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कविता

अवधूत

महेन्द्र भटनागर


लोग हैं -
ऐसी हताशा में
व्यग्र हो
कर बैठते हैं
             आत्म-हत्या!
या
खो बैठते हैं संतुलन
             तन का / मन का!
व हो विक्षिप्त
रोते हैं - अकारण!
हँसते हैं - अकारण!


किंतु तुम हो
स्थिर / स्व-सीमित / मौन / जीवित / संतुलित
अभी तक!


वस्तुतः
जिसने जी लिया संन्यास
मरना और जीना
          एक है उसके लिए!
विष हो या अमृत
पीना
          एक है उसके लिए!


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