इससे पहले कि वो
इससे पहले कि वो
मुझे कत्ल कर दे
मैं उसे उन उड़ानों के बारे में
बतलाना चाहता हूँ
मेरे भीतर जिन्होंने
अपने ठिये बना रखे हैं
मैं उससे उन थकानों की
बात करना चाहता हूँ
जो मेरी छाँव में अपने
जिस्म बिछाए लेटी हैं
मैं उन यात्राओं को लेकर
उसके सामने अपनी चिंता
रखना चाहता हूँ
जिनकी राह में
मैं निशान की तरह लगा हूँ
मैं उसे उन साँसों से
मिलवाना चाहता हूँ
जिन्होंने अपनी जरूरतों में
मुझे बसा रखा है
वो धारदार निगाह
जो लगातार मेरा
पीछा कर रही है
चाहता हूँ कुछ देर
मेरे पास आकर बैठे
अमरूद
गडा़कर रखी गईं हम पर आँखें
मगर पेड़ों पर जब हम बढ़े
तोतों ने आकर कुतर ही लिया हमें
बिठाकर रखे गए हम पर पहरे
मगर पेड़ों पर जब हम पके
बच्चों ने ढेले मारकर लूट ही लिया हमें
लाख तलाशा गया हमें इधर-उधर
मगर बागों से जब हम चले
मजदूरों ने आखिर छुपा ही लिया हमें
इस तरह जिन दाँतों तक
सबसे पहले पहुँचना चाहते थे पहुँचे हम
नीम
नीम को पुकारो, नीम,
दौड़ा चला आएगा
दाँतों में बनकर दातौन
नीम को गाओ, नीम,
निबोरी-सा टपकेगा
झूला झूलती
सहेलियों की गोद में
नीम को ढूँढ़ो, नीम,
धुन से जूझता
कोठार में मिलेगा
अनाज के नीम को सोचो,
नीम तुम्हें अपने भीतर
हरहराता देगा दिखाई
भरोसा
भरोसा
अब भी मौजूद है दुनिया में
नमक की तरह अब भी
पेड़ो के भरोसे पक्षी
सब कुछ छोड़ जाते हैं
बसंत के भरोसे वृक्ष
बिल्कुल रीत जाते हैं
पतवारों के भरोसे नाव
संकट लांघ जाती है
बरसात के भरोसे बीज
धरती में समा जाते हैं
अनजान पुरुष के पीछे
सदा के लिए स्त्री चल देती है
संदेश
धरती कानों में
बीज फुसफसाए
पानी पेड़ो के कान में
धरती बोली पानी
पक्षियों के कान में
पेड़ों ने कहा पानी
आसमान के कानों में
पक्षी चिल्लाए पानी
संदेशा कानों-कान पहुँचा
पानी दौड़ा-दौडा आया
बूढ़ी बेरिया
टोकती नहीं
स्कूल जाते समय बच्चों को
लौटते वक्त उन्हें
पास बुलाती है
बूढ़ी बेरिया
उनसे करती है
बेरों की भाषा में
खट्टी-मीठी बातें
उनके प्रेम में
जीवन भर अभिभूत
माँ-सी बेरिया
रख ही नहीं पाती याद
बच्चों ने उस पर कब,
कितने पत्थर उछाले
बीजने
इस बीच सब इन्हें भूल जाते हैं
किसी को याद नहीं रहता
सींकों पर पुराने कपड़ों
और रंगीन धागों की कारीगरी
घर में किस जगह रखी है
कोई नहीं बता पाता
खजूर के पत्तों में बसे
ठंडी हवा के झोंके
किस कोने में पड़े हैं घर के
पर ज्यों ही मौसम की देह
दहकना शुरू होती है
माँ इन्हें बाहर निकालती है
और कहती है क्या भरोसा बिजली का
एक चिट्ठी लिखनी है मुझे
एक चिट्ठी लिखनी है मुझे
कागज की नावों के नाम
जिन्हें बरसात में
बचपन बनाता था
बहुत दिन हुए उनसे
