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आलोचना

समय की विद्रूपताओं का अनूठा चित्रण

सरिता शर्मा


काफ्का ने साहित्य के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है - 'किताब को हमारी आत्मा के भीतर जमे हुए समुद्र की बर्फ को तोड़ने के लिए कुल्हाड़ी होना चाहिए।' कवि, कथाकार, पत्रकार, और फिल्मकार उदय प्रकाश इस समय हिंदी के एकमात्र ऐसे लेखक हैं, जिन्हें सही अर्थों में ग्लोबल कहा जा सकता है। उनका अध्ययन का दायरा बहुत व्यापक है जिससे उनके लेखन में गंभीरता और गहराई आई है। वह सोशल मीडिया में सक्रिय रहते हुए पाठकों और लेखकों की नई-पुरानी पीढ़ियों से सीधा संपर्क कायम किए हुए हैं। अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में उदय प्रकाश ने बताया है 'हमेशा एक महान रचना बेहद सरल होती है। ये आप मान के चलिए। हर रचनाकार का लक्ष्य है अपने समय को, अपने तमाम आयामों को व्यक्त करे और उसके सार्वभौम रूप से उसे व्यक्त करे। और व्यक्त करे ऐसे नहीं कि व्यक्त कर दे। उसके लिए भी एक सौंदर्यशास्त्रीय नियमों के आधार पर अपनी विधा में, जिस विधा में वो व्यक्त कर रहा है। अपनी परंपरा, इतिहास की कसौटी पर उसको व्यक्त करे।'

उदय प्रकाश ने पहले से उपलब्ध शिल्पगत ढाँचे में मौलिक परिवर्तन किए हैं जिसे कुछ लोगों ने जादुई यथार्थवाद कहा है। इसे बेहद निराशाजनक स्थितियों में आशावाद का संचार करना माना जा सकता है। गेब्रियल गार्सिया मार्केज के शब्दों में 'जो अद्भुत यथार्थ संपूर्ण मानव इतिहास में मात्र आदर्शलोक लगता होगा, उसका सामना करने पर, हम, कहानियों के आविष्कारक, किसी भी बात पर विश्वास करने वाले, यह मानने के हकदार हैं कि अभी बहुत देर नहीं हुई है कि हम एक विपरीत आदर्शलोक का निर्माण शुरू करने में लग जाएँ। जीवन का एक नया और व्यापक आदर्शलोक, जहाँ कोई औरों के लिए यह फैसला नहीं कर सकेगा कि वे कैसे मरें, जहाँ प्यार सच्चा साबित होगा और खुशी संभव हो सकती है, और जहाँ सौ साल का एकांत भोगने के लिए अभिशप्त नस्लों को आखिरकार धरती पर हमेशा के लिए दूसरा मौका मिलेगा।' उदय प्रकाश जादुई यथार्थ के संदर्भ में अपना पक्ष रखते हुए कहा है, 'इतिहास में आख्यान या यथार्थ में कल्पना के संश्लेष की यह पद्धति किसी मार्केज की नहीं, हजारी प्रसाद द्विवेदी और मेरी है।' भाषा के नए मुहावरे और बिंबों को किसी विशेष परिभाषा में क्यों सीमित किया जाए? उदय प्रकाश ने अपनी रचनाओं के बारे में बताया है - 'अगर आप ध्यान दें तो मेरी हर कहानी में मिथ्या और सत्य, कल्पना और यथार्थ, स्वप्न और वास्तविकता, अतीत और भविष्य सब आपस में एक दूसरे में घुले मिले रहते हैं। इस हद तक कि उन्हें ठीक-ठीक से पहचान कर अलग कर पाना संभव नहीं लगता। स्वयं मेरे लिए भी।' उदय प्रकाश की ख्याति हर आदमी के सुख दुख से जुड़ने और व्यापक नजरिए की वजह से है। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए हम उनमें खुद को पाते हैं। हमारे मन के भय, असुरक्षा, अन्याय के प्रति आक्रोश लगभग हर कहानी के पात्रों में प्रतिबिंबित होते हैं।

उदय प्रकाश की कुछ लघु कहानियों में कम उम्र में माता-पिता को खोने का दुख बहुत गहनता से अभिव्यक्त हुआ है। उदय प्रकाश ने मौत को बहुत करीब से देखा है। इन कहानियों में मौत गिद्ध की तरह मँडराती रहती है और मौका मिलते ही झपट्टा मार देती है। उदय प्रकाश एक साक्षात्कार में कहते हैं - 'मैंने माँ को स्लो मोशन में मरते हुए देखा... मेरी माँ को मौत धीरे-धीरे खींच रही थी जैसे जेठ की धूप तलब के जल को खींचती है ...और फिर ठीक उसके बाद पिता। उन्हें भी कैंसर ने मारा। मैं नचिकेता की तरह उन्हें बचाना चाहता था। अपना खून देकर। मैंने बहुत बाद में जाना कि मौत को सिर्फ देखा जा सकता है, उसे रोका नहीं जा सकता, उसे टोका नहीं जा सकता... किसी और की मौत में प्रवेश नहीं किया जा सकता है।'

