मैंने अपने जीवन में प्रेम शब्द कक्षा दो में सुना था। उस समय एक लड़के से मेरी गहरी दोस्ती थी। हमारा खाना-पीना-खेलना सब साथ ही था। वह मेरे इस जीवन का पहला दोस्त था। लेकिन धीरे-धीरे हमारे क्लास की लड़कियों ने मुझे समझाना शुरू किया। तुम तो लड़की हो, तुम्हें हमारे साथ रहना चाहिए। उसके साथ रहोगी तो उससे प्यार हो जाएगा और फिर उसी से शादी भी करनी पड़ेगी। प्रेम क्या होता है, मैं नहीं जानती थी। पर शादी। बाप रे बाप। पापा-मम्मी को छोड़ कर रोते हुए दूसरे के घर जाना। नहीं। कभी नहीं। बस। मैंने उस लड़के से दोस्ती तोड़ दी। शायद ऐसा ही कुछ उसे भी कहा गया हो। वो भी मुझसे दूर हो गया। हमारे क्लास में लड़के-लड़कियाँ आपस में बात नहीं करते थे। फिर ये चुप्पी टूटती थी - रक्षा-बंधन से एक दिन पहले। हमारे स्कूल में रक्षा-बंधन मनाया जाता था। सभी लड़कियाँ लड़कों को राखी बाँधती थीं। मुझे किसी को राखी बाँधना पसंद नहीं था। जब मैं मना कर देती थी तो सभी मेरा मजाक उड़ाते कि भैया नहीं तो सैंया बनाओगी। मैं क्लास में अकेली पड़ जाती और फिर मुझे उन लोगों से राखी लेकर बाँधनी ही पड़ती थी। राखी बाँधने के बाद सकारात्मक परिवर्तन यह होता कि इसके बाद हम सभी के बीच की चुप्पी टूट जाती। क्योंकि अब हम भाई-बहन हो गए, अतः अब हममें प्रेम नहीं हो सकता और शादी भी नहीं हो सकती। अब हम आराम के साथ-साथ खेल कूद सकते हैं, बैठ सकते हैं।
जैसे-जैसे हम लोग बड़े होते गए, लड़कों को नाम से पुकारना ही छूट गया। किसी भी लड़के को भैया ही कहकर पुकारते थे। ताकि कोई भी हमारे संबंधों को प्रेम की तरफ न मोड़ दे। हाईस्कूल में जब हम एक बालिका विद्यालय में गए तो वहाँ प्रार्थना के समय एक प्रतिज्ञा बोली जाती थी। भारत मेरा देश है और समस्त भारतवासी मेरे भाई-बहन हैं,... लड़कियाँ इस पंक्ति के साथ धीरे से बोलतीं - एक को छोड़कर। अर्थात् उनका एक साथी होगा बाकी सभी भाई होंगे। विश्वविद्यालय स्तर पर भी मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा है, जो एक दूसरे का नाम लेने की बजाय भाई-बहन ही कहना पसंद करते हैं। कई लड़के अपनी प्रेमिका को लोगों से छुपाने के लिए उसे अपनी चचेरी बहन तक बना लेते हैं।
इस संकीर्ण सोच का बहुत बड़ा कारण हमारा परिवार और समाज है। दरअसल परिवार के भीतर सभी स्त्री-पुरुष किसी न किसी संबंध में बँधे होते हैं, जिनसे उनके भीतर निकटता होती है। ये खास संबंध ही भावनात्मक या शारीरिक निकटता की इजाजत देते हैं। बिना संबंधों के निकटता मानना हमारे समाज का प्रचलन नहीं है। 'दोस्ती' नामक रिश्ते को समाज में पवित्र माना गया है। लेकिन सिर्फ समान लिंग में। वह भी तब तक ही जब तक उनमें भावनात्मक निकटता रहे। जैसे ही इनके बीच शारीरिक निकटता आना प्रारंभ हो जाती है, यह संबंध पवित्र न होकर अपवित्र व विध्वंसकारी मान लिया जाता है। इसी कारण से स्त्री-पुरुष के बीच दोस्ती को आज भी खुले मन से मान्यता नहीं दी जाती है, स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम तो अनैतिक ही माना जाता रहा है। पारिवारिक संबंधों के बाहर किसी से भी मानवीय संबंध बनाने के लिए हमारे पास विकल्पों का अभाव है। और जब कोई पूछता है कि यह अमुक जो तुम्हारे परिवार का सदस्य नहीं है, तुम्हारा कौन लगता है, तो हम चुप हो जाते हैं। या फिर जो जवाब हम देते हैं, वह अनैतिकता के दायरे में आ जाता है अथवा हम पुनः उसे अपना पारिवारिक अंग बना लेते हैं।