मेरी मुलाकात नहीं हुई
एक खबर भेजनी है मुझे
घूमती फिरकनियों के पास
थिरकते हुए जो सबका
मन मोह लेती थीं,
दिन हुए, मैंने उन्हें
धरती पर झूमते नहीं देखा
एक दिन मिलना हे मुझे
उन गुड़ियों से जिन्हें आखातीज
पर ब्याहा जाता था
साल गुजरे मैंने किसी गुड्डे को
सेहरा बाँधे नहीं देखा
एक दिन रहना है मुझे
उन गलियों में
जिनकी धूल में अँटे
खिलखिल करते थे
बरस बीते मैंने उनमें
कंचों की टकराहट नहीं सुनी
मधुमक्खियां
मधुमक्खियाँ हैरान हैं, नहीं सूझता उन्हें
वे क्या करें हमेशा होता है
अंधेरे की चादर ओढ़े कुछ हाथ आते हें
और उनका बूँद-बूँद जुड़ा शहद
लूटकर ले जाते हें
मधुमक्खियाँ दुखी हैं, शहद बचाए रखने की
इच्छा शक्ति, अपने विषैले डंक
उन्हें कमजोर लगते हैं
जब वे देखती हैं कि कोई कुछ नहीं कहता
जब उनसे लूटा शहद सरेआम बेचा जाता है
मधुमक्खियाँ नहीं जानतीं अपनी
शिकायत लेकर किसके पास जाएँ
किस थाने में लिखाएँ इसके खिलाफ रपट
कि हर एक निगाह, हर एक जीभ
उनके शहद की तरफ ललचाती नजर आती है
मधुमक्खियों के उदासी भरे चेहरे बतलाते हैं
ताकत के जोर पर आततायी
जिनकी पैदावार लूट लेते हैं
उन किसानों और उन दुखियारियों की
तकलीफ का रंग कितना मिलता-जुलता है
छतों से
हमारी गीली कमीजें
सूखकर जब उठीं
छतों से उजास लेकर उठीं
हमारी पापड़-बड़ियाँ
धूप खाकर जब हटीं
छतों से स्वाद लेकर हटीं
हमारी सलाई जोड़ियाँ
सॅभलकर जब उतरीं
छतों से उम्मीद सँभाले उतरीं
हमारी उदास चप्पलें
ऊबकर जब लौटीं
छतों से धूल लिये लौटीं
पिता का मकान
मैं आपसे साफ कहूँ
मैं पिता के साथ
उनके परिवार में रहता हूँ
उनके मकान में नहीं
मुझे ये बात तिलमिला देती है
जब कोई कहता है
इकलौते लड़के हो
जो कुछ भी है पिता का
सब तुम्हारा ही तो है
पिता का मकान मुझे
अपने मकान की तरह नहीं लगता
जो अपनी जिंदगी में
अपने हाथों एक बार
अपना घोंसला जरूर बनाता है
मैं उस पक्षी की तरह हूँ
किस तरह मिलूँ तुम्हें
किस तरह मिलूँ तुम्हें
क्यों न खाली क्लास रूम में
किसी बेंच के नीचे
और पेंसिल की तरह पड़ा
तुम चुपचाप उठाकर
रख लो मुझे बस्ते में
क्यों न किसी मेले में
औैर तुम्हारी पसंद के रंग में
रिबन की शक्ल में दूँ दिखाई
और तुम छुपाती हुई अपनी खुशी
खरीद लो मुझे तुरत
या कि कुछ इस तरह मिलूँ
जैसे बीच राह में टूटी
तुम्हारी चप्पल के लिए
बहुत जरूरी पिन
कैंची
एक रोज घर के कबाड़ में
दिखाई दी दोनों हिस्से टूटे
पास पड़े, धूल सने
अपने गौने में मिली
सिलाई मशीन का
साथ निबाहने पिता
तीस बरस पहले
लाए थे जिसे घर
वो कैंची जिससे माँ ने काटीं
बहनों की फ्राकें
अपने ब्लाउज
पिता के पायजामे
खोल, तकिए, परदे कितने