'नेलकटर,' 'डिबिया' और 'अपराध' कहानियों को उदय प्रकाश ने आत्मकथाएँ शीर्षक में शामिल किया है। 'नेलकटर' और 'तिरिछ' में दुख की पराकाष्ठा है। कथानायक अपने माता और पिता से बेहद प्रेम करता है। अपने सामने माता और पिता को अंतिम सफर पर जाते हुए देखता है और उनकी मृत्यु के बाद उनकी स्मृति में उन पर कहानियाँ लिखता है। 'नेलकटर' कहानी में बचपन की स्मृतियों को बहुत बारीकी से उकेरा गया है। इनमें बारिश के दिनों का आत्‍मीय वर्णन मिलता है। 'इसी महीने राखी बंधती है। कजलैंया होती है। नागपंचमी में गोबर की सात बहनें बनाई जाती हैं इनमें। धान की लाई और दूध दोने में भरकर हम साँपों की बाँबियाँ खोजते फिरते हैं।' बीमारी ने माँ की आवाज छीन ली है और वह गले में लगाई गई नली से ही भोजन लेती है और उसी से साँस लेती है। वह ठीक से बोल नहीं पाती है हालाँकि उन्हें घर में सबकी फिक्र रहती है। 'माँ को बोलने में दर्द बहुत होता होगा। इसलिए बहुत कम ही बोलती थीं। उस यंत्र जैसी आवाज में हम माँ की पुरानी अपनी आवाज खोजने की कोशिश करते। कभी-कभी उस असली और माँ जैसी आवाज का कोई एक अंश हमें सुनाई पड़ जाता। तब माँ हमें मिलती, जो हमारी छोटी-सी स्‍मृति में होती थी।' बेटे के मन के किसी कोने में विश्वास बना रहता है कि माँ जीवित रहेंगी। 'उनकी सिर्फ आँखें बची थीं, जिन्हें देखकर मुझे उम्मीद बँधती थी कि माँ कहीं जाएगी नहीं मेरे पूरे जीवन भर रही आएँगी। मैं हमेशा के लिए उनकी उपस्थिति चाहता था।' बच्चा माँ के नाखून तराशता है। जीवन की सबसे दुखद घड़ी में वह कहता है - 'मैंने उनकी एक उगली ही नहीं, सारी उँगलियों के नाखून खूब अच्छे कर दिए। माँ ने अपनी उँगलियाँ देखीं। यह कितना कमजोर और हार का क्षण होता है, जब नाखून जीवन का विश्वास देते हैं। कितने सुदंर और चिकने नाखून हो गए थे।' इसे पढ़ते हुए गीत चतुर्वेदी की कविता 'उभयचर' की यह पंक्ति याद आती है। 'दुर्भाग्य के दिनों में सुंदरता की फिक्र करना कला से ज्यादा जिजीविषा है।' अंत में नेलकटर माँ की तरह खोने के बावजूद कहीं न कहीं विद्यमान है, 'क्‍योंकि चीजें कभी खोती नहीं हैं। वे तो रहती ही हैं। अपने पूरे अस्तित्‍व और वजन के साथ। सिर्फ हम उनकी वह जगह भूल जाते हैं।'

