(मैं जितना अपने अतीत से भागना चाह रहा था उससे कहीं ज्यादा रजनीगंधा उसे पकड़ना चाह रही थी। इसके उलट यह भी कहा जा सकता है कि मैं अपने अतीत को पकड़ना चाह रहा था और वह उससे भाग रही थी। असल में देखा जाए तो हम ना भाग रहे थे ना वो पकड़ रही थी; अतीत ही ऐसा था कि हमारे साथ लुकाछिपी का खेल करना चाह रहा था। बातों-बातों में जब हमारे अतीत खुलते तो मैं कुछ बहुत चाहे हुए पल को भी नजरंदाज करने की कोशिश करता और वह तो उसे दबा ही देती। उसने खुद को इतना सँभाल लिया था कि पलट कर पीछे देखती भी थी तो बहुत सधे हुए तरीके से आसमान की तरफ देखने लगती और कहती कि कम बादलों वाली बरसात कम आँसू की तरह होती है। न प्यास बुझती है, न जी हल्का होता है। चूँकि मैंने रजनीगंधा को शुरू से खिलते हुए देखा था इसलिए मैं समझ सकता था कि पलट कर देखने में चाहे गर्दन को जितना साध लिया जाय आसमान तक उठती हुई गर्दन को देखा जा सकता है। और फिर बरसात में आँसू की बात तो बहुत साफ और सहेजी हुई बात थी। इसलिए मैंने मान लिया था कि किसी जख्म के निशान रह जाते हैं और उसी निशान से आँखें बचा कर जी लेना ही अपना मुकद्दर है। हमारे बीच जी लेना एक ऐसे वाकया की तरह आता जिससे लगता कि कहीं कोई अजानी सी आवाज कह रही हो कि समय और जिंदगी का अपना हिसाब होता है और उस हिसाब को हल कर ले जाना ही जी लेना है।
मुझे मुंबई में रहते हुए चार साल से ज्यादा हो गया था। रजनीगंधा ने ही एक प्रॉडक्सन हाउस में मुझे रखवा दिया था जहाँ मैं लेखकों के सहायक के तौर पर काम करते हुए विदेशी और देशी फिल्मों की कॉपी करता और उसे और देशी वतावरण में ढालता। तभी एक दिन मेरे पुट्ठे पर हाथ मारते हुए प्रोड्यूसर ने कहा कि, ' क्यों शिरीष तुमने तो बहुत शानदार कहानी लिखी है। उसे थोड़ी फिल्मी कर दोगे तो कमाल की फिल्म बनेगी।' मैंने कोई कहानी नहीं लिखी थी इसलिए इस बात से चकित होकर पूछना चाह रहा था कि आप किस स्टोरी की बात कर रहे हैं? तभी उसके साथ में खड़ी रजनीगंधा ने मुझे इशारा किया। इशारे से मैं इतना जरूर समझ पाया कि मुझे हामी भरनी है इसलिए बात को चापलूसी में बदलते हुए कहा कि, ' सर आप चिंता मत करिए जिस दिन मुझे लग गया कि मेरी राइटिंग पर पैसा लगाने का रिस्क लिया जा सकता है उस दिन मैं आपकी गर्दन पर लटक कर अपनी फिल्म बनाऊँगा।' प्रोड्यूसर को मेरी बात भा गई थी। उसने उत्तेजना भरे उत्साह के साथ कहा कि मैं रिस्क ले रहा हूँ। तुम जल्दी काम शुरू करो। मैंने थैंक्यू कह कर अपनी सहमति दे दी। वह मुस्कराता हुआ अपनी केबिन में चला गया।
मैंने रजनीगंधा से मामले को जानना चाहा तो पता चला कि यह स्टोरी उसी ने लिखी है। वह मुझ आगे बढ़ाना चाहती है। यह सब इसलिए कर रही है क्योंकि मैं अब तक कोई कहानी नहीं पूरी कर पा रहा था। आगे की बात यह थी कि मुझे उस स्टोरी को और फिल्मी, और मसालेदार बनाना था। मैं ऐसे काम करने में महारत हासिल करता जा रहा था जिसकी वजह से प्रोडक्सन हाउस में मेरी इज्जत बढ़ गई थी और मैं सहायक (असिस्टेंट) से एसोसिएट हो गया था। एसोसिएट होना कुछ वैसा था कि कोई उस हाउस में मिलने आता या प्रोड्यूसर जब किसी से परिचय कराता तो कहता कि ये मेरा एसोसिएट है - शिरीष उपाध्याय।
लेकिन यह कहानी तो...! इस कहानी पर मुझे काम करना होगा? इस कहानी ने मुझे फिर से उसी खाई में धकेल दिया था जहाँ से मैं बहुत मुश्किल से ऊपर आया था। यह कहानी रजनीगंधा ने लिखी थी। रजनीगंधा जिसके साथ मैं मुंबई में रहता था। रजनीगंधा जो कि तीन चार भोजपुरी फिल्मों में नायिका बनने के बाद प्रोड्यूसर के विश्वास को इतना अर्जित कर ली है कि वह उसे हिंदी में लांच करने की तैयारी कर रहा है। प्रोड्यूसर के लिहाज से मुझे इस फिल्म में बतौर लेखक क्रेडिट दिया जाएगा। इस बात से मुझे खुश हो जाना चाहिए था लेकिन कहानी में अगर मेरी कहानी हो, मेरा अतीत हो तब खुशी की बात कैसे की जा सकती है? कम से कम मुझसे नहीं हो पा रहा था। और तो और रजनीगंधा जिस अँधेरे में गई थी, उसके बाद जो समझौते उसने किए थे वह सब क्यों नहीं है इस कहानी में। रजनीगंधा कैसे अपने अँधेरे पर पर्दा रख सकती है? क्या वो चाह रही है कि उन अँधेरों को मैं लिखूँ? शायद यही वजह है कि बतौर लेखक स्क्रीन पर अपना नाम जाने की खुशी को मैं महसूस नहीं कर पा रहा हूँ। खुशी की बात तो दूर, ऐसा लग रहा है कि मैं फिर से किसी अँधेरे में धकेला जा रहा हूँ। आगे कुछ और कहूँ इसके बजाय मेरे टेबल पर पड़ी रजनीगंधा की कहानी को आप के सामने रख रहा हूँ। कहानी में चरित्रों के नाम असल नाम है, मैंने अभी के लिए उसे यूँ ही छोड़ दिया है।)
सभी को ताज्जुब हो रहा होगा कि उस दिन भी सूरज पूरब में ही निकला था। गंगा बंगाल की खाड़ी में ही गिर रही थी। मुर्गे ने सुबह ही बाँग दी थी। कोयल ने पिया को ही बुलाया था, फिर क्या था उस दिन में कि मैने सब से एक कदम आगे बढ़ कर शिरीष को अपना बना लिया था।
नकाब खयालात को बेनकाब करने की / लत लगी है / उधर एक शरमाई हुई शाम / मेरी जमीन पर उतर रही है / कैसे तेरा एहतराम करूँ / उतरने दूँ उस शाम को बेहिचक / बोसीदा खयालों को एक नया लिबास दे सकूँ / वक्त इतना खौफनाक कि इससे उबरने में सबकुछ जाया हो जा रहा है।
शिरीष की इन्हीं पंक्तियों से ही आज मैं मुद्दत बाद अपनी डायरी लिखने या अपनी बात कहने बैठी हूँ। इसे लिखने के हेतु में गालिब जा रहे थे, मोड़ आया मुड़ गए की तरह कोई जुमला नहीं है। एक सबब है भले ही सबक की तरह हो या ना हो। जिक्र इसलिए भी कि इस डायरी के केंद्र या परिधि में शिरीष ही आता है। यदि रजनीगंधा आती भी है तो शिरीष की परिधि में जाने के जिद से ही। शायद यह मेरा नजरिया हो। वैसे भी डायरी में अपना नजरिया ही तो कब्जा जमाता है। खैर, मुझे अब आगे बढ़ जाना चाहिए। एक कथा की तरह। कथा को अपने में समेटते हुए।
'क्या तुम भी छुपा-छुपा कर नहीं बहाते आँसू
अपनी अनिच्छाकृत निष्ठुरता पर'
शिरीष ने उड़िया कवि सीताकांत महापात्र की इसी पंक्ति को कागज के कैनवास पर लिखकर अपने कमरे में चित्र की तरह लगाया था। मुझे नहीं पता कि उसने कौन सी निष्ठुरता की होगी, हालाँकि मैंने जानने की बहुत कोशिश की थी और हर बार मुझे सवालिया निगाह से मुस्कराते हुए ऐसे देखता रहता था जैसे उसने अपने लिए नहीं मेरे लिए ही लिखा है और मुझ से ही पूछ रहा हो। इस बात को लेकर उसके प्रति मेरी बेदिली बढ़ जाती थी लेकिन उसने तब भी नहीं बताया था जब उससे इलाहाबाद भी छुड़वा दिया गया था।
मैं शिरीष से प्रेम करती थी और मेरा प्रेम करना इसलिए नहीं था कि प्रेम एक नैसर्गिक क्रिया है और एक लड़की प्रेम करती ही है। इसलिए भी नहीं कि मैं लैला थी और मैं किसी मजनू के साथ प्रेम करने और मरने के लिए अभिशप्त थी। मैं शिरीष को इस समझ से प्रेम करती थी कि, 'अरे यार कोई शिरीष से प्रेम नहीं करेगा तो करेगा क्या।?' फिर मेरा प्यार भी ऐसा रंग चढ़ा कि आग, हवा और पानी तीनों को अपनी अपनी जगहों से निकलना पड़ा। वे आकाश पाताल के जर्रे जर्रे की तफ्तीश कर आए और आखिर में उन्हें संगम पर दुनिया की एक मीटिंग बुला कर बताना पड़ा कि संगम पर सरस्वती के अलावा एक और धारा है जो दिखाई नहीं दे रही है। फिर सगर्व लैला यानी मेरा नाम लिया उन्होंने। मुझे अपने नाम से बेहद लगाव है। इसलिए नहीं कि इस नाम की कोई लड़की प्रेम में शहादत पा चुकी थी और जिसके नाम से सहरा समंदर में बदल जाते हैं। इसलिए भी नहीं कि लैला एक महकती नशीली आइटम है और जिसकी एक लचक पर उम्र की आखिरी और बेजुबान बेजान सलवटें भी पामीदार चाहत में बदल जाती है। बस इसलिए कि शिरीष भी मुझे लैला ही कहता था। शिरीष के बिना अपना नाम सुनते ही मैं चीखने की उन्माद से भर गई। लेकिन लैला के साथ शिरीष के नाम न लेने का दुख इतना भारी था कि धरती और सख्त हो गई और मेरे पैरों के खून सूख गए। मैं वहीं ठस से बैठ गई कि यह कैसा पुरस्कार है कि मैं धारा बन गई और उसका नाम सिर्फ लैला है उसमें शिरीष नहीं। यह भी तो हो सकता है कि संगम गंगा, यमुना, सरस्वती, लैला और शिरीष की धाराओं का समागम हो। मेरी चेतना रुँधने लगी। उस समय मेरा दम बुरी तरह से घुटने के बाद भी मुझे यही लगा कि कोई किसी भी तरह से मेरे पास के थोड़े बहुत बचे ऑक्सीजन की जल्दी से हत्या कर, करवा दे। लेकिन तभी मुझे शिरीष दिखाई दिया और मैं ऑक्सीजन की हत्या पर उतारू हत्यारे से मिन्नतें करने लगी कि छोड़ दो, मैंने अभी प्यार ही कितना किया है। लेकिन हत्यारों ने कभी कोई मिन्नत सुनी है जो मेरी सुनते। मेरे ऑक्सीजन की हत्या कर दी गई। मेरा हाथ यमराज अपने हाथों में लेने ही वाला था कि शिरीष ने मुझे बाँहों में भर लिया। फिर मैंने आग पानी और हवा के समांतर खड़े होकर उसी संगम पर गुफ्तगू के लहजे में कहा - 'ऑक्सीजन से ज्यादा जरूरी है शिरीष इसलिए मैं बिना ऑक्सीजन के भी जिंदा हूँ।'
उन दिनों फेसबुक नहीं था और अपना स्टेटस शेयर करने की आह ऑरकुट पर उपलब्ध नहीं थी इसलिए शिरीष ने अपने चौवन दोस्तों को मैसेज किया था 'संगम पर जो सरस्वती के अलावा एक और धारा नहीं दिखाई दे रही है वो लैला है। फिर जब फेसबुक का चलन हुआ तो उसने अपने उन्नीस सौ नब्बे दोस्तों के फ्रेंड समूह वाले अपने एकाउंट पर वही स्टेटस शेयर किया, 'संगम पर जो सरस्वती के अलावा एक और धारा नहीं दिखाई दे रही है वो लैला है।' काल के अंतराल के बाद भी लैला के बारे में यह स्टेटस बदल नहीं पाया था लेकिन कुछ चीजें जरूर बदल गई थीं। खैर उन्नीस सौ नब्बे दोस्तों में से बमुश्किल दस दोस्तों ने इस स्टेटस को लाइक किया था, ध्यान रहे यह वही स्टेटस था जिस को सुनाने के लिए संगम पर दुनिया को बुलाया गया था और जिसे सुनने के बाद दुनिया इतनी रोमांचित हुई थी कि इससे पहले बस एक बार ऐसे और हुई थी जब मीरा शिरीष के प्रेम में गली-गली भटकते हुए शिरीष-शिरीष गाया करती थी और उसे जहर दे दिया गया था।
बहरहाल मैं किसी को कैसे बताऊँ कि शिरीष से प्रेम करने में प्रेम के अलावा किसी डाह के लिए कोई छुट्टी ही नहीं है। और इस डाह की आह अपनी लताफत से इतनी रंगीन है कि कोई क्यों किसी और अहसास में बसर करे। खैर अभी मैं शिरीष की निष्ठुरता वाली बात पर अटकी हुई हूँ इसलिए यहाँ यह कह के आगे बढ़ रही हूँ कि एक दिन शिरीष ने मेरे साथ अपने आखिरी में दिनों में कहा था हर आदमी योद्धा क्यों नहीं होता है अगर ऐसा नहीं हो सकता तो जो योद्धा हैं वे गांडू बनने से पहले मर क्यों नहीं जाते हैं। इसलिए कुछ और बातें।
वो चैत की पुरवाई नमी वाले दिन की कोई शाम थी। शिरीष के भैया किसी जल्दी में कोर्ट से लौट कर आए और शिरीष को अपने कमरे में बुलाया। भैया की आसान से आसान बुलाहट पर भी शिरीष मामले को हल्का बनाने के लिए भाभी को साथ में ले लेते फिर तो आज कुछ गंभीर ही लग रहा था। भाभी के साथ शिरीष अपने भैया के कमरे में गए। भैया ने शिरीष को देखा और अपनी पत्नी से कहा कि तुम जाओ मुझे शिरीष से बात करनी है। भाभी जाने के बजाय इस भाव से वहीं बैठ गई कि मैं भी तो सुनूँ कौन सी ऐसी बात है जो मेरे बगैर होने वाली है। भैया समझ गए कि मैं सख्त नहीं हुआ तो इस बार भी शिरीष के पक्ष में ही बातें बदल जाएँगी इसलिए अपनी पत्नी से मुखातिब हुए - 'शिरीष इस हफ्ते के आखिर तक इलाहाबाद शिफ्ट हो जाएगा। मैंने इसके रहने के लिए अपने दोस्त से कह कर वहाँ कमरा सेट करवा दिया है। तुम इसके कपड़े चादर वगैरह की पैकिंग कर देना। फिर शिरीष की तरफ देखते हुए कहा - 'और तुम भी अपनी किताब वगैरह की पैकिंग कर लेना।' शिरीष ऐसे भी उनकी बातों पर तुरंत रियेक्ट नहीं करता फिर भी भैया को लगा कि हो सकता है रियेक्ट करे इसलिए उसके अनुमानित रिएक्शन के पहले ही अपनी बातों में एक बात और जोड़ दी -
'प्रिवियस तुम्हारा क्लियर हो ही गया है, फाइनल ईयर का एक्जाम दे देना। इस समय तो पटना यूनिवर्सिटी तक के लड़के ग्रेजुएशन में नाम लिखा कर दिल्ली, इलाहाबाद यूपीएससी की कोचिंग के लिए चले जाते है ऐसे में जैन कालेज के क्लास करने के नियम का क्या तुक। यहाँ तो ऐसे भी कुछ नहीं होता है।'
लेकिन हर बार की तरह भाभी इस बार भी चुप नहीं रही - 'आप इतना जल्दी क्यों ऐसा कर रहे है। एक डेढ़ साल की तो बात है इलाहाबाद या दिल्ली कहीं भी जाएँगे तो पढ़ेंगे ही ना...? यहाँ रह के पढ़ ही रहे हैं!' भैया भाभी के बातों को पहली बार कुचलने की लालसा से भरे थे इसलिए भड़क गए - 'कुछ नहीं पढ़ रहे हैं तुम्हारे बबुआ जी। इसकी सारी पढ़ाई बदले की भावना से भरी हुई है। जाकर इसका अलमिरा देख लो। भूमिहारों का इतिहास पढ़ रहा है। आज भी भूमिहार की मिटिंग में गया था। जिन नरसंहारों को भुलाने के लिए हम गाँव के दो बिगहे के खेत अपना घर द्वार बेच कर... जैसे तैसे यहाँ शहर के बाहर शिफ्ट हुए है यह उन्हीं नरसंहारों में फिर से जाना चाहता है। अरे माँ मेरी भी मरी है। मैंने भी अपना भाई खोया है। बाबूजी ने अपनी पत्नी और बेटा खोया है। सब ने कुछ ना कुछ खोया है। और उस समय तो यह छोटा था दस साल का भी हुआ होगा कि नहीं इसे तो कुछ याद भी नहीं होगा फिर भी माँ... माँ... भैया... भैया... किए रहता है। मैं जानता हूँ माँ और भाई को इसलिए याद नहीं कर रहा है कि इसे वे याद आ रहे हैं। इसलिए कर रहा है कि इतिहास पढ़ रहा है। जिस जमीन की लड़ाई में उलझना चाहता है उसमें बहुत घाल मेल है। और यह अच्छे से जानता है। दिन रात यही सब पढ़ रहा है। मैं बहस नहीं करना चाहता। बहस करूँ तो क्यों? यह यूपीएससी की तैयारी कर रहा है और इसके लिए इलाहाबाद सही रहेगा। तुम इसे समझाओ और भेजो। अगर ये इलाहाबाद चला गया तो मुझ पर तुम्हारा बहुत बड़ा एहसान होगा।'
भैया हाँफ रहे है और भाभी दंग हैं। शिरीष भाभी के पैरों को देख रहा है। भाभी के पैर जमीन पर है और उनकी साँसें भैया की गिरफ्त में फिर भी भाभी साँस ले ही लेती हैं - 'आप बिना मतलब परेशान हो रहे हैं। बबुआ जी सही से पढ़ रहे हैं। आप ही तो बता रहे थे कि एक दिन इनके हेड आप से इनकी तारीफ कर रहे थे और इनका नंबर भी तो बहुत अच्छा आया है। मैं जानती हूँ चोरी होने के बाद भी ये चोरी नहीं करते। सब इनके मेहनत का रिजल्ट है।'
भैया - इसीलिए तो मैं भी कह रहा हूँ कि ये अपने आप को पहचाने। भूमिहारों का इसने ठेका तो नहीं ले रखा है। हमारे लिए, सब के लिए यही अच्छा है कि जो हासिल करना है पढ़ के ही करना है। खेतों से कोई उम्मीद नहीं रह गई है। वैसे अब इसका खेत है कहाँ...? एक आइ ए एस बहुत कुछ बदल सकता है। चीजें बदल रही हैं। सब कुछ बदल रहा है। इस बार शिरीष की नजर भाभी के पैरों से अचानक हट गई - 'इसी बात का तो दुख है कि सब कुछ बदल रहा है लेकिन सरकार और सरकार होती जा रही है।' भैया को भक्क मार गया था लेकिन आज वो रुकने वाले नहीं थे। भकुआए से बिना बोले भाभी की तरफ देखा और उन्हें दिखाया - 'देखो कैसा रिजल्ट दे रहे है तुम्हारे बबुआ जी।' भाभी ने निरुत्तर होकर शिरीष को देखा और शिरीष ने भैया की तरफ बिना देखे बात को स्थगित किया - 'मैं इलाहाबाद चला जाऊँगा।' भैया ने लंबी साँस ली, भाभी उदास हो गई और शिरीष यह कह कर कमरे से बाहर चला गया कि मेरी माँ मरी नहीं है और ना ही मेरा बड़ा भाई खोया है। हत्या हुई है उनकी और दुनिया का सबसे बड़ा सच है हत्या।'
आगे मैं कुछ कहने से पहले यह बता देना चाहती हूँ कि दुनिया में अगर किसी को कहीं भी असहमति नहीं हुई होगी तो भी शिरीष से वो आराम से असहमत हो जाएगा फिर भी मैं उसकी बात करना चाहती हूँ क्योंकि मेरा खयाल शिरीष के प्रेम से है इसलिए असहमतियों की बात सरकार, कोई और या जनता करेगी।
तुम कैसे जान गए / मैं उन हत्याओं को भूल जाऊँगा / तुम कुर्सी पर बैठोगे और मैं खो जाऊँगा / मेरे राज्य के राजाओं / सावन में हत्याए बरसेंगी / भादो जश्न मनाएगा / मैं नई सदी की जनता हूँ / भ्रम में मत रहना कि मैं तुम से हिसाब मागूँगा / एक-एक हिसाब चुकाऊँगा / तुम झंडा फहराओगे और चुटकुले कहोगे / हिसाब की आग सब जला देती हैं / मैं बताऊँगा अगर राजा से कोई हिसाब चुका ले / जल के खाक हुई चीजें / फिर से अनमोल हो कर वापस आ जाती हैं।
हालाँकि शिरीष ने ये पंक्तियाँ इलाहाबाद में रहने के बहुत दिनों बाद अपने दोस्तों के बीच सुनाई थीं लेकिन ये पंक्तियाँ उसी दिन की है जब उसे इलाहाबाद जाने के निर्देश जारी किए गए थे और वह भैया से राजाओं के बारे में कुछ कह नहीं पाया था। लेकिन अभी मुझे उसकी निष्ठुरता खटक रही है। शिरीष का आरा छूट रहा है और वो टिकट खिड़की पर खड़ा है। कभी कभी पीछे मुड़कर आरा देखने की कोशिश करता है कि शायद आरा दिख जाए लेकिन लंबी लाइन के सिवा उसे कुछ नहीं दिखता। फिर सोचता है टिकट अगर न लूँ तो पकड़ा जाऊँगा। फिर सोचता है पकड़े जाने के डर से टिकट ले रहा हूँ या जुर्म से बचने के लिए। आगे खुद से कहता है कि अगर किसी नैतिकता की वजह से टिकट लेने का खयाल है तो ले लो और किसी डर की वजह से ले रहे हो तो मत लो। शिरीष पर अभी डर का पलड़ा भारी है इसलिए वो टिकट नहीं लेता है और टीटी से पता कर उस बर्थ पर बैठ जाता है जो मुगलसराय के बाद के किसी स्टेशन से रिजर्व्ड है।