आखिर क्या कारण है कि हमेशा परिवार के अलावा बाहरी संबंधों में हम रीते हैं? क्यों किसी बाहरी को अपना बनाने के लिए एक अदद पारिवारिक नाम देना आवश्यक हो जाता है? परिवार के बाहर बने स्त्री-पुरुष संबंध चाहे वह प्रेम हो, दोस्ती हो या अन्य कुछ, अवैध या अमान्य क्यों हैं? इसका उत्तर हमें स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों व उनसे समाज की निर्मिति की राजनीति को जाने बगैर नहीं मिलेगा। समाजरूपी वृक्ष जिस रूप में आज खड़ा हुआ है, उसे पोषण तभी मिल सकता है जबकि स्त्री-पुरुष संबंध समाज के अनुरूप ही चलते रहें।
इस सृष्टि के हर प्राणी के भीतर अपने मेटिंग साथी के चयन की अपनी अलग पसंद होती है। देशकाल, वातावरण, परिस्थिति, पसंद-नापसंद, व्यवहार, विचार, संस्कृति, समाज आदि बहुत सारी बातें कुछ हद तक चयन में प्रभावी होती हैं, जो कि बहुत सामान्य है। इन सारे कारकों में एक या अधिक कारक मेटिंग साथी के चयन पर ज्यादा प्रभावी भी हो सकते हैं, जिसके लिए व्यक्ति अन्य कारकों की उपेक्षा भी कर सकता है। अपने मेटिंग साथी का चयन करना व उसकी प्राप्ति एक गजब के आत्मविश्वास को जन्म देता है। प्राणी को अपने अस्तित्व का, अपने होने का अहसास कराता है।
लेकिन यह आत्मविश्वास समाज के लिए बहुत घातक होता है। इसे मै डॉ. उमा चक्रवर्ती द्वारा दिए शब्द ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को इस विमर्श में लाकर स्पष्ट करना चाहूँगी। दरअसल हमारा समाज (भारतीय समाज) ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से संचालित होता है। ब्राह्मणवाद से तात्पर्य सिर्फ हिंदुओं या पंडितों के साम्राज्य की बात करना नहीं है बल्कि इससे तात्पर्य एक ऐसी पद्धति की बात करना है जिसमें समाज ढेर सारे वर्गों एवं जातियों में विभक्त होता है। धर्म चाहे कोई भी हो उसके कुछ धार्मिक पैरोकार समाज के शीर्ष पर बैठे होते हैं, वहीं बहुत सारे लोग समाज के एकदम निचले स्तर पर। उमा चक्रवर्ती इस व्यवस्था को अपनी 'जेंडरिंग कास्ट' पुस्तक में स्पष्ट करने के लिए एक पिरामिड का उदाहरण देती हैं। 'जहाँ शीर्ष पर बहुत कम स्थान होता है, और जैसे-जैसे आधार की ओर बढ़ते जाओ स्थान बढ़ता जाता है। उसी प्रकार समाज में भी सत्ता के शीर्ष पर चंद लोग होते हैं, जो सारे लाभों और सहूलियतों पर अपना अधिकार रखते हैं, वहीं आधारीय लोग जीवन की मूलभूत जरूरतों के लिए भी तरसते रहते हैं।' अभावों के साथ-साथ एक बात और आती है, वह है पवित्रता और प्रदूषण की। वर्ग से ज्यादा यह बात जाति में आती है। जैसे-जैसे जाति के स्तर पर ऊपर उठते जाते हैं, पवित्रता बढ़ती जाती है और जैसे-जैसे नीचे आते जाते हैं, अपवित्रता बढ़ती जाती है। जाति या वर्ग को लेकर ऊँच-नीच की भावना अधिकांश धर्मों में रहती है।
