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जीवनी

सुब्रह्मण्यम भारती : व्यक्तित्व और कृतित्व

मंगला रामचंद्रन

अनुक्रम 18. धनवान व धनहीन के समान रूप से दुलारे पीछे     आगे

भारती की अभिलाषा थी एक महान भारतवर्ष की जिसमें इस देश में कोई दरिद्र न हो, कोई गुलाम न हो, कोई अछूत न हो।

एश की हत्या के बाद जब पुलिस चौकसी और पहरेदारी भारती और उनके साथियों पर बढ़ गई तो पुदुचैरी में लोग उनसे बिदकते थे। पुलिस की पूछताछ से बचने के लिए इन 'स्वदेशी' लोगों से दूर ही रहते। ऐसे समय में भारती के सच्चे मित्र थे सुंदरेश अय्यर, पोन्नु मुरुकेशम पिल्लै तथा शंकर चेट्टियार। मुरुकेशम भारती के घर के करीब ही रहते थे और धनी भी थे। इन्हें फ्रेंच भाषा का अच्छा ज्ञान था और इनका झुकाव नास्तिकता की ओर था। ये भारती के देव भक्ति का मजाक उड़ा कर बस उकसाते भर थे। फिर दोनों में जम कर इस विषय पर बहस होती। इन्होंने भारती और साथियों को धन से मदद नहीं की थी पर अपने खेत की उपज को बहुत ही कम दामों में इनको बेचा करते। साथ ही अपना बड़ा सा घर और उनका परिवार सदैव उन लोगों की सेवा में तत्पर रहता। भारती तो अक्सर ही उन्हीं के घर रुक जाते थे और उनकी छत पर जो एक कमरा था वो भारती का ही हो गया। कई बार तो रात को भी वहीं रह जाते।

मुरुकेशम की पत्नी भारती के नाश्ते, खाने आदि का बहुत ख्याल रखती। उनके दोनों बेटे राजाबहादुर तथा कनकराजा अपनी माँ की तरह भारती की सेवा करते और एक तरह से उनके रक्षक भी बने रहते।

प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने से पहले राजाबहादुर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पेरिस गए हुए थे। शिक्षा पूर्ण कर के जब लौट रहे थे युद्ध तीव्र हो चुका था। घर पर बेटे के स्वागत की तैयारी जोर-शोर से चल रही थी। तभी तार द्वारा सूचना मिली की राजाबहादुर जिस जहाज पर थे उसे जर्मन सेना की तोपों ने तहस-नहस कर दिया है। उसे पढ़ कर पिता तो बेहोश हो गए। भारती ने उन माता-पिता को दिलासा देने के लिए कई तरह के प्रयत्न किए। उसके बाद मुरुकेशम ने बिस्तर ही पकड़ लिया और चंद महीनों बाद इसी दुख में उनकी मृत्यु हो गई।

चमत्कार की बातें तो लगभग सभी ने सुनी है पर देखा बहुत कम लोगों ने होगा। पिता की मृत्यु के 27 वें दिन (सत्तासीवें) राजाबहादुर एकदम ठीक ठाक आ पहुँचे। बाद में ये पांडिचेरी विधानसभा में सन 1951 तक सचिव के पद पर रहे। इन्होंने अपने बेटे का नाम मुरूगेश भारती रखा था।

मुरूगेश पिल्लै का परिवार भारती को स्नेह करता ही था। पर आश्चर्य इस बात का था कि उनके घर काम करने वाली बुढ़िया को भारती पर अपार स्नेह था। यही नहीं उस बुढ़िया के तीनों पुत्र का भी यही हाल था। कई बार भारती अपनी जिद पर आकर अड़ जाया करते थे तब इसी वृद्धा ने उन्हें मनाया।

भारतीजी के कई प्रबुद्ध और प्रभावशाली दोस्त भी थे। इनमें से एक प्रोफेसर सुब्रमण्यम अय्यर थे जो फ्रेंच और अँग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। संस्कृत और तमिल तो जानते ही थे। इनको भागवत-पुराण आदि कथा सुनने का चाव था।

दूसरे दोस्त शंकर चेट्टियार धनी और दयालु थे। अरविंद जी के आने पर अपने घर के ऊपरी मंजिल के कमरे में रहने की सुविधा दी थी। 'स्वदेशी' लोगों के ऊपर उन्हें अपार स्नेह था।