शाम के सात बज रहे होंगे मुगलसराय में टीटी अपना मौला तलाश करने निकले लेकिन अपने सबसे पाक और जहीन मौले जो किसी पत्रिका में डूबे हुए थे को छोड़कर उतर गए। शिरीष ने लंबी साँस ली और इसी से पता चला कि वो डरा हुआ था। शिरीष सबसे ज्यादा इसी बात पर बेचैन हो जाता है कि वो डर कैसे जाता है। इसीलिए वो मुगलसराय उतर गया कि फिर से कोई टीटी टकरा जाय। लेकिन इसे इत्तेफाक ही कहिए कि शिरीष अपने दस साल के बेकारी सफर में शुरू के सात साल हार्ड कोर विदाउट टिकट चलने वालों में शुमार रहा फिर भी टिकट चेकिंग के लिए चर्चित मुगलसराय के कभी हाथ नहीं आया।
स्टेशन से बाहर निकलने के लिए उसने लोकल रास्ता चुना यानी शार्ट कट जिस पर वहाँ के लोकल लोग आ जा रहे थे। यहाँ से प्लेटफॉर्म भी दूर हो गया था और इंजन की चटक लाइट भी। अचानक उसकी नजर पगली सी औरत को घेरे उस साबुत युवक पर पड़ी। युवक कातिल नजरों से उन्मादी तेवरों के साथ उसे अपने पास बुला रहा था। उसकी बुलाहट में लठैती आवेश दहक रहा था। वह अपने पास बुला रहा था जबकि वह उससे बस इतनी दूर थी कि उसके साँसों की सरसराहट नहीं सुन सकती थी। वह एक दम पास बुला रहा था जहाँ वह उसकी साँसों के साथ देह की गंध को भी सुन सके। वह औरत पगली जैसी थी उसके बालों में धूल फँसकर जटा बन गई थी। उसको देखने से नहीं लगता कि उसकी चेतना में भय, हया और इज्जत जैसे शब्द तैर रहे होंगे। वह इन सारे शब्दों को अपने छाती में समेटती हुयी काँपते पाँव को बढ़ा रही थी। युवक को देखती हुई उसकी आँखें भय की अथाह याचना पर टिकी थी और युवक की आँखें किसी बूढ़े पेड़ के बड़े खोह में बैठे उल्लू की डरावनी आँखें जैसी लग रही थीं। ज्यों ही वह युवक के पास गई युवक ने लोगों से भरे हुए उस पथ पर, तेजी से चलते हुए उस रास्ते पर इत्मीनान से उसके एक वक्ष को पकड़ लिया। ठीक इसके विपरीत वह किसी इलेक्ट्रानिक खिलौने की भाँति फटाक से कुछ कदम पीछे हो गई। फिर क्या था युवक ने दो कदम बढ़ाया और ताड़ से एक थप्पड़ जड़ दिया। अचानक लोगों की चालें तेज हो गई। जल्दी घर पहुँचाने वाला रास्ता आतताई राह में बदल गया। ऊँची हील की सैंडिल पहनी लड़कियों औरतों के पैर तेजी से चलने में मुड़ मुड़ जाते। लोग अपने बच्चों को घसीटने लगे। घसीटते जा रहे बच्चों के हाथों से कोई खिलौना, पानी की बोतल छूटती तो उन्हें थप्पड़ पड़ते और पीसते हुए दाँत से झिड़की भी कि चलो घर पर बताते हैं।
शिरीष के होश उड़ गए तभी तो जब वह उस युवक के पास से गुजरा तो न जाने कौन सी धक से उसका बैग सँभालते सँभालते भी हाथ से छूटकर जमीन पर आ गया। उसे इच्छा हुई कि वह भी बैग उठाकर सरसराती हवा की तरह बह जाए लेकिन उसे अपना वजन बैग से हल्का जान पड़ा। उसे लगा कि उसे कोई भी ढो सकता है। युवक की आँखें कह रही थी चुप-चाप निकल जाओ वरना। वरना के बाद क्या - शिरीष ने ऐसा ही सोचा। और उसके सामने बचपन के नरसंहार का वो दृश्य खोपड़ी और सीने के खून में बहने लगा। तभी फिर से युवक चीखा - निकल रहे हो... इतना कहना था कि शिरीष की रौंद चुकी धड़कन अचानक से जाग उठी - वह अपनी पतली मूँछ के दोनों हिस्सों पर दाहिने हाथ की तर्जनी उँगली को बारी बारी से रगड़ने लगा। युवक को यह बात नागवार गुजरी और चीखने लगा। चीख एक भय पैदा कर रही थी और भय ने शिरीष को जिंदा रखा है। 'मैं नहीं जाऊँगा' के उद्घोष के साथ शिरीष अपना हाथ पैर फैला कर खड़ा हो गया कि कर लो जो करना है। फिर क्या था ना जाने कहाँ से दो और प्रकट हुए और लातों घूसों का प्रहार करने लगे। उनका प्रहार इतना तीक्ष्ण था या फिर शिरीष का प्रहार इतना कमजोर था कि वह मार खा ही गया। बगल के चाय पान की दुकान वालों ने शिरीष को अलग किया। शिरीष की यह पहली चोट थी जो उसे भूमिहार होने की वजह से नहीं मिली थी और चोट देने वाले की जाति नहीं दिख रही थी।
'जाओ और बाघों से कह दो कि वे घास खाना सीख जाएँ नहीं तो खत्म हो जाएँगे।'
इलाहाबाद की गाड़ी में बैठने के साथ ही उतरने के बाद भी कई दिनों तक उसको अपनी ये मार खाने वाली मर्दाना कमजोरी चिढ़ाती रही। वह शीशे के सामने जब भी जाता उसकी गठीली उभरी हुई छाती उस औरत की लुंज-पुंज छाती से संश्लेषित हो जाती जो मार खाई पर रोई नहीं। उसे अपनी छाती रास नहीं आ रही थी और योद्धा बनने की संभावनाओं पर पानी फिर रहा था। गाँव से आते-जाते वक्त मुगलसराय जरूर उतरता और उसी रास्ते पर उस युवक को देखता कि कहीं दिख जाए। मुझे उसकी इस बात पर कुछ हँसी भी आई थी और थोड़ा दुख भी हुआ था। इसलिए मैंने पूछा था कि अगर वह आदमी तुम्हें मिल जाता तो क्या करते...? उसने अपनी आदत के अनुसार जिसे लोग बेमतलब की बात कहते थे, वह मेरे लिए कई मायनों का एक वाक्य था, 'मैं नहीं जानता कि क्या करता लेकिन इस बार वो मेरा कुछ नहीं कर सकता था।' मैं इस पर कुछ और कहती कि उसने खड़े होकर अपनी पैंट झाड़ी और मेरा हाथ खींचते हुए कहा चलो चल के चाय पीते है। मुझे हँसी आ गई। जब बात कर रहा था तो ऐसा लग रहा था कि किसी का खून पी जाएगा और अब इतना रिलेक्स होकर चाय पीने के लिए कह रहा है। इतनी जल्दी किसी का मूड कैसे बदल सकता है। मेरे हँसने का कारण पूछा तो मैंने अपनी हँसी वाली बात छिपा दी और कहा कि तुम चाय पीने के लिए इतना खुश होकर कहते हो जैसे शराब पीने जा रहे हो? (शिरीष को जब मैंने देखा नहीं था तब की ये बात है। आनंद भवन के सामने सबद दुकान के पास से मैं जा रही थी तो एक दढ़ियल लड़के से सुना था जो अपने दोस्त से कह रहा था) इस पर उसने मुस्करा कर कहा था चाय पीने के लिए कहूँ तो बकइती नै किया करो। फिर चाय लेते हुए कहा था। शराब वाकई में ऐसी होती होगी...? मैंने उसकी चाय को दिखाते हुए कहा था - 'चाय लिए हो चाय पीओ।'
चाय पीने के थोड़ी देर बाद ही फिर वह किसी सोच में डूब गया था। मेरे रहते हुए वो कहीं और डूबता तो मुझे खुद पर झल्लाहट होने लगती, अपमानित सा महसूस करती और कभी कभी तो अपने वजूद को खोजने लगती। कुछ ऐसे ही बोध से तंग आ कर कहा - 'मैं जा रही हूँ।' इस पर वह बिना कुछ सोचे, मानों वो मेरे जाने की प्रतीक्षा कर रहा हो, बोला - 'जाओ और बाघों से कह दो कि वे घास खाना सीख जाएँ नहीं तो खत्म हो जाएँगे।' मैंने सोचा कि वो मजाक कर रहा है लेकिन शायद उसे अभी भी अपनी छाती रास नहीं आ रही थी।
मैं अगले दिन उसके कमरे पर गई तो पेट के बल लेटा हुआ कुछ लिख रहा था। मैं उससे कुछ कहूँ उससे पहले दीवार पर मेरी नजर गई ' जाओ और बाघों से कह दो कि वे घास खाना सीख जाएँ नहीं तो खत्म हो जाएँगे'। मतलब उसने कल वाली लाइन को लिख कर अपने कमरे की दीवाल पर चिपका दिया था। इसके बाद उसकी बेचैनी की हद तक जाने वाली बेचैनी कमतर होती गई। तब से ही जहाँ भी उसे कुछ रास नहीं आता लिख देता डायरी पर दीवार पर कही भी जहाँ इच्छा हुई। शिरीष भले ही उस चोट को भूल गया था लेकिन उसने अपनी माँ को याद करना नहीं छोड़ा था। माँ की हत्या हुई थी इसलिए हत्या का सच उससे छूट नहीं रहा था तभी उसको रजनीगंधा दिखाई पड़ी और उसे हत्या से इतर एक और सच की झलक मिली।
रात ढलती है रात के साथ ही / दर्द दर्द के साथ पिघलता नहीं जमता है / सुबह को छेड़ो ना छेड़ो / सुबह खिलेगी और अच्छी लगेगी / लेकिन सबकी सुबह / सुबह के साथ कहाँ होती है ?
इलाहाबाद में शिरीष की पहली रात में चोट से कहीं ज्यादा कुछ टूटना था लेकिन थकान और नींद भी तो कोई चीज होती है। इसलिए अलसुबह जब चाँद अपने देश जा रहा था तो कोयल की कूक से शिरीष को इस जगत का अभास हुआ। खुमारी ज्यादा थी इसलिए वो आँखें नहीं खोल पा रहा था। उसे तनिक भी अहसास नहीं हुआ कि वह अपने घर की छत पर नहीं सोया है और उसके बगल के बागीचे से कोयल की अवाज नहीं आ रही है। रोज की तरह वह आज भी जगने से पहले हल्का-हल्का रोमांचित होता है। वह आँख खोलने का मन बनाता है लेकिन घर के आँगन से बरतन की खटपटाहट के साथ भाभी की चूड़ियों की खनखनाहट सुनाई नहीं पड़ती। पलांश में उसकी चेतना वापस लौटती है और वह उदासी के भँवर में चला जाता है। एक एक कर के उसकी चोटें उभरती हैं और कोयल भी व्यस्त फोन की तरह टों टों टों... के स्टाइल में कू कू कू... करते हुए एकाएक तेज हो जाती है। इसके साथ ही उसके सर की चक्करघिन्नी भी इतनी तेज हो गई कि वह किसी फुर्ती से बिस्तर से उठा और छत के किनारे एक नाली के पास उल्टी करने लगा। उल्टी करने के बाद सर हल्का जरूर हुआ था लेकिन भीतर की खिन्नता अभी भी पीब की तरह गंधा रही थी। वह किसी तरह से बिस्तर के पास जाना चाहता था लेकिन हिम्मत लगातार मात खा रही थी। वह वहीं छत की रेलिंग के सहारे सर को हाथों में डुबा कर खुद को टिका देता है लेकिन कितनी देर तक। उसके पैर काँप रहे है वो बिस्तर तक जाने के लिए सर को उठाता है। फिर से कोयल की आवाज सुर पकड़ लेती है और सामने के घर के बॉलकनी पर एक लड़की स्लीवलेस टॉप में पढ़ते हुए टहलती दिखती है। शिरीष बिस्तर पर नहीं जाता है। उसके पैर काँप रहे है फिर भी उसे लगता है लड़की पढ़ नहीं रही है। उसके हाथों में किताब नहीं फूलों के गुच्छे हैं और वो टहलते हुए फूलों से बातें कर रही है।
लड़की दो मंजिले की बॉलकनी पर थी और शिरीष दूसरे मंजिल की छत पर इसलिए वह लड़की का छोटा हाफ पैंट और नंगा पैर भी देखता है और हिम्मत जुटा ले तो वह पाँव की अँगुलियों के नाखून की लंबाई भी देख सकता है फिर भी वो बेफिक्री से फूलों से बतियाती हुई लड़की को देख रहा है। लेकिन घूरती हुई नजरों से देर तक बेफिक्र भी तो नहीं रहा जा सकता। लड़की की नजर अनायास उपर उठती है और शिरीष सायास अपने चेहरे को शुतुर्मुगी स्टाइल में पहले की तरह हाथों में सर को गड़ा कर रेलिंग पर टिका देता है। फिर भी शर्मिंदगी की शीत धुंध छोड़ते हुए दोनो को ढक लेती है। वह सोचता है वह भी क्या सोचेगी कि कब से खुले अध खुले बदन को निहार रहा है और वह सोचती कम है इसलिए झेंप कर रह जाती है।
शिरीष वैसे ही अपने चेहरे को छुपाए टिका है और लड़की बॉलकनी से कमरे और कमरे से बॉलकनी में आ जा रही है कि अकेले रहने वाले चौधरी अंकल के यहाँ कौन आ गया है। उनके लड़के तो विदेश में रहते हैं जिनके बच्चे अभी बहुत छोटे छोटे हैं। लड़की का अंदर-बाहर करना और बढ़ जाता है जब देखती है कि लड़का अभी तक वैसे ही रेलिंग पर चेहरा छुपाए टिका है। लड़की परेशान हो जाती है कि आधे घंटे से यह लड़का ऐसे क्यों पड़ा है। वह तुरंत अपने सहेली को फोन करती है। सहेली बातें सुन कर मजा लेती है कि 'तूने ऐसा क्या दिखा दिया कि एक ही बार में बेहोश हो गया।' इस पर लड़की हँसती है और इसी ऐन वक्त पर सूरज की पहली किरण शिरीष की देह पर बरसती है तो उसे लगता है कि लड़की अब तक फारिग सारिग होकर नाश्ते के लिए जा चुकी होगी इसलिए वो धीरे से सर उठाकर बॉलकनी की तरफ देखता है, और बॉलकनी पर खड़ी लड़की इस बार फूलों से बतियाने के बजाय शिरीष को देखते हुए अपनी सहेली की बात पर फूलों की तरह हँसती है। हँसी की बात भले ही सहेली की बात हो लेकिन इसमें लड़का शामिल है। इसलिए लड़का जब सीढ़ियों से उतरता है तो लड़की को लगता है कि धीरे-धीरे वह सूरज की तरह डूब रहा है। लड़के को लड़की का रिस्पॉन्स अच्छा लगता है और उसकी दंश स्मृतियों में भीगी सी गुदगुद होती है। शिरीष को लगता है कि यह सुबह उसके भविष्य में शामिल है।
अगले दिन शिरीष ने अपने कमरे में फैन लगवा लिया था इसलिए उसे छत पर सोने का कोई खास कारण नजर नहीं आ रहा था। हालाँकि सोचता रोज था लेकिन यह सोचकर खुद को मना लेता था कि बात सुबह की है और सुबह में तो वह ब्रश करते हुए भी छत पर टहल सकता है और फूलों से बातें करती हुई लड़की को देख सकता है। लेकिन या तो उसकी नींद, दिन चढ़ने पर ही खुलती या भिनसारे से पहले। भिनसारे से पहले खुलती तो सोचता कि थोड़ी देर और सो लेता हूँ फिर थोड़ी देर ज्यादा देर में बदल जाती। फिर खैनी मलते हुए छत पर जाता तो लड़की नदारत रहती लेकिन फूलों के अक्स इतने लहलहाए हुए दिखते की वह ओह कह कर अपना माथा पीट लेता कि आज फिर लेट हो गया। एक कचोट से लिए फ्रेश होने जाता तो उसे याद आता कि आज भी टूथपेस्ट लाना भूल गया है फिर निखालिश ब्रश को दाँतों पर रगड़ता और चाय पीने के लिए निकल जाता। इसी में सप्ताह भर बीत गया तो उसे अहसास हुआ कि दाँतों पर कुछ जाले बन रहे है। इसलिए आज मुँह धुलना स्थगित कर दिया कि आज पेस्ट लाऊँगा तभी मुँह धुलूँगा और पेस्ट लेने निकल गया।
जनरल स्टोर पर गया तब उसे मालूम चला कि पहली सुबह के बाद के दिन ऐसे नहीं गए है। कोई सूत्र है जिसने सातों दिनों को एक में पिरो के रखा है। आज इलाहाबाद में उसकी पहली सुबह का सातवाँ दिन है। लड़की भी जनरल स्टोर से साबुन के साथ टूथ पेस्ट ले रही थी। लड़के ने इसे बड़ा संयोग समझ लिया और लड़की से तुरंत सवाल किया 'आप भी सात दिनों से बिना पेस्ट के ही मुँह धुल रही है।' लड़की फिर झेंप गई तो लड़का ने मामला सँभालने के लिए कहा - मेरा मतलब था। मुझे आए हुए सात दिन हो गए और मैं रोज इसे (लड़की द्वारा खरीदी हुई पेस्ट को दिखाते हुए) भूल जाता हूँ। लड़की को अपनी समझ पर फख्र था इसलिए वो समझ गई - 'आपने अच्छा पकड़ा है लेकिन ये देखिए मैंने साबुन भी लिया है सात दिनों से मैं बिना साबुन के ही नहा रही थी।' इस बार लड़का झेंप गया - 'सॉरी मेरा ये मतलब नहीं था। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।' लड़की ने 'इट्स ओके' को दो बार बोला और अपना सामान लिए लड़के का इंतजार करने लगी कि वो अपना सामान ले ले। लड़की के रुख से लड़का घबरा गया कि अब ये क्यों रुकी हुई है। वह ये सोच कर बाकी ग्राहकों का चले जाने का इंतजार करने लगा कि तब तक लड़की चली जाएगी। उसको खड़ा देखकर लड़की उससे मुखातिब हुई - 'क्यों आपका अभी पेस्ट नहीं मिला?' इतना सुनते ही लड़के ने घबराते हुए पहले पैसा निकाला और दुकानदार के सामने रख दिया कि एक पेस्ट दे दो। लड़के ने पेस्ट और बचे हुए पैसे ले लिया तो लड़की ने कहा - 'चलिए।' इस पर शिरीष को गुस्सा आ गया लेकिन वह तय नहीं कर पाया कि गुस्सा खुद पर आया है या लड़की पर इसलिए चुपचाप लड़की के साथ चल दिया।
लड़का सोचता बहुत था इसलिए फिर से अपने किए को रिग्रेट किया - मैं समझता हूँ इस तरह से किसी अपरिचित से बात नहीं किया जाता वो भी लड़की से। लड़की सोचती कम थी इसलिए लड़के को रिलैक्स किया - आप इस तरह की बातें नहीं करते तो मुझे कैसे पता चलता कि आप सात दिनों से बिना पेस्ट किए मुँह धुल रहे हैं।
लड़का - आपने कुछ ज्यादा ही दिल पर ले लिया है।
लड़की - सही में सात दिन ही हुए है?
लड़का - सीरियसली... देखिए मैं फिर सॉरी बोल रहा हूँ।
लड़की - आप आई लव यू भी बोलेंगे तो भी मैं सीरियसली लूँगी।
लड़का छत की रेलिंग तलाश रहा है जहाँ वो अपने हाथों में अपना सर छुपा कर खुद को टिका ले लेकिन उसके सामने लड़की थी - 'आप गलत समझ रही है। वह बस इत्तेफाक था कि मेरे मुँह से निकल गया।'
लड़की - मैं समझ सकती हूँ आपका खयाल गलत होता तो आप मुझ पर आँख दबा सकते थे, मेरे कमर पर हाथ मार सकते थे। कुछ ना हुआ तो पीछे से मेरे बालों को छू सकते थे, सीटी दे सकते थे या फिर कोई भद्दा इशारा कर सकते थे।
लड़की के इस तेवर पर लड़के को अपना माथा पीट कर वहीं बैठ जाना चाहिए था लेकिन लड़का मामूली नहीं था। वो माथा पीट कर बैठा लेकिन अपने भीतर ही और जब झटके से अपने भीतर से बाहर निकला तो तय कर लिया कि इस बार उसे लड़की पर ही गुस्सा आ रहा है - 'मुझे नहीं पता था कि मेरी बातें आपको इतनी लग जाएगी। कोई जरूरी तो नहीं कि सारी अनौपचारिक बातें सिर्फ परिचितों से ही किया जाय।' लड़की के होंठ अपने कोरों से फिसल रहे थे मगर लड़की लड़की को जानती थी इसलिए उसे अपनी भौंहों से गुस्ताखी करना अच्छा लगा - 'वही तो... अपरिचितों को हम किसी और ग्रह के प्राणी मानने के लिए शापित तो नहीं है।' लड़के की भौंहे तन गई थी - मैं बात इतनी दूर की भी नहीं कर रहा हूँ।
लड़की - आप चौधरी अंकल के रिश्तेदार है?
लड़का - उनका किराएदार हूँ।
लड़की - मेरा नाम रजनीगंधा है। इस पर लड़का खामोश हो जाता है लेकिन तिरछी नजर से लड़की के गुस्से को ताड़ने की कोशिश कर रहा है।
लड़की - मेरा नाम आपको अच्छा नहीं लगा।
लड़का - जी मैं ठीक से सुन नहीं पाया।
लड़की - क्या...?
