अक्सर हम यह सुनते पढ़ते और लिखते आए हैं कि भारत एक विविधतापूर्ण देश है। सामासिक मिजाज का देश है। विविधता में एकता इसकी विशिष्ट पहचान है। आदि आदि। सवाल यह है कि भारत की इस छवि का निर्माण कैसे हुआ है? क्यों इसे पूरे विश्व के एक संक्षिप्त संस्करण के रूप में देखा जाता है। दरअसल इस छवि के निर्माण में यहाँ की भाषाई, सामाजिक एवं सांस्कृतिक बहुलता का महत्वपूर्ण योगदान है। स्कूली कार्यक्रमों में अक्सर बच्चों द्वारा प्रस्तुत किया जानेवाला गीत - 'हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं, रंग-रूप वेश-भूषा चाहे अनेक हैं...' इस बात को पुष्ट करता है तथा भारत की सामासिक छवि को मजबूती प्रदान करता है। यहाँ कई सारी भाषाओं एवं संस्कृतियों का सदियों से साहचर्य एवं सहअस्तित्व रहा है। इनमें आपसी संपर्क के कारण पर्याप्त लगाव भी है और अलगाव भी। इसीलिए भारत को एक भाषिक इकाई के रूप में भी अभिहित किया जाता है। पूरे विश्व में 196 देश हैं और इन सबको मिलाकर लगभग 6900 भाषाएँ बोली जाती हैं जिनमें से अकेले भारत में लगभग 1652 भाषाएँ बोली जाती हैं। यानी पूरे विश्व में बोली जानेवाली कुल भाषाओं की लगभग एक चौथाई भाषाएँ भारत में ही बोली जाती हैं। अतः भाषाई दृष्टि से भारत एक बहुजातीय या बहुभाषी देश है।
ध्यातव्य है कि भाषा संप्रेषण का माध्यम ही नहीं होती वह सांस्कृतिक इकाई भी होती है। वह अपनी संस्कृति की आकृति ही नहीं होती, कलाकृति भी होती है। वह अपनी संस्कृति की आधारशिला ही नहीं होती उसकी विकास-यात्रा की क्रोशशिला भी होती है। गरज कि भाषा संस्कृति के विकास का प्रतीक भी है और उसके संपूर्ण विन्यास का प्रतिमान भी। इसीलिए भाषा का अध्ययन संस्कृति का अध्ययन और उत्खनन तो है ही, उसके इतिहास का भी चिंतन तथा मूल्यांकन है। भाषा और संस्कृति के इसी सहजात संबंध के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैविक संरचना के वैशिष्ट्य के कारण जब किसी मानव समुदाय ने संप्रेषण के लिए वाचिक प्रतीकों की सृष्टि की होगी तभी उसकी संस्कृति का भी उद्भव हुआ होगा। वास्तव में इन दोनों में से किसी एक के अभाव में दूसरे के अस्तित्व की कल्पना भी संभव नहीं है। कारण कि "संस्कृति उस भाषा से लगभग पूरी तरह अविभेद्य एवं अविभाज्य होती है जो उसके (संस्कृति के) निर्माण, विन्यास, अभिव्यक्ति और यथार्थ में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संप्रेषण का कार्य करती है।" (भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता, न्गुगी वा थ्योंगो पृ. 25)
