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कविता

अतिचार


अर्थहीन हो जाता है
सहसा
चिर-संबंधों का विश्वास -
नहीं, जन्म-जन्मांतर का विश्वास!
अरे, क्षण-भर में
             मिट जाता है
वर्षों-वर्षों का होता घनीभूत
            अपनेपन का अहसास!
ताश के पत्तों जैसा
बाँध टूटता है जब
             मर्यादा का,
स्वनिर्मित सीमाओं को
आवेष्टित करते विद्युत-प्रवाह-युक्त तार
तब बन जाते हैं
           निर्जीव अचानक!
लुप्त हो जाती हैं सीमाएँ,
छलाँग भर-भर फाँद जाते हैं
          स्थिर पैर,
डगमगाते काँपते हुए
          स्थिर पैर!
भंग हो जाती है
शुद्ध उपासना
कठिन सिद्ध साधना!
धर्म-विहित कर्म
खोखले हो जाते हैं,
तथाकथित सत्य प्रतिज्ञाएँ
           झुठलाती हैं।
बेमानी हो जाते हैं
          वचन-वायदे!
और -
प्यार बन जाता है
निपट स्वार्थ का समानार्थक!
अभिप्राय बदल लेती हैं
व्याख्याएँ
           पाप-पुण्य की,
छल -
आत्माओं के मिलाप का
नग्न सत्य में / यथार्थ रूप में
           उतर आता है!
संयम के लौह-स्तंभ
          टूट ढह जाते हैं,
विवेक के शहतीर स्थान-च्युत हो
तिनके की तरह
           डूब बह जाते हैं।
जब भूकंप वासना का
'तीव्रानुराग' का
आमूल थरथरा देता है शरीर को,
हिल जाती हैं मन की
           हर पुख्ता-पुख्ता चूल!
आदमी
अपने अतीत को, वर्तमान को, भविष्य को
        जाता है भूल!


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