कैसी चली हवा!
हर कोई केवल हित अपना सोचे, औरों का हिस्सा हड़पे, कोई चाहे कितना तड़पे! घर भरने अपना औरों की बोटी-बोटी काटे नोचे!
इस संक्रामक सामाजिक बीमारी की क्या कोई नहीं दवा? कैसी चली हवा!
हिंदी समय में महेन्द्र भटनागर की रचनाएँ