'है न वह व्यक्तित्व मेरा / जिस तरफ मेरा कदम हो' बच्चन की इस प्रसिद्ध पंक्ति में अपने बारे में उनकी उद्घोषणा स्पष्ट है। 'बच्चन' अपनी कविता की अधिकांश पंक्तियों में खुद को भी रचते रहे हैं। यह सच भी है कि बच्चन द्वारा प्रणीत साहित्यिक विधाओं में काव्य-संग्रहों की बहुलता रही है, लेकिन मात्र इस बहुलता के आधार पर उनके व्यक्तित्व का निर्धारण करना बेमानी होगी। कवि के रूप में बहुख्यातित 'बच्चन' साहित्य जगत में कदम रखते हुए यह मानकर चल रहे थे कि वे एक कहानीकार ही बनेंगे या एक उपन्यासकार। जीवन के सोलहवें बसंत से उन्होंने साहित्य सृजन में कदम रखा। कुछ कविताएँ लिखी, लेकिन उन्होंने उसे नष्ट कर दिया। उनका मानना था कि उन कविताओं में प्रेषण और उद्बोधन नहीं था। एक दीर्घ अंतराल के बाद 1929 ई. से वे फिर कुछ लिखने लगे। लिखने के नाम पर उन्होंने एक कहानी 'हृदय की आँखें' लिखी। इसे 1930 ई. की युनिवर्सिटी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिला। प्रेमचंद जैसे स्थापित कहानीकार ने उन्हें अपनी पत्रिका 'हंस' में स्थान दिया। बतौर बच्चन - "मैं सोचने लगा शायद मुझमें कहानीकार के बीज हैं और मैं अभ्यास करता जाऊँ तो संभव है मैं किसी दिन कहानी के क्षेत्र में अपने लिए कोई स्थान बना सकूँ।"1 यह वह समय था जब 'बच्चन' साहित्य जगत में आने को बेचैन थे। वे अपनी राह तलाशने में लगे थे। कहानी लिखते-लिखते वे कविता भी लिखने लगे। यहाँ 'बच्चन' दुविधाग्रस्त थे - "लगभग चार वर्ष अपने विविधतापूर्ण स्वाध्याय के अतिरिक्त मैं कहानियाँ भी लिखता रहा, कविताएँ भी लिखता रहा - जैसे कवि और कहानीकार दोनों मेरे अंदर परस्पर संघर्ष कर रहे हों और अभी तक मैं निश्चय न कर सका हूँ कि विजय का सेहरा किसके माथे बाँधूँ।"2 यह सच है कि आगे चलकर 'बच्चन' प्रायः कवि रूप में प्रसिद्ध हुए।
'बच्चन' ने आरंभिक सृजन के दिनों में कहानियों का एक संग्रह तैयार किया। भूमिका धीरेंद्र वर्मा से लिखवाकर उसे 'हिंदुस्तानी अकादमी' को प्रकाशित कराने के लिए दे दी। परंतु कुछ दिनों बाद ही अकादमी ने प्रकाशित करने में असमर्थता व्यक्त की। क्रोध में आकर उन्होंने संग्रह फाड़ दिया। यहाँ 'बच्चन' स्वीकारते हैं - "संग्रह प्रकाशित हो जाता तो उसका प्रोत्साहन शायद मुझे कहानी, उपन्यास के क्षेत्र में बढ़ने को प्रेरित करता।"3 लेकिन अपने कहानीकार व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए वे आगे लिखते हैं - "क्या मेरे अंदर का कहानीकार मर गया? मरता जीवन में कुछ भी नहीं, केवल रूप बदलता है। कहानीकार मेरे कवि में आत्मसात हो गया।" 4 यह सच भी है कि उनकी काव्य रचनाओं में उनके ही जीवन की ढेरों कहानियाँ भरी पड़ी है। विधागत बदलाव के बावजूद भी उनकी किस्सागोई उनकी कविताओं में सदैव बरकरार रही है।
एक कहानीकार के रूप में बच्चन ने कुल ग्यारह कहानियाँ लिखी हैं। इन कहानियों में विविधता है। जीवन के विविध प्रसंगों से जुड़ी ये कहानियाँ बेहतरीन संदेश प्रेषित करती हैं। ये सभी कहानियाँ 1929 ई. से 1933 ई. के बीच लिखी गई हैं। हालाँकि इसका प्रथम प्रकाशन 1946 ई. में हो सका। इस प्रकाशन को लेकर 'बच्चन' का कहना है - "चौदह वर्षों बाद जब भारती भंडार ने मेरी प्रारंभिक रचनाओं को छापना चाहा तो मुझे उन्हें पत्र-पत्रिकाओं से, अपने पुराने कागजों के फर्स्ट ड्राफ्टों से फिर से तैयार करने में काफी परेशानी उठानी पड़ी। शायद उसी दिन मेरे मन ने यह निर्णय लिया था कि मैं कहानीकार नहीं बन सकता, अब कविता की दिशा को अपनाऊँ।"