी कॉलम से बाहर निकल कर सत्ता और व्यवस्था, व्यक्ति और समाज सबको अपने-अपने गिरेबान में झाँक लेने का आग्रह करती हैं
कि नशे में धुत सलीम खान ने मुंबई के चर्च गेट और बोरीवली के बीच उपनगरीय ट्रेन में मानसिक रूप से विक्षिप्त एक बारह वर्षीया लड़की के साथ बलात्कार किया। इस अमानुषिक घटना के साक्षी सात मध्यवर्गीय शिक्षित यात्री थे जो अपनी सुविधाजन्य कायरता (स्वार्थपरकता या असंलग्नता?) के कारण इस अमानुषिक कांड के मूक दर्शक बने रहे।
कि एक साल से पुंछ जेल में कैद पाकिस्तानी महिला परवीन अख्तर उर्फ शहनाज ने 1996 में जेल के हैड वार्डन मुहम्मद दीन के बलात्कार का शिकार हो मोबिन नामक कन्या को जन्म दिया जिसे मानवाधिकार आयोग के हस्तक्षेप ने भारतीय नागरिकता अवश्य दिलवाई, लेकिन शहनाज की नागरिकता, यौन शोषण और न्याय जैसे जटिल अंतर्संबद्ध मुद्दों पर विचार करने की जरूरत नहीं समझी गई। उसका पूरा भविष्य पुंछ जेल के हैड वार्डन की 'सदाशयता' पर टिका है जो चाहे तो उसे अपनी बीवी कबूल कर जिल्ल्त से छुटकारा दिला सकता है, अन्यथा उसका क्या है। पुरुष है, पुलिसकर्मी है, बलात्कार का मुकद्दमा वर्षों घसीटने और बेदाग छूटने की बारीकियाँ जानता है।
तो क्या सचमुच 'योनि' ही है नारी? बकौल अमृता प्रीतम पुरुष के तन, मन और जेहन के नाप की बनी जरूरतों, संस्कारों और जेहनियत की वरदी पहनने को अभिशप्त? उसकी सारी शारीरिक, मानसिक, नैतिक विकृतियों-दरिंदगियों को गर्भ में पाकर अनचाहे मातृत्व को सहेजने को विवश?
'' माँ / एक जुल्म को कोख में उठाती रही / और उसे अपनी कोख से / एक सड़ांध आती रही / कौन जान सकता है / एक जुल्म को पेट में उठाना / हाड़-मांस को जलाना।''
'तुम लोग हमसे इतनी घृणा क्यों करते हो ?'
बलात्कार स्त्री के निजत्व पर गहरी चोट है। जर्मेन ग्रीयर इसे ''पुरुष की स्त्री के प्रति अदम्य कामना या जबर्दस्त आकर्षण के बाध्यकर प्रत्युत्तर की अभिव्यक्ति'' मानने की बजाय ''आत्मवितृष्णा से जन्मा, घृणा के पात्र पर किया गया हत्यारी आक्रामकता से भरा कृत्य'' (विद्रोही स्त्री, पृ. 229) मानती हैं। वे जानती हैं कि स्त्री के प्रति ''अपनी घृणा की गहराई खुद पुरुष भी नहीं जानते'' और चकित हैं कि पुरुष की हर अमानुषिकता को अपनी नियति स्वीकार करने वाली स्त्री ने कभी पलट कर उससे यह क्यों नहीं पूछा कि ''तुम लोग हमसे इतनी घृणा क्यों करते हो?'' बेशक समूची विश्व संस्कृति नारी को पूज्या, श्रद्धा, देवी कह कर महिमामंडित करती रही है, लेकिन उसके पीछे छिपी पाखंडपूर्ण कुटिलता और हीनता ग्रंथि को क्या इतनी सरलता से नजरअंदाज किया जा सकता है? जर्मेन ग्रीयर जे मैकग्रिगॅर एलेन के वक्तव्य को उद्धृत कर पुरुष के घृणा-मनोविज्ञान को एक तथ्य की तरह प्रस्तुत करती हैं - ''मैं जानता हूँ कि नैतिक श्रेष्ठता की यह स्वीकृति जिसे साधारण पुरुष स्त्रियों को अर्पित करने को इतने तत्पर रहते हैं, उन बहुत सी सुविधाओं से वंचित किए जाने की रिश्वत है जो उन्हें पुरुषों के बराबर स्तर पर पहुँचा देतीं। मुझे ऐसा खासतौर पर इसलिए भी लगता है क्योंकि व्यक्तिगत रूप से स्त्रियों के प्रति बहुत विनम्र, उन्हें फरिश्ता वगैरह कहने वाले लोगों के मन में असल में उनके लिए गहरी अवमानना का भाव रहता है।'' (वही, पृ. 233) महादेवी वर्मा पुरुष की घृणा ग्रंथि को हीनता ग्रंथि का नाम देकर इसे घनीभूत करने वाले कारकों - भय, असुरक्षा, एकाकीपन - को रेखांकित करना नहीं भूलतीं जो स्त्री की स्वभावगत स्निग्धता, संपूर्णता और संतान को जन्म देकर सक्षम बनाने में संलिप्त एकनिष्ठ दायित्वशीलता के बरक्स उसे बेहद बौना, कुंठित और संहारक बना देते हैं। घृणा का आक्रामक विस्फोट जहाँ आत्मदया से त्रस्त पुरुष का अपने को एसर्ट करने का लाचार हथियार है, वहीं स्त्री-गुणों को दुर्बलता में पुनर्व्याख्यायित करने के सचेष्ट सामूहिक प्रयास शारीरिक संपुष्टता के आधार पर अपनी वर्चस्व-प्रतिष्ठा की खिसियानी प्रतिक्रियाएँ हैं। यही वह पुरुष मनोवृत्ति है जो पहले स्त्री, फिर उसके 'मादा अंग के प्रति सम्मान न रखने की सार्वभौमिक' घटनाओं की अनवरत श्रृंखला के जरिए स्त्रियों के आत्मसम्मान को न्यूनतर करते हुए इस सीमा तक शून्य कर देती है कि वह पुरुष के लिए 'अपने शुक्राणु उँड़ेल' सकने लायक 'एक बर्तन, एक तरह के मानवीय पीकदान' में तब्दील हो जाती है तो दूसरी ओर अपनी शारीरिक संरचना, प्रकृति और 'जनाना' मानसिकता से भयातुर होकर उसे बदल डालने को लालायित रहती है। निस्संदेह पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के सुदृढ़ स्तंभों के नीचे अहेरी पुरुष की मनोवृत्तियों को चीन्हना जरा भी कठिन नहीं। जर्मेन ग्रीयर बलात्कार के कारणों को विश्लेषित करते हुए उसके पीछे सक्रिय दो उत्प्रेरक घटकों पर विशेष बल देती हैं। एक, समूचे दिक्-काल में सेक्स के साथ जुड़ा घृणा एवं वर्जना का भाव जिस कारण पुरुष न अपनी लैंगिकता से तालमेल बैठा पाता है, न स्त्री को लैंगिक प्राणी से इतर किसी 'पूर्ण' रूप में देख पाता है। चूँकि उसे 'काम' को घृणित मानना सिखाया गया है, लेकिन काम का उत्ताप उसे उन्मत्त बना डालता है, इसलिए कामतृप्ति के उन्माद में 'वितृष्णा के दलदल में गिर जाने के बाद तमाम शर्म और बाध्यता को अपनी भागीदार के मत्थे मढ़ कर'' (वही, पृ. 231) वह अपनी छवि सदैव धो-पोंछ कर निष्कलुष रखना चाहता है। भारतीय पौराणिक और मिथकीय साहित्य में ऋषि-मुनियों के तप भंग के लिए मेनका-उर्वशी आदि अप्सराओं को 'नरक का द्वार' तथा 'ठगिनी' कह कर 'बेचारे ब्रह्मचारी' ऋषि-मुनियों को 'क्लीन चिट' देने के उदाहरण प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं। पुरुष मानसिकता की गहरी चीरफाड़ करती वे कहती हैं कि पुरुषों के लिए यदि अनुपलब्ध (संभ्रांत) स्त्रियाँ 'कुतियाएँ' हैं तो उपलब्ध लडकियाँ (वेश्याएँ एवं कॉलगर्ल्स) 'कचरा' जिनके ''पास से गुजरते हुए अश्लील बातें फुसफुसाना'' और उनकी लज्जा और बड़बड़ाहट को उस पाशविक कामना (सेक्स में रुचि) के अपराध का प्रमाण मान कर स्वयं को निष्कलुष सिद्ध करना आत्मप्रवंचना का प्रमाण नहीं तो और क्या है। यहाँ पुनः उन आँकड़ों की ओर संकेत करना अकारण नहीं होगा जो बलात्कार के लिए स्त्री के चाल-चलन और उत्तेजक परिधान को उत्तरदायी मानते हैं। जर्मेन ग्रीयर की दृष्टि में दूसरा कारण पुरुष की हीनता ग्रंथि में निहित है जो स्त्री के साथ सहज दैनंदिन संबंधों में भी उसे आशंकित और भयाक्रांत रखता है। लेकिन स्थिति विडंबनात्मक स्वरूप तब ग्रहण कर लेती है जब पुरुषों का पथानुगमन करते हुए स्त्रियाँ पुरुषों से नहीं, खुद अपने प्रति वितृष्णा का अनुभव करने लगती हैं। अतः जरूरी हो जाता है कि स्त्री के यौन शोषण और उत्पीड़न के लिए पुरुष मनोविज्ञान की जटिल संरचना को समझते हुए स्त्रियाँ रूढ़ छवियों से मुक्ति पाकर पहले अपने अस्तित्व और अस्मिता को दृढ़तर मानवीय संदर्भों में देखें और फिर अपनी लड़ाई के लिए एक सुविचारित रणनीति तैयार करें। जोन्स और ब्राउन ने अपने ऐतिहासिक 'टुवर्ड्स ए वीमेंस लिबरेशन मूवमेंट' में कुछ माँगें प्रस्तुत की हैं जिन्हें अनदेखा करके नई स्त्री छवि गढ़ना संभव नहीं। इनमें से कुछ उल्लेखनीय माँगे हैं :
1. स्त्रियों को अपना खुद का इतिहास जानना चाहिए क्योंकि उनका एक स्पृहणीय इतिहास है, एक ऐसा इतिहास जो उनकी बेटियों में गौरव का भाव भरेगा... हमारी सुधरी हुई स्थिति कई साहसी स्त्रियों के उद्यम से संभव हुई है। उन्हें छोड़ देने के बजाय हमें उनसे सीखना चाहिए और एक बार फिर लक्ष्य प्राप्ति के अभियान में उन्हें जुटने देना चाहिए। स्त्रीवादी साहित्य, स्त्रीवादी इतिहास की बाजार में माँग है। हमें उसे उपलब्ध कराना चाहिए।
2. जब तक स्त्रियों और पुरुषों के बीच संबंधों का पुनर्गठन नहीं हो जाता, तब तक इस समाज का पुनर्गठन भी नहीं हो पाएगा। घर के अंदर मौजूद असमतावादी संबंध ही शायद सब बुराइयों की जड़ हैं। पुरुष कोई भी भयानक कर्म करके या कायरतापूर्वक अपनी आत्मा का हनन करवा कर आदर, सम्मान और यहाँ तक कि प्रेम तक पाने के लिए घर लौट सकता है। इस स्थिति में, पुरुष कभी अपनी वास्तविक पहचान या समस्याओं से रू-ब-रू नहीं होंगे, और हम भी नहीं होंगी।
3. चूँकि स्त्रियाँ शारीरिक बल के भय से बहुत ही आक्रांत रहती हैं, अतः उन्हें अपनी रक्षा करना सीखना होगा।
4. स्त्रियों को अपने अनुभव आपस में बाँटने चाहिए।
5. हमें संचार माध्यमों को मजबूर करना होगा कि वे वास्तविकता को प्रतिबिंबित करें।
यानी स्त्री मुक्ति की पैरोकार खरी-खाँटी स्त्रीवादी दृष्टि! लेकिन स्त्री के साथ-साथ पुरुष यानी मानव-मुक्ति के उदात्त लक्ष्य को सुलभ कर लेने को लालायित! ठीक इस स्थल पर मुड़ कर पिछले पचास साल के हिंदी कथा साहित्य पर दृष्टि डालने पर एक तथ्य उथर कर सामने आता है कि स्त्रियों और दलितों की समस्याओं से जूझता-टकराता एक नए बेहतर समाज की रचना का स्वप्न देखता हिंदी कथा साहित्य बलात्कार जैसी अमानवीय सामाजिक विकृति को लेकर चुप है। अपवादस्वरूप उग्र को छोड़ दें तो प्रेमचंद से लेकर अब तक मूर्धन्य पुरुष रचनाकारों ने इसे मानवीय समस्या के रूप में कोई तवज्जोह नहीं दी है। छिटपुट जहाँ कहीं भी इसका चित्रण हुआ है, केवल एक स्थिति के रूप में ताकि घटनाओं के संघात को पुष्ट किया जा सके ('कर्मभूमि' की मुन्नी); स्त्री शोषण के एक और आयाम को प्रस्तुत कर धर्म के कुत्सित रूप को प्रकट किया जा सके ('मैला आँचल' में कोठारिन लछमी का मठ के तमाम महंतों द्वारा जरखरीद दासी के रूप में यौन शोषण); दंगों में अनावृत्त स्त्री देह के मार्मिक चित्रण के जरिए देशविभाजन जैसी राजनीतिक परिणतियों के दुष्प्रभावों का अंकन किया जा सके ('झूठा सच' में तारा जैसी एकाकी, असहाय स्त्रियाँ); गाहे-बगाहे पुलिस, ब्यूरोक्रेसी और असामाजिक तत्वों की हवस का शिकार होने की अपेक्षा डाकुओं जैसे सत्ता के नए गढ़ों से साँठगाँठ कर अस्तित्व रक्षण करती स्त्री की धूर्त निरीहता व्यंजित की जा सके (संजीव का उपन्यास 'जंगल जहाँ शुरू होता है' की मलारी); अपराध को छुपाने के लिए राजनीतिक ताकत अर्जित करने के हथकंडों को बखान करते-करते राजनीति के आपराधिक चेहरे को उजागर किया जा सके (वीरेंद्र जैन का उपन्यास 'डूब' जहाँ बामन महाराज 'कपूत' बलात्कारी कैलाश को बचाने के लिए सरपंच का चुनाव लड़ते हैं) या बलात्कार के बहाने इत्मीनान से पूरे तंत्र की 'खबर' ली जा सके (शिवमूर्ति की कहानी 'तिरिया चरित्तर', 'अकाल दंड' और लघु उपन्यास 'तर्पण')। उल्लेखनीय है कि इन रचनाओं में बलात्कृता स्त्री एक अदद नाम, पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि तथा अंधकारमय भविष्य के बावजूद हाड़-मांस की जीवंत स्त्री के रूप में दिखाई नहीं देती। न अपमान की बीहड़ यंत्रणा, न निजत्व को रौंदे जाने का मर्मांतक आघात; न भीषण मानसिक उद्वेलन, न देह-प्राण के प्रति प्रतिशोध भरा निर्मम विरक्ति भाव! केवल सपाट स्थितियाँ - सूचनापरक! स्त्री के अंतरंग और बहिरंग से अछूती! बेशक महंथ सेवादास के यौन शोषण का प्रतिकार न कर पाने के कारण रात के खामोश प्रहर में लछमी (मैला आँचल) के आँसुओं की अविरल धार तथा उसकी मृत्योपरांत गद्दीनशीन महंथ रामदास को कड़ी फटकार उसे लेखक द्वारा 'स्त्री के रूप में चित्रित किए जाने के प्रमाण हैं जिन्हें बालदेव के साथ गृहस्थी बसा कर पत्नीत्व' पाने के सपने में स्पष्ट-सघन रूप में देखा जा सकता है, लेकिन फिर भी अंत तक परिपुष्ट स्त्री व्यक्तित्व उसे नहीं ही मिल पाता। सारा जीवन सत्संग करके बिताने वाली लछमी निर्दोष भाव से बिदियारथीजी के संग सत्संग करने के अपराध में जब लोकापवाद से क्रोधोन्मत्त बालदेव जी की घुड़कियाँ खाती है तब पत्नी बनाम गृहदासी की रूढ़ छवि का अनुसरण कर वह जार-जार रोती बस इतना ही कह पाती है - ''छमा प्रभू! दासी का अपराध... '' (वही, पृ. 