लड़का - सॉरी... एक बार रिपीट कर दीजिए।
लड़की - रजनीगंधा।
लड़का - जी आपका ये पूरा नाम है...?
लड़की - मतलब...?
लड़का - मेरा नाम शिरीष उपाध्याय है।
लड़की - ओह तो आप पंडिजी है?
लड़का - जी नहीं भूमिहार।
कम सोचने वाली रजनीगंधा पहली बार सोच में पड़ गई थी और अपनी सोच पर इतराने वाला, हमेशा अपनी जातीय पहचान बताने वाला शिरीष को पहली बार अपनी जाति का जिक्र खटक गया था। वह चाह रहा था कि लड़की से सॉरी बोलते हुए कह दे कि, 'आप को बुरा लगा होगा मगर जिस समाज में जाति के नाम पर हत्याएँ हो रही हैं। मेरे खयाल से उस समाज में जाति छुपाने का मतलब डरना हुआ और मुझे डरने से बहुत चिढ़ है।' लेकिन वह एक बार अपनी सॉरी का हश्र देख चुका है। इसलिए वह खुद को चुप रखना ही बेहतर समझता है। उसकी चुप्पी खटक रही थी और लड़की की सोच पूरे माहौल को बोझिल बना रही थी। लड़का कुछ और कह के हवाओं को हल्का करना चाह रहा था लेकिन उसकी नजर नीचे थी। लड़की चुप-चाप चली जा रही थी और वह उससे थोड़ा पीछे-पीछे चल रहा था। मतलब लड़की जहाँ पहला कदम रखती लड़का वहाँ अपना दूसरा या तीसरा कदम रखता। धीरे-धीरे लड़के की लड़की के पैरों से आसमान के रंग दिखने लगे। तब तक लड़की ने पास की सीडी की दुकान पर बज रहे गाने की तरफ ध्यान कराया और चली गई। गाना फुल साउंड में बज रहा था, 'दिल दे दिया है जान तुम्हें देंगे दगा नहीं करेंगे सनम।'
अगले दिन लड़की अपनी बॉलकनी के बजाय छत पर आ गई थी और लड़का खिड़की से बॉलकनी का सिरा तलाश रहा था लेकिन किराए के कमरे का वास्तुशास्त्र ही ऐसा था कि उससे लड़की के घर की एक शीशेदार खिड़की के सिवाय कुछ नहीं दिखता। फिर खैनी मलते हुए छत पर गया तो उसके ठिठकने से जल्दी उसके हाथ ठिठक गए जैसा कि अक्सर छुपाकर खैनी खाने वालों के साथ होता है। लड़की का चेहरा उसकी तरफ था लेकिन नजर कहीं और थी इसलिए उसने दोनों हाथों को अलग करके खैनी को मुट्ठी में बंद कर लिया फिर लड़की की तरफ पीठ कर के घूमने लगा कि मैंने तो कुछ देखा ही नहीं और उसने भी कैसे देखा होगा रेलिंग के आड़ में। लेकिन चोर की दाढ़ी में तिनका भी तो कोई बात है। लड़के ने एक कागज का टुकड़ा उठाया इस फोकस के साथ की लड़की उसे देख ले और कागज को दोनों हथेलियों के बीच ऐसे पुरने लगा जैसे उसकी भाभी पूजा की बाती बनाते हुए रुई को पुरती है। फिर उसे हथेलियों के बीच रख के खैनी की तरह मसलने लगा। लेकिन लड़की लड़की थी उसे लड़के को जानना आता था। चूँकि दोनों घरों के बीच दस फिट की गली थी इसलिए लड़की को थोड़ा तेज आवाज में बोलना पड़ा - 'मैंने कुछ नहीं देखा था आप झूठे कागज की जान निकाल रहे है।' इतना कहने के बाद लड़की को चाहिए था कि वो ठठाकर हँसे लेकिन लड़की तो लड़की थी साइलेंस उसको परिवेश में मिला था इसलिए यहाँ पर उसने अपने साइंलेस को साध लिया था। बात बात की थी इसलिए लड़का भी तो लड़का ही था - ठठाकर हँस दिया था। हँसी अंदर की नहीं थी इसलिए जोर की उठी हँसी छू हो गई। अब बात की बारी थी - 'कभी कभी चलता है। अकेले का बहुत सच्चा और सादगी वाला साथी है।' लड़की को लड़के के चारों शब्द सच्चा, सादगी, साथी और अकेला भी बहुत अच्छा लगा था। लड़की इन शब्दों को आगे बढ़ाना चाहती थी लेकिन परिवेश ने उसे दीवार भी दी थी। बॉलकनी से लड़की की माँ चिल्लाई, 'रजनी... लेकिन इस बार की लड़की रजनीगंधा थी। इसलिए माँ की चिल्लाहट का जवाब देने के बजाय लड़के से यह कह कर चली गई कि कोचिंग का लेट हो रहा है कटरा जाना है।
लड़का भी उधर ही ममफोर्डगंज में अपनी कोचिंग के लिए जाता था। लेकिन अभी वह यह सोच कर कुछ कह नहीं पाया कि लड़की समझेगी कि लड़का पीछा कर रहा है। फिर भी उसे यही अच्छा लग गया था कि रजनीगंधा शहर की उसी दिशा की तरफ पढ़ने जा रही है जिस तरफ उसे भी जाना है। लड़का पहली बार कुछ अपनी जिंदगी के निजी सुख के बारे में आगे की सोचता है इलाहाबाद की पहली सुबह कहीं उसके भविष्य का मॉडल तो नहीं है!
वह जल्दी में तैयार होता है कि वह लड़की के घर से निकलने से पहले निकल जाएगा नहीं तो लड़की से फिर मुलाकात हो जाएगी तो वो इसे पीछा करना समझेगी। वो ऑटो का इंतजार कर रहा था कि लड़की पूरी स्पीड से अपनी स्कूटी लिए चली आ रही थी। लड़की को देखकर लड़का तेजी से घूमता है और उसके हाथ से धर्म दर्शन की मूल समस्या वाली किताब छूट जाती है। किताब का छूटना एक दृश्य उत्पन्न करता है और लड़की उस दृश्य को अपनी रफ्तार के साथ भी देख लेती है।
शिरीष पीछे बैठा हुआ है और सोच रहा है कि मुझे अपनी जाति के बारे में ऐसी बात नहीं करनी चाहिए थी। आखिर ऐसी बातें कर के अपनी जातिवादी चेहरा से ही तो दिखाया उसने? क्या वह सच में जातिवादी है? क्या वह जो सोचता आ रहा है उसमें उसकी अपनी उलझन है या फिर कुछ और बात। ऐसा नहीं था कि वह इन सवालों से पहली बार दो चार हो रहा था लेकिन आज उसे ना जाने क्यों लग रहा था कि वह सारा सवाल खुद से नहीं उससे कोई और कर रहा है।
एक लड़की के साथ, उसके स्कूटी पर पीछे बैठ कर जाने का यह पहला अनुभव था फिर भी वह इस अनुभव में शामिल नहीं हो पा रहा था। स्कूटी की रफ्तार के साथ कैंट से गुजरते हुए कतारबद्ध पेड़ो से निकल कर आती हवाएँ भी उसके माथे से ढुलक रहे पसीने को रोक नहीं पा रही थी जबकि लड़की अपने पूरे मौजूँ के साथ पूरे भूगोल में मौजूद थी। इसलिए पीछे बैठे लड़के के साथ अपनी चुप्पी सही नहीं पाती है और बात शुरू करती है कि, 'जब आपकी कोचिंग ममफोर्ड गंज में है तो क्यों नहीं मुझ से बताए। मैं घर से ही साथ ले लेती आपको। आप कुछ उस तरह की बातें क्यों सोचते है?' शिरीष एकदम से अवाक हो गया कि उस तरह की बातों का क्या मतलब होता होगा। लेकिन बात 'उस तरह की सोचने' की थी इसलिए सँभालता है... नहीं मैंने सोचा कि आप के पास गाड़ी नहीं होगी। लड़की को फिर सिरा मिल गया था - हाँ तभी तो आपने अनुमान लगा लिया था कि सात दिनों से आप ब्रश नहीं कर रहे है तो मैं भी नहीं कर रही थी। शिरीष को इस बार लड़की पर गुस्सा आने के बजाय मजा जैसा आया था इसलिए उसके मुँह से निकल गया अब से दुबारा टूथपेस्ट वाली बात करोगी तो मैं तुम्हें पटक दूँगा। लड़की अपनी हँसी रोकना चाह रही थी लेकिन हँसी में किसी अनजान रसायन का इतना स्राव हुआ कि उसकी हँसी खुशी में बदल गई। वह खुशी के मारे पागल हो रही थी जिसके एवज में उसने एक्सलेटर बहुत तेज घुमा दिया। लड़का फिर चिल्लाया 'तुम मेरी जान लोगी क्या। मैं यहाँ मरने नहीं आया हूँ।' नहीं तुम मुझे पटकोगे न... पटको।' लड़की भी जोर से बोल रही थी। लड़का अपनी बात वापस लेने के लिए इसरार कर रहा है और लड़की उसे प्यार कर रही है स्कूटी की और तेज रफ्तार बढ़ा कर।
शिरीष स्कूटी से उतरने के बाद लंबी साँस लेते हुए कहता है कि 'माफ करना मैं कल से आप के साथ नहीं आ पाऊँगा। मुझे फोकट में नहीं मरना।' रजनीगंधा अपनी स्कूटी बढ़ाते हुए कहती है, 'अच्छी बात है। मुझे भी किसी अनजान लड़के को अपने पीछे बैठाकर फोकट में अपनी बदनामी नहीं करवानी है।' शिरीष को लगता है कि उसे गुस्सा आ रहा है। इसलिए खुद से बड़बड़ाता है मेरा तो दिमाग खराब हो गया। कोचिंग से निकलने के बाद तक खुद से दुहराता रहता है - 'मैं कल से बात ही नहीं करूँगा। अपने मन से सब करती है फिर उलाहना भी देती है। मैं कुछ सोचता भी नहीं फिर भी कहती है कि आप उस तरह से क्यों सोचते है, बदनामी नहीं करवानी है। अरे कौन पीछे बैठ के जाने के लिए बेचैन है।' अपनी इस बात को दुहराते हुए वह अपने से सवाल करता है कि क्या वह सही में उस तरह से नहीं सोचता? लड़की अपनी स्कूटी लेकर सड़क की भीड़ में खो चुकी है। वह अपनी कोचिंग के हाते में दाखिल होता है और खुद से कहता है जाने दो जो हुआ सो हुआ अब नहीं। खुद को तैयारी पर फोकस कर के मैं ज्यादा खुश रहता हूँ।
रजनी के लिए यह अच्छा इत्तेफाक ही रहा होगा कि उसकी तबियत चार दिनों के लिए थोड़ी सी नासाज हो गई थी। चार दिनों तक लड़की को नहीं देख पाने की वजह से लड़का अपनी तात्कालिक सोच को कहीं पीछे छोड़कर यहाँ तक आ गया था कि आखिर लड़की चली कहाँ गई! इसलिए लड़की को जब लड़के ने पाँचवें दिन देखा तो लड़का खुश हो गया और थोड़ा सा उदास भी क्योंकि लड़की का चेहरा थोड़ा शुष्क सा दिख रहा था। बहुत बाद में लड़के ने उन चार दिनों की नासाज तबीयत को इश्क का बुखार कहा था और तब लड़की को बुखार के वे चार दिन चाँदनी के हजार दिनों जैसे लगने लगे थे।
लड़का सोच रहा था कि आखिर वह ये क्यों नहीं सोच पाया कि चार दिनों तक लड़की की तबीयत भी खराब हो सकती है। वो कहना चाह रहा था कि सॉरी आपका नंबर मेरे पास नहीं था इसलिए मुझे पता नहीं चल पाया कि आपकी तबियत खराब थी। लेकिन उसके कहने से पहले लड़की ने फिर उस गाने की तरफ ध्यान कराया जो एक सीडी की दुकान से तेज अवाज के साथ आ रहा था... 'दिल दे दिया है जान तुम्हें देंगे दगा नहीं करेंगे सनम।
शिरीष - आपको यह गाना अच्छा लगता है?
रजनीगंधा - यह सीडी वाला यही गाना सुनता है।
शिरीष - मतलब आप भी इसके गाने हमेशा सुनती हैं।
रजनीगंधा - मैंने ऐसा नहीं कहा।
शिरीष - किसी पर गौर करना अच्छी बात ही है। वैसे भी जो सामने से प्यार का आह्वान कर रहा है उसे नजरंदाज करना भी तो गलत है।
रजनीगंधा - मैं भी कुछ ऐसे ही सोचती हूँ।
शिरीष को ना जाने क्यों रजनी का ऐसा सोचना अच्छा नहीं लगा था। इसलिए चुप हो गया। आज दोनों एक दूसरे के समानांतर चल रहे थे। लड़के का ध्यान लड़की के टखनों के नीचे के हिस्सों पर है। वह वही देखना चाहता है क्योंकि यहाँ वह पूरी आजादी के साथ देख सकता है। लड़की ने घाघरे जैसी कोई चीज पहनी हुई है जो घुटनों के बराबर तरंग की तरह कटा हुआ है। फिर भी वह पैरों की अँगुलियों की सुघड़ शेप लिए नाखून को देखता है। वह नाखून के असली रंग और नेल पॉलिश के रंग में फर्क कर रहा था कि यह नेल पॉलिश का असली रंग है या नाखून का अपना रंग। वह उन अँगुलियों में डूब उतरा रहा था कि लड़की ने कहा कि शिरी तुम चलो मैं आती हूँ। लड़की सीडी की दुकान पर चली गई थी और लड़का शिरीष से शिरी और आप से तुम होने के बारे में सोच रहा था। फिर जब घर आया तो लड़की के अचानक सीडी की दुकान पर चले जाने के बारे में सोचने लगा।
अगली सुबह शिरी छत पर जाने के बजाय डायरी लिखता है। डायरी में काफी गुणा गणित करता है। उसे लगता है लड़की के साथ उसके संवाद मजाकिया लहजे का हिस्सा भर है जिसको की वह अपनी भाभी के साथ वक्त बेवक्त पजाया करता था। इतनी जल्दी इतना उन्मुक्त वार्तालाप? निश्चित रूप से रजनीगंधा कोई सामान्य लड़की नहीं है। या तो मन रखनी है या फिर दोस्तों की फेहरिस्त बढ़ाने की शौकीन शहजादी।
नहीं-नहीं इस तरह की शहजादी से उसका कोई वास्ता नहीं होगा। वह यहाँ किसी चक्कर में पड़ने नहीं आया है। उसे अपने भैया की नसीहत याद आती है - 'बहरा में वही रह सकता है जो अपनी जीभ और जाँघ बचा कर रख सके।' लेकिन इनकार की हद तक जाते-जाते सारी नसीहत किसी भँवर में डूब जाती और वह और बेकरार हो जाता। वह अपनी बेकरारी के भँवर में इतना डूब जाता कि उसे बस एक ही सवाल पीछा करता कि आखिर वह है कौन और हर बार यही जवाब देता कि जो भी हो क्या फर्क पड़ता है। वह अपनी हर भंगिमा से चाह रहा था कि वह वही हो जिसमें उसे उतरना है।
वैसे देखा जाए तो शिरीष का अनुमान सही नहीं था कि लड़की फ्रेंड्स बनाने की शौकीन शहजादी होगी या फिर कोई मनरखनी। मैं खुद नहीं जान पाई थी कि मैं कैसी हूँ। मुझे लोगों से दोस्ती करने के साथ मिलना-जुलना अच्छा लगता था। मैं यहाँ यह भी कह रही हूँ कि मुझे निषेध की कई बातें बेमानी सी लगती थी। खासकर किसी प्राणी से तो निषेध का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए साथ पढ़ने वाले लड़के-लड़कियों से मेरा घर भरा रहता। जो भी हो अब शिरी के लिए लड़की भी रजनीगंधा से रजनी हो गई थी।
एक दिन शिरी ने रजनी को सीडी की दुकान पर देखा तो बहाना बनाते हुए चला गया कि उसे कुछ गजल की कैसेट चाहिए। सीडी वाले के पास गजल की कोई कैसेट नहीं थी तो रजनी ने कहा कि तुम मेरे यहाँ से ले लेना। मेरे पापा गजल के बहुत शौकीन हैं उनके पास ढेर सारे कैसेट पड़े हुए हैं। फिर रजनी ने सीडी वाले का परिचय चैंपियन के रूप में करवाया। शिरी और रजनी आज फिर दुकान से घर के लिए साथ चल दिए थे। इस बार लड़की ने पूछा तुम हो कहाँ के? इतनी मुलाकाते और इतने खयाल बनने-बिगड़ने के बाद लड़की थोड़ी अचरज में थी कि अब तक उसने इस लड़के के बारे में इतना भी नहीं जान पाई है। लड़की को अपने इस सवाल, सवाल से उपजी अचरज से खुशी होती है कि शिरी में कुछ वैसा तो होगा ही जो इस जानकारी के लिए भी इतना वक्त ले लिया। जबकि लड़के को तमाम बिहारियों की तरह उसे भी इस सवाल ने हिचका दिया था फिर भी कुछ शान मिश्रित भाव से कहा बिहार से।
रजनी - तो तुम भी लालू के फैन हो? इस पर शिरी के अंदर कुछ झुलस सा गया था।
शिरी - लालू के फैन तो मुंबई के हीरो हीरोइन होते है जिन्हें लालू की कलाकारी में भोजपुर, जहानाबाद, लक्ष्मणपुर, बाथे, सेनारी, गया, बेलाउर नहीं दिखता है।
रजनी - बिहार को लेकर तो काफी सीरियस हो।
शिरी - मैं सीरियस रहूँ ना रहूँ पर इतिहास की गलती को आनेवाला समय कभी माफ नहीं करता। शिरी की भौंहे चढ़ गई थी और रजनी ने बात बदल दी थी - 'तुम मेरे बारे में क्या सोचते हो... मतलब क्या खयाल है तुम्हारा? बिहार की बात उठने के बाद शिरी को लड़की का यह पूछना इतना चिढ़ा गया था कि उसने कहा - 'सब कुछ तुम्हारे बारे में ही सोचता हूँ।' लड़की ने कुछ नहीं बोला। जब वे अपने घर के नजदीक गए तो लड़की ने उसके दाहिने हाथ की अँगुलियों में अपने बाएँ हाथ की अँगुलियों को फँसाते हुए कहा - 'कल से कोचिंग के बाद तुम भारद्वाज पार्क में आ जाना।' लड़के ने अपने हाथ पर चढ़े हुए लड़की के हाथ को देखा। ये भाभी के हाथ नहीं थे। फिर भी थामने का सजदा इनमें मौजूद था। लग रहा था नदी की लहरों पर चाँदनी मचल रही है। फिर सूखते गले से कहा - 'कल से क्यों आज भी तो पूरा दिन बचा है।' रजनी के चेहरे पर मदहोशी की बारीक सी रेखाएँ ठहरने लगी थी। शिरी उसे देखते हुए सर छुपाने के लिए किसी रेलिंग के तलाश में नहीं था। अपने-अपने घरों की तरफ जाते हुए दोनों एक दूसरे को ऐसे देखे जा रहे थे मानो किसी निर्मल झील के निष्पंद शीतल जल में साथ उतरने का वादा कर रहे हो।