5 अपने कहानीकार की असफलता को लेकर उन्होंने समर्पण में भी यह स्पष्ट किया है - "भाई यादवेंद्र, तुमने जो मुझे ठोंक-पीटकर कहानीकार बनाने का प्रयत्न किया था उसमें तुम किस प्रकार असफल रहे, इसके सुबूत में यह कहानियाँ मैं तुम्हें समर्पित करता हूँ।"6 इन पंक्तियों में 'बच्चन' अपने-आपको असफल कहानीकार स्वीकार करते हैं। यहाँ यह मान लेना भी आवश्यक होगा कि मात्र ग्यारह कहानियों के आधार पर यह तय नहीं किया जा सकता है कि 'बच्चन' आगे चलकर इस विधा में असफल ही रहते। यद्यपि उन्होंने काव्य क्षेत्र को अपने सृजन का माध्यम बनाया। तथापि इन कहानियों पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि 'बच्चन' हर तरह की कहानियों में अपनी संवेदना का भरपूर प्रयोग करते हैं।
भारती भंडार, इलाहाबाद से 1946 ई. में प्रथम प्रकाशित 'प्रारंभिक रचनाएँ' शीर्षक से उनकी कहानियों के संग्रह की प्रथम कहानी 'माता और मातृभूमि' है। इस कहानी की प्रेरणा तत्कालीन परिस्थितियों को मानना उचित होगा। जिस समय यह कहानी लिखी गई थी वह समय गुलामी का था। सभी भारतीय यातना सहने को मजबूर थे। एकाध प्रतिरोध भी बीच-बीच में देखे गए। पूरी कहानी मार्मिक बन पड़ी है। एक बीमार माँ और उनकी सेवा में लगे एक बेटे की दास्ताँ ऐसी भी हो सकती है, यह पाठकों को नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती है। पूरी कहानी अफगानिस्तान के प्लॉट में लिखी गई है। इसमें आए एक संदर्भ आज के लिए भी प्रासंगिक हो सकते हैं - "पर अफगानिस्तान में जो स्कूल थे उनमें अमीरों के ही लड़के पढ़ सकते थे। उन्हीं का पढ़ना जरूरी समझा जाता था। सभी पढ़ लेंगे तो पढ़ने की कदर ही क्या रह जाएगी? नीची कौमों के लोग पढ़-लिख लेंगे तो नीचे काम फिर कौन करेगा?"7 यह सोच आज के सभ्य समाज में भी देखा जा सकता है। साक्षरता-दर से इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। कैसी बिडंबना है कि मनुष्य-मनुष्य में आज भी समानता नहीं है। गहरे असंतोष के बीच बढ़ रही सामाजिक असुरक्षा भी इसका एक मुख्य कारण रहा है। बीमार अजमतुन (कहानी की एक पात्र) को जब यह ज्ञात होता है कि देश संकट में है। इस संकट की घड़ी में देश-सेवा के लिए देशभक्त युवकों की जरूरत है तो अजमतुन एक ठोस निर्णय लेती है। वह खुद को मार डालती है ताकि उसका इकलौता पुत्र देशहित में काम आ सके। मरने से पहले माँ ने अपने बेटे के नाम एक पाती लिखी - "प्यारे उमर, तुम मेरे मरने का अफसोस न करना, तुम्हें अब मैं एक बड़ी माँ की गोद में सौंप रही हूँ। तुम अब उस माँ की खिदमत करना।"8 उमर की माँ 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' की महत्ता को स्वीकारते हुए उमर को मातृ सेवा के भार से मुक्त करके मातृभूमि की सेवा में लगा देना ही श्रेयस्कर समझा।
पाठक अजमतुन के प्रति श्रद्धावनत है। वह उदात्तता के चरम का उदाहरण पेश करती है। यह कहानी 'बच्चन' द्वारा प्रयाग विश्वविद्यालय हिंदी-परिषद के प्रथम गल्प सम्मेलन में पढ़ी गई थी। निश्चय ही बच्चन आरंभिक कहानियों में से इस कहानी में सशक्त हैं। कहानी कला की तमाम खूबियों को यह एक साथ समेटने का काम करती है।