292) क्या इसलिए कि रेणु की दृष्टि मूलतः शरच्चंद्रीय दृष्टि है, अतः तीस बीघा जमीन और कलमी आमों के बाग की मालकिन होने के बावजूद राजलक्ष्मी (श्रीकांत) होना उसकी नियति है? आत्मनिर्भर, दृढ़ किंतु समर्पित। समर्पण माने आत्मसम्मानपूर्वक सामंजस्यपूर्ण संवाद नहीं, पुरुष/पति में अपने अस्तित्व का पूर्ण लय। इस पुरुषवादी दृष्टि के चलते जाहिर है रेणु न बलात्कार को एक जघन्य समस्या के रूप में संदर्भ दे पाए, न धर्मस्थलों के भीतर पनप कर समाज की नींव खोखली कर देने वाली विकृतियों के खिलाफ जनाधार बना पाए। अपनी ओर से अंचल को दूषित करते काल का भले ही उन्होंने प्रामाणिक चित्रण किया हो, लेकिन समस्याओं को उभार कर सही परिप्रेक्ष्य में न रख पाना एक ऐसी लेखकीय दुर्बलता है जो लेखक की चुप्पी को अनाचार के समर्थन में अनूदित करने का दुस्साहस भी कर सकती है। ठीक यही बात 1991 में रचे वीरेंद्र जैन के उपन्यास 'डूब' को लेकर भी कही जा सकती है। बामन महाराज और कैलाश के पक्ष को छोड़ भी दें (जिन्हें लेखक ने आग्रहपूर्वक खल पात्रों के रूप में चित्रित किया है) तो माते (जिन्हें उतने ही आग्रहपूर्वक महानायक की पदवी दी गई है) के नीर-क्षीर विवेक के प्रति लेखक की अतिरिक्त श्रद्धा कुछ शंकाओं/आपत्तियों को जन्म देती है कि चंद्रभान अहीर की बलात्कृता बेटी अक्क्ल की लोकलाज की रक्षा के प्रयास में माते ने अनजाने ही पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हाथ मजबूत किए हैं या पुरुष दृष्टि के कारण तमाम सदिच्छा के बावजूद वे बलात्कार को पुरुष की तात्कालिक कामुकता के क्षणिक विस्फोट से ज्यादा अहमियत नहीं दे पाए हैं? वरना क्या वजह है कि वे कैलाश के अवैध पुत्र रामदुलारे और उसकी धाय माँ के पालन-पोषण का दायित्व मंदिर (बामन महाराज) पर डालते हैं और अट्टू साव तथा गोराबाई के प्रेम-प्रसंग को कलंक कथा के रूप में फैलते देख कर भी चुप हैं? क्या माते की व्यवस्था और चुप्पी स्त्री के अनेकविध शोषण के द्वारों को खुला छोड़ कर अपराधियों के पक्ष में नहीं जा खड़ी होती? दूसरे, निर्भीक, सत्यवादी, महात्मा माते की पुत्रवधू के रूप में अक्क्ल जिस तरह असंलग्न रागात्मकता के साथ गोराबाई की गोद में पलते अपने पुत्र को देख कर टीस और असमंजस की गड्डमड्ड स्थिति की शिकार कठपुतली की तरह चित्रित की गई है, वह भी बलात्कार जैसी समस्या के प्रति लेखक के अ-गंभीर रवैये की साक्षी है। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक का लक्ष्य 'ब्राह्मण के वीर्य से जनमे' रामदुलारे के रूप में दलितों-वंचितों-पीड़ितों के एक ऐसे मसीहा को प्रतिष्ठित करना है जिसे अहरीन ने सेया, लुहारिन ने दूध पिलाया, बनिया ने परवरिश की और ठकुराइन ने अपना ठाकुर चुना। (डूब, पृ.266) फलतः अक्कल और गोराबाई, उनके निकट, जीवंत स्त्रियाँ न होकर यज्ञ में डाली जाने वाली आहुतियाँ ही बनी रहीं।
दरअसल महत्व दृष्टि का नहीं, संवेदना का है जो लिंग, वर्ग, पृष्ठभूमि जैसी विभाजक रेखाओं का अतिक्रमण कर लेखक को विषय के साथ एकीकृत करते हुए उसके जीवन, संघर्षों और स्वप्नों के साथ अभिन्न रूप से जीने को मजबूर करती है। अद्वैत के इस बिंदु पर तमाम लौकिक मूल्य और नियंत्रण चूँकि निरर्थक हो जाते हैं, अतः प्रमुख रहती है पीड़ा और पीड़ा के कुहासे को चीर कर नई उषा का आह्वान करती अरुणिमा को बटोर लाने की व्यग्रता। प्राणों की बाजी भी लगानी पड़े तो कम है, क्योंकि मूल्यवान व्यक्ति नहीं, 'मनुष्यता' का स्वास्थ्य और भविष्य है। इस दृष्टि से पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' एकमात्र लेखक हैं जिन्होंने स्त्री को सूक्तियों, सुभाषितों और परंपरागत फ्रेमों से मुक्त कर देदीप्यमान मानवीय अस्मिता के रूप में देखा। उनके यहाँ स्त्री पुरुष की अनुचरी-सहचरी नहीं, पहले स्वयं एक 'मनुष्य' है - अपने जीवन और प्रतिष्ठा को अपनी शर्तों पर जीने वाली स्वाभिमानिनी आत्मनिर्भर स्त्री। उग्र अपने स्त्री पात्रों में मनुष्योचित जिन दो गुणों - स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता - की प्रतिष्ठा करते हैं, उसके लिए वे उच्च शिक्षा, अभिजात पृष्ठभूमि या पुख्ता पारिवारिक-सामाजिक संरक्षण जैसी बैसाखियों की तलाश नहीं करते। चेतना के स्तर पर वे सिर्फ एक ही माँग करते हैं - आत्मदैन्य के आत्मघाती भाव से मुक्ति। 1927 में रचित कहानी 'बलात्कार' इसका प्रमाण है जहाँ एक ओर निरापद रैन बसेरे की तलाश में खंडहर में डेरा डालने वाली भिखारिन गंगा उर्फ 'दर्शनीय चिड़िया' को रूप की हाट में बैठा कर अपनी भोगलिप्सा की निर्लज्ज अभिव्यक्ति करते 'हिज हाइनैस' और उनके चमचों की खिंचाई की गई है तो दूसरी ओर गंगा की मानसिक दृढ़ता को रेखांकित किया गया है जो बलात्कार का शिकार होकर भी पुलिस और तमाशबीनों की भीड़ में बलात्कारी के खिलाफ लगाए गए आरोप से साफ मुकर जाती है। वह स्तब्ध और विमूढ़ है न्याय की गुहार लगाते उत्तेजित समाज को देख कर जो भीड़ बन कर दूसरे को उसी अपराध के लिए दंडित होते देख सुख पाता है जिसे भीतर की अँधेरी खंदकों में गिर कर नितांत अकेले भय और प्रलोभन के सहारे अंजाम दे डालना चाहता है। फिर 'सफेदपोश अपराधियों' से न्याय क्यों पाए वह? पुरुष की स्त्री विरोधी मानसिकता तथा समूची समाज व्यवस्था के प्रति प्रतिशोध एवं अनास्था का निदर्शन करते हुए जिस प्रकार वह अ-सतर्क सिपाही के हाथ से भाला छीन कर अब्दुल गफूर पर जानलेवा हमला करती है और फिर गरज कर दारोगा से अपना बयान लिखने को कहती है, वह स्त्री सशक्तीकरण के दावों की धमक से बहुत दूर स्त्री को उसके मनोभावों, मनोवृत्तियों, मनस्तापों और मनोरथों के साथ समझ कर उसकी मानवीय गरिमा को अक्षुण्ण रखने का आह्वान करता है - ''लिख, मेरा नाम गंगा है। जात औरत ही है। भीख माँगा करती हूँ। इस पापी पुरुष ने मेरा अपमान किया है। मैंने इसके खून से अपने अपमान का बदला लिया है।''
लेकिन रक्तरंजित प्रतिशोध क्या प्रत्येक अनाचार-अपराध के समूल नाश का एकमात्र उपाय है? बल्कि सवाल तो यह है कि क्या प्रतिशोध अंततः अपराध की ज्वाला को धधकाने की उत्प्रेरणा नहीं बन जाता? कृष्णा सोबती मानती हैं कि बलात्कार केवल कानून की दफा नहीं, न मात्र रसभंग, बल्कि ''अमंगल लहर की वह टूटी आसंग स्थिति है जिसे अपने चाहने से स्रोत तक लौटा लाना जन्म-जन्मांतरों सा ही अनिश्चित है।'' यह 'वंचित' हो जाने की उस सपाट स्थिति का निर्मम सामाजिक बोध है जहाँ जिंदगी की अंतरंग रागात्मकता की चाह नैसर्गिक मानवीय वृत्ति न रह कर लोगों की आँखों में छलकती घृणा और तिरस्कार से सार्वजनिक 'तमाशा' बन जाती है। यानी बलात्कार केवल मात्र स्त्री पर पुरुष के लैंगिक आक्रमण की समस्या नहीं, बल्कि इसकी व्याप्ति और व्यंजनाएँ कहीं अधिक अनेकविध और गहरी हैं। समाज के मनोविज्ञान के साथ-साथ यह समस्या उन रूढ़-गलित सांस्कृतिक-नैतिक मान्यताओं के पुनरीक्षण की माँग करती है जिन्हें गौरवमयी संस्कृति का अभिन्न अंग मानते हुए दूने जोश से महिमामंडित करने का सुनियोजित अभियान चलाया जा रहा है। बलात्कार जैसी घटनाओं का होना चूँकि मानवीय अस्मिता पर कठोर पदाघात के साथ-साथ लोकतंत्र की बुनियादी आस्था पर भी प्रहार है, अतः उन परिस्थितियों, प्रवृत्तियों, कारकों का विश्लेषण भी जरूरी हो जाता है जो घर-बाहर और जनमानस - हर कहीं लोकतंत्र को अपदस्थ कर सामंतवाद की प्रतिष्ठा करने में जुट जाते हैं। जाहिर है, बलात्कार इकहरी समस्या न होकर खासी संश्लिष्ट एवं जटिल समस्या है जिसके उलझे सूत्र व्यवस्था की जड़ों में रच-बस कर कड़े और समरूपी हो गए हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि हिंदी कथा लेखिकाओं ने जितनी व्यग्र उत्कंठा, प्रतिबद्ध वैचारिकता और संवेदनपरक समग्रता के साथ इस समस्या को परत दर परत विश्लेषित किया है, वह साहित्य में लिंगपरक विभाजन के विवादों को बेमानी मानते हुए भी नारीवादी दृष्टि और सरोकारों की अहमियत पर पुनर्विचार करने की माँग अवश्य करता है।
'कमबख्त इज्जत का एड्रेस नहीं बदला अब तक '
बलात्कार संबंधी स्त्री लेखन को विश्लेषित करते हुए दो अवस्थाएँ लक्षित की जा सकती हैं। पहली अवस्था में पीड़िता के मानसिक आघातजन्य अनुभवों को केंद्र में रख कर परिवार तथा समाज के साथ उत्तरोत्तर असामान्य होते चलते संबंधों का आकलन करते हुए स्थिति के उस विद्रूप को विशेष रूप से उभारा गया है जहाँ निरपराध पीड़िता मानसिक-भावनात्मक संबल पाने की बजाय कलंकिनी एवं अपराधिनी के रूप में सामाजिक दंड विधान की क्रूरता झेलने को बाध्य होती है। यह स्थिति अपनी सूक्ष्म व्यंजना में शब्दों से परे अहसास के स्तर पर एक सवाल भी उठाती है कि असल बलात्कारी कौन है - पुरुष विशेष या उसे अभयदान देता समाज? उल्लेखनीय है कि पहली अवस्था की इन रचनाओं में बलात्कारी जितना अमूर्त और अशरीरी है, दूसरी अवस्था की रचनाओं में विकृति का पुंजीभूत रूप बन कर वह उतना ही तिरस्कृत और विश्लेषित हुआ है। विशेष रूप से दसवें दशक में पनपी दूसरी अवस्था का लेखन आँसू और हाहाकार से भरसक पल्ला छुड़ाते हुए समस्या के सामाजिक-सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक-राजनीतिक कारणों के तटस्थ विश्लेषण में अधिक रमा है। जाहिर है जाने-अनजाने उस पर ब्राउन और जोन्स की उन पूर्वोक्त माँगों का प्रभाव पड़ा है जो किसी भी मानवीय समस्या को अद्भुत युद्ध-कौशल के साथ निपटाने और अपनी परिधि का विस्तार करने की ललक को अपने होने की पहली शर्त मानती हैं। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि उपन्यास की अपेक्षा कहानी के संक्षिप्त कलेवर में लेखिकाओं ने अपनी-अपनी तरह से समस्या का सांगोपांग चित्रण करते हुए इसकी विभीषिका को पैने ढंग से उजागर करने का प्रयास किया है, हालाँकि यह तथ्य भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बलात्कार को पहली बार 'सूरजमुखी अँधेरे के' उपन्यास में एक संपूर्ण समस्या (घटना/स्थिति नहीं) का दर्जा देकर विस्तृत फलक पर विश्लेषित किया गया था।
