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कविता

बचाव

महेन्द्र भटनागर


कैसी चली हवा!

हर कोई
केवल
हित अपना
          सोचे,
औरों का हिस्सा
           हड़पे,
कोई चाहे कितना
          तड़पे!
घर भरने अपना
औरों की
बोटी-बोटी काटे
            नोचे!

इस
संक्रामक सामाजिक
           बीमारी की
क्या कोई नहीं दवा?
कैसी चली हवा!



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