फिल्मों के चित्र,
कागज रंगीन
काटे मैंने जिससे,
किताबों के कवर
बनाईं पतंगें
जिसे खाली चलाने पर
खानी पड़ी मुझे
कई दफा डाँट
जिससे बुआओं ने सँवारीं
अपनी लंबी-लंबी चुटियाँ
चाचा ने की कोशिश
नाखून काटने की असफल
जिसे कई बार
छिपाकर रखा गया
जो कई बार
ढूँढ़ने पर नहीं मिली
वो कैंची
फिलहाल घर के कोष में
नोट के दो टुकड़ों की तरह मौजूद
अपने होने में पूरे
तीस बरस सँजोए
ताला
विश्वास से भी पक्की
जो भरोसेमंद चीजें
हमारे पास मौजूद हैं
ये उनमें से एक है
हमारे माल-असबाब पर
सदियों से तैनात
एक मुस्तैद लौह-प्रहरी
भले ही इसे हमने
बाहर दरवाजे पर लगा रखा हो
मगर ये जानता है
बुरे समय के लिए अपने भीतर
किस घर ने
कितनी धातु
कितना धन
बचाकर रखा है
किस घर की तिजोरियाँ
सपनों से लबालब हैं
किस घर में
सिवा उम्मीदों के कुछ नहीं
दूसरों के सुख
किस-किसने
अपने नाम चढ़ा रखे हैं
अपने षड्यंत्र छुपाने में
कोन-कोन
उसका इस्तेमाल
कर रहा है
ये सब जानता है
और न चाहते हुए भी
सब सुरक्षित रखता है
ये राजदार हमारा
अनुपस्थिति में हमारी
कभी झुकता नहीं
टूट भले जाए ।
चूल्हा
इसकी आग में मैं अपना
इतिहास बाँचता हूँ
लोग इसे सिर्फ चूल्हा समझते हैं
मगर मेरी नजरों में इसकी तौल
घर के पुरखे के बराबर है
ये जब जलता है तब बुझते हैं
इसके बुझने पर पेट जल उठते हैं
गृहिणी और इसके बीच एक जरूरी रिश्ता
साफ-साफ देखा जा सकता है
इसमें आग और कोठरी में धान
हमेशा भरा रहे सभी चाहते हें
इसका एक रहना बिरादरी में
घर की साख होती है
बँटना होता है
बंद मुट्ठी का खुल जाना
इसकी राख में मुझे अपनी
भूख दबी मिलती है
गुल्लक
बिटिया बड़े जतन से सिक्के जोड़ती
कान से सटाकर देखती बजाकर
गुल्लक में सिक्के खन-खन करते
पिता के सामने गुल्लक रखती
उसकी हथेली पर गुल्लक में भरने
एक सिक्का और रखते पिता
बिटिया जाती, गुल्लक छुपाती
माँ हँसती, बिटिया बड़ी हो चुकी
ब्याह हो चुका, जा चुकी अपने घर
कहाँ आ पाती है पिता के घर
चिट्ठियाँ आती हैं
जब कोई चिट्ठी उसकी आती है
घर में बसी उसकी यादें
गुल्लक में भरे सिक्कों-सी खन-खन बजती हैं
उन दिनों : चार प्रेम कविताएँ
एक
दो साइकिलें साथ-साथ
घरों से निकलती थीं
दो रास्ते आगे
एक हो जाते थे
दो कुर्सिया हमेशा
सटकर बैठती थीं
दो प्यालियाँ अक्सर
बदल जाती थीं
उन दिनों
पास-पास लिखे जाते थे दो नाम
साथ-साथ लिये जाते थे दो नाम
दो
कुछ चुनी हुई किताबें थीं
अ जिन्हें पढ़ना चाहता था
कुछ ऐसे गीत थे अ जिन्हें
फुर्सत में सुन लेता था
चित्रों के बारे में तब भी
अ को विषेष जानकारी न थी
एक खास रंग था अ जिस पर
अपनी जान छिड़कता था
मगर उन दिनों