वहीं दूसरी ओर 'पितृसत्ता' एक ऐसे समाज का निर्माण करती है जिसमें उच्च वर्ग, व उच्च जाति के पुरुषों के हाथ में 'सत्ता व समाज' की बागडोर रहती है। सारे अधिकार जो किसी को लाभान्वित कर सकते हैं, वे इन्हीं के पास रहते हैं। जैसे-जैसे वर्गगत या जातिगत निम्नता आती जाती है, लाभान्वित करने वाले अधिकार इनसे छिनते चले जाते हैं। जो जितना अपवित्र माना जाता है, उसके पास उतने ही कम अधिकार होते हैं और समाज का तथाकथित पवित्र माना जाने वाला तबका अधिकांश संसाधनों को अपने पास कब्जा कर रखता है। इन सब में स्त्रियों को ज्यादा समस्या का सामना करना पड़ता है, क्योंकि वे वर्गगत जातिगत भेद के साथ-साथ लिंगगत भेद का दमन भी सहन करती हैं। इस प्रकार पितृसत्ता नामक यह व्यवस्था एक ऐसी प्रणाली का निर्माण करती है, जिसमें पुरुष को स्त्री की प्रजनात्मकता, कार्य-क्षमता, गतिशीलता, संपत्ति, यौनिकता आदि को अपने नियंत्रण में रखने व अपनी जरूरत के अनुसार व्यय करने का अधिकार मिल जाता है।
ये बातें यहाँ स्पष्ट करना मैं इसलिए जरूरी मानती हूँ क्योंकि प्रेम के प्रति प्रचलित धारणा का संबंध इनसे बहुत गहरा है। समाज का जो उच्च वर्ग, उच्च जाति का पुरुष-समाज है, वह अपने हाथ में आई सत्ता-संपदा को किसी भी हाल में किसी दूसरे को स्थानांतरण नहीं करना चाहता। इसके लिए वह अपनी श्रेष्ठ स्थिति का सहारा लेता है और यह श्रेष्ठ स्थिति तभी तक बनी रह सकती है, जबकि उसके वंश की रक्त-शुद्धता बनी रहे। क्योंकि जातिगत श्रेष्ठता का गहरा संबंध रक्त-शुद्धता से होता है। इसके लिए स्त्रियों का एकनिष्ठ होना बहुत आवश्यक है। इसके लिए उनके ऊपर नियंत्रण का सहारा लिया जाता है ताकि उनकी यौनिकता को नियंत्रित कर रक्त-शुद्धता प्राप्त की जा सके। इसके लिए उनके संबंध एक खास समूह के भीतर ही किए जाते हैं, भले ही स्त्रियों की अनिच्छा ही इस संबंध के लिए क्यों न हो। इन प्रक्रियाओं से लोग अपनी जाति की तथाकथित पवित्रता बना कर सत्ता संबंधों में परिवर्तन रोकने का प्रयास करते हैं और स्वयं सत्ता के शीर्ष या केंद्र का आनंद उठाते हैं।
लेकिन प्रेम या मुहब्बत इस पूरी सामंती या ब्राह्मणवादी व्यवस्था में दरारें डाल देता है। स्त्री-पुरुष के बीच पनपा प्रेम संबंध एक तीव्र आकर्षण के साथ-साथ उनके अस्तित्व में जो कुछ भी रीतापन होता है (वैसे रीतेपन को आगे स्पष्ट करूँगी कि यह भी कितना जेंडरीकृत है) उसे भरता है। मेरा मानना है कि प्रेम अचानक होने वाली चीज नहीं है बल्कि वह धीरे-धीरे होने वाली प्रक्रिया है जिसमें कोई व्यक्ति अपने मन के भीतर बसी छवि की तलाश पूरी होने के बाद ही करता है। व्यक्ति अपने मेटिंग साथी में जिस गुण की सबसे ज्यादा चाहत रखता है, (जो कि उसकी सामाजिकी से बहुत प्रभावित होती है) वह सामने वाले में दिख जाने पर 'लव एट फर्स्ट साइट' का भी कारण बन सकती है और धीरे-धीरे पता चलने के बाद प्रेम में बदलने वाले संबंध में भी। अतः मैं मानती हूँ कि प्रेम कभी भी किसी से भी, किसी भी उम्र में, किसी भी वर्ग या जाति में हो सकता है और यही सबसे बड़ा कारण है सामंती व्यवस्था के ढाँचे के टूटने का। जैसे ही स्त्री या पुरुष वर्ग जातिगत बंधन तोड़ कर अपने संबंध स्थापित करने लगते हैं वैसे ही उच्च जाति, पवित्रता व सत्ता व्यवस्था चरमराने लगती है। अतः इस बात पर खास सामाजिक नियंत्रण रखा जाता है कि स्त्री-पुरुष के बीच पारिवारिक या सामाजिक स्वीकृति के बगैर कोई संबंध न बन सके। इनमें भी वे कुछ संबंध दंड के विशेष भागी बनते हैं, जो 'विलोम' प्रेम संबंध को लेकर चलते हैं। इसमें उच्च जाति की लड़की को निम्न जाति के लड़के से प्रेम करना किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इस संबंध की कीमत लोगों को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। 