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कविता

कम-से-कम रात भर ठहर जाईं

पांडेय आशुतोष


कम-से-कम रात भर ठहर जाईं
आँख के कोर तक पसर जाईं

ताल-पोखर के बात ना भूली
जेमें हमनी के डूब उतराईं
हमनी खेलीं जा खेत खरिहाने
ढोल गटई में डार के गाईं

नीम के डार में लगे झुलुहा
ओकरे फुगुनी से हम उतर जाईं
रात के ताल में खिले कूईं
मन में गमके त हम सँवर जाईं

कम-से-कम रात भर ठहर जाईं
कुछ त जिनिगी के बात बतियाईं

अब त गुजरी इयाद आवेले
ओकरा देखे बदे हहर जाईं
दउरे पटुआ लपेट के हरिया
हमनी भालू समझ के डर जाईं

अब फुलाईं ना मनके जलकुंभी
चइता-फगुआ के दिन बिसर जाईं
कम-से-कम रात भर ठहर जाईं
काल्‍ह खा-पी के दूपहर जाईं

कम-से-कम रात भर ठहर जाईं
आँख के कोर तक पसर जाईं


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