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कविता

उल्लू

हरिओम राजोरिया


एक लकवाग्रस्त बूढ़े आदमी की बड़बड़ाहट से
कितनी मिलती-जुलती है तुम्हारी आवाज
वर्षों से नहीं आए तुम गली में
पहले तो डैने फड़फड़ाते हुए
रात के तीसरे पहर
रोज ही आ फटकते थे

विपदाओं को तो आना ही होता था
संयोग से तुम भी आए उन्हे रास्ता देते हुए
वे जो खुशहाल थे
तुम से जुड़ी डरावनी कहानियाँ
नहीं सुनीं उनके बच्चों ने
जिस रास्ते में पड़ती थी खुशहाली
नहीं था वह तुम्हारा रास्ता

तुम तो उजाड़ से होते हुए
आते रहे मनहूस गलियों में
बिजली के खंभे पर बैठ
गर्दन घुमा-घुमाकर
मुआयना करते रहे पुरानी बसाहट का

बदल रहा था कस्बा
गलियाँ बाजारों में तब्दील हो रहीं थीं
कम से कमतर होते जाते थे तुम्हारे ठिकाने
पिछली बरसात में गिर गया वह बरगद
जहाँ बैठकर अक्सर तुम उस
खंडहरनुमा लड़कियों के स्कूल को देखते थे
जिसकी दीवारें किसी जादू के सहारे खड़ी हैं


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