'अनुलोम' प्रेम संबंध में कभी-कभी प्रेमी-प्रेमिका को स्वीकार कर लिया जाता है। इसका कारण है कि अनुलोम संबंध में बाहरी स्त्री को शुद्ध करके अपनाया जा सकता है, व उत्पन्न संतति को पुरुष अपना नाम दे सकता है (इसमें भी काफी समस्याएँ आती हैं।) लेकिन विलोम संबंध में उच्च जाति के लोग यह सहन ही नहीं कर पाते कि हमारी श्रेष्ठ जाति की स्त्री निम्न जाति या गैर धर्म के पुरुष का बच्चा पैदा करे। अतः लोगों में इस प्रकार के संबंधों को रोकने के लिए समाज इतने कठोर दंड रखता है कि लोग भूलकर भी इस व्यवस्था के विरोध में कोई संबंध न बनाएँ।
अनुकूल जीवनसाथी की तलाश पुरुष और स्त्री दोनों के लिए स्वाभाविक है। किंतु प्रेम पात्र को चयन करना या उसे अपने अनुकूल चाहना ये सारी प्रक्रिया स्त्री-पुरुष के बीच एक गहरे भेदभाव को जन्म देती है। स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम को लेकर जिस प्रकार की सोच उत्पन्न होती है वह स्त्री-पुरुष के लिए बने अलग-अलग सामाजिक नियमों से बहुत प्रभावित होते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि प्रेम या प्रिय पात्र की जो छवि हमारे मन में बनती है, वह जेंडरीकृत होती है, जो स्त्री-पुरुष को समानता के धरातल से और दूर कर देती है।
यदि प्रेम के प्रति एक शुरुआती समझ की बात करें, तो इसका प्रारंभ हमारी बचपन की उन कहानियों से ही हो जाता है, जो हमारी दादी-नानी हमको सुनाती हैं। ये कहानियाँ परियों की तरह सुंदर राजकुमारी और अप्रतिम सौंदर्य के धनी किसी दूर देश के राजकुमार की वीरता के संयोग और प्रेम में परिणति की होती हैं। सुखांत प्रेम की ये कहानियाँ अपनी प्रभावशाली किस्सागोई के कारण बालमन पर प्रेम की प्रारंभिक छवियाँ उकेरती हैं। कई कहानियों में सुंदर गरीब लड़की को भी राजकुमार मिल जाता है। सिंड्रेला के हिंदी रूपांतरण 'राखी' में बच्चों को प्रेम, सौंदर्य, सौम्यता और त्याग का पाठ प्रभावशाली ढंग से पढ़ाया गया है।
इन कहानियों में अक्सर गोरा, लंबा-चौड़ा, खूबसूरत तेज घोड़े पर चलने वाला एक राजकुमार होता है। वहीं दूसरी तरफ परियों-सी खूबसूरत, सुंदर बालों वाली, गोरी कोमल राजकुमारी होती है। और होता है एक काला मोटा, डरावना राक्षस जो राजकुमारी को जबरदस्ती उठा कर ले जाता है। तब राजकुमार जंगलों और समुद्रों को पार करके राक्षस के किले में जाता है और उसे मारकर राजकुमारी को मुक्त कराता है। उसके बाद राजकुमार राजकुमारी की सुंदरता से प्रसन्न हो जाता है, और राजकुमारी उसकी वीरता से। दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगते हैं और शादी करके खुशी से रहते हैं (ध्यान दिया जाए कि इस कहानी में प्रेम सुखांत है क्योंकि यहाँ वर्गगत या जातिगत असमानता नहीं है।) कई बार राजकुमार या राजकुमारी की कहानी सुनाते समय इन पात्रों के स्थान पर कहानी सुनते बच्चों का नाम दादी-नानी द्वारा ले लिया जाता है। कहानी के पात्रों