अब शिरी कोचिंग से वाया भारद्वाज पार्क होकर आता था। आते ही डायरी खोलकर बैठ जाता। 'ऐसा लग रहा है जैसा भटकते मन को सुनहरा दृश्य मिला हो। जैसे थार के भटकाव से बाहर निकल आया हूँ। मेरे अंदर एक हलचल उठ रही है, एक तूफान जिसका उफान शायद कभी नहीं थमेगा। मुझे उसकी हर एक बात रास आ रही है फिर भी कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ और ना ही लिखने की कुछ छटपटाहट हो रही है। मैं अपने अतीत से मुक्ति चाह रहा था। मैं जिन चीजों के लिए छटपटा रहा था उसमें अब ऐसा लग रह हैं कि उसका कोई एंगल और भी है। शायद उस एंगल में कुछ और छटपटाहट हो। सूरज पूरब से निकलता है और पश्चिम में डूब जाता है लेकिन जिंदगी की दिशाएँ ग्लोब की दिशाएँ की तरह सीमित नहीं है। कुछ और दिशाएँ है जिसकी ओर देखने से भला सा लगता है। भले ही उन दिशाओं से सूरज न निकलता हो लेकिन सूरज देखने की चाहत बनाने वाली दिशाओं का अस्तित्व कम तो नहीं है? कुछ तो अच्छा लग रहा है। कुछ तो मेरी छटपटाहट सहज लग रही है। कभी कभी तो ऐसा लगता है बस उसके संवादों को जेहन में उतारने की। अपनी लैला के रंग में रँग जाना क्या इतना घातक होगा जो उसके अस्तित्व से उसको बेदखल कर दे? ऐसा लग तो नहीं रहा! अभी तो ऐसा लग रहा है जैसे कि मेरा अस्तित्व से कोई पर्दा हटा रहा है। कल पार्क में नहीं गया तो आज रजनी ने फिर हिदायत देते हुए कहा था कोचिंग के बाद पार्क की तरफ नहीं आओगे तो ठीक नहीं होगा। मैं पूछने वाला था कि क्या ठीक नहीं होगा लेकिन उसकी बातें मुझे इतनी अच्छी लगती है कि कुछ और कहने के बजाय उसकी बातों को जज्ब करता रह जाता हूँ।'
शिरीष और रजनीगंधा के मिलने का यह सिलसिला चला तो फिर दौड़ने लगा। यह उनके लिए वह दौर है जिसमें अच्छे-बुरे चीजों का पूरा खयाल रखा जाता और कहीं से कुछ बुरा हुआ भी तो उसका कोई मतलब नहीं रहता। इस दौर में सिविल के लिए समर्पित शिरीष पर रजनीगंधा के साथ इलाहाबाद भी अपनी रोशनी फेंकता या चुराता जिससे उसके भविष्य के मॉडल का गठन सुनियोजित न होकर इतना बिखरा-बिखरा कि फैलाव के साथ भी स्पेस लेता है। यहाँ के परिवेश में अब तक ऊँघ रही उसकी रास नहीं आई बातें कविता के रूप में रागिनी भी गाती और कचोटती भी।
लेकिन बात उसी शिरीष की ही कर रही हूँ जो हत्या के सच या झूठ से अपना साया नहीं समेट पाया था। अभी भी उसे अक्सर सपना आया करता है कि वह पेट के बल लेटा हुआ है और बाघों के झुंड उसे घेर कर गर्जन कर रहे हैं। वह उनकी दहाड़ सुन कर ज्यों ही घूमने को होता, एक बाघ उसके दिमाग पर पंजा मार ही देता है। फिर भी वह खून से लथपथ उस बाघ के मुँह को दोनों शिराओं से पकड़कर फाड़ देता है फिर और बाघों के मुँह में लाठी घुसड़ेता जाता है। लेकिन बाघ इतने ज्यादा होते हैं कि वह थकने लगता है। खून और पसीने से लथपथ जब वह एक सधा हुआ प्रहार एक बाघ के सर पर देने वाला होता है कि तब तक दूसरा बाघ अपना पंजा उसके सीने पर मार देता है और इसी ऐन वक्त पर उसकी नींद खुल जाती है। वह हाँफते हुए उठता और घर के लोगों को देखने लगता कि सब ठीक-ठाक तो है ना। उसके बाद वह आगे की रात सपने के बारे में सोचते हुए काटता।
शिरीष का एम.ए. का रिजल्ट आ गया था। रिजल्ट अच्छा था लेकिन साल भर जिस बेतरतीबी से अपने को जाया किया कि उसे सिविल दूर की कौड़ी दिखने लगी थी। उसका आत्मविश्वास पूरी तरह से डोल गया था। एम.ए. के रिजल्ट के साथ एम.ए. के बाद अब क्या होगा वाली स्थिति आ गई थी। उधर उसकी भेजी हुई कविताएँ स्वीकृति के बजाय अस्वीकार की छोटी टिप्पणी लेकर आती थीं जिसमें अमूमन कुछ इस तरह से लिखा होता - 'हमें आशा है आप अपनी रचना के प्रति सजग और गंभीर होंगे।' मुझे पता था वे कविताएँ उसके एप्रोच की वजह से वापस आ रही थी। फिर भी वह अपनी कविताओं की वापसी से दुखी नहीं होता। एक भोले बच्चे की तरह मुस्कराते हुए कहता - 'मैं बहुत बुरा लिखता हूँ ना? ' उसका भोलापन मुझे इस समय इतना भाता कि मैं कहना चाहती कि तुम और बुरा लिखो और भेजो और वापस आने पर ऐसे ही कहो कि मैं बहुत बुरा लिखता हूँ ना... लेकिन हर समय लिखने को लेकर उसे इतना परेशान देखती कि मेरा दिल बेदम हो जाता था और मैं कुछ कह नहीं पाती थी। उसकी डायरी इतनी काटकूट से भरी होती थी जैसे लगता था वह कविताओं की डायरी नहीं मैथ की कॉपी है।
मुझे नाटकों में जितनी रुचि थी उससे कही ज्यादा रुचि शिरी को सिनेमा हॉल में जाकर फिल्में देखने में थी। हमारे बीच यहीं एक शौक था जिसको लेकर हम कभी कभी लड़ भी लेते थे। मैं फिल्में अकेले देखना पसंद करती थी। सिनेमा हॉल में घुसते ही पता नहीं क्यों दम घुटने सा लगता जबकि नाटकों को थियेटर में देखने में ऐसा नहीं होता। वह हॉल में फिल्म देखने के लिए कई बार कह चुका था लेकिन मैं उसे अक्सर मना कर देती। इस वजह से चिढ़ कर वह मेरे साथ नाटक देखने नहीं जाता। बहुत जोर देने के बाद उसे किसी तरह एन.सी.जेड.सी.सी. में नाटक दिखाने के लिए ले गई तब से वह एक शो भी नहीं छोड़ना चाहता था। अब उसने अपने शौक को नाटकों पर रिप्लेस कर दिया था फिर तो मैं भी उसके साथ निराला सभागार, हिंदुस्तानी अकादमी, यूनिवर्सिटी के सिनेट हॉल, प्रयाग संगित अकादमी के हॉल के गोष्टियों में जाने लगी।
मैं कुछ-कुछ साहित्य की बातें समझने लगी थी और जो मुझे समझ में आया था उससे यही निकल कर आया कि उन गोष्ठियों से लौटते हुए वह बेचैन हो उठता। ऐसा लगता उसकी सोच को कटघरे में खड़ा कर दिया गया हो। यह बात उसे रास नहीं आ रही थी। अगर साफ शब्दों में कहे तो उसका भूमिहार होना उससे छूट नहीं रहा था। वह हर गोष्ठी के बाद बौखलाते हुए निकलता और कहता इन लोगो की बातें पूरी तरह सही नहीं है। मैं मान भी लूँ कि सरकार में सब मेरी ही जाति के भरे पड़े है बावजूद इसके सरकार का मुखिया तो हमारी जाति का नहीं था। वो भी तो उसी तबके से आता है। क्या रोल रहा है उसका। अब क्यों बातें नहीं कर रहा है? क्यों... क्यों... क्यों... क्योंकि उसे भी अब सामंती भाने लगी है। बहुत बड़ा गेम चल रहा है। कैसे एक सरकार के रहते हुए इतने सारे नरसंहार हो जाते हैं। सच कहूँ तो मेरे लिए ये बातें मेरी समझ से बाहर की थी। फिर भी इतना जानती थी कि वह एक पक्ष पर ज्यादा हावी है। लेकिन मुझे जिससे मतलब था वह शिरीष था। इसलिए जब कहता कि उनकी बातें पूरी तरह सही नहीं है तो मैं कहती कि सही की बात ही कहाँ है पूरी तरह से गलत है। यहाँ मैं यह कहने से गुरेज नहीं करती हूँ कि मैं ये बातें शिरी को बहलाने के लिए नहीं कह रही थी। बस मेरा सच वह था जो शिरी चाहता था। मेरे ऐसा कहने पर उसके चेहरे पर शांति की बर्फ चमकने लगती और उस दिन वो मुझसे अपनी भड़ास के साथ ढेर सारी प्यार भरी बातें करता। उसके साथ मुझे भी लगता कि उसके अंदर के जहर को मैं ही पी सकती हूँ। इस जहर को पी कर मैं ना जाने क्यूँ गुमान से भर जाती। ये बातें बहुत क्षणिक होती फिर भी यह क्षण इतना मोहक लगता कि रूह इन क्षणों में रूई की फाहे की तरह नरम हो जाते। लेकिन वह था कि किसी गुफा में भटकने के लिए लालायित था और मैं भी इस बात को झुठला देती कि मैं जहर पी रही हूँ। किसी दिन अगर उसके अंदर के सारे जहर खत्म हो जाएँगे तब शिरीष कैसा होगा? यह सवाल धीरे-धीरे मेरे लिए एक स्वप्न बनता जा रहा था।
मैंने गौर किया कि उसका भटकना लगातार बढ़ता जा रहा है। रह-रह के अचानक कुछ-कुछ वाक्य बोल देता। उसकी सारी बातें विध्वंसक सोच की होती थीं या बेमतलब की होती थीं। जैसे एक दिन वह मेरी गोद में लेटा हुआ था। अचानक से उठ गया और कहने लगा, 'कितना अच्छा होता दुनिया के सारे अन्न खत्म हो जाते।' मैं चिढ़ गई थी - 'इससे तो अच्छा होता कि दुनिया ही खत्म हो जाती।' उसने प्रतिवाद किया था - 'अन्न नहीं रहने से दुनिया खत्म नहीं होगी। मैं ईंटो और पत्थरों को इतना सुपाच्य पकाऊँगा कि दुनिया के खेतों के मायने ही बदल जाएँगे।' ऐसा कहते हुए उसके चेहरे से आग दहकने की आँच आ रही थी। मुझे गुस्सा आ गया था - 'तुम्हारी जमीन से तो आलोकधन्वा भी आए है। तुम उनको क्यों नहीं देखते हो?' वह चुप हो गया था और निराश भी। उसकी निराशा किसी भयानक दर्द की तरह उस पर असर करती थी। ऐसा लगता उसकी रुलाई उसमें पके घाव की पीब की तरह जमा है जिससे कुरदने बस की जरूरत है। लेकिन मैं इस डर से चुप हो जाती थी कि मुझे उसके घाव का कोई अंत नहीं दिखता। मुझे उसके इस चेहरे से तकलीफ होती थी। फिर भी मेरे लिए यह संभव नहीं था कि मैं अपनी तकलीफ से बचने के लिए उसे कसम दिला दूँ कि आज के बाद तुम अपने माँ और भाई की हत्या को जेहन में आने ही मत देना।
मैं समझ नहीं पाती थी कि दुनिया के हर दुख पर अपनी कुर्बानी के लिए मुस्कराने वाला शिरी जाति की बात आने पर गंभीर क्यों हो जाता है। माँ और भाई की हत्या को उसने अपनी जाति की हत्या से जोड़ लिया था। इधर बीच उसे एक और सपना आने लगा था। वह देखता कि तलवार लेकर उसका लोग पीछा कर रहे है और वह लोगों को काटता चला जा रहा है। जब मैं कहती कि तुम ऐसा क्यों सोचते हो तो कहता कि तुमने मुझे बदल दिया है। फिर तुरंत कहता अब तो अपनी जाति बता दो। एक बार मैने चिढ़ते हुए कहा, 'तुमको ऐसा कहने पर मुझे तुम्हारी प्रकृति पर शक होता है।'
मैंने कह तो दी थी ये बात, लेकिन थोड़ी सहम गई कि अभी वो जिस मनः स्थिति में है उस पर लदा हुआ बोझ और भारी हो जाएगा। लेकिन मेरी इस बात पर वो एकदम हल्का सा हो गया और मुस्कराते हुए अपने कंधों पर मेरे सर को खींचकर छुआ दिया और उठ कर खड़ा हो गया। वो मेरे सामने मुस्कराते हुए खड़ा था और मैं उसकी अबूझ सिराओं को पकड़ने की कोशिश में थी और कहना चाह रही थी कि मैं तुम्हारे साथ हूँ। लेकिन इससे पहले ही उसने वैसे ही मुस्कराते हुए कहा कि, 'तुम्हें समझ में नहीं आ रहा कब से मैं चाय पीने के लिए कह रहा हूँ। चलो उठो।' क्षण भर में हुए उसके बदलाव देखकर मैं थोड़ी हैरान थी कि आखिर क्या है इसमें... कैसा है ये... कि उसने मेरे हाथ को खींचते हुए उठाया और चलने लगा। अब उसके चाल में एक खुशी भरी हुई सी लगती। और इस खुशी में उसने मेरी तरफ एक दिलफरेब वाक्य छोड़ा -
'यार तुम और चीजों के लिए इंतजार करवा रही हो तो सहा जाता है लेकिन साथ में चाय पीने के लिए एक पल भी देर करती हो तो दुनिया कौड़ी सी लगने लगती है।'
मैं उसका इशारा अच्छी तरह समझ रही थी और ऐसा लग रहा था कि वो इशारा मेरा हासिल था इसलिए उस दिलफरेब वाक्य से खेलते हुए पूछना चाह रही थी कि कहो - 'क्या इंतजार करवा रही हूँ और तुम क्या सह रहे हो?' लेकिन ऐसा न कह के मैंने कहा कि - 'मैं तुम्हारी कोई यार-वार नहीं हूँ। बस सिंपल फ्रेंड' इस पर उसने मुस्कराते हुए कनखी मारा और ऊ हा हा हा... ऊ हा हा हा की बनावटी हँसी हँसते हुए अपने शरीर को कुछ यूँ विजय मुद्रा में ले गया जैसे क्रिकेट में विकेट लेकर खिलाड़ी करते हैं। उसकी इस मुद्रा से, मुझे चिढ़ना नहीं चाहिए था, और मैं चिढ़ी भी नहीं। मुझे उसकी बनावटी हँसी मजेदार लगनी चाहिए थी, और मजेदार लगी भी। इसलिए जब उसके साथ चाय पीने जा रही थी तो हम दोनों के साथ एक मजेदार वाकया भी साथ दे रहा था। वो वाकया अदृश्य, अव्यक्त होते हुए भी बहुत पहचाना सा लग रहा था।
चाय पीते हुए फिर से यह पूछना चाह रही थी कि, 'मैं क्या इंतजार करवा रही हूँ और तुम क्या सह रहे हो?' लेकिन नहीं पूछ पाई। ऐसा नहीं कि मेरे अंदर कहीं से कोई हिम्मत का मामला आ गया था। शिरीष के आने के बाद ऐसा लगने लगा था कि दुनिया मेरी अँगुली में समाने वाली अँगूठी हो गई है, जिसे जब चाहे पहन उतार सकती हूँ। मुझे क्या पता था दुनिया अपना रूप बदल सकती है और उसकी अँगूठी बन के मैं उसकी मर्जी के मुताबिक उसकी अँगुली पे चढ़ती उतरती रह जाऊँगी। इसका जरा भी भान हुआ होता तो मैं आज या आने वाले और दिनों में शिरीष के उस सहने में, अपना सहना मिला कर बता देती कि चाय की चाहत कितनी छोटी बात हैं।
शिरीष अब तक अपनी चाय खत्म कर चुका था और हमेशा की तरह उसने चाय की दूसरी गिलास माँगी। छोटे शीशे के गिलास में मिलने वाली चाय की मात्रा से उसका मन नहीं भरता इसलिए दो गिलास चाय लेता। मुझे अभी भी इंतजार करवाने और सहने वाली बात खटकने की जगह गुदगुदा रही थी। मैं चाह रही थी कि वो फिर से कुछ कहे लेकिन वो कह के भूल गया था और चाय वाले से बात कर रहा था। मैं थोड़ी दूर हट के चाय पीने लगी ताकी उसे अहसास कराऊँ कि मुझे छोड़कर चाय वाले से बात करना मुझे कितना चिढ़ा रहा है। उसने देखा लेकिन उस अहसास के बिना जो मैं महसूस कर रही थी। पास आया लेकिन उस बात से बेपरवाह हो कर, मानो उसने चलते चलते यूँ ही कह दिया था। मैं गुस्सा रही थी या झल्ला रही थी या फिर इन दोनों शब्दों के पकड़ में थी कह नहीं सकती लेकिन मैं फिर से एक बार कुछ सुनना चाहती थी। और इस बार सुनने में पहले से ज्यादा इत्मीनान की चाहत थी। किसी भी चाहत को डिकोड करना आसान नहीं होता और यही मुझ से भी हुआ। मुझे पुछना था कुछ और लेकिन पूछ गई कुछ और - 'क्यों नहीं तुम मेरी हत्या कर देते हो तुम्हारी आत्मा को शांति मिल जाएगी?' चाय की सिप लेते हुए उसने अपनी आँखों में रंगत भर ली थी - 'क्या मजेदार बात तुमने कह दी। मुझे अफसोस हो रहा है कि अब तक मैंने ऐसा कुछ सोचा क्यों नहीं।'
शिरीष के इस मजाक में ना जाने क्या था कि रजनीगंधा की आँखें भर आई थीं और रजनी की भरी हुई आँखों से शिरीष पूरी तरह से छटपटा गया था। फिर क्या हुआ... क्या हुआ कह कर उसे नॉर्मल करने लगा। लेकिन शिरी का नॉर्मल करना उसे और बेध गया था। वह और फफकने लगी। वह समझ नहीं पा रही थी कि वो रो क्यों रही है। अपनी रुलाई में उसने पाया कि जब वो शिरी की हो चुकी है फिर क्या उसे रोक रहा है? शिरी का व्यक्तित्व या उसका जातीय लगाव? सच में उसे शिरी की प्रकृति पर शक है? इन सवालों से उसकी दबाई हुई रुलाई एक आवेग से फूटने के लिए बेताब था। शिरी एकदम बेचैन हो गया। उसे चाय की दुकान से हटा कर किनारे ले गया और कहने लगा कि मैं तो बस मजाक कर रहा था। रजनीगंधा अपनी आँखों को पोंछ कर सिसकती हुई कह रही थी कि, 'एक दिन मैं चाय के साथ तुम्हारी जाति पी जाऊँगी। नहीं तो मार डालूँगी खुद को। तुम सिर्फ शिरीष नहीं रह सकते?'
शिरी उसे समझा रहा था कि मैं सिर्फ शिरी ही हूँ मेरी जान। मेरी लैला। तुम देख नहीं रही हो अब तो शिरीष भी नहीं रह गया हूँ। मैं सिर्फ अब लैला रह गया हूँ। तुमसे रत्ती भर भी अलग मेरा वजूद नहीं है। है तो बताओ? लड़की का सिसकना कुछ कम हो गया था और वह अपनी सिसकन को कम करने के साथ कुछ तय कर रही थी। इसलिए शिरी से कुछ अलग तरह से मुखातिब हुई - ' तुम मानते हो कि तुम सिर्फ शिरीष हो...?
शिरीष - मैं तो मानता हूँ कि मैं सिर्फ रजनीगंधा हूँ।
रजनी - मैं मजाक नहीं कर रही हूँ।
शिरीष - कैसे कह सकती हो कि मैं मजाक कर रहा हूँ?
रजनी - इसका मतलब हमारी राय एक है?
शिरीष - मैं रजनीगंधा हूँ और मेरी राय रजनीगंधा की राय है, मेरी लैला।
रजनी - मेरे सर पर हाथ रखो। अगर चाहते नहीं हो तो मत रखना। कोई जबरदस्ती नहीं है।
शिरी - इसका मतलब तुम मुझे अलग कर दोगी?
