'जब देखो तो लगते हैं, जुड़े हैं
जब देखो तो वहाँ नहीं है जोड़
पर देखो तो लगता है, है वहाँ'
किसी भी अभिव्यक्ति को मैं कला-विधाओं के जटिल विशिष्ट संयोजन के रूप में देखता हूँ। सप्रेषणीयता को और अधिक सुलभ बनाने में ऐसे संयोजन की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन यह भी ध्यातव्य है कि इस तरह के संयोजन में प्रयुक्त कला-विधाओं की भूमिका मात्र माध्यम अथवा 'टूल' की-सी ही होती है, संपूर्ण कला का दर्जा उसे नहीं दिया जा सकता।
कलाओं में अभिव्यक्ति का अतिव्यापन उसके (कला और कलाकार के) इतिहास, अतीत, संघर्ष, और वर्तमान तथा भविष्य में एक साथ होता है। इनके सूत्रों को तलाश कर लेने के बावजूद उस कला को नियमीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि कलाकृति में से हम उन अवक्षेपों या उनके सूक्ष्मांशों को ही प्राप्त करके जुड़ पाते हैं, जो हमारे समय में चले आते हैं, जिनका हमारे इतिहास, अतीत, संघर्ष, वर्तमान और भविष्य से कुछ साख्य होता है। यह 'आस्वादन' की एक प्रचलित प्रक्रिया है। सृष्टि स्वयं को बहुविध अभिव्यक्त करती है और समय भी; एक सजग कलाकार अपनी क्षमतानुसार उसको अनुभूत कर अपनी रचना में अपने देशकाल की सीमाओं के अंतर्गत और कई बार कालनिरपेक्ष विस्तार में घटित करता है। इस तरह एक ही विषय पर कोई कलाकार चित्र बनाता है तो कोई कविता लिखता है, कोई अन्य कलारूपों में उसका सृजन करता है। यह, दरअसल, कलाकार द्वारा भाव-संश्लेषण की अद्वितीय प्रक्रिया द्वारा निर्धारित होता है, इसीलिए विषय की एकरूपता या एक ही होने के बावजूद विभिन्न रचनाकार अपने-अपने कलारूप निर्मित कर पाते हैं। यदि विभिन्न कला-विधाओं में कार्य करनेवाला एक ही कलाकार हो तो उसके कलारूपों में, एक ही विषय पर केंद्रित होने के बावजूद, क्या साख्य संभव होता है; यह प्रश्न यहाँ उठ सकता है। बहुत संभव है कि कलाकार जो एक सामाजिक मनुष्य है, उसका किसी विषय से प्रभावित होने और एक अर्थ प्राप्त कर लेने का कोई विचारधारात्मक निकष हो, जिसे वह कला में अभिव्यक्त कर जनता तक पहुँचाना चाहता हो; लेकिन इस गुंजाइश से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वही मनुष्य जो कलाकार है, अपनी कला के भीतर ही उस विषय का अर्थ (और उत्तर) प्राप्त करना चाहता हो और उसका लक्ष्य अंततः कला ही हो। इस तरह सोच की एक-रैखिक पूर्व संकल्पना, जो योजनाबद्ध हो सकती थी, कला में अपनी गति एवं व्यवहार बदल देती है। कुँवर नारायण के शब्दों में कहें तो ''उनकी गति बहुत योजनाबद्ध नहीं होती, काफी हद तक साहसिक होती है।'' (कई समयों में) यह 'साहसिक गति' ही कला में नवीनता का सृजन करती रही है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विभिन्न विधाओं का अपना निजी अंतरानुशासन होता है। एक विषय का प्रस्तुतीकरण एक विधा में जिस तरह जिन अवयवों के साथ किया जा सकता है, दूसरी अन्य कला-विधा में उसकी विधि परिवर्तित हो जाती है। जैसे चित्रकला में रंगों-रेखाओं के अंगों-उपांगों वाली चित्रभाषा