निस्संदेह हिंदी कथा साहित्य में 'सूरजमुखी अँधेरे के' पहली कथा-रचना है जिसने निषिद्ध क्षेत्र में प्रवेश करते हुए स्त्री के अंतस्तल के उन आतंक भरे अँधेरों को चीन्हने का प्रयास किया है जिन्हें गहराने का संस्कार प्रत्येक व्यक्ति (बेशक इसमें उदार एवं संवेदनशील व्यक्ति भी अपनी गूँगी निष्क्रिय निष्प्राण चुप्पी के साथ शामिल हैं) विरासत में पाता रहा है। ''आतंक का एक अपना एकांत होता है। एकांत की एक अपनी लिपि। भय का एक अपना सन्नाटा।'' रत्ती के अंतर्मन में रत्ती के साथ प्रविष्ट होकर कृष्णा सोबती उन निगूढ़ अँधेरों में घिर कर पाती हैं कि ''अँधेरे की प्रतिश्रुति मानवीय मन की जटिलता की खोज है। जोखिम भरी'' जहाँ ''आड़ी खड़ी चट्टान की तरह पथरीली अहल्या'' है; ''अपनी ही सड़क का डैड एंड होने'' और ''धुआँती गीली लकड़ी होने का तल्ख अहसास है'; हर बार अपराजेय भाव से हार जाने वाली लड़ाई लड़ने की नियति है, लेकिन वीरानगियों के जंगल में पलते अँधेरे सूरजमुखी के बीज को कुचल डालने की क्षमता नहीं रखते। सूरजमुखी के बीज हैं, इसलिए उन्हें पुष्पाने के लिए सूरज को उगना होगा - हताशा और जिजीविषा के बीच छिड़े दुर्घर्ष संग्राम की अनिवार्य परिणति। इसलिए 'आत्मावहेलना से पीड़ित' रत्ती यदि उद्धत है - ''किसी से कुछ कहती नहीं हूँ, पर याद रखना अब छेड़खानी की तो छोडूँगी नहीं'' तो स्वतंत्र अस्मिता से भासमान वयस्क परिपक्व स्त्री भी जो मन की देहरी को रौंद कर देह की अभ्यर्थना में नतशिर पुरुष को अपनी-अपनी सीमाओं का बोध कराना भी जानती है - ''सिर्फ अपने चाहने से दूसरे को पा नहीं लिया जाता। ...पाने के लिए दोनों को एक-दूसरे को चाहना होता है।'' सैक्सुअल फ्रिजिडिटी की शिकार रत्ती न 'सेक्स के कुदरती बहाव से उदित सगे संबंध स्थापित कर पाती है, न 'संबंधों की जमीन पर सुरक्षा के तंबू गाड़' सकती है, लेकिन फिर भी किसी के प्रति आक्रोश या प्रतिशोध नहीं। जीवन के प्रति रागात्मक आसक्ति ने उसकी जिजीविषा को जितना जिलाया है, उतना ही उसकी सोच को उदार और लचीला बनाया है। बेशक 'बीमार बातें' रत्ती के मैनरिज्म का एक हिस्सा हैं और खुद अपने से लड़ी जाने वाली लड़ाई का एक अस्त्र भी, लेकिन 'चील' बन कर किसी के सुख पर झपट्टा मारना उसका अभिप्रेत नहीं। 'कुमु बेटा! कितना मीठा!'' - अपने ही मांस-मज्जा से बना अपना प्रतिरूप पाना यदि उसका स्वप्न है तो ''यहाँ उगेगा गाछ'' - सृजन का भरपूर आत्मविश्वास भी है। बस, जरूरत है अनन्यता से अधिक पारस्परिकता के भाव से देह-मन एक-दूसरे को देने-पाने की समर्पित उत्कंठा की। रत्ती बलात्कार के निषेधात्मक प्रभावों तले दम तोड़ती स्त्री को बचाए रखने की बेचैन लड़ाई का प्रतीक है जो अर्थभरी चुप्पियों और लंबे-लंबे डगों के साथ संदेही संकीर्ण समाज में अपनी सार्थकता और सम्मान को लौटा लाना चाहती है।
गौरतलब है कि जिस ठंडे सुलझे ढंग से रत्ती की मनोग्रंथियों को खोलते हुए उसकी पीड़ा भरी चीत्कारों के आवेग को कृष्णा सोबती ने गहन-गझिन जिजीविषा के बिंदु पर बाँध लिया है, वह परवर्ती स्त्री लेखन में प्रायः आँसुओं की उफनती नदी में घिर कर आक्रोश और आत्मदया में घिर गया है। बेशक इस तथ्य को रेखांकित करना भी उतना ही जरूरी है कि आक्रोश और आत्मदया ने उन्हें व्यवस्था से लड़ने और आत्मबल संचित करने में भरपूर ताकत भी दी है। 'कठगुलाब' की स्मिता, 'इदन्नमम' की मंदा और 'छिन्नमस्ता' की प्रिया को एक कोष्ठक में रखते हुए भी उन भिन्नताओं की ओर संकेत करना अनुचित न होगा जो बड़े भाई के यौन अतिचार की शिकार प्रिया (छिन्नमस्ता) के बचपन को रौंद कर उसे असुरक्षा एवं अकेलेपन से धीरज और सामर्थ्य जुटाने की प्रेरणा देती हैं, जीजा के पाशविक बलात्कार से अनेक मनोग्रंथियों की शिकार स्मिता (कठगुलाब) को पलायन और हताशा की निरर्थकता से गुजार कर जीवन से सीधे जुड़ने का बल देती हैं तो परित्यक्ता कुसुमा भाभी की परिपक्व सोच सही एवं सामयिक नसीहत के माध्यम से बिरगवाँ गाँव के कैलाश मास्टर के बलात्कार से क्षत-विक्षत बालिका मंदा (इदन्नमम) को दूरगामी मानसिक-सामाजिक परिणामों के बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं देती - ''इतनी बड़ी जिंदगी में अच्छा-बुरा घट जाता है बिटिया, उसके कारन मन में गाँठ लगाने से क्या फायदा। जो तुमने किया ही नहीं, उसके लिए अपने को दोसी क्यों मानना? ...अरे, उसकी जात हुई मैली जो हम पर धोखे से करती है हमला। ...अपनी जिंदगानी के सही-गलत का निरनय तो हमें ही लेना हे बिन्नू। काट फेंको जीवन से इस कुघड़ी को। तुम अच्छत हो मंदा।'' (इदन्नमम,पृ. 94-95) शायद यही वजह है कि अवचेतन में पड़ी खरोंच और ग्रंथि में उलझने की बजाय मंदा एक नई ताजगी-स्फूर्ति-मिशन के साथ जिंदगी को चुनौती के रूप में लेती है जिसके बारे में आन गाँव में प्रसिद्ध है कि ''किसी भी लरका-बिटिया के संग जोर-जुलम नहीं होने देगी मंदा।'' (वही, पृ. 333)
बलात्कार के साथ जुड़ा सामाजिक कलंक का भाव सीधे-सीधे यौन शुचिता की उस परंपरापोषित मान्यता का परिणाम है जो पुरुष/कबीले/समाज/धर्म/जाति को अचल जमीन और पशु संपदा की तरह स्त्री को हस्तगत करने का अलिखित अधिकार देता है। इसलिए शत्रु को नीचा दिखाने के लिए उसकी चल-अचल संपत्ति छीनने की तरह उस समुदाय की स्त्री पर बलात्कार को महज एक रणनीति की तरह देखने का चलन रहा है। अपने अधिकारों के लिए सिर उठाते दलितों को मजा चखाने के लिए सवर्णों द्वारा दलित स्त्रियों से बलात्कार की वारदात हो या पाकिस्तान में 'ऑनर किलिंग' की बढ़ती संख्या, देह की कीमत पर स्त्री को पुरुष/जाति/धर्म की आपसी रंजिशों का खामियाजा भुगतना पड़ता है। 'नष्ट लड़की नष्ट गद्य' में 'फायर गर्ल' तसलीमा नसरीन का वक्तव्य कि ''चरित्र की कालिमा पुरुष तो चार इंच के कपड़े से ही पोंछ सकता है... और स्त्रियों के चरित्र की कालिमा बारह हाथ के कपड़े से ढक कर भी नहीं छिपाई जा सकती'' (पृ. 127) स्थिति के विद्रूप को नहीं उभारता, बल्कि समाज की जड़ सोच पर कुठाराघात करता है। ''लड़की की इज्ज्त तो काँच होती है... बाल बराबर तरेड़ पड़ी कि...'' - सच घिनौना नहीं होता, सच को किसी एक खास दिशा में सर्जित और मजबूत करने वाली परिस्थितियाँ घिनौनी होती हैं जिनमें जरा सी खरोंच लगते ही हाहाकार करते आम आदमी की पुरजोर सहमति और सक्रियता ज्यादा मुखर होती है। व्यवहार और सिद्धांत - निरंतर दो स्तरों पर जीता है व्यक्ति, अपने आप से अपने को 'डस' सकने वाले सच से छिपाते हुए। इसी दुराव-छिपाव के बीच वर्जना बन कर आतंक पैदा करने की ताकत पाती हैं कमजोरियाँ और खोखली होती चलती हैं मूल्यधर्मी अंदरूनी ताकतें। काँच के साथ लड़की की इज्जत के मिथक को केंद्र में रख कर लवलीन 'सुरंग पार की रोशनी' कहानी में आसन्न बलात्कार के भय से खौफजदा स्त्री की मनोव्यथा प्रस्तुत नहीं करतीं, बल्कि उन कड़वी प्रतीतियों को ठोस रूप में उभारती हैं जहाँ स्वतंत्र व्यक्तित्व संपन्न बुद्धिजीवी-समाजसेवी निर्भीक स्त्री स्वयं को 'मादा' समझने के अपमानजनक अनुभव से गुजरने को बाध्य होती है। ''यही मेरी सार्वजनिक पहचान थी। मन, बुद्धि, प्राण, आत्मा से अलग महज एक शरीर - शरीर भी नहीं, महज एक सूराख।'' स्थिति तब और भयावह होती है जब बुद्धि, चेतना और संगठन के बल पर स्वयं को 'विशिष्ट' समझने का दंभ पालने वाली यह स्त्री एक ओर अपने को भँवरीबाई की तरह 'तख्ती और नारे में बदलते हुए देख रही थी' तो दूसरी ओर 'मूढ़' स्त्रियों के प्रति किए गए विश्लेषण को अपने पर राई-रत्ती लागू होते देख शर्मसार - ''उन्हें अपनी अस्मिता (अस्मत नही) के लिए अड़ना और लड़ना नहीं आता क्योंकि समाज की तरफ से उन्हें कोई सपोर्ट स्ट्रक्चर प्राप्त नहीं है। स्त्री अपने आप में अपूर्ण घटक है, कमजोर निर्बल फिनामिना है। स्त्री समाज के दबाव और शोषण के विरुद्ध प्रतिकार और विरोध भी दर्ज नहीं करा पाती।'' (वही, पृ. 75) जब अस्मिता की लड़ाई से कहीं बड़ी हो जाती है अस्मत को बचाने की हड़बड़ी और लुटी अस्मत को सौ-सौ तालों में छुपाने की चौकसी, तब शेष रहती है एक ही नसीहत - ''जहर का घूँट पी ले बेटी, तभी सबको जीवन दान मिलेगा'' या मर्मांतक कटूक्तियाँ - ''तू न मरी उन डेढ़ सौ सवारियों के साथ कुलच्छन।'' बेशक इस पलायनवादी पारंपरिक दृष्टिकोण को धता बता कर नई पीढ़ी की नवयुवती अदालत का द्वार खटखटाने लगी है, लेकिन सुपरिचित आत्मीय संबंधों में सेंध लगा कर घुस आती अपरिचित अनात्मीयता से मुक्ति नहीं पा सकी है। चित्रा मुद्गल ने 'प्रेतयोनि' तथा उर्मिला शिरीष ने 'चीख' कहानी में जिस मुखर भाव से पारिवारिक सदस्यों - माँ, पिता, भाई, बहन - की अपने-अपने तईं अतिरिक्त चिंता, असहज सांत्वना, और सामाजिक कलंक की आशंका से अपने ही खोल में दुबक जाने की निर्मम सजगता को बलात्कृता किशोरी के इर्द-गिर्द बुना है, वे उसकी पीड़ा को ग्लानि, ग्लानि को अपराध बोध तथा अपराध बोध को जीवन के प्रति वितृष्णा तक ले जाने वाले क्रमिक मानसिक व्यूहों की रचना करते हैं।
बलात्कार केवल पुरुष का स्वछंद यौनाचार या प्रतिशोधपरक वासना का विकृत रूप नहीं, वरन् स्त्री और उसके पूरे परिवार को धुरीविहीन कर डालने वाला जलजला है जिसकी भयावह धमक सब कुछ शेष हो जाने के बाद भी सभी दिशाओं में देर तक प्रतिगुंजित रहती है। ''बस, इतना ही है स्त्री का चरम गोपन रहस्य - छलात्कार या बलात्कार' - अर्चना वर्मा की 'जोकर' कहानी में अनायास एक ही छत के नीचे जुट आई तीन स्त्रियाँ हँस-हँस कर तीन निर्द्वंद्व-स्वछंद जिंदगियाँ जीती दिखाई पड़ती हैं, लेकिन वे बेहतर जानती हैं कि ''यह हँसी रोने की बजाय हँस पड़ने के फैसले से निकली हुई हँसी है। इसलिए कमबख्त हर समय आती रहती है।'' (हंस, अगस्त 1995, पृ. 44) कुशल फाइनेंस कंट्रोलर के रूप में प्राइवेट कंपनी में कार्यरत चपला सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र में बलात्कार की शिकार होकर पुरुष मात्र से इस कदर भयभीत है कि साल छह महीने में एकाध बार घृणा, अपमान और आत्मधिक्कार के मर्मांतक दौर से गुजरने को बाध्य हो जाती है। पाँच वर्ष की अवस्था में अपने ही चाचा की नियमित कामवासना का सुलभ पात्र बन जाने की मजबूरी ने विज्ञापन दुनिया की साम्राज्ञी सुपर मॉडल सुगंधा को ब्लैकमेलिंग के साथ-साथ देह को हथियार बना कर पुरुषों को नचाने की कला में माहिर अवश्य कर दिया है, लेकिन असल में 'मातृका' जैसी समाजसेवी संस्था से जुड़ कर प्रताड़ित स्त्रियों के जख्मों पर फाहा रखने के प्रयास में वह अपने भीतर की अँधेरी अरक्षित दुनिया के बीहड़ों को कम कर लेना चाहती है। और कथावाचिका मिसेज प्रतिभाकांत? भले ही 'मातृका' के संस्थापक और उत्साही समाजसेवी पति के सान्निध्य में पकी परिपक्व सोच के कारण सूनी दोपहरी की निर्जनता का लाभ उठा कर बलात्कार के असफल प्रयास में अपने पर ही लज्जित हो उठने वाले ''अधगंजे, अधबूढे... जिंदगी से बेजार, कंकाला बीवी या दुष्टा बहू के सताए हुए से दीखते आदमी'' (वही, पृ. 50) की किसी अनाम कुंठा पर ठठा कर हँस पड़ती है (और बाद में बलात्कार नहीं, ग्लानिजन्य हिंसा का शिकार बनती है), लेकिन यह घटना शशिकांत के भीतर छिपे 'निखालिस' पति को आहत करने को पर्याप्त है। पति - जिसके पास है अकूत वर्चस्व, वैधानिक स्वामित्व, क्षमा-संरक्षण का पुख्ता अधिकार। लेकिन इन सबसे बेखबर पत्नी इन्हें ले ही न, तो? बलात्कारी के कुंठित प्रयास पर हँस दे और 'यूँ ही आए गए' भाव से घटना का बयान कर रोजमर्रा के जीवन में जुट जाए, तो? सच कहा है 'स्त्रिश्चरित्रम् पुरुषस्य भाग्यम् देवो न जानाति कुतो मनुष्याः'। संदेह और वितृष्णा, हिंसा और आतंक - इन हथियारों से ही तो साधना पड़ेगा न उसे पत्नी को। ''उनके यूँ टूट पड़ने, नोचने-खसोटने, पटकने से मुझे फिर उसी फोटोग्राफर की शक्ल दिखाई दी। मानो उनके लिए यही असली तृप्ति थी, यही हिंसा। इसके पहले जो हम नितांत निजी एकांत में देह और मन का एकाग्र संगीत रचा करते थे, वह दरअसल किसी असली चीज की फीकी, बेरंग धूमिल सी अनुकृति भर थी। ...फिर मेरे लिए उसमें न कुछ निजी रहता, न एकांत। तब जो नहीं हुई थी अपनी देह से, वह घिन अब होने लगी। लाख नहाने पर भी न छूटती। फिर वही घिन शशिकांत से भी होने लगी। उनका देहांत मेरे लिए छुटकारे की साँस थी। उनके लिए भी। मतलब साँस नहीं, छुटकारा।'' (वही, पृ. 51)