संग्रह की दूसरी कहानी 'संकोच-त्याग' में 'बच्चन' कुछ अधिक ही खुल जाते हैं। जीवन में पढ़ाई-लिखाई का महत्व होता है। शिक्षित व्यक्ति आज के समाज की जरूरत है। शिक्षा पाने का एकमात्र उद्देश्य जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का सदुपयोग करना है। एक सुखद जीवन की लालसा लगभग प्रत्येक मनुष्य करता है। लेकिन एक छात्र जीवन का व्यक्ति, जीवन के उद्देश्य का दूसरा मोड़ तलाश ले तो निश्चय ही वहाँ संकट है। वैसे 'बच्चन' का कहानीकार कहानी के नायक से एक विचित्र बात कहला देता है - "माना कि छात्र-जीवन और गृहस्थ-जीवन में बहुत बड़ा अंतर है, लेकिन प्रभा-जैसी स्त्री के लिए यदि छात्र-जीवन का अंत भी करना पड़े तो क्या हर्ज। विद्याध्ययन का उद्देश्य यही तो है कि जीवन सुखी हो। सुखी जीवन के लिए प्रभा जैसी स्त्री से बढ़कर और क्या वस्तु हो सकती है?"9 यहाँ पात्र के संवाद के आधार पर कहानीकार 'बच्चन' ने स्त्री को वस्तु से तुल्य किया है। यह सर्वथा अशोभनीय और निंदनीय है। आज की स्त्री मात्र देह और भोग के लिए नहीं जानी जाती, वह तो अपने गुण एवं कार्यों से जानी जाती है। उन्हें वस्तु मानना एक ओछी सोच कही जाएगी। 'बच्चन' ने यहाँ शब्द-चयन में गंभीरता नहीं दिखाई है। वैसे कभी-कभी घटना और पात्र की माँग के अनुरूप कहानीकार शब्दों का चयन करते हैं। ऐसे में कहानीकार को दोषमुक्त रखा जा सकता है।
'अंचल का बंदी' शीर्षक कहानी सामान्य कहानी है। वैसे इसमें जो किस्सागोई है उसमें कोई कसावट नहीं है। एक सामान्य-सी कहानी को असामान्य बनाने की पुरजोर कोशिश की गई है। इस तरह की कहानियों के आधार पर ही 'बच्चन' अपने-आपको असफल कहानीकार मानते हैं। इस कहानी की बड़ी सफलता यह मानी जा सकती है कि यह 'माधुरी' के जुलाई 1932 ई. के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रेम को आधार बनाकर लिखी गई इस कहानी में प्रेम को उदात्त रूप देने की पहल है। विश्वास और अविश्वास के बीच झूलती यह कहानी अंत में विश्वास की गोद में ही आकर गिरती है।
एक कहानीकार को केवल अपनी कहानियों को कल्पना लोक में ही नहीं घुमाना चाहिए। प्रेमचंद जैसे कथाकार ने यथार्थवाद के धरातल पर कहानियाँ लिखी हैं और इस यथार्थ को भी आदर्श की चासनी में उन्होंने डुबा रखा है। पाठकों को भी ऐसी ही कहानियाँ अधिक पसंद होती हैं जो यथार्थ के सन्निकट होती हैं। यहाँ बच्चन की एक कहानी 'चिड़ियों की जान जाए लड़कों का खिलौना' पर विशेष ध्यान देना लाजिमी है। शीर्षक की लंबाई-चौड़ाई देखकर कहानी की कथावस्तु का सही अंदाज नहीं लगाया जा सकता है। यह एक बेहतरीन कहानी है। निर्ममता कूट-कूटकर भरी हुई है। इस तरह की कहानियों की तुलना हिंदी साहित्य की श्रेष्ठ निर्मम कहानियों से की जा सकती है। मनुष्य अपने स्वार्थ में कितना संवेदनहीन हो जाता है यह इस कहानी में देखा जा सकता है। हिंदी क्षेत्र में एक कहावत खूब प्रसिद्ध है - 'मजाक में मजाक, मर गया रज्जाक।' यह कहानी भी खेल-खिलौने से आरंभ होकर मृत्यु के दर्दनाक दृश्य से पाठक को रू-ब-रू कराती है। मजाक का खेल इतना क्रूर हो सकता है, वह भी अस्थायी स्वार्थ के वशीभूत होकर, काफी सोचने को मजबूर करती है। मृत्यु वीभत्स और कारुणिक तब हो जाती है जब उसके पीछे का उद्देश्य शून्य हो। पूरी कहानी बच्चों की उद्दंडता की हद को बया करती है। बच्चों में कैसा संस्कार विकसित हो? यह हमारी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। यह कहानी समाज में व्याप्त एक गंभीर चिंता को व्यक्त करती है।