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, "भाषा संप्रेषण का माध्यम ही नहीं वह संस्कृति के विन्यास की प्रक्रिया भी होती है और उसका माध्यम भी"(वही.) इसीलिए हमारे मानवशास्त्रियों को आज तक ऐसी संस्कृति की जानकारी नहीं मिल सकी है जिसकी कोई भाषा न हो। भाषाविहीन संस्कृति और संस्कृतिविहीन भाषा का अस्तित्व तो कम से कम इस उपग्रह पर नहीं ही है। भाषा और संस्कृति की इसी अंतरंगता के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि जब एक भाषा मरती है तो उसके साथ एक पूरा समाज और एक पूरी संस्कृति खत्म हो जाती है। उससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान और अनुभव की समूची विरासत लुप्त हो जाती है। भाषा और संस्कृति की यह क्षति पूरी मानवजाति के लिए अपूरणीय होती है। उसे किसी भी कीमत पर पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः समय रहते इनका संरक्षण एवं संवर्द्धन अत्यावश्यक है। विद्वानों का मानना है कि पिछले पचास वर्षों में लगभग 220 भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं और भाषाई लुप्तता की यही रफ्तार रही तो 21 वीं सदी के अंत तक 7000 भाषाओं में से केवल 700 भाषाएँ बच जाएँगी। अधिकांश भाषाएँ लुप्त/मृत या दुर्लभ हो जाएँगी। भाषावैज्ञानिकों और भाषा के शिक्षकों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानवजाति के लिए यह गंभीर चिंतन-मनन का विषय है। भाषाई लुप्तता की यह समस्या वैश्विक समस्या है। ब्राजील, अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, स्वीडन, भारत हर जगह विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, प्राकृतिक कारणों से यह क्षति लगातार हो रही है। यूनेस्को के अनुसार भाषा की लुप्तप्रायता से तात्पर्य उस भाषिक स्थिति से है जिसमें किसी भाषा का प्रयोग खतरे में होता है। भाषा की इस संकटग्रस्तता के उसने दो कारण बताए हैं। एक तो भाषाभाषियों की कम संख्या और दूसरा उस भाषा के प्रयोग-क्षेत्र या उसके प्रकार्य की सीमितता। भाषाभाषियों की संख्या से आशय है कि यदि किसी भाषा के प्रयोक्ता अत्यंत सीमित मात्रा में हों या जिस भाषा ने विभिन्न कारणों से अपने सभी मूल भाषा-भाषियों को खो दिया हो। हालाँकि भाषा प्रयोक्ताओं की कम संख्या भाषा की लुप्तप्रायता का उतना महत्वपूर्ण आधार नहीं है क्योंकि यदि किसी भाषा के सीमित प्रयोक्ता होने के बावजूद उनमें उस भाषा का एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में संचरण होता है तो वह भाषा जीवंत बनी रहती है। यदि भाषा प्रयोक्ताओं की संख्या ज्यादा भी हो और उसका प्रयोग केवल एक पीढ़ी तक ही सीमित रह जाए तो भी वह भाषा धीरे-धीरे लुप्तप्रायता की ओर अग्रसर होने लगती है। जैसे इंडोनेशिया में ऐसी कई सारी भाषाएँ हैं जिसके मूल भाषा-भाषी करीब दो लाख से ज्यादा हैं लेकिन उनका प्रयोग केवल बुजुर्ग लोग ही आपस में करते हैं। युवा पीढ़ी के साथ वे लोग इस भाषा में संप्रेषण नहीं करते। अतः वक्ताओं की इतनी संख्या होते हुए भी ये भाषाएँ लुप्तप्राय भाषाओं की श्रेणी में गिनी जाती हैं। इसी तरह लादिन (Ladin) और हवाईयन (Hawaiin) भाषा के क्रमशः 30,000 और 1,000 भाषा प्रयोक्ता हैं तो भी ये भाषाएँ संकटग्रस्त नहीं है। कारण कि ये भाषाएँ आज भी बच्चों द्वारा मातृभाषा के रूप में सीखी जा रही हैं और स्कूलों में निर्देश के माध्यम के रूप में इनका