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कविता

बुलावा

हरिओम राजोरिया


जिस तरह के संबंधों के साथ
जिन लोगों के बीच मैं रहता हूँ
वहाँ तरह तरह के अवसरों पर
तरह तरह से आते हैं बुलावे

दरवाजे पर कार्ड फेंक जाता है कोई
परम पूज्यनीय कैलाशवासी पिता की है बरसी
फलाँ तिथी को है गंगापूजन सो जानना जी
कोई आकर कहता है - फूफाजी ने भेजी है गाड़ी
सब जनानी चलें संतोषी माता के उद्यापन में
कभी किसी चचेरे भाई का आता है फोन
ग्रह शांति के लिए कर रहे हैं जाप
तुम न आ सको तो बहू को भेज देना

एक रंगीन आमंत्रण ऐसा भी आता है
छपा होता है जिसमें एक बड़ा घर
कभी पड़ोसी हाथ जोड़ करता है मनुहार
दुकान का उद्घाटन है भाईसाहब
आप भी पधारें भक्तांबर पाठ में
अनमना सा एक मित्र करता है शिकायत
आप तो हमें भूल ही गए
आपको छोड़ सब आए घर मिलने
फादर लौटे जब चारों धाम की यात्रा से

इस असंतुलित होते जाते समाज में
एक तरफ जड़ताएँ टूटती जाती हैं
तो दूसरी तरफ से
नई-नई मूर्खताएँ अपनी जड़ें बनाती हैं
आने जाने से फर्क नहीं पड़ता
अगर कोई बुरा भी मान जाता है
तो दूसरे ही दिन एक नया बुलावा आता है


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