हो विरत... एकांत में, जब शांत मन से भुक्त जीवन का सहज करने विचारण -
झाँकता हूँ आत्मगत अपने विलुप्त अतीत में -
चित्रावली धुँधली उभरती है विशृंखल... भंग-क्रम संगत-असंगत तारतम्य-विहीन!
औचक फिर स्वतः मुड़ लौट आता हूँ उपस्थित काल में! जीवन जगत जंजाल में!
हिंदी समय में महेन्द्र भटनागर की रचनाएँ