अपनाई जाती है, जिसका अर्थ प्राप्त करने की (अकसर) लोकतांत्रिक गुंजाइश बनी रहती है; जबकि कविता-कहानी-उपन्यास-नाटक आदि में शब्द-भाषा की भूमिका होती है, जिसका अर्थ प्राप्त करने की एक अप्रस्तुत सीमा निर्धारित होती ही है, 'एब्सर्डनेस' के बावजूद भी। लेकिन कला में 'रूपार्थ' और कविता में जो 'धन्वा की टंकार' की तरह सँजोया होता है, जो 'भावक' के भीतर गूँजता रह जाता है और कोई भी भाषा फिर उसे व्यक्त करने का काम नहीं कर पाती। यही कलाओं का 'मूलार्थ' होता है जिसका विकल्प नहीं होता। इसी को 'रस' कहा गया है।
इन्हीं अनुशासनों के भीतर एक कला-विधा में कुछ विषय व्यक्त हो सकते हैं, जबकि कई बार दूसरी विधा में उनका उस दक्षता से व्यक्त होना संदिग्ध हो जाता है; इसलिए यह प्रक्रिया स्वयं में ही अपर्याप्त लगती है; बावजूद इसके रचनाकार ऐसा महसूस करता है कि विषय एक कलाकृति में पूरी तरह व्यक्त नहीं हो पाया (शायद इसलिए भी) वह अन्य कलारूप रचता है। इस पर विचार करते हुए कुँवर नारायण लिखते हैं - ''कलाओं के जीवन से हमें कई संकेत मिलते हैं, या मिल सकते हैं, अगर उनके अंतःसंबंधों को हम ठीक से पढ़ सकें कि स्वयं उनकी भीतरी रचना का वैविध्य संयोग कैसे संभव होता है; और कैसे अन्य कलाओं के संसार में उनका साहचर्य घटित हो पाता है।'' (कई समयों में)
उपर्युक्त द्वंद्वों से गुजरते हुए मैं यहाँ कुछ चित्रकारों की चित्रकृतियों और उनकी लिखी कुछ कविताओं में प्राप्त होनेवाले सूत्रों-संकेतों के माध्यम से उस 'जीवन-दर्शन' का 'पाठ' करने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ जिसमें हमारे आज के जीवन और समाज को पुष्ट करने का सार्थक उद्देश्य निहित है।
शमशेर बहादुर सिंह मेरे लिए 'शब्द-चित्र रचयिता' कवि हैं। वे समर्थ कवि भी हैं और चित्रकार भी; उनकी एक कविता चित्रकार गुलाम रसूल संतोष को समर्पित है। शीर्षक है - 'मॉडल और आर्टिस्ट'। एक कलाकार का 'विषय' को 'ट्रीट' करने का रवैया उसके जीवन-दर्शन का निर्माण कैसे करता है, इस कविता में जाना जा सकता है -
''वह आई और मुझसे कहा कि मुझे कला में बाँधो।
ये हैं मेरे वक्ष-गोल; कहीं देखे होंगे तो कहो, ऐसे
ये - ये ही बिंबाधर
जल रहे हैं जहाँ अंगारे
यह कटि-प्रदेश/जंघाएँ, कि गोरे पारद के दो
दरिया; ये केश
कि रात के जादू का प्रवेश... यहीं होता है -
और देखते हो, इन आँखों में
तुम्हारी कला की अंतिम तड़प
की निर्मम जाँच
तुम्हारे व्यक्तित्व की कठोरतम चमचमाती परख,
इन पुतलियों में
संगीत है
उसे बजा देखो जरा-सा छेड़ देखो तो...''
कलाकार के सामने उपस्थित 'मॉडल' का कथन अपनी चुनौतियाँ पेश करता है। यहाँ 'विषय' की उपस्थिति का ठोस और मूर्त रूप है। वर्तमान की, यथार्थ की उपस्थिति किसी भी रचनाकार के लिए इसी तरह चुनौती प्रस्तुत करती-सी होती है।
''यही द्वंद्व मेरी भी आदिम स्वयंभूत कला का
तुम्हारी तटस्थ कलाशक्ति
से होता है : मैं धन्वा पर टंकार
साधे हुए हूँ
तुम्हारे मर्म की ओर। बचाओ तो सही
अपने शब्दों की ढाल पर
अपनी अमरता कला की!''