इ जो भी पसंद करती थी
वह अ को भी पसंद आता था
तीन
सही समय पर वाचनालय
बंद होना खलता था
केंटीन का खचाखच
भर जाना अखरता था
मनपसंद जगह किसी का
बैठे मिलना चिढ़ाता था
सिनेमाघर में परिचित का
देख लेना डराता था
उन दिनों भाता नहीं था
छुट्टी का दिन, रविवार
कॉलेज खुलने का इतंजार
चार
घर के कानों में पहचान
चुगली टांक जाती थी
एक नई कहानी रोजाना
बातचीत गढ़ लेती थी
आग लगाने में देरी
जरा भी नहीं हिचकती थी
अपने सिर पर आंगन
आसमान उठा लेता था
उन दिनों
काटने दौड़ते थे किवाड़
घूरते रहते थे रास्ते
त्यौहार मनाने घर जाता आदमी : दो कविताएँ
एक
त्योहार मनाने घर जाता आदमी
कुछ पहले से
जाने की तैयारी करने लगता है
उसकी उदासी टूटने लगती है
खिलने लगता है उसका चेहरा
उसकी व्यग्रता देखकर लगता है
इतने दिन त्यौहार में क्यों बचे हैं
लगता है त्यौहार के बाद
उसका मन काम में लगेगा,
महसूस होता है
त्योहार का मजा घर पर ही है
घर के बिना कैसा त्यौहार
वह कहता है पिता बेसब्र्री से
उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे
वह आजकल में, आने वाला होगा,
सोच रहे होंगे
माँ जतन से गुझियाँ, सकरपारे
बना रही होगी, मगर उनमें स्वाद
तो जब वह घर पहुँचेगा, तब आ पाएगा
दो
त्यौहार मनाने घर जाता आदमी
अपने शहर में ट्रेन से उतरता हे
कुछ देर वहाँ ठहरकर पहचान टटोलता है,
करता है चेहरे पढ़ने की कोशिश
उसे वहाँ अपना कोई नहीं दिखता
मगर शहर में सभी उसे अपने लगते हैं
घर की तरफ, भागते टेम्पो से
देखता चलता है शहर त्यौहार पर
कैसा तैयार हो रहा है
उसे हर आदमी त्यौहार की
तैयारी में जुटा जान पड़ता हे
उसे लगता है, त्यौहार को लेकर
शहर के लोगों में खूब उत्साह है
आदमी चाहता है टेम्पो में
कोई पूछे उससे, क्यों भाई
क्या त्यौहार मनाने घर आए हो
औैर वो तपाक से कहे
हाँ, हाँ त्यौहार पर घर आया हूँ
देहरी
देहरी चाहती रही
रहे घर की बात घर में ही,
सिर्फ चाहने से
क्या होता है लेकिन
कोई और विपदा
घर तक न आए देहरी सोचती
हर सोचा हुआ,
हुआ हे, कभी पूरा
सुख जो एक बार भीतर घुसे
तो कभी बाहर न निकले
देहरी कहती,
कहते-कहते
हो गई वह बूढ़ी
देहरी घर में घुसते ही
चूमती हमारे कदम
निकलते ही तलुओं में
फुसफुसाती जल्दी लौटना
तपेदिक
दुनिया भर में फिर से तपेदिक के लौटने की खबर ने
खट-खटा दी हैं लोगों की छातियाँ
खबर ने लोगों को दिला दिए हैं याद
उन्हें अपने वे प्रियजन तमाम
जिन्होंने घुट-घुटकर लगातार
खांसते, थूकते और उगलते हुए
मुँह से खून के थक्के कालांतर में तोड़ा दम
लोगों मे फेफड़ों में फिर से उन कीटाणुओं के
सक्रिय होने के अहसास को कर दिया है तेज
जो उनके पुरखों की छातियों से निकलकर