प्रयोग किया जा रहा है। यानी भाषाभाषियों की संख्या भाषा की लुप्तप्रायता के लिए पूरी तरह जिम्मेदार नहीं है बल्कि अपनी भाषा के प्रति भाषाभाषियों का नकारात्मक दृष्टिकोण, हीनभावना एवं भाषाई अस्मिता के प्रति सजगता का अभाव भाषा की लुप्तप्रायता का मुख्य कारण है। आजकल लगातार जनजातीय लोकभाषाओं के समुदायों का आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से सशक्त भाषाओं में विलयन हो रहा है। इन्हें यह विश्वास हो गया है कि आज के दौर में उनकी भाषाओं की कोई उपयोगिता नहीं है और वे अपनाने लायक नहीं है क्योंकि उनसे न तो रोजी-रोटी का बंदोबस्त हो सकता है और न ही समाज में यथेष्ट स्थान ही प्राप्त किया जा सकता है। इन भाषिक समुदायों के वक्ता सामाजिक भेदभाव से बचने के लिए तथा अपने और अपनी संतानों के बेहतर सामाजिक जीवन के लिए भी अपनी भाषा और संस्कृति को छोड़ रहे हैं। इसे भाषा की लुप्तप्रायता के आंतरिक कारण के रूप में देखा जा सकता है। जिसके लिए बाहरी कारण ही जैसे कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं सैन्य दमन एवं दवाब जिम्मेदार है। इसके अंतर्गत किसी एक प्रभुत्वशाली भाषा द्वारा किसी अन्य भाषा पर वर्चस्व स्थापित किया जाता है। विभिन्न भाषाभाषी जब एक साथ आस-पास रहते हैं तब भी लुप्तप्रायता की समस्या उत्पन्न होती है क्योंकि जब ये परस्पर संपर्क में आते हैं तो संपर्क में आने वाली सभी भाषाओं का समान समाजार्थिक महत्व एवं प्रभाव नहीं होता। कोई भाषा उनमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, वाक्ताओं कि संख्या आदि की दृष्टि से ज्यादा मजबूत या प्रभावशाली होती है और अन्य भाषाएँ उसके बनिस्पत कमजोर होती हैं। ऐसी स्थिति में कम प्रभुत्वशाली भाषा के प्रयोक्ता अपनी भाषा छोड़कर दूसरी मजबूत भाषा को अपना लेते हैं। और, धीरे-धीरे अपनी संस्कृति को भी विस्मृत कर देते हैं। आज के संदर्भ में हम विभिन्न भारतीय लोकभाषाओं पर हिंदी और अँग्रेजी भाषा के वर्चस्व को इसी रूप में देख सकते हैं।
भाषा की लुप्तप्रायता का दूसरा मुख्य कारण उसके प्रयोग-क्षेत्र की सीमितता एवं प्रकार्य की कमी है। यदि कोई भाषा कुछ सीमित क्षेत्रों जैसे - घर पर, दोस्तों के बीच, किसी अवसर विशेष पर या किसी खास आयुवर्ग आदि के मध्य बोली जाती है तो वह धीरे-धीरे लुप्तप्राय होने लगती है। यानी जैसे-जैसे किसी भाषा का प्रयोग-क्षेत्र सीमित होता है भाषा की संकटग्रस्तता के आसार बढ़ने लगते हैं। अतः इस स्थिति से बचाने के लिए सबसे जरूरी है किसी भी भाषा का पीढ़ी दर पीढ़ी संवहित या स्थानांतरित होना। और, भावी पीढ़ियों द्वारा उसे अपनी मातृभाषा के रूप में अपनाया जाना।
इन सभी भाषिक स्थितियों एवं भाषा-प्रयोक्ताओं की मनःस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यूनेस्को ने भाषा की लुप्तप्रायता या संकटग्रस्तता के चार स्तर बताए हैं -