में अपना नाम सुनते ही बच्चे उसी भावना से ओतप्रोत हो जाते हैं। इस प्रकार ये कहानियाँ बालमन पर प्रेम की कुछ लकीरें खींचना प्रारंभ कर देती है। जब उनके घरों में किसी की शादी होती है तब अक्सर छोटे लड़कों से कहा जाता है कि भाई तुम्हारी भी शादी कर देंगे, तुम भी घोड़े पर बैठकर दुल्हन लेने जाना। घोड़े पर बैठना उसे राजकुमार जैसा एहसास कराने लगता है। इस प्रकार एक पुरुषत्व की भावना उसके मन में आ जाती है। जबकि लड़कियों को दुल्हन बनाने के सपने अक्सर बातों-बातों में परिवार द्वारा दिखा दिए जाते हैं। अक्सर छोटी बच्चियों से लोग कहते हैं कि तुझे तो घोड़े पर बैठकर एक सुंदर सजीला राजकुमार लेकर जाएगा और बहुत प्यार से महलों में रखेगा। बस यहीं से लड़कियों के भीतर स्वावलंबिता का भाव मर जाता है। उन्हें बस राजकुमार का इंतजार करना ही ज्यादा प्रिय लगता है। अब राजकुमार को पाने के लिए स्वयं को राजकुमारी भी बनाना पड़ेगा। आर्थिक स्तर पर न सही सौंदर्य के स्तर पर ही सही (कई कहानियों में सुंदर गरीब लड़की को भी राजकुमार मिल जाता है) सौंदर्य की भावना भी बच्चियों में बचपन से ही विकसित होने लगती है। जहाँ लड़कियों को दूध दिया जाएगा तो ये कहकर कि इससे तुम गोरी और सुंदर हो जाओगी वहीं लड़कों को यह कहकर दूध दिया जाता है कि तुम इससे ताकतवर और बहादुर बन जाओगे। इन्हीं बातों की पुष्टि हमारी कक्षा की पुस्तकों से भी होती है। इनमें दर्ज कहानियाँ हमें संबंधों के बारे में बताती हैं और लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग गुणों की स्थापना करती हैं। खासतौर पर मैं छोटी कक्षा में पढ़ाने वाली कहानी 'राखी' का जिक्र करना चाहूँगी जो कि सिंड्रेला की कहानी का हिंदी रूपांतरण है।
इस कहानी ने छोटी बच्चियों के मन में प्रेम, प्रेमी व उसके ऊपर निर्भर होने की काफी गहरी सोच बनाई होगी, ऐसा मेरा मानना है। इस कहानी ने पहले तो अच्छी लड़की, बुरी लड़की के लिए अलग-अलग साँचे का निर्माण किया। जिसमें अच्छी लड़कियाँ वे हैं, जो बहुत सौम्य, सरल, सीधी-साधी, मेहनतकश और दमन सहने वाली हैं। जबकि खराब लड़कियाँ घर का कोई काम काज नहीं करतीं और दिनभर घूमती फिरती हैं। जब राखी को जादूगरनी सजा सँवारकर राजकुमार की पत्नी के लिए होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिता में भेजती है, तब अपनी सुंदरता के कारण राखी राजकुमार की पत्नी बनने का सौभाग्य प्राप्त करती है। इस प्रकार बच्चियों को सुंदरता की तरफ मोड़ने में इस प्रकार की कहानियों की भी बड़ी भूमिका रहती है। धीरे-धीरे बड़े होने की प्रक्रिया के साथ-साथ फिल्मों का भी बहुत प्रभाव बच्चों और किशोरों पर पड़ता है। जहाँ लड़के हीरो की तरह नायिका की इज्जत बचाना सीखते हैं, वहीं खलनायक की तरह बलात्कार करना भी सीखते हैं। पर अधिकांश नायक ही बनना चाहते हैं क्योंकि वह सबसे ताकतवर और खूबसूरत होता है। कई बार पैसे वाला भी। नायिका भी हमेशा नायक को ही मिलती है। जबकि लड़कियाँ देखती हैं कि इतना ताकतवर, खूबसूरत अमीर नायक एक खूबसूरत नायिका के बच्चों की तरह हँसने, पवित्र होने, और गजब की खूबसूरत आँखों, बालों, हाथों, पतले दुबले शरीर, मदमस्त चाल, झरने जैसे अल्हड़पन पर फि़दा है और उसके चरणों