मेरे मन मैं पड़ि गई, ऐसी एक दरार।
	फटा फटक पषाँण ज्यूँ, मिल्या न दूजी बार॥1॥
	मन फाटा बाइक बुरै, मिटी सगाई साक।
	जौ परि दूध तिवास का, ऊकटि हूवा आक॥2॥
	चंदन माफों गुण करै, जैसे चोली पंन।
	दोइ जनाँ भागां न मिलै, मुकताहल अरु मंन॥3॥
	(टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
	मोती भागाँ बीधताँ, मन मैं बस्या कबोल।
	बहुत सयानाँ पचि गया, पड़ि गई गाठि गढ़ोल॥4॥
	मोती पीवत बीगस्या, सानौं पाथर आइ राइ।
	साजन मेरी निकल्या, जाँमि बटाऊँ जाइ॥5॥)
	
	पासि बिनंठा कपड़ा, कदे सुरांग न होइ।
	कबीर त्याग्या ग्यान करि, कनक कामनी दोइ॥4॥
	चित चेतनि मैं गरक ह्नै, चेत्य न देखैं मंत।
	कत कत की सालि पाड़िये, गल बल सहर अनंत॥5॥
	जाता है सो जाँण दे, तेरी दसा न जाइ।
	खेवटिया की नाव ज्यूँ, धणों मिलैंगे आइ॥6॥
	नीर पिलावत क्या फिरै, सायर घर घर बारि।
	जो त्रिषावंत होइगा, तो पीवेगा झष मारि॥7॥
	सत गंठी कोपीन है, साध न मानै संक।
	राँम अमलि माता रहै, गिणैं इंद्र कौ रंक॥8॥
	दावै दाझण होत है, निरदावै निरसंक।
	जे नर निरदावै रहैं, ते गणै इंद्र कौ रंक॥9॥
	कबीर सब जग हंडिया, मंदिल कंधि चढ़ाइ।
	हरि बिन अपनाँ को नहीं, देखे ठोकि बजाइ॥10॥514॥