I. असुरक्षित या अतिसंवेदनशील (Vulnerable Languages) भाषाएँ : जिन भाषाओं का प्रयोग बच्चों द्वारा कुछ निश्चित क्षेत्रों जैसे - घर पर किया जाता है, उन्हें इस श्रेणी में रखा जाता है। जैसे - आदी, अंगामी, आओ, अपातानी, मिजो, न्यीशी, राभा, शेरदुक्पेन आदि भाषाएँ।
II. निश्चित रूप से संकटग्रस्त भाषाएँ (Definitely endangered languages) : इन भाषाओं को बच्चे मातृभाषा के रूप में नहीं सीखते। जैसे - बुगुन, आका, देओरी, जंगशुंग, खोवा, मिजी, सिंग्फ़ो, तिवा, आदि भाषाएँ।
III. गंभीर रूप से संकटग्रस्त भाषाएँ (Severely endangered languages) : इसके अंतर्गत वैसी भाषाएँ आती हैं जो केवल पुरानी पीढ़ी के लोगों द्वारा खासकर एक परिवार में दादा-दादी या नाना-नानी द्वारा बोली जाती हैं हालाँकि माता-पिता इन भाषाओं को समझ सकते हैं लेकिन वे आपस में या बच्चों से इन भाषाओं मे बात नहीं करते। जैसे - आइतोन, मेच आदि भाषाएँ।
IV. अतिसंकटग्रस्त भाषाएँ (Critically endangered languages) : ऐसी भाषाएँ जिनके प्रयोक्ता केवल बुजुर्ग पीढ़ी के लोग हैं और वे भी इनका प्रयोग कभी-कभार ही आंशिक रूप में करते हैं। जैसे - आइमोल, कोइरेंग, कोरगा, कोता, कुरुबा, लामोंग्से, सेंटीनलीज, शोंपेन आदि भाषाएँ।
यूनेस्को ने भाषाई लुप्तप्रायता के इन चार स्तरों के अंतर्गत कुल 196 भारतीय भाषाओं को रखा है। जिनमें से 80 भाषाएँ केवल पूर्वोत्तर भारत की ही हैं। पूर्वोत्तर भारत की कुछ प्रमुख लुप्तप्राय भाषाएँ इस प्रकार हैं - मणिपुर में कबुई, कुकी, ताङ्खुल, राल्ते आदि। नागालैंड में आओ, अंगामी, सेमा, लोथा, कोन्याक, फोम, इमचुङर आदि। मिजोरम में लुशाई, चकमा आदि। त्रिपुरा में पैते, हमर, चकमा, जमातिया आदि। मेघालय में आतोंग, रुगा,गङ्ग्ते, प्नार(Pnar),ल्यङ्ग्ङ्गम(Lyngngam) आदि। असम में राभा, देओरी, कार्बी आदि। अरुणाचल प्रदेश में आदी, मोंपा, चुग, बुगुन, खाम्ती, खंबा, अपातानी, न्यीशी, सिंहफो, साजोलाइ, शेरदुक्पेन, जाखरींग आदि भाषाएँ तथा सिक्किम में लेपचा आदि।
ध्यातव्य है कि पूर्वोत्तर भारत की अस्सी लुप्तप्राय भाषाओं में से अकेले अरुणाचल प्रदेश की 36 भाषाएँ संकटग्रस्त भाषाओं की श्रेणी में हैं। अरुणाचल प्रदेश की अधिकांश भाषाएँ मौखिक रूप में हैं। इन भाषाओं की परस्पर अबोधगम्यता की वजह से इनके प्रयोक्ता इन भाषाओं को छोड़कर समाजार्थिक दृष्टि से ज्यादा प्रभुत्वशाली भाषाओं - हिंदी और अँग्रेजी खासकर हिंदी को अपना रहे हैं। हिंदी द्वारा अरुणाचल की इन जनजातीय लोकभाषाओं के विस्थापन की प्रक्रिया से हम हिंदी भाषी तो भ्रमवश थोड़े समय के लिए भले ही अपनी पीठ थपथपा सकते हैं लेकिन इस विषय पर यदि हम गंभीरता से सोचें तो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता संपन्न देश के लिए यह बहुत ही चिंताजनक एवं अफसोसनाक स्थिति है। कहने की जरूरत नहीं है कि भाषा की यह क्षति पूरी मानवता के लिए अपूर्णनीय क्षति है। किसी भी तरीके से इसकी भरपाई नहीं की जा सकती। वास्तव में अपनी मातृभाषा को किसी अन्य भाषा से विस्थापित करने की प्रक्रिया मातृभाषा की लुप्तप्रायता का आरंभिक चरण है। यहीं से उस भाषा की भाषिक समृद्धि एवं उसके वक्ताओं की संख्या में उत्तरोत्तर ह्रास शुरू हो जाता है। उस भाषा में मौजूद पारंपरिक ज्ञान भी लुप्त हो जाता है। जिसे किसी भी तरीके से पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता।
