जाके निगम दूध के ठाटा। समुद बिलोवन की माटा।
	ताकी होहु बिलोवनहारी। क्यों मिटैगी छाछि तुम्हारी॥
	चेरी तू राम न करसि भरतारा। जग जीवन प्रान अधारा॥
	तेरे गलहि तौक पग बेरी। तू घर घर रमिए फेरी॥
	तू अजहु न चेतसि चेरी। तू जेम बपुरी है हेरी॥
	प्रभु करन करावन हारी। क्या चेरी हाथ बिचारी॥
	सोई सोई जागी। जितु लाई तितु लागी।
	चेरी तै सुमति कहाँ ते पाई। जाके भ्रम की लीक मिटाई॥
	सुरसु कबीरै जान्या। मेरो गुरु प्रसाद मन मान्या॥81॥
	 
	जाकै हरि सा ठाकुर भाई। सु कति अनत पुकारन जाई।
	अब कहु राम भरोसा तोरा। तब काहूँ को कौन निहोरा॥
	तीनि लोक जाके इहि भार। मो काहे न करै प्रतिपार।
	कहु कबीर इक बुद्धि बिचारी। क्या बस जौ बिष दे महतारी॥82॥
	
	जिन गढ़ कोटि किए कंचन के छोड़ गया सो रावन।
	काहे कीजत है मन भावन।
	जब जम आइ केस ते पकरै तहँ हरि का नाम छुड़ावन॥
	काल अकाल खसम का कीना इहु परपंच बधावन॥
	कहि कबीर ते अंते मुक्ते जिन हिरदै राम रसायन॥83॥
	
	जिह मुख बेद गायत्री निकसै सो क्यों ब्राह्मन बिसरु करै॥
	जाके पाय जगत सब लागै सो क्यों पंडित हरि न कहै॥
	काहे मेरे ब्राह्मन हरि न कहहिं रामु न बोलहि पांडे दोजक भरहिं।
	आपन ऊँच नीच घरि भोजन हठे करम करि उदर भरहिं।
	चौदस अमावस रचि रचि माँगहिं कर दीपक लै कूप परहिं॥
	तूँ ब्राह्मन मैं कासी का जुलाहा मोहि तोहिं बराबरि कैसे कै बनहि॥
	हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूब मरहिं॥84॥
	
	जिह कुल पूत न ज्ञान बिचारी। बिधवा कस न भई महतारी॥
	जिह नर राम भगति नहीं साधी। जनमत कस न मुयो अपराधी॥
	मुच मुच गर्भ गये कौन बचिया। बुड़भुज रूप जीवे जग मझिया॥
	कहु कबीर जैसे सुंदर स्वरूप। नाम बिना जैसे कुबज कुरूप॥85॥
	 
	लिह मरनै कब जगत तरास्या। सो मरना गुरु सबद प्रगास्या।
	अब कैसे मरो मरम सब मान्या। मर मर जाते जिन राम न जान्या॥
	मरनौ मरन कहै सब कोई। सहजे मरै अमर होइ सोई॥
	कहु कबीर मन भयो अनंदा। गया भरम रहा परमानंदा॥86॥
	
	जिह सिमरनि होइ मुक्ति दुवारि। जाहि बैकुंठ नहीं संसारि॥
	निर्भव के घर बजावहिं तूर। अनहद बजहिं सदा भरपूर॥
	ऐसा सिमरन कर मन माहिं। बिनु सिमरन मुक्ति कत नाहिं॥
	जिह सिमरन नाहीं ननकारू। मुक्ति करै उतरै बहुभारू॥
	नमस्कार करि हिरदय मांहि। फिर फिर तेरा आवन नाहिं॥
	जिह सिमरन कहहिं तू केलि। दीपक बाँधि धरो तिन तेल॥
	सो दीपक अमर कु संसारि। काम क्रोध बिष काढ़ि ले मार॥
	जिह सिमरन तेरी गति होइ। सो सिमरन रखु कंठ पिरोइ॥
	सो सिमरन करि नहीं राखि उतारि। गुरु परसादी उतरहिं पार॥
	जिह सिमरन नहीं तुहि कान। मंदर सोवहि पटंबरि तानि॥
	सेज सुखाली बिगसै जीउ। सो सिमरन तू अनहद पीउ॥
	जिह सिमरन तेरी जाइ बलाई। जिह सिमरन तुझ पोह न माई॥
	सिमरि सिमरि हरि हरि मन गाइयै। इह सिमरन सति गुरु ते पाइयै॥
	सदा सदा सिमरि दिन राति। ऊठत बैठत सासि गिरासि॥
	जागु सोई सिमरन रस भोग। हरि सिमरन पाइयै संजोग॥
	जिहि सिमरन नाहीं तुझ भाऊ। सो सिमरन राम नाम अधारू॥
	कहि कबीर जाका नहीं अंतु। तिसके आगे तंतु न मंतु॥87॥
	
