वैसे हम वर्षों से दूर-दूर रहते थे
वह पास के ही शहर में
और मैं उसी पुराने पुश्तैनी कस्बे में
पर हम दोनों के बीच ऐसा कुछ जरूर था
जो दूर जाकर कहीं हमें जोड़ता था
हो सकता है वह कविता ही हो
पर जब भी वह मेरी तरफ देखता
उसके भीतर मंथन शुरू हो जाता
कहता - ''तुम्हारे बाल हवा में उड़ते रहते हैं
इन्हें तरतीब से काढ़ा करो
माँग निकाला करो सिर के बाए से
रोज तेल डालना चाहिए बालों में
रूखे बाल आदमी को
और जियादा रूखा बना देते हें''
कभी पीछे से कालर पकड़ लेता
और खींच ले जाता दर्पण के सामने
देखो! गर्दन पर मैल के थक्के जमे हैं
पीठ पर पड़ रहे लाल-लाल चकत्ते
फिर वह पीठ साफ करने के लिए
जनेऊ जैसी किसी चीज का जिक्र करता
कहता - ''इसे कल ही खरीद लाओ
यहाँ न मिले तो इंदौर से मँगवा लो''
जूते पहनने पर वह खासा जोर देता -
''कैसे बेडौल पैर हैं तुम्हारे
हर समय जूतों में बंद रहना चाहिए इन्हें''
वह कमीज को पैंट में खोंसकर
कमर में बेल्ट बाँधने की बात भी करता
पक्का मानना था उसका कि -
साफ-सुथरे रहने से
शरीर और आत्मा दोनों सुंदर हो जाते हैं
और रात सोते वक्त अच्छे-अच्छे सपने आते हैं
अच्छे सपने और अच्छे विचार
दोनों ही कविता के लिए जरूरी हैं
मैं कहना चाहता पर कह न पाता
जो लोग अच्छे सपने नहीं देखते
या कविताएँ नहीं करते
पर भूसा ढोते हैं
मिट्टी के गुम्मे धर-धर के
खड़ी करते हें रहवास की कच्ची दीवारें
पैर चला-चला कर माटी का गारा बनाते हें
और कभी-कभी डेंगू और चिकनगुनिया से
असमय ही उनके बच्चे मर जाते हें
जो दिन रात सपनों में
अकेली एक रोटी ही देखते हैं
या कभी-कभी अपने दिवंगत बच्चों के
पीत उतरे हुए चेहते
ऐसे लोगों से तो मैं अच्छा हूँ
उनसे तो रहता हूँ बहुत अच्छा ही
इतना जियादा अच्छा कि
ऐसा अच्छा होने में कभी-कभी शर्म आती है।