चित्रकार इसी द्वंद्व से जूझकर जब रचना करता है तो इन जड़ रूपाकारों का अस्तित्व तिरोहित हो जाता है, 'मर्म' सुरक्षित रहता है और कलाकृति में 'एक निर्वचनीय अर्थरूप' संयोजित हो जाता है -
''वही तुम :
कहाँ शरीर त्वचा केश
ये केवल आवरण सघनतम
रूपार्थ के आवरण
केवल मेरे
छंद केवल
तुम्हारे जिसे तुम
बोल न दे सकीं!''
शमशेर 'तटस्थ कलाशक्ति की संवेदना' को किसी भी रचनाकार की साधना का फल मानते हैं, साध्य भी घोषित करते हैं। ग़ुलाम रसूल संतोष को इस कविता का समर्पण उचित ही प्रतीत होता है।
ग़ुलाम रसूल संतोष नवतंत्र कलाकारों में प्रमुख हैं। नवतंत्र कलाकारों की यह संकल्पना रही है कि वे संगीत को देख सकें और पेंटिंग को सुन सकें। कला को आध्यात्मिकता का समन्वयी संस्कार दे सकें। उसी कविता की पंक्तियाँ हैं-
''लो पोर्ट्रेट -
हो चुका तुम्हारा सौदा!
उठो जाओ!
कैनवस को मेरे
इंतजार है और, अब एक और, दूसरे
उच्चतर स्तर का
संभव यदि
इस पल।''
वरिष्ठ कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने लिखा है कि ''साठ के दशक में सुप्रसिद्ध अमेरिकी कला समीक्षक क्लीमेंट गिन्सबर्ग जब भारत आए थे तो उन्होंने यहाँ के कला वातावरण को देखकर 'निर्यातकला' की बात की थी। गिन्सबर्ग का आशय यह था कि पश्चिम में आधुनिक भारतीय कला का कोई अर्थ और संदर्भ तभी हो सकता है जब उसमें एक खास तरह की 'निर्यातकता' हो।''
शमशेर ने उक्त कविता में एक कलाकार की आदर्श साधना को रेखांकित किया है। क्लीमेंट गिन्सबर्ग के निष्कर्ष के विरुद्ध ग़ुलाम रसूल संतोष जैसे कलाकारों का रचनाकर्म अधिक महत्वपूर्ण है। मूल्य के लिए की जानेवाली निर्मिति सिर्फ फ्रेम (दायरे) में ही कैद होकर रह जाती है, वह कुछ पूँजी तो उपलब्ध करवा सकती है, संतुष्टि नहीं। (ध्यातव्य है कि शुरू में तंत्रकला से प्रभावित होकर जब संतोष चित्र बना रहे थे तो पाँच साल तक घर के खर्च के लिए छोटे-छोटे व्यावसायिक काम करने पड़े थे।) लेकिन आवश्यकता से समझौता न करने की प्रवृत्ति और कला में 'उच्चतर स्तर' को प्राप्त करने की तपस्या ही किसी कलाकार को विशेष बनाती है। अपने चित्रों में और जीवन में 'स्पेस' का सही निर्धारण ही 'उच्चतर कलामूल्य' की ओर अग्रसर करता है। कविता में कलाकार की हिकारत दरअसल ग़ुलाम रसूल संतोष की वही 'साधनामय जिद' है जिसे उन्होंने अपनाए रखा है। यह कलाकार का जीवन-दर्शन है, जिसे शमशेर अपनी कविता और कला और जीवन में अंत तक पूरे स्वाभिमान के साथ साधे रखते हैं।
ग़ुलाम रसूल संतोष की कविता में इस प्रक्रिया के साक्ष्य उपलब्ध हैं - जहाँ -
''चुप की चाप अलाप बनी
साँस की लय में शक्ति का जाप उत्पन्न हुआ
माध्यम अनुस्वार से 'नी' रस अमृतवाणी
कामेश्वरी, कलावती, रागिनी जागी
वाणी का सुनहरा ताना-बाना रोशन हुआ
लहा-लहा समय की जंजीर जकड़ती गई
वो जो कुछ भी नहीं था दिखाई दिया
दिन का उजाला आँख देखे है
रात अँधेरी आग जलती है
आग बुझी तो आवाज पुकार उठी
खामोशी अनदेखी अनसुनी
हकीकत का वह अहसास है; जिसे
ख्वाब कहो तो ख्वाबों के शहंशाह
तुम हो
आईना कहो तो हसीन पैकर तुम हो
सुरों का सरगम कहो तो आवाज तुम हो
आगाज़े-सफर कहो तो अंजाम तुम हो
तुम 'मैं' से बारस्ता तुम
'मैं' चला
तुम भी कभी लौट जाओगे वहाँ...''