इस कहानी में 'बच्चन' एक परिपक्व कहानीकार की भाँति हमसे परिचित होते हैं। यह बेहतरीन कहानी 'बच्चन' की कुल कहानियों में एक प्रतिनिधि कहानी की तरह खड़ी दिखती है।
एक और बेहतरीन कहानी के तौर पर 'हृदय की आँखें' को देखा जा सकता है। यह 'हंस' के जनवरी 1931 ई. के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रेम के उदात्त रूप का निदर्शन इस कहानी में होता है। सूरत से कहीं ज्यादा खूबसूरती सीरत की होती है। कहानी के अंत में एक पंक्ति आती है - "सौंदर्य को देखने की आँखें भी दो प्रकार की होती हैं, एक चेहरे के ऊपर और एक हृदय के भीतर।"10 यह कहानी आज के उन युवाओं के लिए एक प्रेरणा है जो बाह्य खूबसूरती को श्रेष्ठ मानते हैं। आज जबकि बाजारीकरण का प्रभाव बढ़ चला है, भौतिक सुंदरता को उच्चता और श्रेष्ठता का पैमाना बना दिया गया है, वहीं आंतरिक सुंदरता को श्रेष्ठ बताती यह कहानी अपने-आप में एक मिसाल है। 'बच्चन' की इस कहानी को देश और काल की सीमा से परे कहा जा सकता है। इसकी सार्थकता सदैव बनी रहेगी। इस कहानी की कथावस्तु प्रत्येक जनमानस को झकझोरती है।
एक कहानीकार के तौर पर 'बच्चन' का उभार असाधारण रूप से 'धर्म-परीक्षा' शीर्षक कहानी में देखा जा सकता है। कहानी की कसावट और बुनावट बेहतरीन बन पड़ी है। गाय को लेकर होनेवाले सामाजिक विद्वेषों पर यह कहानी गंभीर चोट करती है। एक गरीब ब्राह्मण द्वारा किया गया कार्य हिंदू धर्म के लिए किए गए उसके कार्य से अधिक मानव-धर्म का कार्य है। एक निरीह बूढ़ी गाय को कसाई के हाथों बिकने से बचाने के लिए समूची हिंदू जाति यदि उस ब्राह्मण को अपना प्रतिनिधि मान बैठे तो यह अनुचित होगा। वह तो उस मानव जाति का प्रतिनिधि बनकर सामने आता है जो सत्य, अहिंसा और ईमानदारी के विवेक पर अपना जीवन-यापन करता है।
बूढ़ी गाय जब कसाई के हाथों बिक रही होती है तो कई हिंदू भी तमाशबीन खड़े होते हैं। उस गरीब ब्राह्मण द्वारा कही गई बातें सबको चुभती तो है लेकिन चुभने के बावजूद वे बुत बने रहते हैं। ऐसे में हिंदुओं द्वारा गाय के प्रति प्रेम झूठा सिद्ध होता है। ब्राह्मण कहता है - "देखो इतने हिंदू हैं, एक गाय की जान नहीं बचा सकते! कहलाते हैं राम-कृष्ण के भक्त और कृष्ण ने जिन गौओं को बन-बन चराया उनकी रक्षा नहीं कर सकते। कैसा कलियुग छाया है! कैसी दुनिया मतलब की हो गई है? जब तक छाती फाड़-फाड़कर दूध पिलाए, तब तक तो गऊ माता है और वही माता जब बूढ़ी हो जाती है तब कसाई के हाथ सौंप देते हैं, धिक्कार है ऐसे हिंदुओं को। मुसलमान गायें नहीं काटते, हिंदू लोग कटवाते हैं। तभी तो दूध-दही स्वप्न हुआ जाता है, खेती-बारी में आग लगी जाती है। जान लो हिंदुओं! इन गूँगी गौओं का श्राप तुम्हें बर्बाद किए देता है। कोई तो राम-कृष्ण का भक्त ऐसा निकलता जो कह देता कि - मैं गाय लेकर उसके प्राण बचाऊँगा।"11 यह मात्र एक संवाद नहीं है। यह एक तीखा व्यंग्य है।
कहानीकार ने गाय के बहाने धर्म के नाम पर होने वाली विसंगतियों को उजागर किया है। बूढ़ी गाय को पालने का जिम्मा लेने वाला ब्राह्मण समाज की नजर में पागल हो गया। मुहल्ले वाले ने उसके काम को बुरा बतलाया। ब्राह्मण ने 'गाय-गाय' चिल्लाने वाली धर्मांध जनता को मानवता का पाठ पढ़ाया। यह कहानी 'बच्चन' को श्रेष्ठ कहानीकार की श्रेणी में खड़ी करती है। 'बच्चन' खुद को असफल कहानीकार कैसे मान बैठे? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही रहेगा। उन्होने इतनी सशक्त कहानी लिखने के बावजूद अपने को कहानीकार कहलाना पसंद न किया। यह समूचे हिंदी साहित्य के लिए एक श्रेष्ठ कहानीकार के जन्म लेने से पूर्व ही मर जाने जैसी कहानी है।