यहीं वह नरक है जो संबंधों में छिपी सड़ांध को झेलने और जिलाए रखने को बाध्य करता है, भले ही बलात्कारी खुद पिता ही क्यों न हो और उस नर-पिशाच की दैहिक-भौतिक भूख की तृप्ति हेतु उसे वेश्यावृत्ति क्यों न करनी पड़े। समाजशास्त्रीय आँकड़े इस तथ्य की गहरी पुष्टि करते हैं कि बलात्कार की शिकार स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति के लिए प्रवृत्त कर दी जाती हैं या आरोपी संबंधी और परिवार की स्त्रियों की जुबान सी कर रखने की नसीहत तले एक बड़ा झूठ सलीब की तरह ढोने के लिए विवश कर दी जाती हैं। यहाँ दूर्वा सहाय की कहानी 'जिरह' विशेष रूप से उल्लेखनीय है जहाँ बलात्कार के आरोपी प्रभात की माँ की मनोवेदना और मंथन को केंद्र में रख कर लेखिका उसके अतीत को बलात्कृत बारह वर्षीया लड़की के वर्तमान के साथ जोड़ कर एक अनाम से सखीभाव का अंकुरण करती है। बलात्कारी बेटे की माँ के रूप में उसकी पीड़ा को जिस प्रकार बलात्कार/यौन छेड़छाड़ से भरपूर बचपन की कँटीली स्मृतियाँ तार-तार कर फरियादी के निकट ला खड़ा करती हैं, वह सामाजिक न्याय के लिए गुहार लगाती स्त्री की अंतश्चेतना की पहली स्प्ष्ट एवं निर्भीक अभिव्यक्ति है। एक ऐसी मानवीय स्थिति जहाँ संबंधों के दबाव और 'इज्जत' के छल तिरोहित होकर स्त्री की रौंदी गई मानवीय गरिमा को न्याय दिला सके।
स्त्री देह के साथ जुड़ी पुरुष जाति की 'इज्जत' ने अपना पता बदला हो या न हो, स्त्रियाँ अब इन छद्म आवरणों को उतार फेंकने को व्यग्र हैं। बेशक ''काश् ऐसा होता कि मस्तिष्क की कोई नस काट कर फेंक दी जाती ताकि हम बेजान हो जाते... क्यों नहीं मेरी स्मृतियों पर विक्षिप्तता छा जाती? मैं मर जाती'' - उस चोट की मर्मांतक प्रतिध्वनियाँ हैं जिसके चिह्न आत्मा की गहराइयों तक खुद गए हैं, लेकिन एक वक्त का हाहाकार पूरे जीवन का सत्य नहीं बन सकता। मनुष्य के मानस की जटिल संरचना में महीन तंतु की तरह लिपटी जिजीविषा ऐसी संजीवनी बूटी है जो सिर्फ रोग का उपचार नहीं करती, रोग के उन्मूलन में जुट जाती है। इसलिए अपने चारों ओर बुने जा रहे डर से उबर कर यह स्त्री पहले अपने आप से ही पूछ लेना चाहती है कि उसे ''देह को लेकर तड़पते रहना है या आत्मा की आवाज पर चलना है।'' (वही, पृ. 143) यकीनन आत्मा की आवाज पर क्योंकि जिजीविषा और अंतरात्मा में जैसा सघन-आत्मीय संवाद होता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। ''उस भेड़िए को मैं कभी माफ नहीं कर सकती, चाहे मेरी अपनी जिंदगी गर्क हो जाए।'' परिवार की जानलेवा नफरत और बलात्कारी नरेश के प्रतिष्ठित-संपन्न माता-पिता की ओर से विवाह प्रस्ताव (मामले को रफा-दफा करने का प्रलोभन मात्र) - दोनों को समान निर्लिप्त संकल्पबद्धता से ठुकरा कर लंबी अपमानित कर देने वाली अदालती कार्यवाही से गुजर कर अपराधी को आठ साल का दंड दिला देने के बाद ही सहज हो पाती है कथावाचिका की फरियादी बहन। बेशक 'इज्जत' तो उसने खो दी है। खबर फैलते ही मँगनी टूटना, खामोश भाव से अपनी चरित्रहीनता की कल्पित कहानियाँ सुनना और पिता द्वारा सपरिवार 'इज्जत' बचाने के प्रयास में जमी जमाई घर-गृहस्थी-व्यापार उखाड़ कर दूसरे शहर में स्थानांतरित हो जाना - इज्जत के नाम पर पीड़िता का मनोबल तोड़ने के प्रयास तो हैं ही, साथ ही निर्दोष होते हुए भी अपराधी की नाईं जिंदगी गुजारने की घुट्टी भी। लेकिन कोई भी नई परिभाषा गढ़ने के लिए पुरानी कसौटियों और लकीरों को त्यागना तो होता है न! ''यहाँ जैसे चींटे हैं, मच्छर हैं, खटमल हैं, वैसे ही मर्द भी हैं। क्या जरूरी है कि शेर, भेड़िया, भालू ही कहो? उपमान ही तो हैं, बदल दो।'' कसक से संकल्प में पर्यवसित होता स्त्री लेखन 'बीइंग' से 'बिकमिंग' तक की प्रत्यक्ष ऊर्ध्व यात्रा ही तो है, साथ ही समाज से अपनी मानवीय गरिमा छीन लेने की प्रत्यक्ष घोषणा भी।
'विवाह का अर्थ है बलात्कार महोत्सव '
स्त्रीवाद के उग्रतर होते चलने के साथ ही विवाह संस्था को वेश्यावृत्ति तथा बलात्कार के साथ जोड़ने का चलन अकारण या जबरन नहीं है, रति संबंधों में स्त्री को निष्क्रिय (पैसिव) पार्टनर मान उसकी योनिकता पर पुरुष अंकुश के सामंती दंभ का विरोध है। ''औरत की देह औरत का देश है'' कह कर रघुवीर सहाय जैसे उदारवादी लेखक-विचारक स्त्री की मानवीय अस्मिता के संरक्षण को उसका मौलिक अधिकार मानते हैं, लेकिन सवाल उठता है कि कानून के मर्दवादी दृष्टिकोण के चलते क्या ऐसे 'मौलिक अधिकार' का ग्रासरूट तक संक्रमण संभव है? अरविंद जैन 'औरत होने की सजा' में पेंच-दर-पेंच जटिलताओं का पिरामिड खड़ा करते कानून की आंतरिक संरचना के अंतर्विरोधों और दुर्बलताओं (लूपहोल्स) को खोलते हुए बताते हैं कि जहाँ भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 375 (6) के अनुसार किसी भी पुरुष द्वारा सोलह वर्ष से कम आयु की स्त्री की सहमति/असहमति से उसके साथ संभोग करना बलात्कार है, वहीं ''अपनी ही पत्नी जिसकी उम्र पंद्रह साल से कम न हो, के साथ सहवास करना बलात्कार नहीं है।'' (वही, पृ. 55) विचित्र विडंबना है कि यह वही कानून है जो 18 वर्ष से कम आयु की लड़की के विवाह को 'बाल विवाह' का नाम देकर गैरकानूनी मानता है। दूसरे, 'मनुष्य' होने की तमाम संवेदनाओं से परे सहवास हेतु पत्नी की सहमति/असहमति जैसे सवाल पर विचार करने की जरूरत नहीं समझता। हालाँकि हिंदी कथा लेखन में वैवाहिक बलात्कार की यंत्रणा झेलती स्त्री की मानसिक व्यथा का उद्घाटन अपेक्षाकृत कम हुआ है, किंतु मृदुला गर्ग 'चितकोबरा' उपन्यास तथा 'तुक' कहानी में स्त्री के अंतरंग को दो भिन्न दृष्टियों से प्रस्तुत करती हैं। व्यंग्य की नुकीली धार के साथ कथानायिका मीरा (तुक) के वक्तव्य के जरिए पहले वे 'व्यवसाय' के रूप में स्त्री का दैहिक-मानसिक, बौद्धिक-भावनात्मक शोषण करने वाली विवाह संस्था के बर्बर रूप को उद्घाटित करती हैं, फिर वेश्यावृत्ति और बलात्कार में अंतर्लीन होते इसके डगमगाते असंतुलित स्वरूप को। पति को लौकिक आकर्षणों (क्लब और ब्रिज के खेल) से दूर कर समग्रतः पाने के प्रयास में वह अनायास अपने को 'वेश्या' रूप में पाती है तो उसके मूड के अनुरूप (ब्रिज में हार और जीत) सहवास के नाम पर उग्रता और अनुकंपा को बलात्कार के रूप में। ''अपनी हार का मुआवजा वह मेरे बदन के सिवा वसूल करता भी कहाँ से? तभी मेरी समझ में आ गया कि उसके लिए ताश का खेल भी बैंक में नौकरी की तरह एक व्यवसाय है और मैं वह फुटकर कैश जिसका प्रयोग वह व्यवसाय में हुए नुकसान को भरने के लिए या लाभ पर खुशी मनाने के लिए करता है।'' (तुक, पृ. 116) हालाँकि पति के प्यार में डूबी स्त्री छवि के मिथक में बाँध कर निरंतर अपराधबोध से अपने आपको निहारने वाली इस कथानायिका की नियति की ओर लेखिका ने कोई स्पष्ट संकेत नहीं किया है, किंतु इस कहानी के पूरक पाठ के रूप में 'वितृष्णा' कहानी उन त्रासद परिणतियों की ओर अवश्य संकेत करती है जहाँ बलात्कार और वेश्यावृत्ति के बीच अपनी मानवीय इयत्ता खो डालने की संवेदनशून्यता से उपजी यांत्रिकता संबंधों की रागात्मकता को लील चुकने के बाद सामाजिक संस्थाओं की उपयोगिता पर बड़ा सा सवाल खड़ा करती है।
दूसरी दृष्टि 'चितकोबरा' उपन्यास में स्त्री के संपूर्ण व्यक्तित्व को देह और दिमाग दो खंडों में विखंडित कर देने के उद्योग में जुटी विवाह संस्था की चूलों पर कुठाराघात करती है जहाँ बार-बार किए जाने वाला बलात्कार आदत में शुमार होकर मनोभूमि को बेहद बंजर बना देता है। ''आज रात महेश मुझे प्यार करेगा'' - चेतना के द्वार पर पत्नी-कर्तव्य की दस्तक और मनु का 'आपरेशन से पहले मरीज की सफाई करती नर्स की तरह' पूरी तरह शरीर में तब्दील हो जाना - न, 'बलात्कार' की कानूनी परिभाषा के मुताबिक असहमति या वितृष्णा का एक भी बिंदु नहीं यहाँ। लेकिन रतिक्रिया के दौरान शरीर पर खेले जा रहे एक-एक दाँव-पेंच से वाकिफ उनकी क्रमिक प्रतीक्षा में 'एक लंबी सीत्कार के साथ जड़' हो जाने तक के यवनिका पात का दृश्य देह और मन के एकाग्र संगीत की उस अनिवार्य स्थिति का विलोम है जिसकी अनुपस्थिति में स्त्री के लिए पति ठीक उसी तर्क और अनुपात में बलात्कारी हो जाता है जिस तर्क और अनुपात में पुरुष के लिए अँधेरे की चादर में दुबकी हर बिल्ली काली और हर स्त्री काली बिल्ली।
विवाह संस्था के स्वरूप की गहरी पड़ताल करते हुए मृदुला गर्ग हिंसा के पाशविक प्रदर्शन से अछूती उस स्थिति में भी बलात्कार की क्रूरता को देख पाती हैं जहाँ अतिरिक्त दुलार-पुचकार को हथियार बना पति अपनी पत्नी का मानसिक-भावनात्मक शोषण कर उसकी स्वतंत्रता और इयत्ता को चकनाचूर कर देता है। अंततः बलात्कार अति गूढ़ व्यंजना में स्त्री की पुष्ट अस्मिता को छिन्न-भिन्न करने का पौरुषयुक्त षड्यंत्र ही तो है। ''हम अपना बच्चा बनाएँगे, फ्लैश ऑव अवर फ्लैश'' - मातृत्व पाने के लिए तड़पती मारियान को बहका-फुसला कर उसके मानस उपन्यास 'वुमैन ऑव द अर्थ' को हड़प कर अपने नाम से प्रकाशित करवा डालना एक ओर जेल्डा फिटजेराल्ड की त्रासदी का विस्तार है, तो दूसरी ओर वैवाहिक बलात्कार के इस शातिर-सूक्ष्म स्वरूप को चीन्हने की जरूरत का आह्वान भी। सवाल उठता है कि बलात्कार की परिभाषा और कोटि का निर्धारण पुराने वक्तों की (अधिकांश कानून मूलतः 1860 के हैं जिनमें समय-समय पर पैबंद लगाने और रफू-मुरम्मत करने के अंदाज में छोटे-मोटे संशोधन-परिवर्धन हुए है।) पुरुष दृष्टि से ही क्यों? घूँट-घूँट वेदना पीती स्त्री दृष्टि और न्याय से क्यों नहीं?