	जिह मुख पाँचो अमृत खाये। तिहि मुख देखत लूकट लाये।
	इक दुख राम राइ काटहु मेरा। अग्नि दहै अरु गरभ बसेरा॥
	काया बिमति बहु बिधि माती। को जारे को गड़ले मादी॥
	कहु कबीर हरि चरण दिखावहु। पाछे ते जम को पठावहु॥88॥
	
	जिह सिर रचि बाँधत पाग। सो सिर चुंच सवारहिं काग॥
	इसु तन धन को दया गर्बीया। राम नाम वहि न दृढ़ीया॥
	कहत कबीर सुनहु मन मेरे। इही हवाल होहिंगे तेरे॥89॥
	
	जीवत पितरन माने कोऊ मुएं सराद्ध कराहीं।
	पीतर भी बपुरे कहु क्यों पावहिं कौआ कूकर खाहीं॥
	मोंकौ कुसल बतावहु कोई।
	कुसल कुसल करते जग बिनसे कुसल भी कैसे होई।
	माटी के करि देवी देवा तिसु आगे जीउ देही॥
	ऐसे पितर तुम्हरे कहियहिं आपन कह्या न लेही।
	सरजीव काटहिं निरजीव पूजहि अंत काल कौ भारी॥
	राम नाम की गति नहीं जानी भय डूबे संसारी।
	देवी देवा पूजहिं डोलहिं पारब्रह्म नहीं जाना॥
	कहत कबीर अकुल नहीं चेत्या विषया त्यौं लपटाना।
	जीवत मरै मरै फुनि जीवै ऐसे सुन्नि समाया।
	अंजन माहि निरंजन रहियै बहुरि न भव जल पाया॥90॥
	 
	मेरे राम ऐसा खीर बिलोइये।
	गुरु मति मनुवा अस्थिर राखहु इन विधि अमृत पिओइये।
	गुरु कै बाणी बजर कलछेदी प्रगट्या पर परगासा॥
	सक्ति अधेर जेवणी भ्रम चूका निहचल सिव घर बासा॥
	तिन बिन बाणै धनुष चढ़ाइयै इहु जग बेध्या भाई।
	दस दिसि बूड़ी पावन झुलावै डोरि रही लिव लाई॥
	जनमत मनुवा सुन्नि समाना दुबिधा दुर्मति भागी।
	बहु कबीर अनुभौ इकु देख्या राम नाम लिव लागी॥91॥
	
	जो जन भाव भगति कछु जाने ताको अचरज काहो।
	बिनु जल जल महि पैसि न निकसै तो ढरि मिल्या जुलाहो॥
	हरि के लोग मैं तो मति का भोरा।
	जो तन कासी तजहिं कबीरा रामहि कहा निहोरा।
	कहतु कबीर सुनहु रे लोई भरम न भूलहु कोई॥
	क्या कासी क्या ऊसर मगहर राम रिदय जौ होई॥92॥
	
	जेते जतन करत ते डूबे भव सागर नहीं तारौं रे॥
	कर्म धर्म करते बहु संजम अहं बुद्धि मन जारो रे॥
	सांस ग्रास को दाता ठाकुर सो क्यों मनहुँ बिसारौं रे॥
	हीरा लाल अमोल जमन है कौड़ी बदलै हारौं रे॥
	तृष्णा तृषा भूख भ्रमि लागी हिरदै नाहिं बिचारौं रे॥
	उनमत मान हिरौं मन माही गुरु का सबद न धारौं रे॥
	स्वाद लुभंत इंद्री रस प्रेरौं मद रन लेत बिकारौं रे॥
	कर्म भाग संतन संगा ते काष्ठ लोह उद्धारौं रे॥
	धावत जोनि जनम भ्रमि थाके अब दुख करि हम हारौं रे॥
	कहि कबीर गुरु मिलत महा रस प्रेम भगति निस्तारौं रे॥93॥
	
	जेइ बाझु न जीया जाई। जौ मिलै तौ घाल अघाई॥
	सद जीवन भलो कहाही। मुए बिन जीवन नाहीं॥
	अब क्या कथियै ज्ञान बिचारा। निज निर्खत गत ब्यौहारा॥
	घसि कुंकम चंदन गार्या। बिन नयनहु जगत निहार्या॥
	पूत पिता इक जाया। बिन ठाहर नगर बनाया।
	जाचक जन दाता पाया। सो दिया न जाई खाया॥
	छोड़îा जाइ न मूका। औरन पहि जाना चूका॥
	जो जीवन मरना जानै। सो पंच सैल सुख मानै॥
	कबीरै सो धन पाया। हरि भेट आप मिटाया॥94॥
	