'बच्चन' की कहानियाँ मानवीय संवेदना के धरातल पर रुदन करती है। यह रुदन-स्वर मानव मस्तिष्क पर एक व्यापक असर करती है। वास्तविकता के करीब ये कहानियाँ यथार्थ के यथार्थ का बोध कराती हैं।
'बच्चन' की एक कहानी 'खिलौनेवाला' रवींद्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला' से शीर्षक-साम्य रखता है। कहानी इतनी मार्मिक होगी, इसका अंदाजा पाठक को आरंभ में पता नहीं चलता है। कहानी का अंत पाश्चात्य शैली के आधार पर त्रासदीपूर्ण है। आँखों से विरेचित हो रहे अश्रुजल को कहानी की सफलता मानी जा सकती है। कहानी भूत के वहम और अंधविश्वास पर टिकी है, इस कारण ऐसी कहानी यथार्थ नहीं लगती, लेकिन जिस संवेदना को आधार मानकर कहानीकार ने भूत का जिक्र किया है, उसके आधार पर कहानी शुरू से अंत तक पाठक को अपनी विषय-वस्तु में बाँधे रखती है।
'दुखनी' शीर्षक कहानी सहृदयता के चरम की खोज है। एक दुखनी स्त्री के दुख से कहानी का एक प्रमुख पात्र इस कदर दुखी होगा कि वह अपना प्राण त्याग देगा, यह पाठकों को अचंभित करता है। इस कहानी के बहाने कहानीकार ने 'दर्शन' की व्याख्या भी की है। खासकर भारतीय और विदेशी दर्शन के संदर्भ में कही गई उनकी बातें अवश्य ही महत्वपूर्ण है। कहानीकार ने कहानी के पात्र कृष्णा बाबू के माध्यम से कहवाया है - "जहाँ विदेशी दर्शनशास्त्र किसी एक मनुष्य की बुद्धि की उपज है, वहाँ भारतीय दर्शनशास्त्र समस्त भारतीय जीवन से निकली हुई वस्तु है। भारतीय, दर्शन समझता नहीं, वह दार्शनिक जीवन व्यतीत करता है।"12 वैसे यह भी सच है कि कहानीकार अपनी बात रखने के लिए पात्रों का ताना-बाना बुनता है। कहानी में जो बातें पात्र कहता है, वह वास्तव में कहानीकार की ही बातें होती हैं। 'बच्चन' इस कहानी में इतने दार्शनिक हो गए हैं कि कहानी दार्शनिकता की चादर ओढ़ लेता है।
कहानीकार कृष्णा बाबू की मौत के पूर्व भी उन्हें दयावान दिखा सकते थे, हालाँकि कहानी तब और होती। यदि किसी के दुख से हम दुखित हैं तो इसका निदान यह नहीं हो सकता कि हम भी उनके दुख में सहभागी होकर या उस दुख का अहसास कर खुद का प्राणांत कर बैठें। यदि कृष्णा बाबू जो निश्चित रूप से संभ्रांत हैं, अमीर हैं, यदि उसे दुखनी के दर्द का अहसास ही था तो उसे तत्क्षण मदद करनी चाहिए थी। यह क्या ! उसे तो उस समय अपनी कहानी का प्लॉट सूझ रहा था।
प्रतीक अर्थों में यदि हम बात करें तो आज भी विरले ही कोई ऐसा हो जिन्हें ऐसी स्थिति में मजाक नहीं सूझता हो। कल के भरोसे नेक काम करने की पहल तो सभी करते हैं, परंतु तत्क्षण उस पर अमल करना किसी-किसी के लिए ही संभव होता है। 'अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत' कहानी में यद्यपि संवाद की कसावट नहीं है, परंतु यथार्थ से साम्य दिखाकर कहानी कुछ और ही बयाँ करना चाहती है। यहाँ कहानीकार की दृष्टि बिल्कुल स्पष्ट है।