बस गए उनकी भी छातियों में
और इस तरह मरने के बाद भी पुरखे
अपनी नस्लों में रहे जीवित
दुनिया भर के फेफड़ों में खलबली मचाती
इस खबर की असलियत रिपोर्ट में नहीं
इससे जूझती जिंदगी में झाँकने पर चलेगी पता
कि तपेदिक गया ही कहाँ था
जो कही जा रही है
उसके लौटने की बात
दवाइयाँ खा लेना, दवाइयों का
तपेदिक को खा लेना नहीं
दवाइयाँ अकुशल दर्जियों की तरह जैसे-तैसे
बस फेफड़ों को सिल पाती हें
और उनकी ये कच्ची-पक्की सिलाइयाँ
उन्हीं के अभाव में अकसर खुल जाती हैं
परदे
तुम्हारे चेहरों जैसे नहीं हमारे चेहरे
फिर भी हमारे चेहरे वहाँ-वहाँ मौजूद
जहाँ पहुँचना तुम्हारे वश में नहीं
हम चश्मदीद गवाह तब से अब तक
बंद कमरों में लिखे जाते रहे इतिहास के
हम जानते हकीकत उन निर्दशों,
निर्णयों की जो बँटते सबके बीच
बाहर आकर गोपनीय कक्षों से
हम साफ-साफ पहचानते मुखौटों में छिपे
उन चेहरों को जिन्हें देख पाना
तुम्हारे लिए संभव नहीं
हम ही देख पाते उन्हें मुखौटे विहीन
उनके अपने असली चेहरों में
तुम्हारी आँखों जैसी नहीं हमारी आँखें
फिर भी हमारी आँखों में कैद
कमरों के भीतर का सच
डालर
दुनिया के हर हिस्से को नोच रही है
इसकी गिद्ध दृष्टि
भरभरा ढह चुकी अनेक जन-इमारतों के
बुरी तरह ध्वस्त अंश
इसकी घटती-बढ़ती संख्याओं के समुद्र में
लगातार रहे हें डूब
दूरदराज हिस्सों से मेहनत के बाद कड़ी
खोजकर निकाली गई विषिष्टताएँ
स्वीकारने के बाद इसका नियंत्रण
खुद पर खोती जा रही हैं नियंत्रण अपना
हथियारों और हत्याओं से पटी पड़ी धरती
जाल में फँसकर इसके किसी चिड़िया की तरह
फड़फड़ा रही है अपने सुंदर पंख
धुरी पर घूमती पृथ्वी की जगह
घूमने की इसकी इच्छा
इसकी आँखों में साफ-साफ जा सकती है देखी
अंगूठा
हाथों की उंगलियों के सहारे हमेशा
नोटों की गिनती करते रहना
अंगूठे की यह आदत मुझे कतई पसंद नहीं0
मुझे पसंद नहीं कि कोई इसको
मानव इतिहास की किसी
महान संघर्ष गाथा के
किसी महानायक का
उठा हुआ अंगूठा कहकर करे प्रदर्शित
आँखों के सामने बार-बार
आ खड़ा होता
यह चमकदार छद्म
मुझसे अब और नहीं होता सहन
गुस्से में तनती हुई मुट्ठी को
विकलांग बनाता
यह उठा हुआ अंगूठा
किसी की पहचान नहीं हो सकता
क्षत-विक्षत उंगलियाँ ही नहीं
उन अंगूठों को तो इतिहास भी
अपना नहीं मानता
जो सारी दुनिया की एक जैसी बहियों के
ब्याज चढ़ते पन्नों से आकर बाहर
साहूकारों की काली दुनिया के खिलाफ
कुछ नहीं कहते
और वहाँ गुर्राते हुए राष्ट्राध्यक्ष के आगे
कुछ मिमियाते हुए राष्ट्राध्यक्ष
इसे कागज पर बिना सोचे लगा रहे हैं
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