1911-1912 में भारती, अरविंद और उनके साथियों को पुदुचैरी से बाहर करने के लिए एक साजिश रची गई थी। अचानक एक नया कानून बन गया कि पाँच प्रतिष्ठित मजिस्ट्रेट से दस्तखत करा कर पुलिस से सत्यापन कराना पड़ेगा। वरना जो फ्रेंच नागरिक नहीं है उन्हें पुदुचैरी से बाहर निकल जाना होगा। शंकर चेट्टियार को जैसे ही विषय की जानकारी मिली तुरंत जाकर मजिस्ट्रेटों से हस्ताक्षर करा कर सत्यापन भी करवा लाएँ।

आरूमुकम चेट्टियार जिनके नाम से घी का टिन आता था और उसमें रामस्वामी अय्यंगार धन मँगवा लेते थे, बहुत सीधे, सज्जन व्यक्ति थे। इन्हीं के घर एश को मारने वाला माडस्वामी धान के बोरों के बीच में छिपा हुआ था।

भारतीजी ने इन्हीं दिनों कुछ हरिजनों को यज्ञोपवीत धारण करवाएँ। बाकायदा होम, हवन, मंत्रादि के साथ अपने मित्रों की उपस्थिति में ऐसा किया। उनका कहना था, समाज के चार वर्गों में से तीन जब यज्ञोपवीत धारण करता है तो चौथा क्यों नहीं कर सकता। इनमें से एक युवा कनकलिंगम ने एक उत्कृष्ट पुस्तक लिखी 'एन गुरुनादर भारती' (मेरे गुरुवर भारती)। यह पुस्तक सन 1947 में प्रकाशित हुई।

पुदुचैरी प्रवास के दौरान भारती कुछ साधु, स्वामी, संत आदि के संपर्क में आ गए थे। उनकी कुछ बातों से तो भारती ने जीवन के कुछ गूढ़ तत्वों को पाया। पर उनके संसर्ग में उन्हें अफीम की लत लग गई। अपनी गरीबी और पारिवारिक दायित्वों को भूलकर कल्पना लोक में डूबकर कवि कर्म में लगे रहने के लिए भी मानों एक बहाना मिल गया।

भारती के दो और साथियों का उल्लेख करना आवश्यक लगता है। एक सुब्रमण्यम शिवा और दूसरे नेलैयप्प पिल्लै। 'स्वराज्य दिवस' मनाने में तुतूकुड़ी में जो विद्रोह हुआ उसमें व.उ.चिदंबरम पिल्लै, सुब्रमण्यम शिवा, नेलैयप्प पिल्लै तथा स्वदेशी पद्मनाथ अय्यंगार प्रमुख नाम थे। इनको कैद किया गया और मुकदमा भी चला। इस मुकदमे में गवाह के रूप में भारती तथा श्रीनिवासचारी चेन्नै से तिरूनेलवेली जाते थे। सबको जेल हुई थी। जेल से छूटने के बाद नेलैयप्पर एक वर्ष के लिए अज्ञातवास में रहे। इस दौरान चिदंबरम पिल्लै कोयंबतूर की जेल में थे। नेलैयप्पर ने उनसे रहस्यमयी संपर्क बना कर उनकी योजनाओं को मूर्त रूप देने तथा सूचनाओं के आदान-प्रदान में मदद की। ये इंडिया पत्रिका में भारती के सहायक भी रहे और भारती के स्नेह के पात्र भी। भारती इन्हें अत्यंत स्नेह से 'तंबी' अर्थात छोटा भाई बुलाते थे। ये अच्छे कवि होने के साथ ही अच्छे संपादक के गुणों से भी युक्त थे। वैसे भी भारती से सात वर्ष छोटे थे। इन्होंने ही भारती की कविताओं को इकट्ठा कर 1917 में 'लोक गीत' के नाम से प्रकाशित किया। जिसका दूसरा संस्करण भी 1919 में आ गया। इस प्रकार भारती के देश प्रेम और देशभक्ति के गीतों का प्रचार-प्रसार जोरदार तरीके से हुआ। बाद में कुछ और प्रमुख पत्रिकाओं का भार वहन किया तब भी भारती के लेखन को प्रमुखता दी। अपनी सहज सरल लेखन शैली से इन्होंने अपने पाठकों को जीता। इनकी जीवन शैली भी इनके लेखन शैली की तरह सहज सरल और पारदर्शी हुआ करती थी। ये आजीवन ब्रह्मचारी बने रहे। एक कन्या को गोद लेकर उसका लालन-पालन कर विवाह कर दिया था। चेन्नै के भारती नगर में ही रहे और वही प्राण त्यागे।


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