कविता में पहचाना था तुम्हें
एक आहट की तरह
जैसे पुरवइया हवा के चलने पर
मेरे गाँव के
गठियाबाई से पीड़ित बुजुर्ग
शरीर के हर जोड़ को टूटा हुआ
महसूस करते हैं।
दुनिया में देखा था तुम्हें
पीली धूप की तरह
जैसे मजदूर के पेट की भूख
दुबक कर रह जाती है सुलगती हुई
उसके जिस्म के हर मोड़ से बहता हुआ पसीना
तुम्हारे दिल की तरह पसीजता है।
बड़ी अम्मा के लोक गीतों में
तुम ही थीं वह बन्नी
जिसकी विदाई एक अदद आँसू में सिहर उठती थी
गिरने नहीं देती थी उन बूँदों को
जेठ और बैशाख की तपती हुई जमीन पर
तुम्हारे लिए!
...फिर भी तुम फूल और पत्थर जैसी थीं
मासूम होठों की ओट पर टिकी
एक खामोश अँगुली की तरह !