रजनी - मुझ में मेरे अलावा ऐसा कुछ है ही नहीं जो मुझ से जुड़ी हुई चीजों को अलगा दे।
शिरी - लो रख दिया।
रजनी - कहो कि आज के बाद मैं अपनी जाति के लिए नहीं लड़ूँगा। शिरी सोच में पड़ गया था कि वह ऐसा क्यों कह रही है मैंने तो इससे इसकी जाति भर पूछा है। वह कहता है - तुम ऐसा कैसे कह सकती हो? तुम्हें कैसे लगता है कि मैं अपनी जाति के लिए लड़ता हूँ।
रजनी - तुम्हारा हाथ मेरे सर पर है। मैं तुमसे कुछ कहने के लिए कह रही हूँ। शिरीष अपना हाथ खींच लेता है और कहता है कि चलो पार्क में थोड़ी देर बैठते है। शिरी द्वारा सर से हाथ खींच लेने से रजनी एकदम से हिल जाती है फिर भी उसके साथ चल देती है। पार्क में रजनी बैठते ही कहती है कि, 'मैंने तुमसे कुछ कहने के लिए कहा था जो तुमने नहीं किया है। कुछ ऐसी बातें मत करना जिससे मुझे तकलीफ हो।' शिरी भी लड़की के साथ दरक गया था इसलिए कुछ कहने की बजाय उसे अपनी बाँहों में लेते हुए अपने हाथ को उसके सर पर रखते हुए कहता है, 'मैं कभी अपनी जाति के लिए नहीं लड़ूँगा।' फिर उसके माथे को चूमते हुए कहता है कि अब सिर्फ लड़ने के लिए मुझे लैला मिल गई है।' इतना सुनते ही रजनी उससे लिपट कर फफकने जैसे हो गई। इस पर शिरी कहता है कि मैं तो तुम्हारे लिए अपनी जाति के खिलाफ भी लड़ लूँगा। इस बात से रजनी को लगा कि उसकी आत्मा पर पड़े गर्द झड़ गए हैं और चाहत आगे चलकर खुद अपना डिकोड कर ही लेता है। आज भी भूगोल की सारी क्रियाएँ वैसे ही हुई थीं जैसे होती आई थी लेकिन शिरीष वैसा नहीं रह गया था। इसलिए मैंने सब से आगे बढ़कर शिरीष को अपना बना लिया था। हम दोनों एक इबारत लिख कर अपने घर लौटे थे।
शिरीष और रजनीगंधा के वे दिन थे जहाँ शिरीष इलाहाबाद में एक कवि के रूप में पहचाना जाने लगा था और रजनीगंधा उसकी प्रेमिका के रूप में। शिरी अपनी तैयारी में लगा हुआ था और रजनी चुप चाप पढ़े जा रही थी। बीच-बीच में कभी शिरी को पोट्रेट बनाकर तो कभी उसके कविताओं का पोस्टर बनाकर देती रहती थी। अब गोष्ठियों से लौटते हुए शिरी के चेहरे से एक रोशन हवा की चमक दिखाई देती लेकिन शिरीष अभी भी कभी-कभी किसी अँधेरी गुफा में चला जाता और रजनी से कई मायनों का एक वाक्य बोला करता था। रजनी को अब शिरी के कई मायनों वाला वाक्य डराता नहीं था। ऐसे वाक्य सुनकर उसे कहीं राहत मिलने लगी थी। इस राहत ने उन दोनों के हाथों और माथों पर चुंबन की टीप टीप बारिश शुरू हो गई थी। फिर भी जब शिरी का हाथ चुंबन के साथ कुछ और के लिए इधर-उधर फिसलता तो रजनी अच्छा लगने के बावजूद कहती - 'ये सब नहीं चलेगा। कायदे से रहना सीखो।' एक तो रजनी ने अपनी कसम दिलाकर उसे जाति से आक्रांत कर दिया था तो दूसरी तरफ उसने स्त्री देह विमर्श से आक्रांत होकर देह रहस्य को भी अपने अपराध में शामिल कर लिया था। इसलिए तमाम उन्मुक्तता के बाद भी वह कायदे से रहना सीख गया था और इस उन्मुक्तता में रजनीगंधा की उपस्थिति ही इतने रंगों से भरी थी कि किसी एक रंग के पीछे पड़ने का कोई आह भी अपनी दिशा तय नहीं कर पाता। शायद इसलिए रजनी भी अपनी सिखाई हुई 'कायदे से रहने वाली बात' पर पड़ती हुई नजर को हटा लेती या यूँ कहे कि प्रेम की धार ही ऐसी थी कि स्वमेव नजरें हट जाती।
वे दोनों खुश थे। और हर आने वाले दिन और खुश होते जा रहे थे। फिर भी उसके हमउम्र साहित्यकार उसकी टाँग खींचने का कोई मौका नहीं छोड़ते। वे कहा करते थे इलाहाबाद में शिरीष अपनी कविताओं से ज्यादा अपनी प्रेमिका की सुंदरता से चर्चित हुआ है। हमउम्र कवियों की बातें उसे नागवार लगने की बजाय अच्छी लगती और वो रजनीगंधा के फूलों से महमहा उठता। अब इलाहाबाद भी आरा की तरह अपना शहर लगने लगा था। दोनों जब चलते तो ऐसा लगता कि इलाहाबाद के रास्ते उनके कदमों को अपने हाथों में उठाकर रखते जा रहे हैं। इन दिनों इनके दिनों पर अमलतास के फूल बिछ गए थे और रातें हरसिंगार के फूल सी महक रही थी।
जागो कैफी / मैं तुम्हें / तुम्हारा गाँव दिखाता हूँ / चूल्हे के शोले की बात छोड़ो / चौपाल की गवनई में आग दिखाता हूँ। (कैफी आजमी की पंक्तियों से छेड़छाड़ करने के लिए क्षमा के साथ)
इन्हीं दिनों एक के बाद एक तीन खबरें आई। फिर से बिहार में एक नरसंहार हुआ था। अभी इस खबर की आग बुझ नहीं पाई थी कि आरा कोर्ट में पुलिस की गोली से तीन लोग मारे गए थे। और इस खबर के जख्म अभी हरे ही थे कि शिरीष के पुश्तैनी गाँव के जख्म हरे हो गए थे। पंचायत चुनाव में दो लोग मारे गए थे। शिरी की बेचैनी फिर बढ़ गई थी। लोगों की चीखों से ज्यादा प्रशासन की गाड़ियों का शोर सुनाई पड़ने लगा था। गाड़ियों पर नाचती लाल-पीली रोशनियाँ उसके छटते अँधेरे पर और गाढ़ा अँधेरा होकर बरसने लगी थी। उसके हाथ से इतिहास और दर्शन की किताबें छूट कर गिर गईं। वह फिर से किसी बिंदु की तलाश में खुद को जाया करने लगा। रजनी जब भी मिलती कहता क्या गाँव थे कैफी के। उन गाँवों के चूल्हों में शोले तो शोले धुआँ नहीं मिलता। वह बार बार रजनी से कहता कि अब बोलो मैं क्या करूँ...? रजनी मामले को हल्का बनाने के लिए कहती कि तुमने मुझ से लड़ने के लिए कसम खाई है चुप-चाप मुझ से लड़ा करो। लेकिन शिरी को इन दिनों हर शै में एक भारीपन लगने लगा था। कभी-कभी तो यह भारीपन उस पर इतना भारी पड़ता कि उसे लगता कि वह रौंदा जा रहा है। इस वजह से वह कई बार भयानक तरीके से नींद में भी चीखने लगा था।
रजनी पहले से ही शिरी के कई मायनों के एक वाक्य से वाकिफ हुआ करती थी लेकिन शिरी के एक दोस्त ने जब उसे रात को चीखने वाली बात बताई तो वह डर गई थी। फिर कई बार उसके साथ रहते हुए भी उसने देखा कि कभी-कभी शिरी अचानक अपनी मुट्ठी भींच लेता या अपनी दाँतों को निपोरता रहता। एक दिन दोनों एक रेस्तराँ में खाना खाने गए। खाने के ऑर्डर के बाद शिरी पानी का सिप ले रहा था कि पल भर में ही उसकी माथे से पसीना टपकने लगा। रेस्तराँ ए।सी। था फिर भी इतनी गर्मी। रजनी डर गई और कहने लगी तुम कुछ सोच तो नहीं रहे हो ? शिरी अपने को सहज बता रहा था लेकिन किसी बात को लेकर उसकी घबराहट साफ दिखाई पड़ रही थी। रजनी ने ऑर्डर केंसिल करवाया और उसे आराम करने के लिए घर छोड़ आई।
शिरी कई दिनों से कह रहा था कि मुझे घर जाना चाहिए। रजनी कहती की अच्छा रहेगा घूम आओ। लेकिन अगले ही पल कहने लगता कि अगले महीने से लगातार तीन चार एक्जाम है घर पर जाने से तैयारी नहीं हो पाएगी। वहाँ जाता हूँ तो मेरा दिमाग कुछ और ही सोचने लगता है। रजनी उसे सुबह शाम टहलने की नसीहत देती है। रजनी की नसीहत से वह रोज सुबह शाम बाँहे भाँजते हुए मील दो मील टहलने लगा। टहलते हुए उसे ऐसा लगता कि मानो कुछ दूर और चलेगा तो उसे अँधेरे से मुक्ति मिल जाएगी किंतु अँधेरा था कि लगातार बढ़ता जा रहा था। उसे हर पल अपनी चिंता सताने लगी थी। उसे लग रहा था कि वह भी किसी हत्या का शिकार होने वाला है। सड़क पर चलता तो लगता कि सामने से आने वाली गाड़ी उसे रौंदने के लिए आ रही है। वह चलते हुए कई बार पीछे मुड़कर देखने लगता कि पीछे से कोई गाड़ी उसे टक्कर मारने के लिए तो नहीं आ रही है। चाय पीने जाता तो लोगों के बीच में घुस जाता। उसे कहीं अकेले अच्छा नहीं लगता। यह अच्छा न लगना उस पर इतना हावी होता गया कि इससे वह संक्रमित हो गया और रजनीगंधा से भी कतराने लगा।
शिरी अब भीड़ के बीच जाता तो उसे थोड़ी राहत मिलती। इसलिए दिन भर घूम-घूम कर भीड़ तलाशता। इसी दौरान उसने इलाहाबाद के सारे चौराहे छान डाले। भीड़ की वजह से ही उसे जानसेनगंज चौराहा अच्छा लगने लगा। वह घंटों जानसेनगंज चौराहे के एक तरफ खड़ा होकर बोझिल ट्राफिक में अपनी उपस्थिति महसूस करता। उसे लगता उसके खड़े होने से लोगों को राहत मिलती है।
रजनी से बेहतर शायद शिरी को उसकी भाभी ही जानती थी लेकिन अब जो शिरी कर रहा था या शिरी के साथ हो रहा था वो सिर्फ रजनी देख रही थी। इसलिए रजनी ने शिरी के घर फोन कर के शिरी की परेशानियों के बारे में बता दिया। उसके भैया आ गए। अपने भैया को देखते ही शिरी रोने लगा। भैया को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन रजनी ने जब सारी बातें बताई तो भैया शिरी को जबरदस्ती डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर के सामने शिरी का इतिहास खंगाला गया तो पता चला कि उसने किशोर दिनों में गुलेल से अपनी प्रतिपक्ष जातियों की बराबरी करने के लिए दो बिल्लियों को जान से मार दिया था। एक बार तो उसने घर के तोते के पिंजरे को रात में जान-बूझ कर खुला छोड़ दिया था जिससे तोता बिल्ली का शिकार बन गया। डॉक्टर ने कोई डिसऑर्डर बताया और चेताया भी कि इसे अकेले नहीं रहने देना है।
भैया शिरीष को घर चलने के लिए बहुत इसरार करने लगे तो इस बार शिरी भड़क गया। 'आप ने जिंदगी भर पलायन किया है। गाँव में जब आफत आई तो आरा में बैठा दिए। फिर आरा का मैं हुआ तो इलाहाबाद भेज दिए। अब मुझ से इलाहाबाद भी छुड़वा रहे है। मैं इलाहाबाद नहीं छोड़ूँगा। जिसने भी आप को कहा है कि मैं अकेले नहीं रह सकता, मुझे लगता है वो खुद डरपोक है।' लेकिन भैया जब जिद पर अड़ गए तो मिन्नतें करने लगा कि मैं अगर यहाँ नहीं बच सकता तो कहीं नहीं बच सकता। भैया को हार कर लौटना पड़ा था। भैया के जाते ही शिरी ने अपनी सारी दवाइयाँ फेंक दी थी और अपनी परेशानियों को झुठलाने लगा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसके साथ क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है।
इन दिनों वह फिर से अपनी डायरी में गुणा-गणित करने लगा था। पहले की लिखी हुई डायरी में रजनी की मुलाकात और उसकी बातें भरी हुई थी। पहले इन मुलाकातों और बातों को कई-कई बार पढ़ता था। लेकिन अब उसे अचानक से ये बातें बोझिल करने लगी। जिंदगी के सफर से महरूम होकर हमसफर के साथ मसरूफ होना उसे अब बेमानी सा लगने लगा था। वह अपने को खंगालते हुए अपने व्यक्तित्व को बिखरा देने से खुद को कोसता है। लक्ष्य के प्रति सचेत न होने से भैया की नसीहत चुभती है। उसे लगता है उसके साथ जो कुछ भी हो रहा है उसमें उसका हरदिल अजीजी से जीना है। वह खुद को अपनी अदालत के कटघरे में खड़ा करता है। इलाहाबाद में किस लिए आए थे? कविताएँ तो गाँव में भी लिख सकते हो? फिर जवाब देता है। रजनीगंधा नहीं मिलती ना। रजनीगंधा के भँड़ुए। रजनी की ऐसी तैसी। वक्त कहाँ आ गया है और तू रजनी के साथ अपनी कीमती वक्त फूँकने पर अमादा है। घर वालों का प्यार, लोगों की आशा। चौपाल में उठ रही आग। इन सब का कोई मतलब नहीं। शिरीष अपने को इस बात पर इत्तला करता कि इन्हीं सब का तो मतलब है। कहीं से वह रजनीगंधा के लिए कोई खिड़की खोलता तो उसके कुछ सिविल आकांक्षी दोस्त यह कह कर खिड़की बंद करवा देते कि, 'एत्ता दिन से लौंडिया के पीछे-पीछे घुमत हौ तब्बो कुछ लिए दिए नहीं। प्रेम में लड़की अइसे छूछे घुमावत है कहीं...? ए राजू मान जा... नै तो तोरा हाल साँड़े के गोबरे के होई, ना पाथे के काम अउब ना लिपे के।' हालाँकि शिरीष को दोस्तों की ऐसी बातें बकवास लगती लेकिन शिरीष खुद के लिए बकवास होता जा रहा था।
रजनी से मिलना कम कर दिया था लेकिन जब भी मिलता अच्छे से मिलता और हर बार यही कहता कि वो तैयारी में लगा हुआ है। अब तुम से मैं सही से तभी मिल पाऊँगा जब तुम मुझ से मसूरी मिलने आओगी जहाँ मैं आई.ए.एस. की ट्रेनिंग कर रहा होऊँगा। रजनी का दुख बढ़ सकता था लेकिन शिरी के भैया रजनी के पास शिरी की केयर के बारे में बात करते तो उसे बहुत अच्छा लगता था। यह अच्छा लगना शिरी के तिरस्कार से उपजे खालीपन को भर देता था। फिर भी शिरी की परेशानी जिस तरह से बढ़ती जा रही थी उसको नकारना उसके बस की बात नहीं थी।
यह ऐसा दौर था जिसमें वह अपने को किसी एक बिंदु पर स्थिर करने में कराहने लगता और प्रत्येक बिंदुओं का बोझ उससे सहा नहीं जाता। यही वो दौर था जिसमें उसने वही कविता लिखी थी जिसका जिक्र मैंने डायरी के शुरू में किया है। वह प्रत्येक बिंदु को शक की निगाह से देखता फिर उससे गले लगाने की आह रह-रह के उठती थी। उसे सबसे कम शक अपने आई.ए.एस. के कैरियर में नजर आ रहा था। अपनी कराह के साथ इस बिंदु पर पाँव जमाना शुरू किया। धीरे-धीरे अन्य बिंदुओं से उसके पाँव उखड़ने लगे। वह तेलियरगंज से दरागंज अपने एक दोस्त के साथ शिफ्ट हो गया।
अब आग में भी नमी सुरक्षित है / जितनी शाखों पर शीत का अंश / पतझड़ में उग रही थोड़ी थोड़ी हरियाली / कीमत माँगती हुई पूर्णांश में / थोड़ी थोड़ी खुशियों में खुश रहे ना रहे / अंश भर सुकून के एहसास में / मात खा रही है जिंदगी / पेट की भूख थी तो / आदमी ने क्या क्या नहीं किया / अब प्रेम भी खोजने लगा है डिनर / तब आदमी क्या-क्या करेगा...?
इधर शिरीष के पाँव उखड़ने शुरू हुए तो उधर चैंपियन ने रजनीगंधा के फूल पर अपना हाथ सँवारना शुरू कर दिया था। एक दिन फिल्म की सीडी लेने गई रजनी पर अपनी जादू छोड़ता है - 'तुम हमेशा अपने मन से कैसेट ले जाती हो। आज मेरी पसंद की ले जाओ।' वह अर्द्धनग्न बालाओं के थिरकन वाली रिमिक्स का एलबम देता है।
एक दिन रजनी कैसेट लौटाते वक्त कहती है - 'तुमने कल कैसी सीडी दी थी। थोड़ी देर चलने के बाद पता नहीं किसकी शादी की रिकार्डिंग चलने लगी थी। वह रिकार्डिंग में मिक्स किए कुछ अश्लील दृश्यों के बारे में रजनी की मंशा जानना चाहता है - 'तो क्यों नहीं उसे तोड़ कर फेंक दिया। क्या जरूरत देखने की। हालाँकि रजनी ने पूरी रिकार्डिंग देख ली थी फिर भी उसे झिड़कते हुए बोली - 'दूसरे की रिकार्डिंग मैं क्यों देखूँ... मैं तो उसी समय बंद कर के सो गई थी। चैंपियन कहता है कि, 'रूको मैं अपनी वर्करों की क्लास लेता हूँ। साले सही तरीके से काम नहीं कर रहे है। तुम्हारे घर पर तो कोई कुछ नहीं कह रहा था।'
रजनी - मैं अकेले ही देखती हूँ। मेरा अपना कमरा है। घर वालों के साथ देखती तो हद ही हो जाती। पापा कोई भी गैर जिम्मेदाराना हरकत को माफ नहीं करते।' तभी उसे लगा कि उसने कुछ ज्यादा बोल दिया है। सवाल करते चैंपियन की आँखों में उसे एक चोर की भागती रेखा दिखाई दी और चैंपियन को रजनी की झिड़की में अपनी बनाई हुई सुरंग। उसके लिए इतना ही काफी है - 'मैं अकेले ही देखती हूँ। मेरा अपना कमरा है।'
चैंपियन पाइरेट्ड सीडी बेचता था। साथ में टीवी के साथ सीडी भी भाड़े पर देता था। उसके पास इसके दो तीन सेट थे। वह इन सेटों को हॉस्ट्ल, लॉज और तैयारी करने वाले लड़कों के कमरे पर भाड़े पर भेजता था। शहर में ऐसे सिनेमा घरों की कमी नहीं थी जिसमें एडल्ट फिल्में चला करती। उनमें कुछ मिनटों का नग्न दृश्य भी दिखाया जाता मिक्सिंग कर के। लेकिन चैंपियन ने लोगों को कुछ मिनटों के सुख से निकालकर पूरी फिल्म के सुख में डुबा दिया था इसलिए उसकी उपयोगिता और बढ़ गई थी। वह चैंपियन से स्टार चैंपियन होता जा रहा था। फिर भी इस दुनिया में लोग रहते हैं और लोगों को जिंदा रखने के लिए बाजार हुआ करते है। इसलिए विदेशी फिल्मों से सब बोर होने लगे थे और देशी में उन्हें कुछ मिलता नहीं था। शायद यही वजह रही होगी की लोगों की आवश्यकता कुछ और जुस्तजू कर रही थी। चैंपियन को स्वाभाविक रूप से समझ आ गई थी कि लोगों की आवश्यकता बड़ी कमाई का न्योता दे रही है। तभी उसे रजनीगंधा में एक देशी आइटम का स्टारडम दिख गया था।
धीरे-धीरे छह महीने बीत गए थे। शिरी ने रजनी से मिलना एक दम कम कर दिया था। और रजनी यह सोच कर खुद को मना लेती कि आखिर वह अपनी पढ़ाई ही तो कर रहा है। इधर चैंपियन को सूत्र मिल गया था कि रजनी का अपना कमरा है। वह निषेध से बेपरवाह रजनी के बीच अपनी उपस्थिति का रंग भरने लगा। धीरे-धीरे वह रजनी से ज्यादा उसके घर वालों का अपना हो गया। उसके घर के इलेक्ट्रिक के सारे काम अब उसके ही जिम्मे थे।
कई दिनों से रजनी शिरी से मिलने के लिए इसरार कर रही थी लेकिन शिरी आज-कल कह कर टाला करता था। अपनी तैयारी की दुहाई देते हुए चुटकुला वगैरह सुनाकर मिलना स्थगित कर देता था। कभी जाने की तैयारी करता भी तो शर्ट का आखिरी बटन बंद-बंद करते-करते उसे अफसोस होने लगता कि वह मजाक नहीं करता तो इतना माहौल हल्का नहीं होता और जाना नहीं पड़ता। फिर भी यदी चला जाता तो उस दिन जान-बूझ कर रजनी के साथ गंभीर बना रहता। रजनी आने वाले हर दिन और बोर होती जा रही थी। ऐसे ही एक बोरियत भरे दिन से उबकर वह किसी नई फिल्म के लिए चैंपियन के पास आती है तो आज भी वह अपनी पसंद की कैसेट देता है जो थोड़ी देर में चलने के बाद फिल्म से ब्लू फिल्म में बदल जाती है।
ऐसे ऐसे दृश्य। वह आश्चर्य से भर जाती है। उसे लगता है वह एक स्त्री देह से भी कितनी अनजान है। उसकी देह में कँपकँपी का ज्वार उठता है। ऐसा नहीं कि उसने कभी इन दृश्यों के या ब्लू फिल्म के बारे में सुना नहीं था लेकिन सुनने और सामना होने में कितना भेद होता है उसे आज समझ में आया था। ऐसा खुलापन उसकी कल्पना से परे था। उसने कई बार फिल्म को बंद किया और फिर फिर चालू कर के देखने लगती।
फिल्म की समाप्ति तक वह वासना के अपूर्व लोक में जलती हुई चली जाती है। सोने की लगातार कोशिश कर रही है लेकिन बार-बार उसकी बंद आँखो के सामने दो मर्दों से खेलती उस औरत की भंगिमाएँ स्क्रीन से निकलकर नाचने लगती। वह सोए-सोए अपनी अंगो पर हाथ फेरती है। अपने उभारों पर हाथ फेरते हुए उसे अजीब सी कँपकँपी होती। वह किसी गहरे नशे में डूबना चाहती है और नशा है कि चढ़ता ही नहीं बस अठखेलियाँ कर के रह जाता है। अपने नशे को खत्म करने के लिए बालकनी में आ गई। बालकनी से सामने वाले छत पर शिरी को देखना चाहती है। आज उसे शिरी पर गुस्सा आ रहा है तभी उसका ध्यान मम्मी के कमरे पर जाता है। मम्मी-पापा साथ में सोए हैं। वह और धधकने लगती है। वह उनके बंद कमरे में सुराख खोजने लगती है। सुराख नहीं मिलने पर दरवाजे से कान लगाकर किसी आवाज के लिए मचलती है लेकिन उसके सारे प्रयत्न विफल होते जा रहे थे और उन्माद था कि चढ़ता ही जा रहा था।
रात ने ढलान पर कदम रख दिया था लेकिन रजनी का उबाल ऊपर की तरफ फफकता जा रहा था। उसने फिर से फिल्म को चालू कर दिया। ऐसे में वह भी औरों की तरह खुद को समझा नहीं पा रही थी वह किसी पानी या नमी से बुझने वाली नहीं उसे साबुत स्थूल चाहिए या अमूर्त सूक्ष्म। और अंततः बीच में उठकर अपने कॉलेज की सहेलियों की एक तरकीब का सहारा लिया और राख हो गई। रात एक दम नीचे उतर आई तब जाकर उसकी आँख लगी और जब जगी तब सूरज ढलान की तरफ था। इतना सोने के बाद भी उसके शरीर के पोर-पोर में तिक्त ऐंठन हो रही थी। उन दृश्यों से उसे कभी घृणा होती, कभी खीझ लेकिन मन के कोने में कहीं उस नशे की खुमारी भी बच गई थी।
अगले दो दिनों तक वह कैसेट देने नहीं गई थी। उसको कैसेट लौटाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। उसे चैंपियन, फिल्म और खुद से घृणा होने लगी थी। वह शिरीष को कटघरे में खड़ी करती है - 'तू साथ रहता तो ये आह ही नहीं उठती। वह लगातार उसे कोस रही है कि तू कौन सी लड़ाई लड़ रहा है जहाँ मेरे होने की वजह से तू हार रहा था। तुम्हारे योद्धा होने पर किसी को शक है तो वह मैं हूँ।' फिर उसका ध्यान चैंपियन पर जाता है तो शिरीष भोर की सुबह की तरह खिलता हुआ सूरज दिखाई देता है।
रजनी बार-बार सवाल करती है कि चैंपियन ऐसा कैसे कर सकता है। बार-बार सवाल करने से उसे लगा कि हो सकता है चैंपियन के वर्करों ने ऐसी गलती की होगी जिसे चैंपियन को पता नहीं होगा। उसका यह लगना जम गया था इसलिए उसने तय किया कि वह जा कर कैसेट लौटा देगी और फिर वह कभी कोई कैसेट उसके यहाँ से नहीं लाएगी। उसके यहाँ से क्या वह कही से नहीं लाएगी। फिर सोचती है कहीं वह पूछेगा फिल्म कैसी रही। उसका माथा ठनक जाता है। फिर सोचती है कि अच्छा रहेगा कि शिरी को बुलाकर उसके हाथों कैसेट भेजवा देगी। फिर अपने इस आइडिये पर झेंप गई। कही उसे लगा कि मैं और शिरी इस फिल्म को एक साथ तो... नहीं यह ठीक नहीं होगा।
रजनी के मन में यह बात भी बार-बार उठ रही थी कि क्यों ना जा कर साफ-साफ उससे कह दे कि तूने ब्लू फिल्म क्यों दी थी। फिर उसे अच्छी तरह लताड़कर, लताड़ कर ही क्यों दो-चार थप्पड़ लगाकर चली आए। लेकिन फिर उसे लगता है कि बात अगर वर्करों की बदमाशी की होगी तो। सच कहूँ तो वह नहीं चाहती थी कि उसके रात की उस नग्न हलचल का कोई सिरा चैंपियन या फिर कोई और पकड़ सके। वह कई शंकाओं के मानसिक यातना से प्रताड़ित होते हुए आखिरकार इसी निष्कर्ष पर पहुँचती है कि वह कैसेट चुप-चाप दे देगी और अपने मन से कोई कैसेट लेने के बहाने से से उसके खानों में कैसेट खोजेगी और फिर यह कर कि कोई अच्छी फिल्म नहीं है चली आएगी। फिर कभी नहीं जाएगी। कभी नहीं।
अगले दिन वह दोपहर में दुकान पर कैसेट देने गई तो वह तेज आवाज में कोई पॉप गाना बजा रहा था। रजनी के पहुँचते ही चैंपियन ने वही गाना लगा दिया... दिल दे दिया है, जान तुम्हें देंगे... फिर कैसेट लेते ही उसने अनमने ढंग से बोला जैसे वह कुछ जानता ही नहीं - फिल्म कैसी लगी...? फिर वह फिल्म के नायक सलमान खान की तारीफ और फिल्म के बारे में ऐसे बात करने लगा जैसे उसने पूरी साबुत फिल्म दी थी। इसमें कोई मिक्सिंग वगैरह कि कोई बात ही नहीं है। रजनी को अपनी राय सही लगती है - इसने भूल से ही कैसेट दिया है।
रजनी कुछ और कहने के बजाय कैसेट के खानों की तरफ देखती है। पल भर में वह रजनी के करीब आ जाता है - कौन सी फिल्म खोज रही हो...?