'डोंट यू नो , हँसना इज एन इन्वीटेशन टू रेप ?'
कहना न होगा कि महिला कथाकारों का बलात्कार संबंधी लेखन स्त्री के अंतर्मन की खदबदाहटों का महाख्यान है। आत्मदया की आत्महंता ग्रंथि से उबर कर आत्मोपलब्धि की जिस कठिन सकारात्मक यात्रा की शुरूआत कृष्णा सोबती ने 'सूरजमुखी अँधेरे के' में की, उसे क्षैतिजिक विस्तार देते हुए लेखिकाओं ने पीड़िता से परे जाकर पीड़क को उसके सामाजिक-सांस्कृतिक-मनोवैज्ञानिक संदर्भों में पकड़ने की कोशिश की है। उल्लेखनीय है कि इस प्रक्रिया में 'मानवाधिकारों की लडाई को समर्पित' न्याय और पत्रकारिता जैसी संस्थाएँ प्रायः सत्तासीनों वर्चस्ववादियों के आगे दुम हिलाती नजर आई हैं। केट मिलेट की मान्यता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बल प्रयोग जैसी टुच्ची हरकत से मुक्त कराने का मिथक इस सावधानी से गढ़ा/प्रचारित किया गया है कि सती प्रथा (भारत), पर्दा प्रथा (भारत एवं एशियाई ऐश), अनैतिक संबंध के लिए पत्थर मार-मार कर स्त्री को मार देने की प्रथा (मुस्लिम देश) आदि को आदिम समाज की परंपराएँ घाषित कर 'रूढ़ि' का दर्जा दिया जाता है और स्त्री को उसकी कमनीयता का अहसास दिला कर उसे निष्कवच कर दिया जाता है। अपने आप में इसे ही बल-प्रयोग का अनूठा उदाहरण कहा जा सकता है, लेकिन बकौल केट मिलेट पितृक समाज अपनी क्रूरता/प्रतिशोध की अभिव्यक्ति उद्धत यौन आक्रमण के रूप में करता है क्योंकि यही अपने सत्व रूप में 'दुष्ट सत्ता' का प्रतीक है। यही वह मूल पुरुष ग्रंथि है जो एक ओर उसे स्त्रीविरोधी साहित्य रचना के लिए प्रेरित करती है तो दूसरी ओर स्त्री की खिल्ली उडाने के लिए व्यंग्य और उपहास जैसी कुत्सित युक्तियों की ओर आकृष्ट करती है। (पत्नी प्रताड़ित पतियों की बेचारगी और स्त्री के जननांगों से जुड़े चुटकुले इसके उदाहरण हैं।) ''औरतों का तो काम है इधर से उधर लबर-लबर करना'' तथा ''मर्द से आठ गुना ज्यादा होती है उसकी कामवासना। जी कभी भरता थोड़े ही है। उसके नाक न हो तो गू खाय'' जैसी उक्तियाँ दो विपरीत ध्रुवांतों पर टिकी स्त्री अस्मिता के प्रति पुरुष की घृणा के विस्तार की सूचक हैं। शिवमूर्ति 'अकालदंड' तथा 'तिरिया चरित्तर' में वांछित स्त्री से 'खेल' न पाने की पुरुष-कुंठा से उपजी यौन आक्रामकता के बल-छल से जुड़े सारे दाँव-पेंचों को विश्वसनीय ढंग से खोलते हैं। ''सेवा का व्रत धारन कर लो। रानी बन जाओगी'' जैसे अनुनयपरक प्रलोभनों के बाद घुप्प अँधेरे का लाभ उठा कर बलात्कार की असफल कोशिशजन्य पीड़ा के संताप को कम करने के लिए 'सिकरेटरी' द्वारा सुरजी को बदनाम करना और 'विषधर' बिसराम द्वारा अपनी ही पतोहू बिमली को 'पाने' के लिए पंचसूत्री योजना बनाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ''मेला देखेगी? जलेबी खाएगी? गंगा असनान करेगी?' पहली अवस्था यानी प्रलोभनों का जाल! ''डरेवरवा की दारू महकाती है और मेरी गंधाती है?'' दूसरी अवस्था यानी लोकापवाद की सूचना देकर डराने की युक्ति! ''मुझसे बोलने में भी पाप लग रहा है? तिरिया चरित्तर फैलाने से जान बचेगी? साली! कातिक की कुतिया!'' तीसरी अवस्था यानी अपमान, आवेश और तिरस्कार के घालमेल से तैयार प्रतिशोधात्मक मानसिकता का 'प्रबोधन' जो तिरिया चरित्तर में निहित व्यंजनाओं को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की प्रेरणा देता है। ''किसुनवा ओझा ने गाँजे में कोई बूटी मिला कर पिला दिया था। मति भरिष्ठ कर देने वाली बूटी। उसी से हफ्ते भर सिर पर पाप सवार था। ...मैं तो लक्ष्मी ही कह कर पुकारूँगा अब तुझे बहू। मना मत करना।'' चौथी अवस्था यानी छल-छंद की महीन व्यूह रचना जिस कारण 'चरनामरित' के नाम पर अफीम का घोल पिला कर बेसुध विमली के साथ व्यभिचार करना बेहद आसान हो जाता है। ''खाली हाथ नहीं, उसकी मेहरारू का गहना-गीठी भी खोद कर ले गई है'' - पाँचवी अवस्था जहाँ प्राणरक्षा के उद्योग में भागी विमली पर चोरी और चरित्रहीनता के दोष साबित करना आसान हो जाता है।
जाहिर है पुरुष का यौन बल-प्रयोग (बलात्कार) सिर्फ शारीरिक हिंसा नहीं, अनवरत चलती रहने वाली मानसिक विकलांगता अधिक है। इसे अपनी कहानी 'एक औरत और चार लड़के' का केंद्रीय विषय बना कर लता शर्मा ने केस स्टडी पद्धति का परिचय देते हुए पुरुष की घृणा और प्रतिशोध के तल में दबी मनोग्रंथियों को अद्भुत कौशल के साथ खोला है। चार अलग-अलग पृष्ठभूमि के शिक्षित संपन्न लंपट युवक! दोस्त का 'हैप्पी बर्थडे' मनाने के लिए बतौर तोहफा किसी युवती का अपहरण कर सामूहिक बलात्कार की योजना! ...पहला केस है सुमीत। तिरेपन की उम्र में तैंतीस की लगने की कामना और अविवाहित जीवन की दायित्वहीन उन्मुक्तता का आस्वाद करते रहने की उत्कंठा में माँ की बजाय मेपल नाम से संबोधित करने का आग्रह सुमीत को संबंधों की गरिमा, आत्मीयता एवं मनुष्यता के प्रति अनास्थावान बना देता है। माँ के रूप में गृहीत स्त्री-छवि के एक उदाहरण को पूरी स्त्री जाति पर लागू करते हुए बलात्कार के जरिए वह अपनी क्रूर विलासिता को प्रकट नहीं करता, बल्कि दिशाहीन पीढ़ी के नैतिक स्खलन एवं विवेकहीन प्रतिशोध के भयावह सच को रेखांकित करता है जिसके मूल में परिवार की आत्मकेंद्रित दोषी भूमिका परिलक्षित की जा सकती है। दूसरा केस है डॉक्टर जो निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि के बावजूद बहन के प्रयासों से जमा कराई ढाई लाख कैपीटेशन फीस की बदौलत डॉक्टर बन कर पाता है कि बहन त्याग और निःस्वार्थ सेवा के बदले उसे अपदस्थ कर 'राजा बेटे' के लिए आरक्षित सिंहासन पर स्वयं चढ़ बैठी है। फलतः दरक कर चूर-चूर होती सामंतवादी अहम्मन्यता को सँजोने के प्रयास में बहन के बहाने संपूर्ण स्त्री जाति से प्रतिशोध। तीसरा केस बाल्यावस्था में पिता और उसके मित्रों के यौन शोषण के शिकार 'हीरो' का है जिसके लिए यौन संबंध स्त्री-पुरुष के रागात्मक मिलन का नाम नहीं, आतंक और असुरक्षा का पर्याय है। इसलिए अकारण नहीं कि वह न केवल अप्राकृतिक मिथुन कर यौन संबंधों के प्रति गहरी वितृष्णा व्यक्त करता है बल्कि स्त्री की जाँघों को सिगरेट से दाग कर अपने अंदर के भयभीत क्षुब्ध शिशु को सांत्वना देने के प्रयास करता है। चौथ केस अजय का है - गरीब किंतु ऐयाश अमीर दोस्तों की संगत में आकाशकुसुम तोड़ने को लालायित। थोड़ी सी संवेदना और जरा सी मनुष्यता अभी शेष है उसमें। लेकिन उससे कहीं ज्यादा परिमाण में है हीनता ग्रंथि जो संवेदना को 'कमजोरी' समझने का अहसास पाते ही विषदंतों से उसकी मनुष्यता को दंशित करने लगती है। ये चारों युवक एक ओर आत्मपीड़ा और आत्मदया के शिकार हैं तो दूसरी ओर उपभोक्तावादी संस्कृति की उपज जिसने सही-गलत, नैतिक-अनैतिक जैसी मूल्यधर्मी मान्यताओं को गड्डमड्ड कर दिया है।
लता शर्मा के विश्लेषण को 'कमीज पहन रहा है जैक द रिपर' कहानी में क्षमा शर्मा ने फैंटेसी के जरिए विद्रूप और मारक रूप में प्रस्तुत किया है। ऐसे पुरुष को वे मि. एग्ज़ीमा कहती हैं क्योंकि ''जब आदमी हमेशा दूसरों से चिढ़े तो न्यूरोटिक हो जाता है।'' (हंस, अगस्त 1997 पृ.46) यह पुरुष 'मनुवादी मर्दों का उत्कर्ष संगठन', 'मनु महाराज की जै संगठन', 'बलात्कार विशेषज्ञ संगठन', 'रिपर जिंदाबाद संगठन' बना कर पश्चिम से कम से कम सौ बलात्कारी क्लोनों का आयात करना चाहता है जो निर्लज्ज स्त्री की देह से नहीं, आत्मा से बलात्कार करें और दूसरे, आज की तरह हर घड़ी, हर जगह - रेल, कार, दफ्तर, पार्क, छत - बलात्कार अवश्य करते रहें पर पकड़े न जाएँ। अपराधबोध एवं लाज से बरी हो गई स्त्री को मनुवादी व्यवस्था का पालन करते हुए 'रास्ते' पर ले आएँ। उस स्त्री को जो नौकरीपेशा है यानी ''बाजार में बैठी है। बस, दिमाग कलम कर देने की देर है कि जिस्म बचेगा।
लता शर्मा और क्षमा शर्मा के विश्लेषण को सामाजिक संस्थाओं के संदर्भ में अनूदित करते हुए शिवमूर्ति समस्या की सूक्ष्म गहराइयों और व्यंजनाओं में छिपी मासूमियतों को देखने की बजाय सतह पर उभरी 'शैतानियों' को खँगालने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। वे व्यक्ति से बाहर तंत्र में सन्निहित उन कारणों पर फोकस करते हैं जो व्यक्ति को भेड़िया और नर-पशु बनाते हैं। समस्या का ठीक वही कोण जिसे केंद्र में रख कर अधिकांश स्त्री लेखन अपनी चिंता को व्यथा और समाधान का रूप देता रहा है। शिवमूर्ति की उपलब्धि है कि स्त्री विरोधी साहित्य रचना में संलिप्त पुरुष मानसिकता का विस्तार वे समाज की प्रमुख संस्थाओं - धर्म, न्याय, मीडिया - तक करते हैं। जैसे 'तिरिया चरित्तर' में वे पुरुष के पाखंड और उसकी 'हमदम' पंचायत के जरिए न्यायपालिका के उस बर्बर 'चरित्तर' को बेलाग ढंग से उजागर करते हैं जहाँ न्याय का पलड़ा हर हाल में पुरुष के पक्ष में ही झुकता है। स्त्री (विमली) को अपराधिनी सिद्ध करने के लिए साक्ष्य जुटाना कौन कठिन काम है? आखिर इसी मनोदृष्टि के कारण उच्चतम न्यायालय बलात्कारियों को बाइज्जत बरी करता आया है या सवर्णों द्वारा दलित स्त्रियों के यौन शोषण की संभावना को पुरजोर नकारता रहा है। (भँवरीबाई केस) आश्चर्य है कि न्याय के हंता के रूप में न्यायपालिका की कुत्सित भूमिका को हिंदी कथा लेखन गहराईपूर्वक बेबाकी से उघाड़ नहीं सका है। अपवादस्वरूप कमला चमोला की कहानी 'अँधेरी सुरंग का मुहाना' का उल्लेख किया जा सकता है जहाँ बेपर्दानुमा खुली अदालती जिरह बलात्कृता को सरेआम नंगा होने की अनुभूति से बींधती है तो तिथि पर तिथि देकर केस लटकाते चले जाने के लटके-झटके किसी के भी धीरज और मनोबल को तोड़ने को पर्याप्त हैं। तिस पर केस को नई रंगत देने की कोशिश में फरियादी की चरित्रहीनता की कलंकित कथाएँ गढ़ कर सच का विरूपीकरण करने की साजिशें! सिर्फ इसलिए कि जो स्त्री दुश्चरित्र है, उस पर बलात्कार करने वाले को दोषी नहीं कहा जा सकता? यदि ऐसा है तो क्या एक बार फिर बलात्कार की पुनर्परिभाषा अनिवार्य नहीं? साथ ही अभियुक्त के रूप में पूरी पितृसत्तात्मक व्यवस्था का मानसिक उपचार भी?
