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कविता

लखनऊ

शैलेंद्र कुमार शुक्ल


जब भी मिलता है अकेले में
लखनऊ
जी भर कर गरियाता हूँ
एक बार सर तक नहीं उठाता

पान-मसाला और जर्दे को
गुटखे में तब्दील कर कानून का मजाक उड़ता हुआ
एक अदना सा आदमी
गोबराए मुँह से थूक देता है
शहर के वक्ष पर
और लखनऊ उफ तक तक नहीं करता

कि अचानक याद आ जाता है
मिर्ज़ा हादी रुस्वा और
उसकी उसकी उमराव जान 'अदा'
चौदहवीं के चाँद सी सूरत वाले लखनऊ
तुझे कौन सी गाली दूँ

उमराव जान की सिसकती हुई आवाज
आज भी मेरा कलेजा सालती है
सड़क के मुहाने पर खड़ी मुस्कुराती हुई कोठियों को देख कर
दर्द और हरा हो जाता है
कि दरकने लगती है आत्मा
कि सालने लगता है कलेजा
दीवार से कान लगा कर सुनता हूँ जब

यह तहज़ीब का शहर है
यहाँ हत्याएँ तहज़ीब से होती हैं
तहज़ीब से मारी जाती हैं यहाँ औरतें
तहज़ीब से मारे जाते हैं यहाँ मासूम भूखे बच्चे
बेइंतहा देश के गदराए हुए बसंत में।


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