ईश्वर के प्रति मनुष्य की आस्था अलग-अलग है। विभिन्न धर्मों में ईश्वर को लेकर जो बातें कही गई हैं, वे अंततः एक-दूसरे से भाव-साम्य ही रखता है। हिंदू धर्म में प्रतिमा पूजन को लेकर समय-समय पर वाद-संवाद होते रहे हैं। वैदिक परंपरा में तो इतना तक कहा गया है कि 'ईश्वर की कोई प्रतिमा नहीं होती है', 'प्रतिमा पूजन करने वाले घोर नरक में जाते हैं।' इसी को आधार मानकर स्वामी दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना की। हिंदू धर्म में आ गए अनावश्यक पाखंडों को खत्म करने के उद्देश्य से उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश' नामक ग्रंथ की रचना की। 'पाखंड खंडिनी पताका' को लहराकर यह उद्घोषणा की कि 'वेदों की ओर लौटो।' आस्था के इसी प्रश्न को लेकर 'बच्चन' ने एक कहानी 'ठाकुरजी' लिखी है। यह ईश्वर के प्रति आस्था के भिन्न स्वरूप पर लिखी गई बेहतरीन कहानी बन पड़ी है।
तत्कालीन समाज में आर्य समाज ने ईश्वर की सत्ता को लेकर समाज में वर्गभेद कर दिया था। आर्य समाज का दावा रहा है कि वह वैज्ञानिकता को सर्वोपरि मानते हैं। समाज में व्याप्त अंधविश्वासों पर उनका कोई विश्वास नहीं था। आज भी जहाँ-जहाँ वैदिक संस्कृति को मानने वाले लोग हैं उनका मूलमंत्र 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' ही है। कहानी का नायक राजकुमार जब 'सत्यार्थ प्रकाश' पढ़कर आर्य समाज के सिद्धांत पर चलना स्वीकारता है तो वह चाहता है कि उनकी माँ भी आर्य बने। आर्य नियमों का पालन करे। जबकि उनकी माँ की श्रद्धा ठाकुरजी में बनी हुई थी। राजकुमार जब माँ को अपनी आस्था से नहीं डिगा पाया तो उसने ठाकुरजी की प्रतिमा को ही गंगा समाधि दे दी। इसकी खबर मिलते ही उसकी माँ की जो दशा हुई और अंत में वह मृत्यु को प्राप्त हुई, उसने राजकुमार की आस्था भी बदल डाली। वह ठाकुरजी के प्रति तो श्रद्धावनत नहीं हो सका, लेकिन ठाकुरजी के स्थान पर अपनी माँ का चाँदी का अनंता रखकर श्रद्धा और भक्ति की एक नई आस्था को जन्म दे दिया।
कहानी छद्म आस्था पर करारा व्यंग्य है। यह व्यंग्य तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब एक की आस्था, दूसरे की आस्था से टकराती है। 'मेरी आस्था तुम्हारी आस्था से बेहतर है' की सोच ने आज के मानव को वैमनष्य से भर से दिया है। ईश्वर की व्यापकता का अहसास जब मनुष्य को होता है, तो वह अपने अहम से मुक्त हो जाता है। पूरी कहानी के अंत में कहानीकार ने एक बेहद महत्वपूर्ण पंक्ति को लिखा है - "वह जो ईश्वर के निहोरे जड़ पदार्थ के सामने अपना सिर न झुका सकता था, उसे मनुष्य के निहोरे झुकाना पड़ा।"13 आस्था जब परिवर्तित होती है, तो अपने साथ कई महत्वपूर्ण चीजें समाप्त भी करती है तो कुछ नई चीजों को जोड़ती भी है। आस्था का दर्शन आस्था में ही रहकर किया जा सकता है। यह कहानी कहीं-न-कहीं 'बच्चन' के व्यक्तिगत द्वंद्वों को भी उभारती है।
'बच्चन' की कहानियों में से 'उऋण' कहानी बेहतरीन है। यह भावनात्मक रूप से हर पाठक को अपने स्तर से जोड़ने में सफल होती है। पूरी कहानी करुणा, त्याग और दया के त्रिकोण पर चलती है तथा संवेग का स्तर क्षण-क्षण बदलता है। 'प्रेम की कोई जाति नहीं होती' के मूलमंत्र पर लिखी गई यह कहानी प्रेम की उदात्तता सिद्ध करती है। सेवा का ऋण, सेवा से चुकाने की ही कहानी है 'उऋण।' पंद्रह वर्ष या उससे अधिक तक जिस व्यक्ति ने एक लड़की की सेवा की, एक परिवार की सेवा की, उसका ऋण अंतिम समय में जीर्ण-शीर्ण अवस्था हो जाने पर उसी लड़की ने सेवा कर ऋण को चुकाने का प्रयास किया। हालाँकि सेवा का ऋण चुकाना संभव नहीं। कहानी में सेवा के बदले सेवा-धर्म का निर्वहन दिखाकर एक परंपरा का ही निर्वहन किया गया है, लेकिन आज वही परंपरा विच्छिन्न होती चली जा रही है।