रघुवीर सहाय राजनीतिक पतनशीलता को देश के नैतिक चरित्र के स्खलन का महत्वपूर्ण मोड़ मानते हैं। उनके अनुसार सत्ता और समृद्धि के सुख में रची-पगी उपभोक्तावादी संस्कृति की नई पीढ़ी अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए जिस प्रकार उत्तरोत्तर सामंतवादी होती गई है, वह धर्म एवं आर्ष ग्रंथों के संरक्षण तले अपनी प्रभुता बनाए रखने वाले वर्णवादियों की रणनीति से पूरी तरह मेल खाती है। पत्रकारिता दोनों वर्गों के हित साधन की आधारभूमि है जहाँ स्त्री को आधुनिकता तथा परंपरा के नाम पर 'पालतू' बनाए रखने का विज्ञापन-प्रवचन चौबीसों घंटे जारी रहता है। जाहिर है बलात्कार की सनसनीखेज रिपोर्टिंग के पीछे मुख्य मंशा अपराधी को दंड दिलाना नहीं, 'औरत के इस्तेमाल का बाजार' मजबूत करना है। मीडिया की इस दायित्वहीन भूमिका पर हिंदी कहानी में खासा रोष है। विशेष उल्लेखनीय है कैलाश बनवासी की कहानी 'एक कॉलम की खबर' जहाँ कवरेज और रिपोर्टिंग के बीच आ बैठने वाले घटकों - राजनीतिक-आर्थिक दबाव, ढुलमुल अखबारी नीति और स्वार्थपरता - की चौकस पड़ताल की गई है। ''ये कोई पोलिटिकल स्टंट नहीं है... मुझे ग्लैमराइज करने की जरूरत नहीं... प्लीज! आप लोग मेरा साथ दीजिए सिर्फ - न्याय के लिए। क्या आप लोग नहीं चाहते उसे सजा मिले? आप लोग यह तो नहीं चाहेंगे कि आपकी माँ-बहनों या बीवियों के साथ ये राक्षस इसी तरह पेश आएँ?'' - टेपरिर्काडर में कैद नीता जायसवाल की अपील को अपदस्थ कर जिला चिकित्सा संघ के ध्यानाकर्षण विज्ञापन को विस्तारपूर्वक मुख्यपृष्ठ पर छापना (जिसमें कतिपय असामाजिक, प्रगतिविरोधी तत्वों द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचारों से बचे रहने तथा पूर्ण विश्वास और सहयोग बनाए रखने का आग्रह किया गया है) और मुख्य मुद्दे को रोष भरे प्रदर्शन की सरसरी खबर के रूप में परोसना लोकतंत्र के प्रहरी मीडिया की आचार-संहिता के प्रति कुछ सवाल उठाता है कि मीडिया का दायित्व क्या सिर्फ घटना की 'खबर' देना है, उसमें सन्निहित खतरों और चेतावनियों को सूँघ कर जनता को आगाह करना नहीं? कि खबर के 'फॉलो अप' का पीछा करते हुए उसे सही परिप्रेक्ष्य और शब्दों में उभारना क्या उसका नैतिक कर्तव्य नहीं ताकि अपराधी को दिए जाने वाले कड़े दंड की खबर छाप कर वह विकृत मानसिकता के अपराधियों के हौसले तोड़ सके? क्या कलम की शक्ति का इस्तेमाल कर ज्वलंत समस्याओं और मुद्दों पर जनमत बनाना और पारंपरिक दृष्टिकोण में क्रमिक परिवर्तन की रचनात्मक भूमिका अदा करना उसका लक्ष्य नहीं? यह स्थिति का विद्रूप नहीं तो और क्या है कि बलात्कारी के मानसिक उपचार को सामाजिक जरूरत का रूप देने की बजाय बलात्कृता के 'पुनर्स्थापन' पर बल दिया जाता है। यानी फोकस में आ रही बलात्कारी की पहचान को पूरी ताकत लगा कर बेचेहरा-बेनाम कर देने की साजिश। प्रासंगिक न होते हुए भी क्या यहाँ जार्ज फर्नांडीज का वक्तव्य उद्धृत करना अनुचित न होगा जहाँ गुजरात दंगों के दौरान बलात्कार के बढ़ते आँकड़ों से शर्मसार होने की बजाय वे इसे एक स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया मानते हैं?
बेशक स्त्रियों के हित रक्षण में विविध महिला संगठनों की भूमिका काफी मुस्तैद और सकारात्मक रही है, लेकिन हिंदी कहानी में इनकी भूमिका को लेकर कहीं मोहभंग की स्थिति भी साफ दिखाई पड़ती है। हैबरमास जिसे 'वाम फासीवाद' की संज्ञा देते हैं और मृदुला गर्ग जिसे 'कोमा' में चले जाने की नाजुक स्थिति, जहाँ कमजोर वर्ग की स्त्रियों का इस्तेमाल कर वे रोबोट की तरह यांत्रिक हरकतें करके अपना दैनिक कामकाज तो पूरा कर सकती हैं, पर महसूस कुछ नहीं कर पातीं, उसी के विरोध में रची गई है सुमति अय्यर की कहानी 'एक पूरी जमीन'। ''मैंने तो सिर्फ मुद्दा बनने से इनकार किया था। वे मुझे एक मुद्दे के रूप में ले जाना चाहते थे। आशा (नायिका का नाम) बना कर नहीं। मैं आशा बन कर जाना चाहती थी।'' (कथादेश, दिसंबर, 1997 पृ. 58) आशा को ढेरों शिकायतें हैं महिला संगठनों से और ढेरों सवाल कि ''तब कहाँ थे आप लोग जब अर्थी (पुलिस हिंसा में मृत जयंत) को कंधा देने के लिए कमजोर महिलाओं के कंधे ही रह गए थे?'' (वही, पृ. 60) सही समय पर सकारात्मक संभावनाओं को संरक्षण देने की बजाय बैनरों और जलूसों के जरिए खबरें बनाने वाले महिला संगठन क्या सिर्फ अपने अस्तित्व और महत्व की रक्षा के लिए ही तो चिंतित नहीं? ''फुसफुसी जमीन पर टिकी' इन संस्थाओं के चरित्र को पढ़ कर कमला चमोला इस निष्कर्ष पर पहुँचती हैं कि ''संस्था अपने आप में कुछ नहीं होती। होता है बस व्यक्ति।''
'खेती करते हैं , नेतागिरी भी और लोगों के हिसाब से गुंडागर्दी भी '
मात्र स्त्री सुलभ जिंस नहीं, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से कमजोर पुरुष भी समर्थ वर्ग के वर्चस्व प्रक्षेपण का शिकार रहा है। अल्मा कबूतरी को भगाने के अपराध में धीरज पर धधकते क्रोध की अभिव्यक्ति हेतु किराए के चार-पाँच गुंडों द्वारा 'बलात्कार' के जरिए उसे 'नाथने' की युक्ति में यौन उत्पीड़न की वही ग्रंथि विद्यमान है जो समलिंगी पुरुष द्वारा बलात्कार तथा 'स्त्री' की भूमिका में ढाल दिए जाने की दोहरी लज्जा एवं अपमान से उपजी है। उर्मिला शिरीष 'किसका चेहरा' कहानी में इन 'पालतू गुंडों' के इतिहास को खँगाल लेना चाहती हैं जहाँ निस्सहाय और दिग्भ्रांत अवस्था में वे भविष्यहीनता की ओर ढकेल दिए जाते हैं। ट्रेन चलते ही आरक्षित डिब्बे में हड़बड़ा कर झुंड के झुंड घुसते लड़के जिस प्रकार बैठ भर पाने के लिए कॉलेज टुअर पर जा रही लड़कियों को बर्थ से खदेड़ते हैं और उनके विरोधपरक भिनभिनाते शोर से त्रस्त चाकू निकाल लेते हैं (निर्वासन, पृ.26), उससे आसन्न बलात्कार के भय से मिमियाती लड़कियाँ और हत्बुद्धि प्राध्यापिका की भयभीत मनोदशा का प्रामाणिक चित्रण 'किसका चेहरा' का कथ्य नहीं। कथावाचिका से साथ तादात्मीकृत होकर लेखिका स्वयं दृश्यपटल पर उपस्थित हो जाती हैं। क्षणिक उत्तेजना से जन्मे आतंक एवं घृणा जैसे मानवीय भावों पर नियंत्रण पा जब स्थिति पर विचार करने लगती हैं तो लड़के अमूर्त न रह कर सुनिश्चित पारिवारिक पृष्ठभूमि / मजबूरियों में बँधे भाई-बेटे-मनुष्य लगने लगते हैं। ''पतली लकड़ी सा हाथ!'' करुणा से भर कर वे उन्हें मानवीय दृष्टि से देखती हैं तो वे ''वहशी नहीं, कच्ची उम्र के अनुशासनहीन और पथभ्रष्ट लड़के नजर आते हैं जिन पर जिंदगी जीने की त्रासदी एक अभिशाप की तरह थोप दी गई है। संवेदना का विस्तार करती यह मानवीय अनुभूति जिस तरह शनैः शनैः बलात्कार/यौन उत्पीड़न के भय को कम कर लड़कियों को सहज करती है, वह समस्या को विकराल बना देने वाले तत्वों का मनोवैज्ञानिक/भावनात्मक उपचार किए बिना सामाजिक विकृतियों के समाधान की किसी भी संभावना को निर्मूल करती है। ''डंडे फ्री... मौत फ्री...'' - अपनी खौफनाक परिणति से पूरी तरह परिचित कॉलेज के ये लड़के भूख-प्यास, बेरोजगारी, भौतिक प्रलोभनों या महत्वाकांक्षाओं की सूली पर चढ़ कर राजनेताओं और उनके दलालों के हाथ में खेलने वाले मुहरे भर बन जाते हैं। रैलियों में भीड़ जुटानी हो, प्रदर्शन-धरना-जुलूस हो, दंगा-फसाद करवाना हो - 'दिहाड़ी' पर खरीद कर इन अनुशासनहीन युवकों को हाँक दिया जाता है आतंक फैलाने के लिए, घृणा पाने के लिए। ''नरकंकालों की सबसे आखिरी पंक्तियों में बैठाए' जाने वाले भूखे-प्यासे, नींद से त्रस्त, दुरदुराए इन पथभ्रष्ट नवयुवकों को देख कर लेखिका बहुत महत्वपूर्ण सवाल उठाती हैं कि ''क्या ये राष्ट्र की संपत्ति - बेजान चीजों से भी गए गुजरे हो गए...। इनके लिए कुछ नहीं है हमारे पास?'' (वही, पृ. 30) संवाद स्थापित करने की मानवीय कोशिश में यदि वे वास्तविक 'आपराधिक तत्वों' पर उँगली उठाते हैं (''इसमें हमारा दोष भी नहीं है। आप जैसों का है जो सिखाने की बजाय गन्ने की तरह चूस कर फेंक देते हैं हमें'') तो खिसियाने और गरजने की मुद्राएँ क्यों?