'अपराध' दो भाइयों के रिश्ते की की मार्मिक कहानी है। पोलियोग्रस्‍त बड़ा भाई हमेशा छोटे के साथ रहता है और उसे बहुत स्‍नेह करता है। बड़े भाई का वर्णन सौंदर्यबोध और उसके प्रति छोटे भाई के अगाध प्रेम को दर्शाता है। 'मेरे भाई बचपन से अपाहिज थे। उनके एक पैर में पोलियो हो गया था। लेकिन वे बहुत सुदंर थे। देवताओं की तरह। वे आसपास के कई गाँवों में सबसे अच्छे तैराक थे और उनको हाथ के पंजों की लड़ाई में कोई नहीं हरा सकता था।' एक दिन खेल में बड़े भाई ने छोटे भाई की उपेक्षा की तो छोटे भाई ने गलती से खुद के सिर में चोट लगा ली और घर पर माँ को बताया कि बड़े भाई ने मारा है। इस पर पिता बड़े भाई की बुरी तरह पिटाई करते हैं और बड़ा भाई पिटते हुए अपेक्षा करता है कि छोटा भाई सच बोल दे। लेकिन कथावाचक सच नहीं बताता। बाद में अपराधबोध से ग्रस्‍त छोटा भाई सजा भुगतना चाहता है, माफी माँगना चाहता है, लेकिन बड़े भाई को याद ही नहीं कि ऐसा कुछ हुआ भी था - 'तो इस अपराध के लिए मुझे क्षमा कौन कर सकता है? क्‍या यह ऐसा अपराध नहीं है जिसके बारे लिया गया जो निर्णय था, वह गलत और अन्‍यायपूर्ण था, लेकिन जिसे अब बदला नहीं जा सकता? और क्‍या यह ऐसा अपराध नहीं है, जिसे कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता? क्‍योंकि इससे मुक्ति अब असंभव हो चुकी है।'

'डिबिया' उदय प्रकाश की सबसे पसंदीदा कहानी है। यह अनेकार्थी मनोवैज्ञानिक कहानी है। हम अपने मन को पूर्णतः किसी के सामने नहीं खोल सकते हैं। पूरी कोशिश के बावजूद हो सकता है कोई हम पर विश्वास न करे। कुछ रहस्यों का बने रहना बेहतर है। हालाँकि कहानी की शुरुआत में लेखक पाठकों को विश्वास दिलाता है - 'अगर मुझे अपने अनुभव की सत्यता को प्रमाणित करना है, तो मैं उन लोगों के सामने अपनी उस डिबिया का ढक्कन हटा दूँ, जो वर्ना मुझ पर विश्वास नहीं करते।' कथावाचक ने एक डिबिया में धूप के टुकड़े को बंद कर रखा है, जिसे वह कभी खोलते नहीं। इस कहानी में पुराने घर और बरसात के मौसम का जीवंत वर्णन है। 'जहाँ-जहाँ खपड़ैलें फूट गई होती थीं, वहाँ बरसात का पानी घर के अंदर टपकने लगता था। हम वहाँ खाली बाल्टी रख देते थे। मैंने तभी से उसे इस डिबिया में बंद कर रखा है। मैं जानता हूँ कि वह वहीं हैं, वह हमेशा वहीं है, वह हमेशा वहीं रहेगा।'

'तिरिछ' और 'अरेबा परेबा' कहानियों को पढ़ते हुए विलियम ब्लेक के 'सोंग्स ऑफ इन्नोसेंस और 'सोंग्स ऑफ एक्सपीरियंस' शीर्षकों में शामिल कविताओं में मासूमियत और कटु अनुभवों को व्यक्त करने वाले विरोधाभासी बिंब स्मरण हो आते हैं। उदय प्रकाश ने दोनों तरह के प्रतीकों को एक साथ कई कहानियों में उपयोग किया है। इनमें भयावह यथार्थ में सपनों और कल्पना को मिला दिया गया है। 'तिरिछ' कहानी की शुरुआत में कथानायक बताता है - 'इस घटना का संबंध पिताजी से है। मेरे सपने से है और शहर से भी है। शहर के प्रति जो जन्मजात भय होता है, उससे भी है। पिताजी को तिरिछ काटता है जिसे वे मार डालते हैं, लेकिन जला नहीं पाते, इसके बाद वे शहर के लिए निकलते हैं और उसके बाद शहर में जो कुछ घटता है, वह हृदयविदारक है। कथानायक सपने में बार-बार तिरिछ को देखता है। घर पर सबके लिए मजबूत किले के समान पिताजी तिरिछ के जहर के असर में भटकते हुए अत्यंत दयनीय हो जाते हैं। शहरी जीवन की संवेदनशीलता और विद्रूपता पिताजी की त्रासदी का निर्माण करती हैं। कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आता है, बल्कि हर जगह उन्हें प्रताड़ित किया जाता है। वह लगभग विक्षिप्त हो जाते हैं, रास्ता भूल जाते हैं और मारे जाते हैं। कहानी के अंत में पिता का मरते समय विकृत हो गया चेहरा समाज का विकृत चेहरा था। पिताजी की मदद न करने वाले शहरी लोग तिरिछ से भी ज्यादा जहरीले और खतरनाक हैं। कहानी के अंत में कथानायक कहता है कि असली तिरिछ जंगल से निकल शहर में आ गया है और वह कई रूपों में फैल गया है।