'माया' पत्रिका के सितंबर 1932 ई. के अंक में प्रकाशित 'बच्चन' की कहानी 'स्वार्थ' मानव के स्वार्थी स्वभाव का निचोड़ प्रस्तुत करती है। स्वार्थ इतना बलवान होता है कि वह सिर्फ स्व का उत्थान और पर का पतन चाहता है। स्वार्थ के वशीभूत मनुष्य यह जानते हुए भी कि उसकी बदनामी होगी, फिर भी स्वार्थ करता है। स्वार्थ के सामने मनुष्य के रिश्ते भी तार-तार हो जाते हैं। रिश्तों की अनदेखी, स्वार्थ के लिए प्रथम शर्त है। कहानी में एक अंधा पिता अपनी जवान बेटी की शादी इसीलिए नहीं करता है कि उसकी ताउम्र सेवा करने वाला कोई नहीं था। बेटी उनके स्वार्थ को प्रेम मानती थी, लेकिन हद तो तब हो जाती है जब वह लड़की एक पुरुष द्वारा भगा ले जाती है। लड़की पिता के लिए परेशान होती है, लेकिन जब लड़की का पति उसे चुपके से पिता के पास ले जाता है तो उसे यह देखकर हैरानी होती है कि उसके अंधे पिता ने दूसरी स्त्री को रख लिया था, बिना उसकी कोई खोज-खबर किए।
कहानीकार ने जीवन के यथार्थ से ही एक कहानी का निर्माण किया है। यह यथार्थ जाने-अनजाने हमें अपने जीवन के इर्द-गिर्द भी दिख जाता है। स्वार्थ में आदमी इतना गिर जाता है कि उसे सिर्फ अपने की ही चिंता होती है। यह दयनीय है। आज के समाज में रहने वाला मनुष्य निश्चय ही इस कोढ़ का शिकार है। मानवता की पुकार परमार्थ में है। मानव के मस्तिष्क में परमार्थ का संवेदनशील पक्ष अब धुँधला हो चुका है। यह कहानी एक गंभीर प्रश्न को जन्म देती है। प्रश्न का अनुत्तरित रह जाना प्रत्येक मानव की हार है।
इन ग्यारह कहानियों के अलावा 'बच्चन' ने एक लघुकथा भी लिखी थी जो सरस्वती के मई 1932 ई. के अंक में प्रकाशित हुई थी। 'चुन्नी-मुन्नी' शीर्षक से लिखी गई यह लघुकथा एक व्यंग्य है। कथा का एक संवाद ईश्वर के समक्ष मनौती पूर्ण होने के बाद चढ़ाने वाले चढ़ावे को लेकर है। यद्यपि मनौती पूर्ण नहीं हुई है। 'चुन्नी ने उदास होकर धीमे से अपनी माँ से पूछा - "अम्मा क्या जो फेल हो जाता है वह मिठाई नहीं चढ़ाता ?"14
एक मासूमियत के साथ उठाए गए इस सवाल पर ईश्वर भी लजा जाते हैं। आज की परिस्थिति में प्रायः सभी धार्मिक स्थलों पर चंदे या चढ़ावे-चढ़ाए जा रहे हैं और बदले में ईश्वर से यह आशा की जाती है कि उनकी मनोकामना पूर्ण हो। सीधे अर्थों में यह ईश्वर को दिया गया रिश्वत है। 'आप मेरा यह काम कर दीजिए, बदले में मैं यह चढ़ाऊँगा' की प्रवृत्ति आज की आस्था के केंद्र में है। चढ़ावे का व्यवसाय आश्चर्यचकित करने वाला हो गया है। 'बच्चन' ने इस रिश्वत या चढ़ावे के दूसरे पक्ष को लेकर अपनी बात रखी है। प्रश्न है कि क्या आज के दौर में ईश्वर भी उनकी ही मनोकामना पूर्ण करता है जो उनके लिए चढ़ावे चढ़ाता है? क्या खाली हाथ इबादत करने वाला कुछ पाने का अधिकारी नहीं है? प्रश्न अति महत्वपूर्ण है। 'बच्चन' का इशारा अप्रत्यक्ष रूप से इतना भर है कि आज ईश्वर भी रिश्वतखोर हो चुका है। बिना चढ़ावे या पूजा के वह न भेंट देता है, न आशीर्वाद ही और न ही मनोकामना पूर्ण होने का आशीष। ऐसे में भक्तजनों द्वारा चढ़ावे का ढोंग करना अनिवार्य हो जाता है।
लघुकथा प्रायः तीक्ष्ण व्यंग्यों को ही लेकर लिखा जाता है। इस आधार पर 'बच्चन' द्वारा लिखी गई यह लघुकथा सामाजिक ईश्वरीय आस्था एवं चढ़ावे पर विशेष कटाक्ष करती है।