संतुलित एवं परिपक्व दृष्टि से बलात्कार की समस्या पर विचार करते हुए विष्णु प्रभाकर 'अर्धनारीश्वर' उपन्यास में बलात्कारियों के मनोविज्ञान और बलात्कार के कारणों की जाँच-पड़ताल करते हैं तो व्यक्ति की अपेक्षा समूचे तंत्र को कटघरे में खड़ा पाते हैं। शरतचंद्र के जीवनी लेखक के रूप में विष्णु प्रभाकर की विशेषता है स्त्री समस्याओं को लेकर अनायास अतिरिक्त रूप से संवेदनशील हो उठना जहाँ पूर्वग्रहमुक्त उन्मुक्त क्षितिज पर विचरण करना उनके लिए संभव हो जाता है। समस्या की ऊपरी परत को छू-छील कर वक्त की पूरी तस्वीर देने का दावा करने की बजाय वे पीड़िता सुमिता के साथ बलात्कार के दंश, अपमान की ज्वाला, दरकते वैवाहिक संबंध की वेदना भोग का निरंतर अंतर्मुखी होते चलते हैं - 'मैं' से उबर कर भीतर स्थित 'व्यक्ति' का साक्षात्कार कर अपनी सहानुभूति और संवेदना का निरंतर विस्तार करते हुए। इस क्रम में पीड़ा (अनुभूति) को अनुभव और अनुभव को विश्लेषण में ढाल कर वे जिन निष्कर्षों पर पहुँचते हैं, वहाँ बलात्कारी 'अपराधी' नहीं, सफेदपोश अपराध तंत्र का शिकार बन कर पीड़क-पीड़ित की विभाजक रेखा को बेमानी कर देता है। यही वह बिंदु है जो सुमिता को बलात्कार जैसी वैयक्तिक दुर्घटना को निजी न मान कर सामाजिक दुर्घटना मानने को प्रेरित करता है। बलात्कार जैसे अमानवीय हादसे के प्रति वितृष्णा होते हुए भी उसे बलात्कारियों से घृणा नहीं क्योंकि अर्ध-मूर्छितावस्था में सुने उनके शब्द सारी घटना को एक नया संदर्भ दे डालते हैं - ''कैसी बीभत्स-विकृत थी वह हँसी और उसी के बीच उतने ही बीभत्स उसके साथी के ये शब्द, ''मैं इसे मार कर शहीद बना दूँ! नहीं, नहीं, यह जिंदा रहेगी और तड़पेगी गरम रेत पर मछली की तरह। मुझे इंतकाम लेना है उन सफेदपोशों से...।'' ...उसने जो कहा था, वह वर्जनाओं और बंधनों के बीच जीने वाला ही कह सकता है। ...मैं जो कहना चाह रही हूँ तुमसे वह यही है कि मैं उन्हें अपने मानस-पटल पर देख कर डरी नहीं, अपने से घृणा भी नहीं की। मुझे लगा अजित कि जो कुछ उन्होंने किया, वह केवल वासना का खेल नहीं था। वासना तो निमित्त मात्र थी बदला लेने की। हाँ, मूल में इस जघन्य कृत्य के पीछे इंतकाम लेने की कामना थी, संपन्न और सत्ताभोगी वर्ग से इंतकाम लेने की भावना।'' (अर्धनारीश्वर, पृ.146) यहीं से विष्णु प्रभाकर एक प्रश्न भी उठाते हैं कि क्या संसार का इतिहास इसी नाना रूप सत्ता भोगी वर्ग द्वारा सत्ताहीन वर्ग की नारियों पर किए जाने वाले पाशविक और लौहमर्षक अत्याचारों की मर्मांतक कहानियों से नहीं भरा पड़ा है? असल में यह प्रश्न नहीं, लज्जा के रूप में उभरी स्वीकारोक्ति है जिसे इसी उपन्यास में नाना उद्धरणों/घटनाओं का समावेश कर वे पुष्ट करते रहे हैं। धार्मिक शुचिता की रक्षा का सवाल हो या सत्ता पक्ष द्वारा निरंकुश शक्ति प्रदर्शन की मुहिम, बार-बार रौंदी जाती है स्त्री की अस्मिता जो तमाम सूक्तियों/आप्तवचनों के बावजूद निर्मूल्य है। लेखक ने स्थिति की विडंबना को पराकाष्ठा पर ले जाकर उस समय छुआ है जब 'सामाजिक समता के समर्थक' रूस का वामपंथी तानाशाह बलात्कार को 'भूखे' सैनिकों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया कहता है - ''हमारे सैनिक अरसे से घर से दूर थे और स्त्री सुख के लिए तरसे हुए थे। इसलिए उन्होंने जो किया, वह स्वाभाविक था।'' (पृ. 356)
आवेश को थिरा कर वैचारिकता और संवेदना की गहराइयों को थहाना आसान हो जाता है जहाँ सतह पर दीखती विकृतियाँ अपने 'विकृत' रूप में होने के कारणों और कारकों के साथ विश्वसनीय रूप में विद्यमान रहती हैं। यही वजह है कि वृद्धों द्वारा बालिकाओं के बलात्कार की नृशंस घटनाओं पर थू-थू करने की बजाय विष्णु प्रभाकर पाठक से उन मानसिक सच्चाइयों का साक्षात्कार कर लेने का आह्वान करते हैं जहाँ बुढ़ापा वीतरागी होने के तमाम विशेषणों-नसीहतों को झटक कर जीवन को पूरी ऊर्जा और ऊष्मा के साथ जी लेने का हठ पालने लगता है। निस्संदेह इसी कारण रसना रस के साथ-साथ जीवन के समस्त रस ग्रंथियों, तृष्णाओं, प्रलोभनों के रूप में उसे जब-तब डसते रहते हैं। कर्मेंद्रियों, ज्ञानेंद्रियों, कामेंद्रियों के शिथिल पड़ जाने का अर्थ जीवन से विरत होना नहीं, जीवन में अपने जिए 'जगह' बनाने की चुनौती बन जाया करता है। इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए विष्णु प्रभाकर सत्तर वर्षीय बलात्कारी वृद्ध की आत्मस्वीकृति में आरोपित मान्यताओं और उच्चतर अपेक्षाओं के बीच निरंतर द्वंद्व एवं दुविधा में अपनी ही धुरी से उखड़ कर वृद्ध जीवन को अभिशाप बनाती वास्तविकताओं को परत दर परत खोलते हैं - ''काम हर व्यक्ति के भीतर है। वही तो जीवन को गति देने वाली ऊर्जा है। शरीर और मन दोनों को सहेजे रहती है। बुढ़ापे में शरीर छूटता जाता है लेकिन मन पर उसकी जकड़ बनी रहती है। ...बहुत प्रयत्न किया अपने को सम्हालने का पर हर प्रयत्न के बाद होता था यह कि रात को जब लौटता तो कोई न कोई अर्धनग्न युवतियों वाली या आधी रात के किस्सों वाली पत्रिका ले आता। ...लोगों की दृष्टि में मैं तप कर रहा था इस आयु में अकेले रह कर, पर भीतर आकांक्षा का तूफानी समंदर बाट जोहता रहता कि स्वर्ग से कोई उर्वशी या मेनका उतरे मेरा तप भंग करने को।'' (वही, पृ. 48-49) विष्णु प्रभाकर उपन्यास में आद्योपांत विशेष सजग रहे हैं कि स्त्री या पुरुष किसी भी पक्ष के प्रवक्ता के रूप में न उभर कर वे समस्या का सटीक विश्लेषण करें। लेखकीय चिंता को निर्लिप्तता में बदल कर असंलग्न भाव से पात्रों को 'मनुष्य' रूप में बारीकियों के साथ समझना जटिल ही नहीं, जोखिम भरा कार्य भी होता है जहाँ अक्सर लेखकीय पक्षधरता/सरोकार संतुलन भंग की स्थिति पैदा कर देते हैं। लेकिन विष्णु प्रभाकर स्त्री और पुरुष, बलात्कृता और बलात्कारी दोनों के अंतर्मन में निहित कुंठाओं और लज्जाजन्य अपराधबोध को पूर्व परंपरा एवं परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में पहचान पाए हैं और उनकी 'निर-अपराधिता' को इस सहज मानवीय ढंग से चित्रित करते हैं कि वह किसी के भी बचाव का उपक्रम न लग कर अपराध/ग्लानि तक पहुँचाने वाली राह को खोजने का प्रयास बन जाता है ताकि कल का मनुष्य ठोकर खाकर चेतने से पहले आत्मानुशसन एवं मानवीय गरिमा से संपन्न हो कर दूसरे की 'मनुष्यता' का सम्मान करना सीख सके।
स्पष्ट है कि बलात्कार सामंती दंभ और विकृत कामलिप्सा द्वारा पोषित मनोवृत्ति मात्र नहीं, आर्थिक-राजनीतिक कुचक्रों की अनिवार्य स्थिति भी है। अतः युवा शक्ति को एक स्वस्थ-सकारात्मक जिंदगी से बेदखल कर आतंकवाद और माफिया जैसे रसातलों की ओर ढकेलने वाले तत्वों की शिनाख्त अहम हो जाती है। उल्लेखनीय है कि विश्लेषणात्मक वैचारिक गहराइयों का संस्पर्श कर दूसरी अवस्था का कथा लेखन यहाँ बलात्कार की अर्थ-व्याप्तियों को दूर तक ले जाकर हिंदी कथा साहित्य में पुष्टतर होती समाजशास्त्रीय अनुगूंजों को सुनने को बाध्य करता है।
'आखिर क्यों मुस्करा रही है मोनालिसा ?'
''बलात्कारी एक डरा हुआ आदमी है। उसे तुम्हारी शर्म पर भरोसा है। बेशर्म बनो'' - दूसरी अवस्था के कथा लेखन का केंद्रीय स्वर है यह उद्गार। अतः बलात्कार को महज एक 'दुर्घटना' का नाम दे जहाँ स्त्री को अपराध बोध से मुक्त करने और यौन शुचिता की पारंपरिक मान्यताओं पर कुठाराघात करने में वह पहल करता है, वहीं एक नई जुझारू और आत्मसजग स्त्री की छवि भी गढ़ना चाहता है। ''तो क्या कहीं से कोई और धरती आने वाली है औरतों की दुनिया के लिए?' - वह प्रश्न नहीं उठाता, अपनी मुट्ठी में बंद विकल्पों और संभावनाओं को तोल लेना चाहता है। भय मुक्ति - पहला संकल्प! ''संस्कार भय पैदा करते हैं और भय की दीवारों के बाच पनपती है अंधी आस्था। उसी आस्था का कवच पहन कर प्रहार करते हैं सामाजिक महारथी।'' अतः शत्रु को पराभूत करने के लिए डाकिनी-पिशाचिनी की तंत्र विद्या से तैयार कराए आटे के पुतले में नपुंसक प्रतिशोध से उपजी बेचारगी को केंद्रीकृत करने की बजाय वह अपनी लड़ाई आप अपने हथियारों से लड़ने को तत्पर हो जाती है - पुतले (भय) को जोकर (उपहास) बना कर। ''हमने औरत को यह क्यों नहीं सिखाया कि वह बलात्कार को अपने पर राजनीतिक आक्रमण समझे और यह भी समझे कि अपनी जान गँवा देने का प्रमाण देने में सतीत्व की प्रतिष्ठा नहीं, बलात्कारी की जान ले लेने में हो सकती है।'' रघुवीर सहाय की कामना को मैत्रेयी पुष्पा जब अपने दो उपन्यासों 'इदन्नमम' तथा 'अल्मा कबूतरी' में मूर्त रूप देती हैं तो समस्या और समाधन के अंतःसंश्लिष्ट सूत्रों को क्रमिक रूप में उघाड़ती हैं। व्यभिचारी अभिलाख की हत्या के बाद आत्मदहन कर अपनी बेबसी की पुष्टि करने वाली सुगना के बरक्स वे मंदा को खड़ा करती हैं जो हत्या बनाम आत्मरक्षा के मामले की कानूनी जाँच के लिए अडिग है। चूँकि नेताओं और पुलिस के गठबंधन से अपराध जगत पर अपनी पकड़ मजबूत करते पूँजीपतियों के लिए मंदा सबसे बड़ी बाधा है, अतः हत्या के पीछे मंदा के 'हाथ' को 'कल्पित' कर हथकड़ियाँ पहनाने की पुख्ता तैयारी प्रशासन द्वारा कर ली जाती है। 'अल्मा कबूतरी' तक आते-आते मैत्रेयी समझ गई हैं कि जान देने की तरह जान लेना भी आवेशमयी बचकानी मुद्रा है जिसके चलते न जीवन जिया जा सकता है, न लक्ष्य संधान। बार-बार अनादृत होकर अल्मा ने जाना है अस्मत की रक्षा के लिए उसकी हर आक्रामक भंगिमा पुरुष की नजर में ''आनंद बढ़ाने का नुस्खा'' बन जाती है; कि ''नंगापन पहली बार लगता है, बार-बार नहीं''। भय और लज्जा से मुक्त स्थिति का ठंडा दो टूक विश्लेषण! इसलिए न विद्रोह, न समर्पण; न ऊष्मा, न स्पंदन - मंत्री श्रीराम शास्त्री की सेवा में प्रस्तुत निरी निष्प्राण-निस्पंद देह! अलबत्ता मानस में दूर तक जड़ें पकड़ता गहरा संकल्प कि ''आपको उखाड़े बिना नहीं मरूँगी।'' मैत्रेयी की विशेषता है कि प्रतिशोध को आक्रोश के परनाले में बहा कर उन्होंने अल्मा को रीता नहीं किया, बल्कि श्रीराम शास्त्री के साथ संवाद और संवेदना की झिर्रियाँ खोल हवा, गंध, पानी की तरह अल्मा को उसके लिए अपरिहार्य बना दिया है। उसका प्रतिशोध एक 'व्यक्ति' से नहीं, पूरी व्यवस्था से है, इसलिए सत्ता पर काबिज हो वह प्रभुता और वर्चस्व के जरिए व्यवस्था का अहम हिस्सा बनने को लालायित है। राणा की परिणीता की मानसिकता में श्रीराम शास्त्री की विधवा के रूप में सत्ता हथियाने का निश्चय उसकी इसी मानसिकता का परिचायक है। यहाँ एक सवाल उतनी ही तीव्रता से सिर भी उठाता है कि सत्ता में स्त्रियों की भागीदारी का अद्यतन इतिहास क्यों पुरुष वर्चस्व से मुक्ति नहीं पा सका है?