रजनी - 'देखती हूँ जो लेना होगा मैं ले लूँगी।'
रजनी के इस झन्नाहट में चैंपियन अपने छोड़े हुए विष को उतरते देखता है। एक क्रूर मादक हँसी उसके चेहरी पर फैलती है - 'तुम अपने से क्या-क्या लोगी...' इतना कहते हुए वह रजनी के हाथ में एक कैसेट रखता है और उसके हाथ को अपने हाथ में - 'तुम जब झन्ना के बोलती हो तो लगता है मैं पागल हो जाऊँगा। पता नहीं क्यों तुम से मुझे बहुत डर लगता है। उसके बातों से रजनी को एक हल्की सिहरन होती है। यह सिहरन रात के दृश्यों से मिल जाती है। उसे लगता है उसकी सारी नंगी हरकतों को वह देख चुका है। उसकी बेचैनी खीझ में बदलती है। लेकिन उस रात की आग के सिरे को भी खुलती हुई देखती है। फिर भी वह वहाँ से भाग जाना चाहती है। भागने के लिए ज्यों ही मुड़ती है। चैंपियन तेजी से अपने दाहिने आगोश में लेते हुए दुकान के अंदर की तरफ खुलने वाला छोटा दरवाजा को खोल देता है। और दरवाजे पर लात मारकर बंद कर देता है।
रजनी के होश उड़ गए थे। नस-नस की चेतना की गाँठें खुल गई थी। वह वहाँ से निकल जाने के लिए एक पुरजोर फौलादी कोशिश करती है और क्षण भर में अपनी फौलादी कोशिश को पिघलते हुए देखती है। चैंपियन की पकड़ के सामने उसकी कोशिश हास्यास्पद का दर्द लेकर खत्म हो रही थी। वह अपने को छोड़ने के लिए कहने के अलावा कुछ और कहती है कि चैंपियन गिड़गिड़ाने लगता है - 'तुम को यह बुरा लग रहा है लेकिन मैं तुम से बहुत प्यार करता हूँ। खुदा कसम तुम मेरे प्यार को नहीं अपनाओगी तो मैं मर जाऊँगा... बरबाद हो जाऊँगा।' वह प्रतिवाद करती है - 'तुम्हारे प्यार करने का यही तरीका है... पहले मुझे छोड़ो और जाने दो'। चैंपियन के लिए रजनी के किसी बात का कोई मतलब नहीं था। वह लगातार अपने प्यार का राग अलाप रहा था और साथ में उसके हाथ, उसके होंठ अपनी हरकत से बाज नहीं आ रहे थे। उसकी यह हरकत रात के नशे में उतराती हुई उसे और बेजान कर रही थी। वह धीरे-धीरे ढीली पड़ने लगी। इस ढीलेपन से धीरे-धीरे उसके कर्कश आर्तनाद किसी अजानी गंध में घुलने लगे। जैसा सँपेरा भयानक और आजाद साँप को अपने कला-सम्मोहन से आखिर में कैद कर ही लेता है और उस पिटारे में कैद साँप को देखने पर पता नहीं चलता कि थोड़े देर पहले का फुँफकारता फनफनाता साँप यही था। कुछ वैसे ही रजनीगंधा थोड़ी देर पहले की रजनीगंधा नहीं रह गई थी।
दुकान से निकली तो रजनी एक खिन्नता के साथ चैंपियन के वादे-कसमें प्यार वफा से लदी-फदी थी। वहाँ से निकलते वक्त चैंपियन ने रजनी को एक स्टैंड वाला गुलाब का फूल यह कहते हुए दिया था कि देखो मैंने तुम्हारे लिए यह फूल एक साल से रखा है। रजनी ने फूल नहीं लिया था। हालाँकि इस अस्वीकार में सिर्फ उसका गुस्सा ही था ऐसा नहीं कहा जा सकता। अगर ऐसा होता तो आगे चलकर रजनी को चैंपियन की छाँह शिरी के छाँह से कैसे मिल जाती।
रजनी दुकान से निकलकर जब अपने घर वाली गली की तरफ मुड़ती है तो देखती है कि शिरी आ रहा है। शिरी को देखते ही रजनी को लगा कि उसके साथ बहुत कुछ हो गया है और ये अब आ रहा है। उसे शिरी पर बहुत तेज गुस्सा आया था। लेकिन शिरी को परेशान देखकर कुछ बोली नहीं पाई। वह हँसने की कोशिश कर रहा था कि तभी उसे रुलाई आ गई। उसकी देह से पसीना तो बुरी तरह से बह ही रहा था, आँखों के आँसू उसके पसीने के प्रवाह को और हिलोर रहे थे। शिरी ना जाने क्यों इतना डरा हुआ था कि खुद से बोलने लगा कि मैं गाँव जा रहा हूँ सोचा तुम से एक बार मिल लूँ। फिर ना जाने मिलना होगा या नहीं। रजनी को शिरी की यह बात चैंपियन की बातों से मेल खाती हुई लगी। लेकिन उसने अपने को जज्ब किया और कहाँ कि, 'देखो शिरी अभी तुम्हें मेरी नहीं डॉक्टर की जरूरत है। तुम पहले डॉक्टर के पास जाओ।' फिर उसने झूठ बोलते हुए कह कि अभी मुझे पापा के साथ निकलना है नहीं तो मैं भी तुम्हारे साथ चलती। अभी तुम घर जाने के बारे में मत सोचो। मैं तुमसे कल मिलती हूँ।' रजनी चली गई थी। अभी उसे एक बेहद एकांत की तलाश थी। शिरी उसे रोकना चाह रहा था और बताना चाह रहा था कि इस समय वह एक ऐसी बीमारी से घिर गया है जो उसे हमेशा घबराहट की हद तक बेचैनी दे रही है। हर घंटे-दो घंटे पर इसका ज्वार इतनी जोर से उफान लेता कि बेचैनी का पहाड़ सिर्फ खुल के रोने से ही थोड़ा बहुत पसीजता। लेकिन रजनी चली गई थी। इसलिए वह भी लौट आया था। घर पर आया तो सीताकांत महापात्र की एक कविता पर ध्यान चला गया। इन पंक्तियों को पोस्टर पर रजनीगंधा ने कभी उकेरा था। पंक्तियाँ थी -
'क्या तू नहीं जानता रे पगले / आज जिसे चाहने लगा है इतना / लगता है जिसके बिना पल भर आसार जीवन / कल जीना होगा / उसके बिना दीर्घकाल / असंख्य अर्पण पल, अंतहीन रातें और दिन।'
सीताकांत महापात्र की यह कविता उसे तब बहुत भली नहीं लगी थी या फिर उस समय उसके लिए कोई मतलब नहीं था लेकिन इस समय ये पंक्तियाँ इतनी भली लगी थी कि वह आरा चला आया था।
तीन-चार दिनों तक रजनी घर से निकली नहीं थी। तीन चार दिनो के एकांत ने उसे और घेरे में ले लिया था। उसने शिरीष को फोन किया तो पता चला कि वह गाँव चला गया है। रजनी को लगा कि मैंने तो उससे मिलने के लिए कहा था। मैंने फोन नहीं किया तो मुझ से बिना बताए क्यों चला गया? ऐसा क्यों कर रहा है मेरे साथ? उस दिन चैंपियन ने मेरे साथ अपने दुकान में जो किया उसको शिरी ने देख तो नहीं लिया था, तभी तो वह रोते हुए मिला था। वह तो कितना भी परेशान हो जाता था लेकिन मुझे सामने पाकर सबकुछ जज्ब कर लेता था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं और वो अकेले है और उसे रुलाई आ गई हो। कभी कुछ नहीं सोचने वाली रजनी अपनी हर साँस के साथ एक नई उलझन की सोच में उलझती जा रही थी। उसे लगता है उसकी जिंदगी को माठे की तरह मह कर उससे सब कुछ निकाला जा रहा है।
चैंपियन के लिए तीन-चार दिन ऐसे गुजरना बड़ी बात थी। रजनी के पापा ने उससे कभी घर में ए.सी. लगाने की बात कही होगी इसलिए वह रजनी से मिलने के बहाने कई कंपनियों के ए.सी. की प्राइस लिस्ट लेकर आया था। घर पर पापा नहीं थे। रजनी ने दरवाजा खोला और उसको देख कर यह कहते हुए कि पापा नहीं है। दरवाजा बंद कर दी थी। वह गिड़गिड़ाता रह गया था कि एक बार मेरी बात सुन लो। वह दरवाजे के पास खड़ी होकर उसकी आहट से उसके जाने का इंतजार करने लगी। लेकिन वह अभी वहीं खड़ा था और घंटी बजाने के बजाय दरवाजे पर हल्की थाप देता और अपने जूते को रगड़ता। जब रजनी ने उसकी एक नहीं सुनी तो उसने दरवाजे के नीचे से एक चिट घुसेड़ दिया। जिस पर लिखा था, 'जानम समझा करो। तुम्हें देखे बिना मैं नहीं जी सकता। आई लव यू।' रजनी ने कागज को उठाया और अपने कमरे में आ गई।
कमरे में लेटे हुए वह चैंपियन की चिट को देख रही है। उस चिट पर उसे शिरीष के साथ के कई चित्र दिखते हैं। वह कागज से अपना चेहरा हटाती है तो दरवाजे पर दस्तक देता चैंपियन खड़ा दिखता है। अपना चेहरा दूसरी तरफ करती है तो रोता हुआ शिरीष दिखाई देता है। वह करवट बदल लेती है और चिट को सर के बगल में रख देती है। वह इस बात पर हिल जा रही है कि शिरी उसे मिले बगैर घर कैसे चला गया। ठीक है उसे नहीं मिलना था तो नहीं मिलता लेकिन कम से कम बता कर तो उसे जाना चाहिए था। वह फिर करवट बदलती है। फिर उसे चैंपियन की दस्तक सुनाई पड़ती है। वह एक लंबी साँस लेती है। उसे अच्छा नहीं लग रहा है कि कई दिनों से शिरी उससे कम मिलने लगा है। मिलते हुए भी एक दूरी का अहसास साथ लिए चल रहा है। वह एक और करवट लेती है और चिट को फिर से अपने हाथ में ले लेती है। उसे देखती है और फिर धीरे-धीरे उसकी आँख बंद होने लगती है। उसे लगता है चैंपियन उसके उपर झुकता चला आ रहा है। वह उस चिट को तकिए के नीचे डाल देती है। दुकान वाली घटना के बाद उसे पहली बार इतनी मीठी नींद का अहसास होता है। जब आँख खुलती है तो वह पहले चैंपियन के पास जाती है। चैंपियन उसे एक कमरा दिखाता है और कहता है कि हम यहीं मिलेंगे। रजनीगंधा को क्षण भर के लिए उस दिन की याद आ जाती है जब उसने मिलने के लिए शिरीष से कहा था कि भारद्वाज पार्क में मिलेंगे। लेकिन उसकी याद क्षणांश में ही चैंपियन के द्वारा बिस्तर पर खींच लेने से काफूर हो गई थी। रजनीगंधा ने चैंपियन के साथ अपनी मुलाकत को इस तरह से जोड़ लिया था कि वह भूल गई थी कि उसने कभी किसी लड़के के लिए कहा था - 'यह सब नहीं चलेगा... कायदे से रहना सीखो।'
रजनीगंधा के ये वे दिन थे जहाँ उसे कुछ ध्यान से हटाना या कुछ भूलना अच्छा लग रहा था। लेकिन अब उसके चलने पर इलाहाबाद के रास्तों का कोई सहारा नहीं होता और संगम की बावली हवाएँ भी उदास सी रहने लगीं थीं। चलते हुए अक्सर उसके पैर लड़खड़ाने लगते। और चैंपियन था कि कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता। रजनी हर बार कंडोम के लिए कहती और वह हर बार असलियत का वास्ता देकर उसे डुबो देता और रजनी भी डूबने को जैसे पाना मान रही हो, उसकी सलाह को अपने गले में बाँध लेती। जब वह उतरता तो उसे राई भर भी इच्छा नहीं होती कि कुछ होने से बचाने के लिए तुरंत खड़ी हो जाए और टहला करे। उसकी इच्छा तब तो एक घिन से भर जाती जब टहलते हुए चैंपियन का कुछ लिजलिजा सा उसके जाँघों से फिसलते हुए पैरों के नीचे आ जाता। वह एक छि के साथ अपना पैर पटकती तो चैंपियन कहता - 'सही है सब गिर जाएगा तो डर नहीं रहेगा।' किसी मिलन के बाद यह घिन, यह अनिच्छा और यह डर वह कभी नहीं चाहती। उसे तो इच्छा होती कि वह भी चैंपियन को अपने बाँहों में लेकर उसी तरह निढाल पड़ जाए लेकिन वह थहराई हुई सी उठती और चैंपियन अपनी देख-रेख में उसे एक सीमा तक नौ बाई बारह के कमरे में टहलता फिर बाथरूम के लिए भेज देता। इतना कुछ करने के बाद भी चैंपियन की नेचुरोपैथी काम नहीं आई थी। वह डॉक्टर के पास ले जाने के बजाय अपने अनुभवों से दवा लेकर आया था। उस दवा को देखते ही रजनी सिहर गई। इतने बड़े-बड़े कैपसूल वो भी बिना डॉक्टर के। मैं नहीं खा पाऊँगी। चैंपियन कुछ चुप्पी के बाद बोला - 'खा लो कुछ नहीं होगा।' रजनी भी ठहर के बोली थी - 'तुम इतना सब कुछ कैसे जानते हो?' उसने हँसते हुए कहा था - 'मैं उन बेवकूफो में नहीं हूँ जो अपने चक्कर में किसी लड़की की जिंदगी तबाह कर देते है। अरे जब प्यार कर रहे हो तो और सब चीजों का भी तो ध्यान रखो।' रजनी इस सफाई से राहत पाने के बजाय सहम गई थी और खुद डॉक्टर के पास चली गई थी। रजनी का अपने मन से डॉक्टर के पास जाना चैंपियन को खटक गया था फिर वह थोड़ा जल्दी हो गया जो चैंपियन चाह रहा था।
शिरीष इस बार अपनी बीमारी से इतना डर गया था कि खुद ही डॉक्टर के पास जाने के लिए कहने लगा। अब उसे प्वाइंट फाइव एम.जी. की उन्हीं छोटी-छोटी गोलियों से प्रेम हो गया था। उसकी दवा करीब तीन महीने ही चली थी कि उसे लगने लगा कि वह अच्छा हो गया है। वह फिर से अपनी बढ़ी हुई खुराक के साथ इलाहाबाद आ जाता है और दवाई को यह कह कर के क्या मस्त दवाइयाँ थी, बाय-बाय करता है। वह खुद से कहता है कि उसे कुछ नहीं हुआ था। बस वह कुछ दिनों से सुख रोग का शिकार हो गया था। सिविल- सिविल का राग अलापने वाले उसके दोस्त खोते जा रहे थे और कभी किसी मोड़ पर मिले हुए साहित्यिक दोस्त साथी रह गए थे। यूनिवर्सिटी रोड जाता लेकिन यह पता चलने पर भी कि निराला सभागार में गोष्ठी चल रही है, नहीं जाता। नाटक देखना भी बंद कर दिया था। शिरी की इस हेरा-फेरी में रजनीगंधा भी प्रेमिका से अपदस्थ होकर किसी मोड़ की साथी रह गई थी। हालाँकि अब भी वह अपने दोस्तों से कहता था कि वह जिससे प्रेम करता है उससे वह असल में और दिल से भी डाइरेक्ट मसूरी में ही मिलेगा। इसके साथ ही उसे लगने लगता है कि सच में वह दुनिया का सबसे शक्तिशाली इनसान है। उसका यह लगना उसे इतना खुश कर देता कि उसे लगता कि समय भी उसकी मुट्ठी में बँध गया है। तभी तो मसूरी में मिलने की बात बस आज की बात के ठीक बाद की बात लगती। उसे हर एक दो घंटे पर इतनी बेचैनी होने लगती कि उसे हँसी आ जाती थी और वह खूब ठहाके लगाता।
इसी ठहाके भरे दिनों में वह जी रहा था कि रजनीगंधा का फोन आया था। शिरी के फोन उठाते हुए ना जाने क्यों रजनीगंधा औपचारिक जैसी हो गई थी - 'तुम कैसे हो...?' शिरीष कुछ कहने के बजाय हँसने लगा। हँसने लगा तो उसकी हँसी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसे घंटा भर हो गया था हँसे हुए। वह किसी तरह से आधी हँसी रोकते हुए कहता है कि 'साली ये बेशर्म हँसी रुके तब तो मैं कुछ बात करूँ।' रजनीगंधा को पल भर के लिए लगा कि उसका अपना शिरीष ही उस पर हँस रहा है। वह सोचने लगी कि वह अपनी हँसी को नहीं मुझे ही 'साली बेशर्म' कह रहा है। क्या उसका शिरी उसके बारे में सब जान गया है! जानने के बाद ही तो कोई ऐसा हँस सकता है। वह फोन कट करने वाली थी कि तब तक उसने अपनी हँसी को काबू में करते हुए कहा - तुम बताओ कैसी हो। मैंने तो सोचा था कि तुम फोन करते हुए कहोगी कि कब मिलने आ रहे हो...? मसूरी में मैं तुम्हें दुलहन बनाऊँगा इसका मतलब तो ये नहीं हुआ कि कुछ देखा-सुनी भी न हो... इतना कह कर वह फिर हँसने लगा। रजनी को थोड़ी राहत मिलती है कि उसमें अब भी वह मौजूद है। फिर कहती है - ' शिरी सच में मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ। वो भी बहुत जल्दी। कब आ रहे हो... आ जाओ ना अभी थोड़ी देर के लिए'। शिरी हँसते हुए कहता है - 'बस थोड़ी देर के लिए...?' फिर हँसने लगता है। रजनी को इस बार की हँसी उसकी आत्मा दुखा देती है और वह फोन कट कर देती है। शिरीष कई बार फोन करता है तो एक बार उठा कर कहती है - 'तुम्हें इतनी हँसी क्यों आ रही है।' वह फिर हँसने लगता है। हँसते हुए कहना चाह रहा था कि वह आ रहा है लेकिन रजनी फिर से फोन कट कर देती है। वह उसे मिलने के लिए मैसेज करता है फिर देर तक हँसता रहता है। पता नहीं शिरीष की यह हँसी बीमारी से उबरने के बाद की हँसी थी या दवाइयों के छूट जाने के बाद की। वह हँसने में भूल गया था कि उसे अपनी लैला से मिलने जाना है।
इसी बीच वक्त ने नए लिबास धारण किए। साल का पहला दिन था। जितना कुहासे की सर्दी थी उससे कहीं ज्यादा नए साल के उल्लास की गर्मी रजाई की तरह चारों तरफ फैली हुई थी। शिरी अपने दोस्तों के साथ सरस्वती घाट पर घूमने गया था और यहीं पर उसे रजनीगंधा दिखाई पड़ी थी। रजनीगंधा शिरी को देखते ही यह भूल गई थी कि शिरी की हँसी उसे चिढ़ा रही थी और उसके पास भागती हुई चली आई थी। उसका भागते हुए आना बता रहा था कि वह बहुत परेशान थी लेकिन दोस्तों के बीच उसे देखकर कुछ कह नहीं पाई। वह चाहती थी कि शिरी को किनारे ले जाकर बात करे लेकिन शिरी के हँसे हुए घंटा भर हो गया था। रजनी कुछ और उससे कहना सुनना चाह रही थी लेकिन वह अचानक से यह कहकर हँसने लगा कि मैं यहाँ रंगीनियाँ देखने आया हूँ... उसकी हँसी लगातार बढ़ती जा रही थी। रजनी उसकी हँसी को देखते हुए सोचने लगती है कि अगर शिरी को जब पता चलेगा कि मैं कहाँ चली गई हूँ। तब वह क्या सोचेगा। फिर भी वह इसी तरह से हँसता रहेगा। रजनी जा रही थी तो शिरीष दौड़ते हुए उसके पास आया। अभी भी वह हँस रहा था। उसने रजनी की बाँह थामी और सहेलियों से किनारे ले गया। फिर उसने वही बात कही थी जिसका जिक्र मैं उपर कर चुकी हूँ - 'हर आदमी योद्धा क्यों नहीं होता है अगर ऐसा नहीं हो सकता तो जो योद्धा हैं वे गांडू बनने से पहले क्यों नहीं मर जाता है।' रजनी को इस बार लगा था कि वह बिना मतलब बोल रहा है। शिरीष के इस बात को उसे लताड़ने का मन कर रहा था लेकिन इस समय सचमुच उसे किसी योद्धा की जरूरत थी। रजनी चुप-चाप उसे देख रही थी कि शिरी ने अपनी बात में एक और वाक्य जोड़ा - 'तुम्हें तो इस बात पर खुश रहना चाहिए कि एक योद्धा तुमसे प्रेम करता है।' इतना कह कर वह फिर हँसने लगा था। रजनीगंधा चली गई थी और शिरी ने हँसते हुए उसे बाय किया था।
परिंदों की उड़ान से कहीं ज्यादा उड़ता है / वक्त का एक ठहराव / ठहरे हुए समय में इंतजार भूमि से भारी और पानी से हल्का शब्द हैं / जाना एक स्वाभाविक और खतरनाक क्रिया बन के चला जाए / चलने के लिए एक सायास और साहसिक क्रिया गढ़ लिया जाय। (आभार और क्षमा के साथ कि यहाँ केदारनाथ सिंह की कविता की एक पंक्ति '...जाना हिंदी की सबसे खतरनाक क्रिया है...' को संश्लेषित किया गया है।)