अरुणाचल की लुप्तप्राय भाषाओं में से एक प्रमुख संकटग्रस्त भाषा है 'बुगुन'। यह अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमी कामेंग जिले में बोली जाती है। इसे यूनेस्को ने निश्चित रूप से संकटग्रस्त भाषा (Definitely endangered language) की श्रेणी मे रखा है क्योंकि एक तो इसके बोलने वालों की संख्या कम है, (2011 की जनगणना के अनुसार, मात्र 1432) और दूसरे बुगुन भाषाभाषी स्वयं भी अपनी भाषा के संरक्षण एवं संवर्द्धन की दिशा में सचेत नहीं हैं। बल्कि वे तो विभिन्न सामाजिक, आर्थिक कारणों जैसे - रोजगार की अनुपलब्धता, संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का प्रभुत्व आदि की वजह से अपनी भाषा को छोड़कर हिंदी और नेपाली को अपना रहे हैं। बुगुन समुदाय के लोग अपने या अन्य समुदाय के लोगों से हिंदी में ही बात करते हैं। युवा पीढ़ी तो सचेत रूप से बुगुन की जगह हिंदी को अपना रही है। शिक्षा और स्कूलों में निर्देश के माध्यम के रूप में हिंदी का प्रयोग एवं पश्चिमी कामेंग जिले में आर्मीबेस होने के कारण भी यहाँ के लोग बुगुनी की जगह हिंदी को अपना रहे हैं। अब मूल रूप से बुगुन समुदाय के बुजुर्ग लोग ही अपने हमउम्रों के बीच इस भाषा का प्रयोग करते हैं। फिलहाल इसके सक्रिय वक्ताओं की संख्या बहुत कम है और यही स्थिति रही तो धीरे-धीरे यह भाषा दुर्लभ हो जाएगी। दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें तो ये लोग "मेले में नहीं घर में भटके हुए हैं।''
हालाँकि ऑल बुगुन यूथ एसोसिएशन एवं बुगुन वेलफेयर सोसायटी के सदस्य बुगुन समुदाय की भाषिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण की दिशा में ईमानदारी से प्रयत्नशील हैं। फिर भी बुगुन भाषा के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु पर्याप्त प्रयास नहीं हुए हैं। आने वाली पीढ़ी के लिए बुगुन के वाचिक साहित्य एवं भाषा को लिपिबद्ध करना जरूरी है। विभिन्न सरकारी एवं गैर-सरकारी प्रयासों द्वारा उनकी भाषा, मौखिक साहित्य, गीतों, मुहावरों आदि का अंकन एवं दस्तावेजीकरण नितांत आवश्यक है। इस संदर्भ में मैं अपने विश्वविद्यालय के अँग्रेजी एवं विदेशी भाषा विभाग की प्रोफेसर मधुमिता बोरबोरा के प्रयासों की सराहना करना चाहूँगा जिन्होंने 'बुगुन रीडर' लिखकर इस दिशा में सार्थक एवं सशक्त हस्तक्षेप किया है।