'वो जो कुछ भी नहीं है दिखाई दिया'
- का विश्वास भरा साक्षात्कार घटित होता है।
''कहीं वो गुमाश्ता वाणी
'माया' के मंत्र का जाप बनकर उभरी
हम हैं कि 'माया' जानकर सुनी अनसुनी कर दी
'माया' पथों में खुदी रेखा, वो सीमा है
जहाँ यंत्र-मंत्र गले मिलते हैं।''
यहीं सारे द्वंद्वों का जैसे हल उपलब्ध हो।
इस संघर्ष का एक दूसरा कोण प्रख्यात चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन के यहाँ दिखता है। 'पंढरपुर की एक औरत' कविता और चित्र में हुसैन इस संघर्ष को बड़ा फलक प्रदान करते हैं और एक भारतीय स्त्री की पीड़ा और साहस का रूपक बना देते हैं -
''यह गठरी ताज की तरह
उस औरत के सर
जिसे दुनिया ने भी पहचाना नहीं
हर जमाने - हर दौर से गुजरी
दुनिया के बीच से गुजरी सिर्फ सामना किया
मुड़कर नहीं देखा...''
इस स्त्री के पाँव में वर्जनाओं की पारंपरिक 'बेड़ियाँ' हैं, सिर पर 'ताज' नहीं बोझ धरा है, यह बोझभरी गठरी 'दुनिया' है।
''औरत ने कहा
मेरी पहचान
नाक-नक़्श-चेहरा नहीं
मेरी पहचान
पैर तले दबे
एक घुँघरू की आवाज
कान धरो तो सुन पाओ...!''
पददलित एक अनसुने दर्द भरे स्वर का आर्तनाद इस कविता और चित्र को आधी दुनिया - स्त्री संसार - की पीड़ा और संघर्ष का दस्तावेज बना देता है। ऐसे अनसुने कर दिए जाते रहे असंख्य स्वरों को एक कलाकार ही धैर्य एवं 'समानानुभूति' से कान धर कर सुनता है और उसे समान के साथ अपनी रचना में प्रतिष्ठित करता है। इसी विषय पर बनाए रेखांकन में एक स्त्री अपने सिर पर गठरी सँभालती, कमर पर अपने बच्चे को वत्सलता में समेटे हुए है। ठीक सामने उसका रास्ता रोके एक उन्मादी साँड़ खड़ा है, जिसके ककुद पर एक लैंप रखा हुआ है। लपट उन्मादी संसार में एक स्त्री सामना करती हुई, भविष्य को संरक्षण देती हुई 'भारतीय माँ' की एक विराट करुणा का संघर्षशील दृश्य रच देती है।
स्त्री को पूरे समान के साथ हुसैन साहब ने अपनी अनेक कलाकृतियों - 'दुखियारी', 'मदर सीरिज' आदि - में प्रतिष्ठित किया है।
प्रोग्रेसिव आर्ट मूवमेंट के प्रमुख हस्ताक्षरों में एक रहे फ्रांसिस न्यूटन सूजा के चित्रों पर अश्लीलता और स्त्रियों के प्रति उनके हिंसक रवैये के कितने ही आरोप क्यों न लगे हों, लेकिन अपनी कविता में वे भी स्त्री को 'औरत की तरह' उसकी सजीव संवेदनाओं की संपूर्णता के साथ ही महसूस करते हैं।
'महीन हवा का धोखा' कविता की पंक्तियाँ देखें -
''मैं तुम्हें एक औरत की तरह
देखता रहूँ
और मैं जानता हूँ कि तुम्हारे लिए
अच्छा क्या है...