'अरेबा-परेबा' कहानी में मासूम और कमजोर को ताकतवर शातिर लोगों से होने वाले नुकसान को दिखाया गया है। यहाँ भी मौत जीवन से आँखमिचौली करती नजर आती है। यह कहानी कथावाचक की बचपन की स्मृति पर आधारित है। खरगोश कोमलता और मासूमियत के प्रतीक हैं और बग्घा चालाक घातक शत्रु है। कहानी में किस्सागोई उसे और भी पठनीय बना देती है। कथावाचक को सेमलिया ने खरगोशों का जोड़ा दिया था। 'नर्म, मुलायम, भूरी पीठ। मैंने अपनी डरती हुई उँगलियों से उन्हें छुआ। उनके कान खड़े हो गए। उन्होंने चेहरा उठा कर मुझे चौंकते हुए देखा। मेरी उँगलियों के स्पर्श से उनके शरीर में एक सिहरन पैदा हो गई थी।' बच्चा उनसे बहुत प्रेम करता है तथा उन्हें अरेबा और परेबा नाम देता है। रात को बग्घा आकर खरगोश के बच्चों को खा जाता है। कथावाचक का मन बहुत व्यथित होता है - 'भला उन नन्हें-नन्हें खरगोश के बच्चों की क्या गलती थी, जिन्हें अकारण पत्थर के बेजान, बेडौल ढेलों में बदल दिया गया था। न अब वे साँस ले सकते थे, न भूख लगने पर रुई के फाहे से दूध पी सकते थे। पत्थर बने हुए, भीतर से वे कितने बेचैन होंगे। प्यास लगती होगी, तो पत्थर बने वे कितना तड़पते होंगे।' माँ बेटे को समझाने के लिए कहानी सुनाती है और उनकी जगह दो पत्थर रख देती है। एक दिन ये दोनों पत्थर फिर से खरगोश के छौनों में बदल जाते हैं। मगर कथावाचक फिर से खतरे की आहट सुनता है। कहानी के अंत में आज के समय को संबोधित करते हुए पाठकों से सवाल किया गया है जिन पर वे कहानी समाप्त हो जाने के बाद लंबे समय तक विचार करते रहेंगे - 'अब तो अम्माँ भी नहीं हैं, जो उन दोनों छौनों की हत्या के बाद, उनकी जगह पर पत्थर रख दें। और अब तो बग्घों की संख्या भी बहुत ज्यादा हो चुकी है। वे अकेले नहीं, अब तो झुंड और गिरोहों में रहते हैं। मैंने उन्हें बड़ी-बड़ी इमारतों के भीतर, कुर्सियों पर भी बैठे देखा है। संसार का हर कोमल, पवित्र, निष्कवच और सुंदर जीवन इस समय गहरे खतरे के बीच है। आप गौर से देखें, हमारे समय की हर दीवार पर खून के छींटे हैं। आप स्वयं बताइए, क्या मेरे डर का कोई आधार नहीं है? आप यह भी बताइए कि क्या आप इसी तरह चुप देखते रहेंगे और बग्घे वारदात करते रहेंगे?'

इस तरह उदय प्रकाश की कहानियाँ आम आदमी के संघर्ष, शोषण और आशा को उजागर करती हैं। बेबस, टूटते और दमनकारी परिस्थितियों में निराश लोगों के लिए आशा किरण जगाती हैं। उदय प्रकाश इस समय हिंदी के सबसे सशक्त लेखक हैं जो विभिन्न विधाओं में सक्रिय हैं। उनकी रचनाओं के विदेशी भाषाओँ में अनुवाद हिंदी के किसी भी समसामयिक अन्य लेखक से अधिक हुए हैं। उनकी कहानियाँ स्थूल यथार्थ में सूक्ष्म संवेदना और कल्पना के मेल से ऐसा प्रभाव उत्पन्न करती हैं कि कथाकार घटनाओं में शामिल होते हुए दूरी बनाए रखने में सक्षम हो जाता है। तत्काल अति भावुक वर्णन न करके शिल्प के कौशल से कहानियों को सार्वभौमिक बना दिया गया है। उनमें परिवार और हमारे आस-पास के पात्र, नए बिंब और मनोवैज्ञानिक पहलू नजर आते हैं। जमीन से जुड़ी ये कहानियाँ अंत तक पहुँचने तक तत्काल यथार्थ की सीमा से बाहर निकल कर कालातीत हो जाती हैं। कहानी स्वप्न में चली जाती है और खुला अंत कई संभावनाएँ खोल देता है। उदय प्रकाश की एक और विशेषता अनूठे बिंबों का इस्तेमाल करना है। साधारण घटना या व्यक्तित्व का वर्णन इस प्रकार करते हैं कि वे पाठक को हमेशा के लिए याद रह जाते हैं।


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