कबीर दरिया प्रजल्या, दाझै जल थल झोल। बस नाँहीं गोपाल सौ, बिनसै रतन अमोल॥1॥
ऊँनमि बिआई बादली, बर्सण लगे अँगार। उठि कबीरा धाह थे, दाझत है संसार॥2॥
दाध बली ता सब दुखी, सुखी न देखौ कोइ। जहाँ कबीरा पग धरै, तहाँ टुक धीरज होइ॥3॥755॥