इसी सवाल से उभरता है दूसरा संकल्प - बैसाखियों के बिना आत्मनिर्भरता! ग्रासरूट तक स्त्री अस्मिता की संवेदना का प्रसार! शब्दों से ताकत मिलती है, लेकिन जमीन से जुड़ कर मिलती है नमी और शांति, आँखों में क्रोध ज्वालामुखी बन कर संचित होता रहता है - किसी एक प्रताड़ित जन का नहीं, पूरी जमीन का, रौंद दी गई अस्मिताओं का। सुमति अय्यर की 'एक पूरी जमीन में शंकर-सिंधु के बरक्स आशा जिस निरुद्वेग भाव से अपनी लड़ाई लड़ने को लालायित है, वहाँ उसके 'अ-ज्ञान' में ही भावी रणनीति की बारीकियाँ छुपी हैं - ''पानी में लड़ना है तो चप्पू से बेहतर हथियार नहीं हो सकता। यह लड़ाई उनके तरीकों से नहीं लड़ी जा सकती, इतना जानती हूँ, पर कैसे लड़ी जाएगी, यह नहीं जानती।'' इस प्रश्न का जवाब विष्णु प्रभाकर के उपन्यास 'अर्धनारीश्वर' में निहित है। ''इच्छाओं से मुक्ति नहीं, इच्छाओं की दासता से मुक्ति; पुरुष के बल के आकर्षण से मुक्ति नहीं, बल के पशुत्व के आकर्षण से मुक्ति; निर्भरता से नहीं, निर्भरता की अनिवार्यता से मुक्ति'' को किसी भी महाभियान की पहली सीढ़ी मान कर विष्णु प्रभाकर स्त्री के हाथ यह बीज मंत्र थमा देना चाहते हैं कि ''अकेला आदमी सबसे शक्तिशाली होता है।'' सुमिता के वैचारिक-भावनात्मक आलोड़न को प्रमिला वर्मा, राजकली, मार्था, किरण, शालिनी जैसी अनेकानेक बलात्कृता स्त्रियों की मनोग्रंथियों के बीच पुनर्जीवन के लिए ललकती जिजीविषा के साथ जोड़ वे विभा के रूप में एक ऐसी लौह-स्त्री गढ़ते हैं जो जान की बाजी लगा कर भी पूरी व्यवस्था से उलझने और पलटने को तैयार है। बेशक विभा अंत तक आते-आते शरतचंद्र के उपन्यास 'शेष प्रश्न' की कमल के समान अतिबौद्धिक एवं अविश्वसनीय अधिक लगने लगती है और उसका प्रस्ताव यूटोपिया की शक्ल लेने लगता है, लेकिन यूटोपिया हमेशा अग्राह्य और उपहासास्पद ही क्यों समझा जाए? वह अपने मूल रूप में सुनहरे भविष्य का ब्लू प्रिंट भी होता है।
''नारी को बस नारी बनना है, सुंदरी और कामिनी नहीं'' - तीसरा संकल्प, विभा के यूटोपिया ('नई स्मृति' के निर्माण की रूपरेखा) के रूप में उभरता हुआ। युगों पुरानी 'स्मृतियाँ' जब बदलते वक्त में हमारी सहायता नहीं कर सकतीं तो क्यों न युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप एक नई व्यापक 'स्मृति' (आचार-संहिता) का निर्माण किया जाए? - विभा का प्रश्न! ऐसी स्मृति जिसमें धर्म, राजनीति और व्यक्ति के निजत्व के विचार के साथ-साथ समाज में दोहरे मूल्यों-मानदंडों की कोई गुंजाइश न हो; नारी की स्वतंत्र सत्ता हो लेकिन ध्यान रखा जाए कि 'स्वतंत्र सत्ता का अर्थ नारी की सेक्स इमेज से न जुड़े, बल्कि उसका अर्थ हो ''समान अधिकार, समान दायित्व, एक स्वस्थ समाज के निर्माण में स्त्री-पुरुष दोनों की समान भागीदारी। अर्धनारीश्वर की परिकल्पना जहाँ वे एक-दूसरे में विसर्जित नहीं, एक-दूसरे से स्वतंत्र, फिर भी जुड़े हुए'' हों। आत्मनिर्भरता और निर्भीकता के पायदान पर खड़ी लता शर्मा की कहानी 'मर्दाना कमजोरी' की कथावाचिका तीसरे संकल्प की प्रतिमूर्ति होते हुए भी विभा की अर्धनारीश्वर की संकल्पना से सहमत नहीं। एक तो पुरुष का 'ऊँटभाव' (आत्मस्थ, आत्मतुष्ट, अहम्मन्य भाव), तिस पर 'ताकत की दवाइयों के प्रति मर्दाना कमजोरी... तिरस्कार से मुस्कराए न स्त्री (मोनालिसा) तो क्या करे? गायक डेविड के हाथ में गुलेल देख कर करुणा और क्षमा बरसाती मुस्कान न फेंके तो कुटिल विद्रूप को सहने की शक्ति कहाँ से पाए? पौरुष का शिरस्त्राण थाम कर ध्वस्त होते जेरुसलम को देखते जैरेमिया की कायरता पर व्यंग्य की बाँकी मुस्कान न फेंके तो पगला न जाए? ''आखिर क्यों मुस्करा रही है मोनालिसा? ...सब कुछ देख रही है वह। दीवारों पर लिखे बेढंगे-बेहूदे विज्ञापन... स्त्री का विश्लेषण करते मनीषी... झुंझलाता, खिझलाता फ्रायड... ''आखिर औरत चाहती क्या है?'' ''औरत की बात छोड़ो, तुम्हें मालूम है तुम क्या चाहते हो?'' मुस्करा रही है मोनालिसा... ''विकृति या दुर्बलता, जो कुछ भी है, कानों के बीच में है, टाँगों के बीच में नहीं। इसी तथ्य को रेखांकित कर रही है मोनालिसा।''
निस्संदेह दूसरी अवस्था का हिंदी लेखन आत्माभिमान से दीप्त वर्जनामुक्त स्त्री की जिस छवि को प्रतिष्ठित करता है, वह सीधे-सीधे यौन शुचिता (यानी पुरुष अधिकार का ट्रेड मार्क) को अँगूठा दिखा कर अपने लिए स्पेस और स्वत्व दोनों को एक साथ पाने की दोहरी लड़ाई है। उल्लेखनीय यह है कि 'पाने' की उत्सवधर्मी उत्कंठा में चेतावनी के तौर पर निकट भविष्य में स्थित दो संकटों की ओर संकेत करना भी वह नहीं भूलती। पहली संकटापन्न स्थिति है रागात्मकता से शून्य संवेदनहीन युवतर स्त्री पीढ़ी जिसकी अनथक ऊर्जा और उत्साह के नीचे छिपी पुरुष घृणा को सूँघ कर स्वयं लेखिका अर्चना वर्मा (जोकर) स्तब्ध और भयाक्रांत हैं। ''कितना अच्छा हुआ न अम्मू कि पापा पहले ही मर गए। और हमारे घर में दूसरा भी कोई मर्द है ही नहीं। आई थिंक आई एम लकी। रियली लकी।'' - पंद्रह वर्षीया कंकु का उद्गार जिसके लिए पुरुष का अर्थ है घृणित वासना और विकृत मानसिकता का पुंजीभूत रूप! ऐसी स्त्री देह और मन का एकाग्र संगीत सुन पाएगी कभी? पराए अनुभवों की कँटीली झाड़ियों में उलझ कर जान पाएगी प्यार का अर्थ जो जीवन को गति और संतुलन देता है? अस्मिता की लड़ाई दूसरे को निर्मूल करने में नहीं, परस्पर अनुकूलन और सह-अस्तित्व में है। लेकिन इसे समझने के लिए जरूरी है निरुद्वेग कर्मठता, उदार सकारात्मकता और पूर्वग्रहरहित लक्ष्यपरकता। प्रतिक्रिया, प्रतिहिंसा, प्रतिशोध के खदबदाते माहौल में इन्हें पाना इतना सरल भी तो नहीं। ये विविध साधनाएँ हैं जिन्हें अपने भीतर से अर्जित करना पड़ता है - अकूत धीरज और संयम के साथ। सृष्टि का ठेका बेशक स्त्री ने नहीं लिया, लेकिन सृजन का दायित्व तो उसी का है न! 'सृजन' को जैव वैज्ञानिक संघटना न कह कर प्रतीक रूप में विस्तारित करें तो हर संवेदनशील जिम्मेदार नागरिक का दायित्व जो बड़बोलेपन से नहीं, मूक-एकनिष्ठ भाव से ज्योत से ज्योत जला देता है, बस!
दूसरी समस्यामूलक स्थिति है संवेदनहीन पुरुष के अकेले, असुरक्षित और न्यूरोटिक हो जाने की जिसकी ओर संकेत किया है कमला चमोला ने कहानी 'औरतनामा' में। बात-बात पर स्त्री को नंगा कर गाँव भर में घुमाना सवर्ण/सबल पुरुष के प्रतिशोध का कारगर तरीका हो सकता है जो फौरी तौर पर बेशक उसके अहं, दर्प और शक्ति में बढ़ावा करता हो, लेकिन इसके दूरगामी प्रभाव उसकी रागात्मकता को ठीक कंकु की तरह बंजर और वीरान कर देते हैं। बुद्धि और हृदय, मन और प्राण, भावना और संवेदना से हीन नंगी औरतों की परेड देख-देख कर बड़े हुए युवा के लिए स्त्री का अर्थ है - जुगुप्सा, घृणा, अपमान और ग्लानि जैसी 'अमानवीय' अनुभूतियाँ जगाने वाली वीभत्स देह। इस देह के पार मादक सुगंधियों के जीवंत स्रोतों की रचना करते स्त्री-पुरुष संबंध सृष्टि की जीवंतता के लिए कितने अनिवार्य हैं, इसे जानने की सहज उत्कंठा से शून्य युवक! कहीं मोनालिसा की मुस्कान में बंजर होने का अभिशाप ढोती भावी पीढ़ी की निस्सहाय निरर्थता के प्रति खिसियाहट तो नहीं?
कहना न होगा कि नौवें-दसवें दशक के हिंदी कथा-लेखन की वैचारिक परिपक्वता उसे बलात्कार जैसी जघन्य समस्या के समस्त आयामों को हार्दिकता एवं विश्लेषणपरकता के साथ देखने की निर्भीकता देती है। इस प्रक्रिया में 'अबला' पीड़िता के आँसुओं और इज्जत जैसे चालू मिथों का तर्कपूर्ण ढंग से मजाक उड़ा कर वह सीधे 'सबल' किंतु अदृश्यमान पीड़क (बलात्कारी) को फोकस में लाता है, उसे एक चेहरा देकर उसमें पिता-पति, भाई-पुत्र जैसे अंतरंग संबंधों को देखने को बाध्य करता है। अमूर्त अपराधी की पहचान को मूर्त और सुस्पष्ट करना हिंदी कथा-लेखन की महती उपलब्धि है जिसके साथ-साथ पुरुष नहीं, पुरुषवादी व्यवस्था और संस्थाओं के चेहरे भी स्वतः बेनकाब होते चलते हैं। जेंडर सेंसिटाइजेशन, बलात्कार संबंधी मुकद्दमों की त्वरित न्यायिक प्रक्रिया, मौजूदा कानूनों को अधिक मानवीय बनाने और उन्हें लागू करने तथा इन मुकद्दमों की सुनवाई हेतु बैंच में एक स्त्री जज की अनिवार्यता पर बल देने की अपेक्षा फाँसी बनाम कड़ी सजा के विवाद को हवा देना असली समस्या से मुँह चुराना है। यह सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा की उसी कुटिल वासना का विस्तार है जो न केवल मानसपुत्री सरस्वती के कौमार्य का हंता बन जाता है, बल्कि अपनी शर्म और अपराध छिपाने के लिए उसे तमाम लौकिक सुख-सुविधाओं से वंचित कर निर्वासन का कड़ा दंड देना भी नहीं भूलता। अपने विवेक, स्वाध्याय और श्रम से बौद्धिक क्षमताओं का विस्तार कर सरस्वती (स्त्री) अपना विलक्षण व्यक्तित्व सर्जित कर भी ले तो विष्णुप्रिया लक्ष्मी के रुतबे की ओट में उसका तिरस्कार करने से नहीं चूकता। यानी पुनर्सृजन की जिम्मेदारी एक बार फिर स्त्री के कंधों पर ही क्योंकि बकौल मीरा ''घायल की गति घायल जानै या जिन लागै होई।'