( आदरणीय कवि केदारनाथ सिंह को समर्पित)
७० के दशक में रोपे गए थे
जो पौधे
एक बौखलाहट में
केदार में
और तो और निगरानी में भी...
दूज के चाँद की तरह उनकी पत्तियाँ
ओस की एक-एक बूँद में डूबी हैं
नन्हीं-नन्हीं और पतली-पतली
और छोटी-छोटी
जैसे दिवाली में
एक शाम
होली के रंग में
एक सवेरा
माटी की देरी मे जलती
तेल में भीगी एक बाती
जैसे एक नहीं
हजारों दीपशिखाएँ
तुम्हारी आँखों में
पलकों की एक धार
मुस्कान की एक खुशबू
और खुशबू का एक रंग
और रंग में भी
जैसे एक नहीं
सात-सात गहरे हल्के रंग
और हर रंग में रंगा
एक रंगरेज कवि
उन्हीं पौधों पर ४० साल बाद
जैसे आ रहा हो बसंत।