'बच्चन' की इन कहानियों पर दृष्टिपात करने से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि उनकी कहानियाँ भी कम स्तरीय नहीं हैं। उन्हें कहानियों का मार्ग इसीलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि प्रकाशक ने उनकी कहानी संग्रह को प्रकाशित करने में असमर्थता जताई। वैसे 'बच्चन' तो खुद को कहानी के क्षेत्र में असफल मान चुके थे। उनकी काव्य रचनाएँ 'निशा निमंत्रण', 'आकुल-अंतर' में उनके कहानीकार हृदय को बड़ी नजदीकी के साथ देखा जा सकता है। वे प्रायः किस्सागोई की शैली में ही कविता लिखते रहे। यह सिद्ध करता है कि उनका कहानीकार मन केवल रूपांतरित होकर 'कवि' के रूप में हमारे सामने आया।
यदि तत्कालीन समय की बात की जाए जिस समय 'बच्चन' ने हिंदी कहानी के क्षेत्र में प्रवेश पाया उस समय हिंदी और बांग्ला और साथ ही अँग्रेजी साहित्य में कथा-धारा का तीव्र विकास हो चुका था। हिंदी में जहाँ प्रेमचंद, सुदर्शन, प्रसाद प्रभृतियों ने कहानी के स्तर को उच्चतम बना दिया था, वहीं बांग्ला साहित्य में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा कई महत्वपूर्ण और कालजयी कहानियों का सृजन हो चुका था। अँग्रेजी साहित्य में तो 'नोवेल' और 'स्टोरी' अपना पैर जमा चुका था। ऐसे में 'बच्चन' को अपनी प्रारंभिक कहानियाँ निजी तौर पर स्तरीय नहीं लगी होगी। वे इनके समानांतर लिखने में खुद को असुरक्षित मान रहे होंगे। हालाँकि उनकी इन कुछ कहानियों में लिखे गए संवाद और गढ़े गए पात्र, घटना और परिवेश कहानी के सभी मानदंडों को पूरा करती हैं। 'प्रतिभा प्रोत्साहन चाहती है।' बच्चन के भीतर के कहानीकार की प्रतिभा लगातार अपनी चमक बिखेर रही थी जब उनकी कहानियों को तब की श्रेष्ठ पत्रिकाओं ने प्रकाशित किया। यहाँ तक कि प्रेमचंद ने भी जब उनकी कहानी को श्रेष्ठ कहानी का खिताब दे दिया था, लेकिन बाद के दिनो में प्रोत्साहन के अभाव में और कुछ निजी कटु-अनुभवों ने 'बच्चन' के अधखिले कहानीकार रूप को पूर्ण रूप से खिलने से पूर्व ही पंखुड़ियों से मुक्त कर छिन्न-भिन्न कर दिया।
यह तो अब कल्पना ही की जा सकती है कि हिंदी साहित्य में 'बच्चन' नाम का एक प्रसिद्ध कहानीकार भी हो सकता था। कहानी के पारखी आलोचकों ने यदि उनकी इन थोड़ी कहानियों की ही सही आलोचना की होती, तो निश्चय ही 'बच्चन' के कहानीकार स्वरूप से हिंदी साहित्य रू-ब-रू होता। इतिहास साक्षी रहा है कि कई कहानीकार कम कहानियाँ लिखकर भी अमर हो गए। फिर उनकी तुलना में 'बच्चन' की कहानियों के परिमाण तो अधिक ही हैं। हाँ, यह अवश्य है कि कहानी के आवश्यक तत्व के मीटर कुछ इधर-उधर जरूर दिखते हैं। परंतु ये मीटर इतने भी नहीं खिसके हैं कि उन्हें कहानी मानने से संपूर्णतः नकार दिया जाएँ। इस आधार पर उन्हें कहानीकार तो माना ही जा सकता है। कहानी लिखकर उन कहानियों के विश्लेषण ने ही 'बच्चन' को कहानी विधा से दूर कर दिया। यह हिंदी साहित्य के लिए भी एक आघात ही कहा जाएगा।
संदर्भ
1. बच्चन, हरिवंशराय, क्या भूलूँ क्या याद करूँ, संस्करण-2011, नई दिल्ली : राजपाल एंड संस, पृष्ठ-196
2. वही, पृष्ठ-197
3. वही, पृष्ठ-197
4. वही, पृष्ठ-197
5. वही, पृष्ठ-197
6. सं. अजितकुमार, बच्चन रचनावली, खंड-9, नई दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ-199
7. वही, पृष्ठ-201
8. वही, पृष्ठ-203
9. वही, पृष्ठ-210
10. वही, पृष्ठ-236
11. वही, पृष्ठ-239
12. वही, पृष्ठ-251
13. वही, पृष्ठ-265
14. वही, पृष्ठ-278