नए साल के शुरू हुए सप्ताह भर हो गया था। चाय के साथ शिरी ने पेपर उठाया तो उसकी भौंहें सिकुड़ने लगीं और आँखें फैलने लगी। 'इलाहाबाद ब्लू सीडी कांड'। इस खबर के साथ चैंपियन की तस्वीर देख कर उसका माथा ठनक गया था। खबर में कुछ इस तरह की बातें है। 'प्रेमी ने प्रेमिका की बेवफाई के कारण उसके साथ शारीरिक संबंधों की सीडी बनाकर बाजार में बेचनी शुरू कर दी थी। पुलिस के लंबे हाथों से बच नहीं पाया। महबूब (बदला हुआ नाम) नाम का यह युवक सीडी की दुकान चलाता था उसे पड़ोस की एक लड़की ' (बदला हुआ नाम)' से प्रेम हो गया था। प्रेमी को जब पता चला कि उसकी प्रेमिका का संबंध उसके मुहल्ले के कई लड़कों से है तो उसे यह बेवफाई बरदाश्त नहीं हो पाई। उसने अपने साथ के संबंधों की सीडी को मार्केट में जारी कर दिया।'
शिरी हिल गया था। उसे अब लगता है कि रजनी उससे नए साल के दिन कुछ कहने वाली थी और इतने दिन से क्यों बुला रही थी। वह भागता हुआ रजनी के घर जाता है। लेकिन यहाँ स्थिति कुछ और ही है। रजनी के घर के आगे पुलिस लगी हुई है। शिरी को लौट आना पड़ता है। शिरी का यह लौटना फिर से अँधेरे की तरफ लौटना होता है। लौटते हुए उसे रह रह के हूक उठती है। कैसे हो गया यह सब। वह कहाँ था...? उसे फिर से प्वाइंट फाइव एम.जी. की छोटी-छोटी गोलियों की जरूरत महसूस होने लगती है। सोचता है कि मुहल्ले के लड़कों में से तो वह भी था। रजनी ने उसके साथ ऐसा कुछ क्यों नहीं किया। न्यूज से ब्लू न्यूज की तरफ बढ़ रहे मीडिया से उसे सिहरन होती है।
इसी बीच पता चला कि उसके कुछ दोस्त इलाहाबाद ब्लू सीडी कांड वाली फिल्म को लहा लिए है जिसे आज रात में देखेंगे। शिरी ने दोस्तों से नहीं बताया था कि उस फिल्म में उसकी अपनी रजनी है। वह नहीं चाहता था कि दोस्त उस फिल्म को देखे। वह किसी तरह से कैसेट गायब करने के चक्कर में पड़ता है लेकिन लड़के उसकी पहरेदारी इतनी अच्छी तरह से करते है कि उसे कोई मौका हाथ ही नहीं लगता। वह लड़कों से यह कह कर डराता है कि इस समय पुलिस पीछा कर रही है। गड़बड़ हो जाएगा। कल हम सब अपने गमछे से मुँह ढक कर अखबार में दिखेंगे। इस पर एक लड़का - चुप रह मरदवा। बिहार के भूमिहार होए के एत्ता डर रहे हो। लड़के की बात शिरी में कहीं गहरे से धँस गई थी। उसे रजनी की कसम याद आ गई। वह एक दम से चुप होकर लड़खड़ाते हुए वहाँ से हट गया था।
शिरी भी लड़कों के साथ सीडी देखता है। सीडी दरागंज के उसी वैद्य जी के मकान के एक कमरे में चल रही है जिसके नीचे कभी निराला जी रहा करते थे। वह जिन सीनियरो की सिंसिऑरिटी को देखकर बात करने में हिचकिचाता था उनमें से किसी ने आज व्यवस्था प्रबंधन का जिम्मा सँभाला था तो किसी ने सीडी संचालन का। एक महोदय तो रिमोट से दृश्यों को रोक-रोक कर अंग-प्रत्यंग का चित्र ले रहे थे।
कमरे में निर्जन रात में उल्लू के बोलने के बाद वाली शांति थी। अचानक से पन्नी की खड़खड़ाहट हुई थी। पता चला कि सिविल के एक मठाधीश ने गिला होने से बचने के लिए पन्नी बाँध लिया है। कमरे में हँसी की भँवरें फूट गई थी और शिरीष को काठ मार गया था। धुंधली पीली रोशनी में दृश्य के साथ सबकुछ चटकदार साफ न तो दिखाई दे रहा था और ना ही फिगर स्क्रीन के पूरे आवरण पर उतर रहा था। कारण साफ था कैमरे को अलमिरा के दोनों तरफ के पर्दों के बीच में छुपाकर रख दिया गया था। खैर जो भी हो। जब रियलिटी की बात हो तो मजा हर सीमाओं को अतिक्रमित कर देता है। फिर तो सब कुछ साफ ही दिखता है। धप्प-धप्प उजला, चक चक रंगीन। इस धप्प-धप्प उजला चक चक रंगीन के बीच शिरीष जले हुए कोयला सा सफेद राख होता जा रहा था। वह जिससे डाइरेक्ट दिल से मसूरी में मिलने वाला था, जो उसके भविष्य में शामिल थी, जिसके साथ उसे साझेदारी करनी थी; इलाहाबाद की सड़कों पर छतिग्रस्त हो रही थी।
लड़के दृश्यों को कई-कई बार आगे-पीछे करते है। खासकर उन दृश्यों को जब लड़की रेंगती हुई सिकुड़ जाती और उसके मुँह से कुछ अस्फुट से शब्द निकलते। वह किसी पीड़ा से या किसी विह्वलता से बार-बार सिकुड़ जाती थी और कैमरे के कोण से फिसल जाती थी और बार-बार उसका प्रेमी कैमरे के सामने लाता था जिससे वह अनजान बेफिक्र थी क्योंकि उसके कानों में वही गाना सुनाई पड़ रहा था। 'दिल दे दिया है जान तुम्हें देंगे... दगा नहीं करेंगे सनम... शिरीष की यह वही रजनीगंधा थी जो संगम की एक धारा थी। शहरों के सफर में सचेती इलाहाबादी संस्कृति का यह वह दिन था जहाँ से इलाहाबाद ने भी दुनिया के देह मनोरंजन में अपनी दावेदारी की घोषणा की थी और एक युवक अपनी भविष्य की पत्नी की ब्लू फिल्म देख रहा था। असल में यहाँ समय ने एक घोषणा के साथ खुद को रेखांकित किया था कि देखों सब अपनी आँखों के अलावा और जो भी आँखें हैं उसे खोलकर देखो प्रेमिकाओं और पत्नियों को ब्लू फिल्म में देखने का समय यहाँ से शुरू हो गया है।
शिरी के लिए यह सब देखना संभव नहीं था। निखालिस बेचैनी के साथ उसने किसी तरह उन्तीस मिनट की फिल्म देखी और भागते हुए वहाँ से अपने कमरे पर चला आया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी जिंदगी में भयानक-भयानक हादसे क्यों देखने को मिल रहे है। जिस रजनी को लेकर वह कभी इतराया करता था, आज उसके बारे में चुप है। बार-बार उसके सामने चैंपियन के बालों से खेलती रजनी और उसे घात करता चैंपियन का चेहरा ही सामने आ रहा है। उस चेहरे में रजनी के पहली जनवरी की परेशानी नजर नहीं आ रही थी। शिरी को फिल्म में चैंपियन के बालों में अगाध प्रेम से उँगली फेरती रजनी दिखती है। वह चैंपियन के चेहरे को अपनी उत्तेजना और समर्पण के चुंबन से पाट दे रही थी। सिविल की तैयारी ने मुझे कहाँ छोड़ दिया है। क्या मैं कभी रजनी को इलाहाबाद की पहली सुबह की तरह नहीं पा सकूँगा। शिरी कुछ जवाब तलाश कर रहा था लेकिन सवाल थे कि उसका पीछा ही नहीं छोड़ रहे थे।
अगले दिन उसके दोस्त सीडी विमर्श करते हैं। कोई लड़की को नमकीन बताता है तो कोई उसे काटने की बात करता है। लोग रजनीगंधा के छिनालपन में इतने अंधे हो गए थे कि उन्हें चैंपियन का धोखा नहीं दिखता। वे सोचना भी नहीं चाहते थे कि फिल्म को पूरा करने के लिए चैंपियन ने जो दो लड़कियों का इस्तेमाल किया था वो क्या था? लेकिन शिरीष निराला से पूछता है कि आपने इसी इलाहाबाद के रास्तों पर एक लड़की को पत्थर तोड़ते हुए देखा था तो उसकी बात कही थी। आज इस लड़की के पर कतरे जाने पर क्या लिखते? निराला जी बिना कुछ बोले कमरे से निकले और भागने लगे। शिरीष उनके पीछे-पीछे आवाज देते हुए चला आ रहा है लेकिन वे रुक नहीं रहे हैं। उनके लंबे-लंबे डग से धरती काँप रही हैं। थोड़ी देर में उनकी दूरी इतनी बढ़ गई कि शिरी की नजरों से वह ओझल होने लगे। शिरी धरती के काँपने को महसूस कर उनके पीछे भागा जा रहा था। अब धरती का काँपना बंद हो गया था। संगम के रेतीले विस्तार पर पुरकैफ हवाएँ टूट कर गिर रही थी। तभी एक चीत्कार सुनाई दी। शिरीष चीत्कार की तरफ भागते हुए गया तो देखता है कि निराला जी की लाश पड़ी है और तोड़ती पत्थर वाली औरत दहाड़ मारकर रो रही हैं। बहुत हिम्मत कर के शिरीष ने उससे पूछा कि कैसे हो गया यह सब तो औरत ने रोते हुए बताया कि, 'संगम पर तुम्हरी लैला को देखने आए रहन बाकी लैला को देखकर सब ताली पीट रहे थे अउर पत्थर मार रहे थे तो इनसे देखा न भवा। इ चिल्लाने लगे कि उ हमरी सरोज है। बाकी कउनो नै सुन रहा था उनकी बात। सब नाच रहे थे अउर ताली पीट रहे थे एत्ते में इनकी साँस बंद होए गई।' औरत फिर दहाड़ मार कर रोने लगी थी। शिरीष भागते हुए कमरे पर आया था और आते ही कमरे में गिर गया। शिरीष का यह गिरना फिर से अँधेरे में गिरना था।
रजनीगंधा को परिवार सहित यह शहर छोड़ना पड़ा था। इसलिए शिरीष के पास इन दिनों खुद से सवाल करने के अलावा कुछ बचा नहीं था। एक दिन वह तय करता है कि रजनी के साथ अपने संबंध और उसके साथ हुए हादसे की सारी बातें घर में बता देनी चाहिए। भैया को बताते हुए शिरी ने यह भी कह दिया कि आप रजनी को खोजने में मेरी मदद करिए। शिरी की बातें सुनकर भैया को लग गया था कि अब इसका कुछ होने वाला नहीं है। भैया कहते हैं कि तुम चले आओ। तुम्हें जो करना है यहीं आ कर करो।
शिरीष की जिंदगी का यह ऐसा दौर है जिसमें इलाबाद उसमें साँस की तरह धड़कता था, वह साँस के बिना जी सकता था लेकिन रजनी का भी तो इलाहाबाद छुड़वा दिया गया था। शिरी की पहले वाली परेशानी कहीं और भयावह हो कर बढ़ रही थी। फिर से उसे घंटे-दो घंटे पर दौरे की तरह रुलाई आने लगी थी। इस बार वह इलाहाबाद छोड़ना नहीं चाहता था लेकिन भैया थे कि इस बार उसी तरह से दृढ़ हो गए थे जैसे अपनी जिद की वजह से आरा में आ कर बस गए थे, जिस दृढ़ता से उन्होंने शिरी को इलाहाबाद भेजा था।
भैया भाभी को लेकर उसे ले जाने के लिए आ गए थे। वह लगातार मिन्नतें करता कि वह सही से पढ़ रहा है, उसे यहीं रहने दिया जाए, मेरी दवा भी चल रही है। कुछ नहीं होगा तो पान की दुकान खोल लूँगा लेकिन इलाहाबाद नहीं छोड़ूँगा। वहाँ जाकर मेरी तबीयत और खराब हो जाएगी। इस पर भैया ने भड़कते हुए कहा कि तुम्हारे पागलपन का इलाज कराने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। कमरे में अचानक से शांति जम गई थी। शिरीष की माँ छूटी तो भाभी मिल गई। गाँव छूटा तो आरा मिल गया, आरा छूटा तो इलाहाबाद। आज उसे इलाहाबाद भी छुड़ाया जा रहा हैं। थोड़ी देर में भाभी की सुबकने की आवाज से कमरे की शांति पिघलने लगी थी। शिरी भाभी के चेहरे को देखता है और कहता है कि मैं चल रहा हूँ।
रजनीगंधा के बाद शिरीष का भी इलाहाबाद छुड़वा दिया गया था जिसे वह इलाहाबाद के दिन बीत गए थे कहकर बीते हुए दिन को याद कर रहा था। रजनीगंधा गुमनामी में जी रही थी और शिरीष अफवाहों के साथ आरा में अपनी जिंदगी काटने लगा था। इधर बीच दुनिया बदल गई थी और लाठी में तेल पिलाने वाली सरकार भी। मोबाइल फोन हवा-पानी की तरह लोगों में घुल गया था और नेट ने इतना खोल दिया था कि अब छुपा कर दिखाना एक व्यवसाय होता जा रहा था और कुछ हद तक जिंदगी भी। जिंदगी में कला होती ही है इसलिए कला भी उतनी ही संक्रमित हुई जितने ताजमहल के रंग। ऐसे में रीयल विडियोज की बाढ़ आ गई और दलाल और दलाल हो गए। कुछ लड़कियाँ हीरोइनें बन गईं और कुछ रुदाली। फिर भी समय वही था लेकिन उसके प्रारूप बदल गए थे।
प्रारूप को बदलाव मानकर दुनिया हँसने का अभिनय कर रही थी और खुशी के आभास में मरी जा रही थी। लेकिन शिरीष रजनीगंधा के पास अटका हुआ था और रजनीगंधा इस अँधेरे से उस अँधेरे विस्थापित होते हुए भी अपनी हँसी बचा रही थी। मिलने की हर कोशिश में शिरीष हार रहा था और अपनी जाति से लड़ रहा था लेकिन अब भैया भूमिहार की लड़की से शादी कराने में और भूमिहार होते जा रहे थे। शिरी जब भी इलाहाबाद की बात करता उसमें सिविल कहीं शामिल नहीं होता जिसे भैया जानते भी थे, इसीलिए इलाहाबाद को आरा में बदल देते। भैया रह-रहकर अपनी जीवन की सबसे बड़ी भूल शिरी को इलाहाबाद भेजना मानकर दुखित होते जा रहे थे और शिरी को जब भी हूक उठती रजनी को खोजने के लिए निकल जाता। रजनी से मिलने-जुलने के दौरान जो भी बात-चित हुई थी शिरी उसमें से कोई सिरा पकड़ के उन शहरों में खोजने के लिए निकल जाता कि फलाँ शहर में उसके ए रिश्तेदार रहते है तो फलां में कोई और। लेकिन कुछ भी हाथ नहीं लगता था। ऑरकुट और उसके मेल पर भी उसने मैसेज डाल दिया था और हर रोज उसके रिप्लाई के इंतजार में अपना एकाउंट चेक करता और निराशा से भर जाता। ऐसा करते हुए कई महीने हो गए थे। धीरे-धीरे उसके मन में ये बातें जमा होने लगी थी कि रजनी के साथ उसका जो कुछ भी था उसे अपनी जिंदगी का दूसरा हादसा मान कर उससे आँखें चुराने की कोशिश की जाय।
कोई भी शहर कितना भी बढ़िया क्यों ना हो उस व्यक्ति के लिए उस शहर का स्थान नहीं ले सकता जिस शहर में उसने पूरे होश हवास में प्यार किया हो। शिरी को संगम के बिना आरा बेजान सा लगता और वह गंगा के किनारे बैठकर आरा में लैला की धाराओं को खोजता। उसका खोजना पानी में पड़े कंकड़ से उत्पन्न तरंगों की तरह एक दूरी के बाद गुम हो जाता। फिर वह बेचैनी में बाइक उठाकर आरा से बाहर सोन किनारे जाकर बैठा करता। सोन का रेतीला विस्तार और उस पर का पुल कुछ-कुछ इलाहाबाद के कछार का एहसास कराते।
'आँसू नहीं होते / कटे हुए शरीर के खून की तरह / बहते रहेंगे बार-बार पोछने पर भी / आँधी झेलती टहनियों के पत्ते झड़ने पर भी / शाख अपनी रंगत नहीं खोते / बार-बार खोने से आदमी की आत्मा गुम नहीं होती / लौट आता है मन फिर से हमें पाने के लिए / फिर से लोग अपने-अपने घरों से निकलते है सूरज को देखने के लिए।' (सीताकांत महापात्र की पंक्तियों के साथ छेड़छाड़ के लिए क्षमा)
वह बात दो हजार चार की सर्दी की थी जब रजनीगंधा को फिल्म में धकेल दिया गया था, अब नई सदी ने एक दशक पूरा कर लिया है और शिरीष भी बेमन से एल.एल.बी. का कोर्स पूरा कर के भैया की तरह काला कोर्ट पहन कर वकालत करने लगा था। काले कोर्ट की चमक से एक बार तो उसे लगा कि फिर से उसकी दुनिया बन सकती है। फिर से वो अपने अतीत और हादसे से मुक्ति पा कर अपने अस्तित्व को बचा सकता है। लेकिन कोर्ट जाते हुए उसे तीन-चार महीने भी नहीं हुए थे कि उसे लगने लगा कि वो कहाँ जा रहा है। ऐसी हालत में वो इलाहाबाद के साहित्यिक मित्रों से फोन पर बातचीत कर के दिल को बहला लेता। आखिर दिल को कब तक बहलाया जा सकता है? यह सवाल दिनों पर दिन उसके लिए मुश्किल पैदा कर रहा था। इसी उलझन में फिर से उसने अपनी शादी कैंसिल कर दिया था। कभी कभी उसे इच्छा होती कि किसी ऐसी जगह चला जाए जहाँ उससे किसी का वास्ता ना हो। उसे हिमालय पर बसे साधु-संतो का खयाल आ जाता।
ऐसे ही किसी खयाल में डूबा वह एक दिन कोर्ट जाना स्थगित कर देता है और फेसबुक पर हर बार की तरह रजनी की तलाश करता है और हर बार की तरह उसे निराशा ही हाथ लगती है। इस बार ना जाने क्यों उसके मन में आता है कि रजनी को लेकर कुछ अपडेट करे। बहुत सोचने समझने के बाद वो अपडेट में करता है, 'संगम पर जो सरस्वती के अलावा एक और धारा नहीं दिखाई दे रही है वो लैला है।'
अगले दिन जब अपना एकाउंट चेक करता है तो पाता है कि कुछेक लाइक करने वाले लोगों में लैला नाम की एक लड़की भी है। वह तुरंत उस लड़की के प्रोफाइल को खोलता है। प्रोफाइल पिक्चर में लड़की की तस्वीर की जगह पहाड़ और घने जंगल का सिनारियो था। एलबम में भी सात आठ तस्वीरें थीं जिसमें सब सिनारियों वाली ही थीं। एबाउट के बारे में बस इतना जिक्र था कि फ्रॉम इलाहाबाद और लिव्स इन मुंबई दर्ज था। इससे ज्यादा कुछ डिटेल्स भी नहीं था। देखने से पूरा फेक प्रोफाइल लगता था। फिर भी वह सोचने लगा कि आखिर जब मैंने इस लड़की को अपना फ्रेंड बनाया होगा तब इस नाम को लेकर इतना क्यों नहीं चौका था। वो तुरंत प्रोफाइल के मैसेज में टेक्सट करता है कि तुम रजनी हो ना? मैं शिरीष। कहाँ हो तुम? देखों तुम क्यों छुप के रह रही हो? मैंने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं खोजा। प्लीज मुझ से एक बार बात करो। फिर अपना नंबर देता है और उसके रिप्लाई का इंतजार के बारे में सोचता ही है कि उधर से रिप्लाई आ जाता है।
बहुत सारे सवाल, हर सवाल के आधे पौने जवाब फिर भी पूरे जवाब की कोई चाहत नहीं। रजनी जानते हुए भी कि शिरी फेसबुक पर मौजूद है क्यों नहीं तब उससे बातें की। यह सवाल ऐसा था जिसके कई जवाब रजनी के पास थे फिर भी उसने इतना कहा कि मैं हर पत्रिकाएँ पलटती रही। कहीं तुम नहीं दिखे। मैं देखना चाह रही थी कि तुम जो लिख रहे हो उसमें मैं किस तरह से दर्ज हूँ। लेकिन तुम तो कहीं दिखे नहीं। फिर मैं किस लिहाज से मानूँ कि तुम मेरे रह गए हो। जब मैं बुरी तरह फँसी हुई थी और तुम हँसते हुए जिस तरह से मुझे अनदेखी किया था उसके बाद मैं क्या कह सकती थी। तुम चाहते तो सब रोक सकते थे। लेकिन जब तुमने आज का अपडेट लगाया तो मुझे लगा कि एक तुम ही हो जो मेरी शुरुआत को जानते हो।
इस चैट के बाद शिरी को समझ में नहीं आता कि क्या कहे। अपनी उलझन के साथ टाइप करता है - 'मैं आ जाऊँ?' तो चैट का धराप्रवाह सिलसिला एकदम गायब हो जाता है। शिरी इंतजार करते हुए, क्या हुआ, क्या हुआ... कहाँ चली गई... प्लीज... अच्छा चलो ना ही कह दो, जैसी बातें टाइप करता रहा। फिर भी उधर से कोई रिप्लाई नहीं आया। अगले दिन भी नहीं आया। शिरी को अफोसस हो रहा था कि इस दरमियान उससे उसका फोन नंबर क्यों नहीं माँग लिया।
शिरी आने वाले दो दिन तक बिना रिप्लाई का मैसेज करता रहा और तीसरे दिन मुंबई में था। मुंबई में सी.एस.टी. स्टेशन पर पहुँचकर टेक्स्ट करता है मैं मुंबई में हूँ। कहाँ आना है मुझे? तुरंत रिप्लाई आता है
- कब जाओगे ?
- तुम से मिलने के बाद।
- तो फिर लौट जाओ।
- क्यों?
- मैं जानती थी कि तुम हमेशा के लिए आए हो।
- मान लो हमेशा के लिए ही आया हूँ।
- मान लो नहीं। साफ साफ बताओ मैं पहले की रजनी नहीं रह गई हूँ।
- जब ये बात है तो मैं लौट जाता हूँ। जाऊँ?
- हाँ यहीं अच्छा रहेगा तुम्हारे लिए?