में अपना सब कुछ अर्पण कर प्रेम की भीख माँग रहा है। ये पूरी घटना उसके भीतर स्वयं को खूबसूरत बनने पर विवश कर देती हैं या मानसिक स्थिति बना देती है। लड़कियों को अपने परिवार में कभी भी किसी पर आधिपत्य दिखाने का मौका नहीं मिलता। बचपन से लेकर ही उनका जीवन समझौतों के आधार पर खड़ा होता है। वे देखती हैं कि अपनी खूबसूरती के आधार पर वे एक व्यक्ति के ऊपर अपना आधिपत्य स्थापित कर सकती हैं उसे अपने कदमों में झुका सकती हैं। बाकी स्तरों पर आधिपत्य स्थापित करने जैसे शिक्षा या रोजगार के मौके महिलाओं को बहुत कम ही मिले हैं। अतः राखी की तरह राजकुमार को पाने के लिए सुंदरता को ही मापदंड मान लिया जाता है। अतः प्रेम बहुत हद तक सौंदर्य के आकर्षण पर टिका होता है। प्रिय पात्र की छवि पर सुंदरता का प्रभाव बहुत होता है।
प्रेम जिस रूप में समाज में प्रचलित है वह भले ही अहिंसा का पर्याय हो पर अपने प्रचलित रूप में बहुत हिंसक है। खासतौर पर स्त्री-पुरुष संबंधों में तो क्या कहना। हम किसी से प्रेम करते ही इसीलिए हैं कि किसी को पूरी तरह से अपना बना सकें या किसी के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएँ। इसमें भी पुरुष स्त्री का समर्पण तो चाहते हैं पर कभी भी किसी स्त्री के लिए पूर्णतः समर्पित नहीं हो पाते। कहा जाता है कि प्रेम में अहम् का विलय हो जाता है। पर वास्तविकता में प्रेम के माध्यम से पुरुषों का अहम् जागता है। वे तभी तक एक स्त्री के प्रति समर्पित भाव उत्पन्न करते हैं, जब तक वे उस स्त्री पर आधिपत्य नहीं जमा लेते। जैसे ही वे उस स्त्री को पूर्णतः अपने नियंत्रण में ले लेते हैं या जीत लेते है। उनका समर्पण भाव घटने लगता है और उनका पुरुष होना ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है। यदि वे उस स्त्री पर अपना नियंत्रण नहीं स्थापित कर पाते तो अपने उस प्रिय पर हिंसा करने से भी नहीं चूकते। देवदास फिल्म में पार्वती के सिर पर जोर से देवदास द्वारा चोट कर लहूलुहान करना दर्शकों को उसके प्रेम में स्वाभाविक ईर्ष्या का प्रकटीकरण लगता है। मनोवांछित साथी की न पर मारपीट, चेहरे पर तेजाब फेंकने से लेकर हत्या तक को पुरुष की मर्दानगी व प्रेम का जुनून मान कर स्वीकृति दे दी जाती है। इसे कभी भी पुरुष होने की मनमानी व दंभ से जोड़कर नहीं देखा जाता। प्रेम में पुरुषों द्वारा स्त्रियों पर हिंसा उनके प्रेम की पराकाष्ठा मान लिया जाता है। कई बार फिल्मों में भी नायिका को स्पर्श या चूमते हुए नायक जितना हिंसात्मक तरीके से लड़की के बाल या कलाई पकड़ कर खींचता है, दर्शक उसकी यह मर्दानगी देखकर रीझ जाते हैं। पर यह उसकी मर्दानगी नहीं उसके मर्द होने का घमंड है कि वह स्त्री को कैसे बलपूर्वक अपनी मुट्ठी में कैद कर सकता है।
वर्ग, जाति, धर्म और लिंग के आधार पर बँटे हुए समाज में प्रेम हिंसा के रूप में प्रकट होने के लिए अभिशप्त है। समर्थ की हिंसा वंचित की प्रतिहिंसा को जन्म देती है। प्रेम को हिंसा और प्रतिहिंसा के इस दुष्चक्र से निकालने के लिए न केवल प्रेम के बारे में, बल्कि सामाजिक संरचना के बारे में नए ढंग से सोचना होगा। बकौल शाहिद सिद्दीकी :
न साथ देगी ये दम तोड़ती हुई शमा
नए चराग चलाओ कि रोशनी कम है।