( आचार्य को याद करते हुए)
यह दूसरी कविता लिख रहा हूँ
पहली कविता बीच में ही मर गई
मुझे माफ कर देना आचार्य
मैँ बचा नहीं सका
कितनी बार सर पटकूँ पत्थर पर
खून है कि निकलता ही नहीं
मैँ पत्थर को खून से रँग देना चाहता हूँ
इन दरके हुए पत्थरों का क्या करूँ दादा !
तुम्हारा हरा धारीदार कुर्ता
यह कौन है जो पहन कर चला गया
सामने से
एकदम जल्दी में
अनसुना किए हुए हमारी आवाज को
ऐसा तो कभी नहीं हुआ था !
सूरज से अधजली आत्मा
अब बारिश में भीगना नहीं चाहती
तुम्हारी आँखे आज भी मुस्कुरा रहीं हैं आचार्य !
जिस्म पर उगे हुए छालों में
पानी नहीं सिर्फ गर्म हवा भरी है
नश्तर की तलाश जारी है
हमारी धरती जो तुम्हारे भीतर भी थी
जिसके खोने का गम
दर्द बनकर सबसे ज्यादा तुम्हारे सीने में उभरा था
यह दर्द महज दर्द नहीं था
उसी धरती की तलाश में गए होंगे आप...
हमें विश्वास है
आप लौटेंगे एक दिन
उसी धरती के साथ
आप ने ही कहा था एक बार
'तुम्हारा होना महज होना नहीं है
तुम्हारा आना सिर्फ आना भी नहीं है
और न आ कर रुक जाना है
बस, चलना है चलते जाना है'
फिर, तुम्हारा जाना महज जाना नहीं हो सकता
आचार्य!
नहीं हो सकता !! हजार बार कहूँगा यह !!!
उसी धरती की तलाश में।