- अरे यार मैं स्टेशन पर धक्के खा रहा हूँ।
- आसपास किसी होटल में ठहरो मैं आ रही हूँ।
फिर से दोनो मिले किसी फिल्मों में बिछड़े यार की तरह। लेकिन यह जिंदगी थी और जिंदगी सुखद अंत पर खत्म होती फिल्म से अपनी सहमति जताते हुए भी यथार्थ के सिरों से अपने को मुक्त करने के लिए बेचैन थी लेकिन इतना साफ हो चुका था, कम से कम रजनीगंधा के तरफ से कि उसके पास शिरी के आ जाने से उसे ऐसा लगता है कि मुंबई में एक इलाहाबाद भी रहता है।
(आप की तरह मैं भी सोच रहा हूँ कि रजनी ने कहानी में उस हिस्से को क्यों गायब कर दिया जब इलाहाबाद उससे छुड़वा दिया गया था? फिर इलाहाबाद छोड़ने के बाद वाले हिस्से में मुझे ही क्यों रखा? जबरदस्ती का नायक मुझे क्यों बना रही थी? इसलिए कि उसे एक ऐसा लड़का प्यार करता था जो एक अरसे तक साथ रहने के बाद भी उसके साथ सेक्स नहीं किया था? जो उसका साथ पाकर बिल्कुल बदल गया था? उसके अनुसार यह मान भी लिया जाय कि उसकी चाह में मैं बिल्कुल बदल गया था लेकिन पता नहीं मेरे अंदर कौन सी कील गहरे तक धँसी थी कि यह समझ जाने के बाद भी कि अब तक किसी घोषणापत्र में नहीं था उन गर्भों को खत्म करने की बात जो बड़ा हो कर प्रतिरोध कर सकता था, फिर भी जब ऐसे घोषणापत्र रचने वाले मुखिया को मार दिया गया था तो मैं दिनभर टी.वी. देखता रहा और अपनी आँसू दबाने की कोशिश करता रहा। यहाँ बताने की जरूरत नहीं कि दबाए हुए आँसू कहाँ से और कैसे फूटते हैं। हर बाइट, हर सॉट, हर ब्रेकिंग पर टीवी से पूछता रहा कि ऐसे मुखिया पैदा हुए ही क्यों? कौन पैदा किया था? सरकार कौन थी? लोकतंत्र था या राजतंत्र? क्या कोई तंत्र समाज को बदलता है? कौन था तब बिहार का राजा? क्या उसके सिपाही सब कुछ रोक सकते थे? गरीबों का मसीहा अपने गरीबों को बचा सकता था? उन्हें लौटा सकता था उनकी जमीन? उनके श्रम की कीमत दे सकता था अपने तंत्र से? अगर वो देता तो सारा कुछ वैसा ही होता? क्या जमीन के कुछ टुकड़े हासिल करने से ज्यादा आसान है किसी राज्य का मंत्री बनना? तभी तो मंत्री की संख्या बढ़ रही है और उनकी जमीने भी। कैसे और वो क्यों हो गया इतना कमजोर? या फिर सारा कुछ मेरे और मेरे भैया की तरह इतना कमजोर और आम था जो अपनी माँ और भाई तक को बचा नहीं सकते थे? उन गरीबों के मुखियाओं की हत्या हुईं, उन्हें जेल में भरा गया तब टीवी क्यों चुप और उदासीन रहा? क्यों? क्यों? क्यों?
सबसे ज्यादा तो वह मुझे जानती थी। फिर क्यों उसने मुझ पर फोकस किया? कैसे वह मुंबई हिरोइन बनने चली आई? आप सब की तरह मैं भी कहीं से नहीं पकड़ पाया था और नाहीं उसने कभी मजाक में कभी कहा था कि उसे हिरोइन बनना है? उसे पेंटिंग करना अच्छा लगता था। कैरियर को लेकर बहुत ज्यादा सेंसेटिव कभी नहीं थी। और सबसे बड़ी बात कि क्या वह इस कहानी को इसलिए पेश करना चाहती थी कि इस कहानी पर प्रोड्यूसर फिल्म बनाना चाहता था और इस कहानी से मैं बतौर राइटर मेरी पहचान बनने वाली थी? वह अपने प्रेमी को मदद करना चाहती थी या फिर वह भी अपने साथ हुई घटना को बेचकर आगे बढ़ जाना चाहती थी और अपने कद को इतना ऊँचा कर लेना चाहती कि इलाहाबाद की घटना को उसकी जिंदगी में दुर्घटना की तरह देखा जाय? ये सारे सवाल आपको खटक रहे होंगे लेकिन मुझे सबसे ज्यादा यह बात खटक रही है जहाँ कहानी खत्म होने के आखिर में लिखती है कि, 'रजनीगंधा के पास शिरी के आ जाने से उसे ऐसा लगता है कि मुंबई के एक हिस्से में एक इलाहाबाद भी रहता है।' फिर भी मैं अपनी इस खटक को जज्ब करता हूँ और सारे सवाल उसके पास रखता हूँ।)
शिरीष तुम भी...?
इतने सारे सवाल एक साथ मैंने कभी नहीं किया था उससे। शायद इसीलिए इन सारे सवाल को सुनने के बाद इस तरह से मुस्कराई जिसे मैंने कभी नहीं देखा था। यकीन करिए मेरा, मैंने आज तक ऐसी अपरिभाषित मुस्कराहट उसमें क्या, किसी में भी नहीं देखा था। इस मुस्कराहट के कई रंग थे लेकिन वह काला रंग कहीं ज्यादा काला होकर दिख रहा था जब उससे इलाहाबाद छुड़वा लिया गया था। ऐसा लग रहा था कि इस मुस्कराहट में ही उसके सारे रहस्यों के भेद छिपे हैं।
वह मुस्कराकर कर चुप हो गई थी। उसकी मुस्कराहट देखने के बाद मैं विस्मय से उपजे अवसाद से ऐसा भर गया कि मैं चाह नहीं रहा था कि वह आगे कुछ भी बोले या अपने चेहरे तक से कोई प्रतिक्रिया दे। मैं यह भी देख रहा था कि वह धीरे-धीरे कहीं डूब रही है। ऐसा डूबते हुए मैंने कभी नहीं देखा था उसे। यहाँ तक कि मैं कहानी के उस हिस्से में भी उसे ऐसा डूबते हुए नहीं देख पा रहा हूँ जब चैंपियन ने उसके साथ अपनी दुकान में पहली बार जबरदस्ती किया था और दुकान से निकल कर आई थी तो मैं उससे मिला था। तब भी नहीं जब नए साल की शुरुआत में मुझसे मिली थी और मुझ से कुछ कहना चाह रही थी और मैं हँसता जा रहा था।
मेरी घबराहट बढ़ती जा रही थी और मैं झटके में उसे समझाने की कोशिश कर रहा था कि तुमने यह कहानी नहीं लिखी होती तो शायद मैं इतना सवाल नहीं करता। दरअसल तुम्हारी कहानी को मैं और सही से कहीं ज्यादा तटस्थता से गढ़ना चाह रहा हूँ। इस बात पर वह फिर से मुस्कराई थी लेकिन कुर्सी से उठकर बिस्तर पर जाने के क्रम में इस बार मैं उसकी मुस्कराहट को देख नहीं पाया लेकिन मुझे लगा कि यह भी वही मुस्कराहट है। मैं इस बात से एक दम से चकरा रहा था कि अब तक की उसकी सारी मुस्कराहट ऐसी ही थी जिसे मैं कभी नहीं देख पा रहा था।
लेटने के बाद उसके उपर मैंने कमर तक चादर डाल दिया और सॉरी बोलते हुए कहा कि मुझे इतने सारे सवाल एक साथ नहीं करने चाहिए थे। उसने फिर उसी मुस्कराहट के साथ करवट बदल लिया। मैंने अपनी आँखें बंद कर ली और खुद से कहा कि मैंने कुछ नहीं देखा है। फिर तय किया कि इस बारे में एक भी बात नहीं करूँगा। बात को दूसरी तरफ ले जाने के लिए मैंने कहा कि कुछ चाय-कॉफी लोगी। मुझे लगा इस बार भी वह मुस्कराएगी इसलिए पहले से मैंने अपना चेहरा घुमा लिया था। उसने ग्रीन टी के लिए कहा और उठ कर बैठ गई तो मुझे कुछ अच्छा सा लगा और उसे लेटे रहने के लिए कहा। फिर उसने अपने बालों को जूड़ा बनती हुई बोली - कामॉन यार तुम तो अच्छी खासी लड़की को बीमार कर दोगे। मैं कुछ कहने के बजाय पानी उबलने के लिए रख दिया। वह आईने के सामने जा कर खड़ी हो गई। मैं उसके साथ खड़ी उसकी बेचैनी देख रहा हूँ। अपनी बेचैनी को झुठलाने के लिए वह फिर से अपनी बालों को खोल लेती है। और फिर से बालों का जूड़ा बनाते हुए बोली कि शिरी तुमने ध्यान दिया है मैं जुड़ा में ज्यादा अच्छी लगती हूँ। मैं कहना चाह रहा था कि आज तक मैंने तुमको ध्यान देकर देखा ही नहीं लेकिन इसके बदले में मुझे कहना पड़ा कि, 'हाँ ध्यान दिया है जब तुम सो कर उठती हो तो सबसे ज्यादा अच्छी लगती हो।' अब इस इत्तफाक को क्या कहा जाय कि जो मैं कहना चाह रहा था उसके मुँह से सुनना पड़ा - तुम गलत बोल रहे हो। तुमने आज तक मुझ को ध्यान से देखा ही नहीं है।
मैं पानी को खौलते हुए देख रहा हूँ। जब मुंबई आए हुए महीना भर बीत गया था और हमारी दूरियों के बीच की सारी बातों में दुहराव आने लगा कि मुझे अहसास हुआ कि बातें करते करते रजनी को नींद आ जाती और थोड़ी देर बाद मुझे भी। मेरे लिए इससे बड़ी खुशी क्या हो सकती कि मुझे रजनी फिर से मिल गई थी। इलाहाबाद में जहाँ घंटे दो घंटे के लिए कभी छुप कर, कभी किसी बहाने से मिलते वही अब चौबीस घंटा गुणा सातों दिन उसके साथ रहना हो पाता था। मैं इसी खुशी में अपने पागलपन को रोक सकता था। लेकिन रजनी को प्रकृति से सुंदरता की जो नेमत मिली थी उसको उसने और सँवार लिया था। उसकी आभा ही उतनी पागल कर देने वाली होती कि मैं सच में उसे ध्यान से देख नहीं पाता और मेरे अंदर कायदे से रहने वाली बात अखरने लगी थी।
मैं उसकी आभा, उसकी नेमत में शामिल होना चाहाता था और एक शाम जब मुंबई की पहली बारिश आई तो मेरा सब्र जवाब दे गया। वह अलीबाग अपनी फिल्म की शूटिंग पर थी। वह देर रात लौट कर आने वाली थी। मैं उसका इंतजार कर रहा था और इसमें बारिश की धार ऐसी प्रतीत होती मानो मेरे इंतजार का मजाक उड़ाने के लिए बरस रही हो। उसने आते ही मुझे बाँहों में भरते हुए कहा - 'कैसी लग रही है तुम्हें यह बारिश। तुम्हें पता है ऐसी बारिश पूरे चार महीने होंगी। फिर भी तुम बोर नहीं हो सकते।'
पहली बारिश से उसकी खुशी को मैंने एक इशारा समझ लिया था। विस्तर पर जाते ही शूटिंग की किस्से सुनाने लगी कि उसने एक लंबे सीन को दो कट में कैसे पूरा कर लिया। मैं बात आगे बढ़ाने के बजाय थकी होने का वास्ता देकर नींद की ओर ले जाना चाह रहा था कि उसने फिर शुरू कर दिया। मैंने तो छत्तीस घंटे का शेड्यूल पूरा किया है। मैंने चिढ़ते हुए कहा कि तुम बहुत महान हो मेरी मीना कुमारी कम बोलो और सो जाओ। उसने अपना हाथ मेरे उपर रख दिया और कहा कि अच्छा चलो तुम बोलो। मैं सुनती हूँ। मैं बोलने की बजाय उसकी नेमत में खोने लगा। बारिश और तेज हो गई थी। घड़ी की टिक टिक, पंखे कि आवाज और हवा का शोर जो अब तक बारिश की झमाझम के साथ एक अलग ध्वनि उत्पन्न कर रहे थे वो सब किसी शामिल धड़कन की हलचल में दब गए थे। मुझे लग रहा था कि रजनी हवा और मैं जल होता जा रहा हूँ। मेरी साँसें निर्मल तलाब की लहरों जैसी एक नीयत सुर से उठ गिर रही थी। तभी बिचली चमकी और क्षण भर के लिए रजनी का चेहरा चमका उठा। चमकते चेहरे पर आँसू के धार अपने पूरे वजूद के साथ मौजूद थे। मैं इसे उसकी खुशी के आँसू को मान कर उसकी नेमत को एक गति के साथ पाना चाह रहा था कि एक दबी रुलाई से फूटी हिचकी के साथ उसने कहा - 'शिरीष तुम भी...?' यह सवाल क्या था मैं इसके मतलब तक कितना जा सकता था यह दूसरी बात थी। यहाँ पहली बात यह है कि उसने शिरीष कह कर सवाल किया था। मुंबई आने के बाद शिरी के बजाय जब भी उसने शिरीष कह कर मुझसे जो बात करती तो मुझे ऐसा लगता कि अगले ही पल वो मुझसे बहुत दूर जाने वाली है।
'शिरीष तुम भी...' के बाद मैं अपने धड़ से कटकर अलग होते हुए छटपटाती अपनी आत्मा को देख रहा हूँ। 'शिरीष तुम भी...' सुनने के बाद मुझे लगता है कि बारिश कम हो गई है और घड़ी, पंखे और हवाओं के वजूद फिर से एक शोर के साथ नामुदार हो गए हैं। अब इस शोर को दबाने के लिए कोई शामिल धड़कन नहीं थी। एक तरफ चेहरा कर के फफक के रोती रजनी की रुलाई बारिश पर भी भारी पड़ रही थी। वो अपनी दबाती हुई हिचकियों के साथ किसी बाँध से मुक्त हुई नदी की तरह उमड़ रही थी। मैं उसे बाँहों में भरकर बाँध का घेरा बनाता जा रहा था। फिर बाँध तोड़ती फिर घेरा बनाता मैं। वह इस आवेग में बहुत कुछ कहना चाह रही थी। अपनी हर एक रास्ते और उस रास्तों में हजारो मोड़ का जिक्र करना चाहती थी। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं सब सुन लूँ। वह जिस जमीन पर खड़ी थी, मेरा आधार उतना ही रह गया था या मैं उतन ही अपनी जमीन चाहता था। वह जहाँ पर आ गई थी मुझे उसी से मतलब था। मैं उसके इस पड़ाव को ही सबसे सुंदर बनाना चाह रहा था इसलिए बहुत जतन से मैंने रजनी को अगली सुबह के लिए तैयार किया। साथ में रहते तीन साल से ज्यादा हो गया था। दुबारा मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं किसी ऐसी रात में जाऊँ जहाँ से रजनी को बहुत जतन से अगली सुबह के लिए तैयार करना पड़े।
पानी को जलाकर खोया बना रहे हो? रजनी ने पास आकर जब कहा तो मैं देख रहा हूँ कि पानी जल कर एक कप भी नहीं रह गया है। अभी भी वह मेरे पास अपने कमर पर हाथ रखकर खड़ी मुझे ऐसे देख रही थी मानो पूछ रही हो कि क्या सोच रहे थे। लेकिन उसने कुछ पूछा नहीं तो मैं सॉरी कह कर फिर से पानी डाल देता हूँ। अब वह इस बात से चिढ़ रही है कि वह चुप हो कर जो पूछ रही है मैं उसका जवाब क्यों नहीं दे रहा हूँ। मुझे चुप रहना अच्छा लगता है और मैं उबलते पानी में दो चम्मच ग्रीन टी डालकर गैस बंद कर देता हूँ तो रजनी से रहा नहीं जाता - 'कभी कभी तो मुझे तुमसे ही डर लगता है। तुम्हें चल कर एक बार डॉक्टर से मिल लेना चाहिए।'
चूँकि मैं तब से उसकी उलझन को समझ रहा था इसलिए कुछ और कहूँ इससे बेहतर यह लगा कि बात को इस बात की दायरे से बाहर निकाल दू। मैं एक्टिंग के मुद्रा में आ जाता हूँ - 'जहाँपनाह तुम्हारे रहते अगर अपनी मेंटल बैलेंस के लिए किसी डॉक्टर के पास जाना पड़े तो धिक्कार है तुम्हारे साथ रहने का।' वह एक्टिंग को सबसे ज्यादा समझती थी इसलिए उसे भी चुप रहना ठीक नहीं लगा - 'अच्छी एक्टिंग कर लेते हो मेरे हीरो बनने के चांसेस मिल जाएँगे तुम्हें।' उसने बात को एक और मोड़ दिया और मैंने उसके हाथ में ग्रीन टी का कप पकड़ा दिया।
थोड़ी देर पहले रजनी की मुस्कराहट के बाद जो समय भारी हो गया था और अभी जो हल्का होता जा रहा था उसे मैं और हल्के मूड में ले जाना चाह रहा था कि उसने अचानक से मेरे सवालों का सिरा पकड़ते हुए कहा - 'जानते हो शिरीष मैं तुमको कभी अपने उस अहसास के बारे में नहीं बता पाई जिस वजह से मैं यहा आ गई।' मैं उसे यहीं रोक देना चाह रहा था इसलिए बात बदलने के बारे में सोचने लगा। लेकिन वह आगे बढ़ रही थी। 'मैं उस घटना को भुलाना चाहती थी, आगे बढ़ना चाहती थी जैसी बातें जो मैंने तुमको बताई है वो सब झूठ है। इतना सुनने के बाद मैं बात बदलने वाली बात को टाल देता हूँ। वह जारी रहती है - 'जब उस घटना के बाद पापा दिल्ली में पूरे परिवार को लेकर शिफ्ट हुए कि दो चार महीने के बाद एक और खबर बनी थी। एक कश्मीरी लड़की के साथ भी वैसा ही कुछ हुआ था। पाँच-छह महीने के बाद पता चला कि वह लड़की फिल्म कर रही है। तुम सोचोगे कि मैं भी उसकी देखा देखी चली आई। नहीं शिरीष। ऐसा कुछ भी नहीं था और नाहीं मुझे यह पता था और है कि वह लड़की क्यों आई फिल्म में। लेकिन उस कश्मीरी लड़की की खबरों से इतना जरूर हुआ कि मैं उस हादसे से पीछा छुड़ाने के बजाय उसे फिर से देखने लगी।
यह देखना कुछ ऐसा हुआ कि मेरे अंदर यह अहसास भरने लगा कि जिस लड़की को धोखे से फिल्म में उतारा गया हो वही लड़की अगर फिल्म में असल में उतरे तो वह अहसास कैसा होगा। इस अहसास के बारे में सोचो शिरीष एक बार। मैं उस अहसास को जीना चाहती हूँ जिसमें प्रतिशोध से जलता हुआ एक लड़का मुझे प्यार करता हुआ कैसे बदल रहा है। कैसे कोई और लड़का मुझे बाजार की कोई चीज समझकर अपने ग्रिप में लेता है और मैं अपनी कमजोरी के साथ उसका हिस्सा बन जाती हूँ। चेहरा छुपाते और मुझे नई जिंदगी देने के लिए बेचैन अपने परिवार को देखना चाहती हूँ। उस बेचैन बदहवास परिवार के सामने ताली पीटते समाज को देखना चाहती हूँ। मैं उस समय के हर हर्फ को भी खोलना चाहती हूँ जो समय मुझसे छिटक गया है। मैं उस समय में यह दर्ज करना चाहती हूँ कि निराला फिर से कैसे इलाहाबाद में मरते हैं और उसकी खबर किसी को नहीं होती। बस यह अहसास ही यहाँ तक की मेरी यात्रा है। इतना कहने के बाद वह कप को टेबल पर रख के लंबी साँस लेते हुए बिस्तर पर लेट गई। मैंने फिर से उसकी देह पर चादर डाल दिया है। उसकी आँखें बंद हो रही है। वह किसी पेंटिंग में चित्रित किसी अति सुंदर युवती के शव में बदल रही है।
(मैं उस पेंटिंग पर फिर से अपना ब्रश चलाता हूँ। मैं देख रहा हूँ कि एक लड़की जो किसी पेंटिंग में शव की तरह पड़ी थी, धीरे-धीरे उसमें जान आ रही है। मैं उस जान में नई रंगत भरने के लिए ऑक्सिजन बटोरने लगता हूँ कि वह मेरी धड़कन के करीब ला कर मेरे सीने पर होठ रखते हुए कहती है - " ऑक्सिजन से ज्यादा जरूरी है शिरीष इसलिए मैं बिना ऑक्सिजन के भी जिंदा हूँ।" कहानियों के इतिहास में सबसे कमजोर चरित्र होते हुए भी मैं रजनी के लिए खुद को जरूरी मानते हुए अपने वर्तमान को गढ़ने और अतीत को संशोधन के लिए रेखांकित करता हूँ। यह रेखांकन मुझे इतना भा रहा हैं कि होश सँभालने के बाद पहली बार ऐसा लग रहा हैं कि मेरा ध्यान अब साँसों के आरोह अवरोह पर नहीं जा रहा। और इस बात से तो घुल सा जाता हूँ कि मैं " इतना भी" मुक्त हो सकता था !!! आह ! ये मुक्ति ! इससे भी बड़ी प्यास कोई हो सकती है? मुझे अक्सर लगता है कि मुक्ति की एक भीनी प्यास मेरे साथ चल रही हैं। मैं उसकी उँगली पकड़ लेता हूँ। वो मुझे देखती है और मेरी पूरी हथेली को अपने हाथों में लेते हुए कोई राज जानने की तरह पूछती है - क्या है? मेरा ध्यान उसके सवाल से हटकर उस टूटी हुई बोतल पर जाता है जिस पर उसके कदम पड़ने वाले हैं। मैं उसे अपनी तरफ खींच लेता हूँ। फिर बोतल को उठाकर कचरे के डब्बे में डाल देता हूँ। वो निढाल होकर मेरे कंधे पर सर रख के चलने लगती हैं। मैं कहता हूँ कि लहरें करीब आ गई हैं। मेरा जूता भीग रहा है। वो एक इरिटेशन के साथ कहती है भीगने दो। मैं भीगता हुआ लौटता हूँ और रजनीगंधा की कहानी फिर से लिखने बैठ जाता हूँ।)