मैं प्रातः जाग कर आकाश को देखता हूँ तो पूर्व में उगते अपूर्व सूर्य को पाता हूँ। चारों ओर मुझे दिन का चमकदार उजाला दिखता है।
कला और विज्ञान दोनों में दक्षता प्राप्त श्री चिन्नस्वामी अय्यर और उनकी सुंदर और बुद्धिमति पत्नी लक्ष्मी को 11 दिसंबर 1882 में प्रथम पुत्र रत्न की प्राप्ति
हुई। हिंदू पंचांग के हिसाब से चित्रभानु वर्ष के कार्तिक मास की 27 वीं दिनांक को मूल नक्षत्र में पुत्र जन्म हुआ। उनका नाम भगवान कार्तिकेय के नाम पर
सुब्रमण्यम रखा गया। उसे घर के व गाँव वाले लाड से 'सुबैया' बुलाते थे। दक्षिण भारत में शिशु के जन्म लेते ही कुंडली (पत्रिका) बनाने की प्रथा है। इस शिशु के
जन्म के समय की ठीक गणना किसी ने नहीं की, जिसके कारण उसकी जन्म कुंडली नहीं बन पाई।
एक कहावत है। 'कक सपमि जव लमंते दक दवज लमंते जव सपमिष्' जो जीवन मिला है उसमें जीवन (जीवंतता) लाइए ना कि जीवन की लंबाई को मात्र वर्षों से बढ़ाइए। सार्थक जीवन
जीने वाले यही करते हैं। जीवन और मृत्यु के बीच के फासले को अपने सद्कर्मों से पाट देते हैं और अपने जन्म को सार्थक कर देते हैं। नन्हें सुबैया से भारती बने
श्री सुब्रमण्यम भारती ने अपने उनतालीस वर्षीय अल्प जीवन यात्रा में ऐसा ही कुछ कर दिखाया।
तमिलनाडु के तिरूनेलवेली जिले में एक छोटा सा गाँव है 'एटैयापुरम'। यहाँ के जमींदार को 'राजा' की पदवी मिली हुई थी। इनके यहाँ विद्वान के रूप में श्री
चिन्नस्वामी अय्यर नियुक्त थे। इन्हीं चिन्नस्वामी अय्यर और इनकी पत्नी लक्ष्मी अम्मांल को दिसंबर 11, 1882 में एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। जिसका नाम
सुब्रमण्यमन रखा गया और लाड से सुबैया बुलाने लगे। श्री चिन्नास्वामी की विद्वता से राजा बहुत प्रभावित थे और इन्हें राजा के प्रसाद में इच्छानुसार आने-जाने की
पूरी स्वतंत्रता थी।
बालक सुबैया का जन्म स्थान अपने पुरखों की जमीन पर न होकर माँ के मायके का हो गया। वो आधा समय अपने घर रहता और आधे समय ननिहाल में। दोनों ही घरों में उसे बहुत
प्यार-दुलार हुआ। उसकी मौसियाँ तो उस पर जान छिड़कती थी। सुबैया की एक बहन और पैदा हुई जिसका नाम भागीरथी रखा गया था। पर वो बचपन में ही काल कवलित हो गई।
लाड-प्यार के इस वातावरण में उस परिवार पर वज्रपात हो गया।
सुब्बैया जब मात्र पाँच वर्ष के थे तो उसकी माँ लक्ष्मी अम्माल का देहांत हो गया। बिन माँ के सुबैया का ननिहाल में और भी अधिक लाड होने लगा। सुबैया के पिताश्री
दो वर्ष तक बालक की देखभाल और घर का जिम्मा उठाते रहे। पर राजा के दरबार में आना-जाना, साहित्य कला में रचना करना, विद्वानों की गोष्ठियों में हिस्सा लेना कठिन
होता जा रहा था। उसके पिता पुनर्विवाह के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। पर आखिरकार दो वर्ष के पश्चात बालक की देखभाल के लिए उन्हें विवाह करना पड़ा। तब सुबैया सात
वर्ष के हो गए थे। ब्राह्मण परिवार की परिपाटी के अनुसार तभी उनका जनेऊ संस्कार भी हुआ। सुब्बैया की विमाता बहुत अच्छे और उदार स्वभाव की थी और उसे सगी माँ की
तरह स्नेह करती थी।