बहरहाल, पूर्वोत्तर भारत की जनजातीय लोकभाषाओं के संरक्षण के लिए इन भाषाओं में उपलब्ध वाचिक साहित्य, ज्ञान एवं अनुभवों का संकलन, संचयन, संपादन एवं प्रकाशन अत्यंत आवश्यक है। साथ ही कोश निर्माण, व्याकरण निर्माण, विश्वकोशों का निर्माण आदि जैसे ठोस कदम भी यथाशीघ्र उठाने होंगे। इस संदर्भ में मैं केंद्रीय हिंदी संस्थान, गुवाहाटी केंद्र के निदेशक प्रो. हेमराज मीणा के सुझावों से भी पूरी तरह सहमत हूँ। उन्होंने अपने एक विचारोत्तेजक आलेख 'उपेक्षित प्रश्न : जनजातीय भाषा सर्वेक्षण, संरक्षण' में यह सुझाव दिया है कि सबसे पहले तो जनजातीय लोकभाषाओं का सर्वेक्षण आवश्यक है जो कि 1971 के बाद हुआ ही नहीं है। कैसी विडंबना है कि आज लुप्तप्राय भाषाओं पर काम करने के लिए करोड़ो-करोड़ सरकारी धनराशि विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से खर्च की जा रही है, इससे संबंधित विभाग और केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है अभी तक किसी भी केंद्र ने भाषा-सर्वेक्षण करके इन भाषाओं की सही संख्या पता करने या उनके बारे में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं की है। प्रो. मीणा पूर्वोत्तर भारत की जनजातीय लोकभाषाओं के उत्थान के लिए यह भी प्रस्तावित करते हैं कि इस क्षेत्र में केंद्रीय जनजातीय भाषा अनुसंधान केंद्र, केंद्रीय जनजातीय भाषा-साहित्य अकादमी, पूर्वोत्तर भारत केंद्रीय जनजातीय भाषा अकादमी, पूर्वोत्तर भारत जनजातीय भाषा विश्वविद्यालय की स्थापना तो जरूरी है ही, साथ ही पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में यहाँ कि लुप्तप्राय भाषाओं का अध्ययन-अध्यापन भी जरूरी है। अभी हाल ही में हमारे विश्वविद्यालय में असम के माननीय राज्यपाल महोदय आए थे। शिक्षकों के साथ अपनी मुलाकात में उन्होंने बड़ी गंभीरता से इस विषय पर अपने विचार साझा किए और बताया कि जैसे पुणे विश्वविद्यालय ने आओ, अंगामी जैसी पाँच जनजातीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन का कार्य शुरू किया है वैसे ही देश के हर विश्वविद्यालय को कुछ ठोस कदम उठाने पड़ेंगे तब जाकर स्थिति सँभलेगी और सूरत बदलेगी। लेकिन इन सबसे पहले जरूरी है किसी भी भाषा के प्रयोक्ता में अपनी मातृभाषा के प्रति जागरूकता पैदा करना। उसे मातृभाषा और व्यक्तिगत अस्मिता के अंतःसंबंधों के प्रति सजग बनाना। मातृभाषा के प्रति उनकी हीनता कि भावना को दूर करना। उनमें अपनी भाषा के प्रति आत्मविश्वास पैदा करना। स्कूली स्तर पर इन भाषाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करना। शैक्षिक संस्थानों में निर्देश के माध्यम के रूप में लागू करना। सरकारी कामों एवं मीडिया में सचेत रूप से इनका प्रयोग करना। साथ ही जनजातीय लोकभाषाओं कि लुप्तप्रायता के संकट से उबरने के लिए सबसे आवश्यक यह भी है कि इन भाषाओं में रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करना क्योंकि दुनिया कि कोई भी भाषा यदि पेट पालने में सक्षम है तो वह कभी भी लुप्तप्राय नहीं हो सकती। खैर, समस्या यह नहीं है कि हल कौन करेगा, समस्या तो यह है कि पहल कौन करेगा। तो दोस्तों अभी भी बहुत ज्यादा विलंब नहीं हुआ है हम चाहें तो सूरत बदल सकते हैं क्योंकि 'हम असमर्थताओं में नहीं संभावनाओं से घिरे हैं।'