	जैसे मंदर महि बल हरना ठाहरै। नाम बिना कैसे पार उतारै॥
	कुंभ बिना जल ना टिकावै। साधू बिन ऐसे अवगत जावै॥
	जारौ तिसै जु राम न चेतै। तन तन रमत रहै महि खेतै॥
	जैसे हलहर बिना जिमी नहि बोइये। सूत बिना कैसे मणी परोइयै॥
	घुंडी बिन क्या गंठि चढ़ाइये। साधू बिन तैसे अवगत जाइयै॥
	जैसे मात पिता बिन बाल न होई। बिंब बिना कैसे कपरे धोई॥
	घोर बिना कैसे असवार। साधू बिन नाहीं दरबार॥
	जैसे बाजे बिन नहीं लीजै फेरी। खमस दुहागनि तजिहौ हेरी॥
	कहै कबीर एकै करि जाना। गुरुमुखि होइ बहुरि नहीं मरना॥95॥
	 
	जोइ खसम है जाया।
	पूत बाप खेलाया। बिन रसना खीर पिलाया।
	देखहु लोगा कलि को भाऊ। सुति मुकलाई अपनी माऊ॥
	पग्गा बिन हुरिया मारता। बदनै बिन खिन खिन हासता॥
	निद्रा बिन नरु पै सोवै। बिन बासन खीर बिलोवै॥
	बिनु अस्थन गऊ लेबेरी। पंडे बिनु घाट घनेरी॥
	बिन सत गुरु बाट न पाई। कहु कबीर समझाई॥96॥
	
	जो जन लेहि खमस का नाउ। तिनकै सद बलिहारै जाउ॥
	सो निर्मल हरि गुन गावै। सो भाई मेरे मन भावै॥
	जिहि घर राम रह्या भरपूरि। तिनकी पग पंकज हम धूरि॥
	जाति जुलाहा मति का धीरू। सहजि सहजि गुन रमै कबीरू॥
	जो जन परमिति परमनु जाना। बातन ही बैकुंठ समाना॥
	ना जानौं बैकुंठ कहाहीं। जान न सब कह हित हाही॥
	कहन कहावत नहिं पतियैहै। तौ मन मानै जातेहु मैं जइहै॥
	जब लग मन बैकुंठ की आस। तब लगि होहिं नहीं चरन निवास॥
	कहु कबीर इह कहियै काहि। साध संगति बैकुंठै आहि॥97॥
	
	जो पाथर को कहिते देव। ताकी बिरथा होवै सेव॥
	जो पाथर की पांई पाई। तिस की घाल अजाई जाई॥
	ठाकुर हमरा सद बोलंता। सबै जिया को प्रभ दान देता॥
	अंतर देव न जानै अंधु। भ्रम को मोह्या पावै फंधु॥
	न पाथर बोलै ना किछु देइ। फोकट कर्म निहफल है सेइ॥
	जे मिरतक के चंदन चढ़ावै। उससे कहहु कौन फल पावैं॥
	जो मिरतक को विष्टा मांहिं सुलाई। तो मिरतक का क्या घटि जाई॥
	कहत कबीर हौ करहुँ पुकार। समझ देखु साकत गावार॥
	दूजै भाइ बहुत घर घाले। राम भगत है सदा सुखाले॥98॥
	
	जो मैं रूप किये बहुतेरे अब फुनि रूप न होई।
	ताँगा तंत साज सब थाका राम नाम बसि होई॥
	अब मोहि नाचनो न आवै। मेरा मन मंदरिया न बजावै॥
	काम क्रोध काया लै जारौ तृष्णा गागरि फूटी।
	काम चोलना भया है पुराना गया भरम सब छूटी॥
	सर्व भूत एक करि जान्या चूके बाद बिबादा।
	कहि कबीर मैं पूरा पाया भये राम परसादा॥99॥
	
	जो तुम मोकौ दूरि करत हौ तौ तुम मुक्ति बतावहुगे॥
	एक अनेक होइ रह्यो सकल महि अब कैसे भर्मावहुगे॥
	राम मोकौ तारि कहाँ लै जैहै।
	सोधौ मुक्ति कहा देउ कैसी करि प्रसाद मोहि पाइहै।
	तारन तरन कबै लगि कहिये जब लगि तत्व न जान्या॥
	अब तौ विमल भए घट ही महि कहि कबीर मन मान्या॥100॥