पर तुम्हारा चेहरा गायब है -
और तुम्हारा कोई जिस्म नहीं है,
सिर्फ एक लड़कियाना खाका है
एक सपन सरीखे सैरे में
तुम्हारी खूबसूरत खुशबू के साथ!
जब मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ
हाड़-मांस की तुम होती हो मेरे
सामने!
बच्चों और फूलों के साथ!
कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं -
''पर जब मैं अपनी आँखें खोलता हूँ
तुम जा चुकी होती हो
महीन हवा के धोखे की तरह
मैं चौंक कर आ जाता हूँ सच के
सामने
तुम्हारे वहाँ न होने की वजह से!''
सूजा की यह स्त्री 'सपनीली' तो है 'रहस्यमय' नहीं है, बल्कि अपनी रुचियों और संभावनाओं सहित सुंदरी है। सूजा 'स्त्री' नहीं बल्कि अपने चित्रों में 'स्त्री-पन' को व्यक्त करते हैं, इस कविता द्वारा यह सूत्र प्राप्त किया जा सकता है, जो सूजा को आरोपों के विरुद्ध समझने में सहायक हो सकता है। 'स्त्री' के लिए 'अच्छा क्या है...' के मर्दवादी सोच को यदि दरकिनार किया जा सके तो ऐसी 'संतति-सहित स्त्री' को धोखादेह उपस्थिति को सूजा एक टीस के साथ याद करते रहे हैं और अपने कैनवस में उसकी 'बहुछवियों' को खोजते रहे हैं।
सिनेमैटिक सपनीली दुनिया के बरक्स शहरों की कठिन जीवन-दशा को ग़ुलाम मोहमद शेख कविता और पेंटिंग्स में दर्शाते रहे हैं। यहाँ आशंका और अवसाद की छायाएँ इतनी घुली-मिली हैं जैसे एक-दूसरे का कारण ही हों। शहरी किस्म की निचाट अंतर्मुखता कई सामाजिक संबंधों के बीच भी ऐसी रहस्यमय बनी रहती है कि कारक मनुष्यों के भीतर कौन-सा षड्यंत्र चल रहा है, इसका अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है। विनोद भारद्वाज के अनुसार, ''बड़ोदरा के हिंदू-मुस्लिम दंगों ने 'शहर बिकाऊ है' पेंट करने के लिए शेख को मजबूर किया। इस पेंटिंग में समकालीन भारत के शहरी जीवन को समस्त जटिलताएँ हैं। इस पेंटिंग में तीन लोग सिगरेट सुलगाते नजर आ रहे हैं। तीन तरह के लोग हैं - लंबे चौड़े। एक आदमी गुंडा-मुश्टंडा भी नजर आ रहा है। मुंबइया फिल्मों की वजह से देखने-पढ़ने की जो आदत है, उसको ध्यान में रखते हुए महसूस होता है कि ये लोग शायद किसी खतरनाक काम के बारे में कोई फैसला लेनेवाले हैं।
शेख से पूछेंगे तो वे बहुत सादगी से आपको बताएँगे कि 'माचिस माँगकर बीड़ी-सिगरेट सुलगाने का क्षण बहुत अलग किस्म का होता है। सभी तरह के लोग इस क्षण में एक साथ नजर आते हैं।'' दरअसल शेख को उन दृश्यों और स्थितियों का ठीक-ठीक पता है, जिनमें 'विषय' अपने चरित्र की संपूर्णता से बोलता है। चित्र के उन तीनों की कुटिल क्रियाविधि और कारनामों पर किसी की नजर नहीं है। लोग अपनी दैनिक जीवनचर्या के घरेलूपन में इस कदर महदूद हो गए हैं कि वे उसी समाज से जैसे गैरजिम्मेदार होकर कट-से गए हैं, जिनमें वे खुद भी रहते हैं। अमानुषिक और निर्द्वंद्व होते-जाते समुदायों की बढ़ोत्तरी का यह भी एक खास कारण है। ऐसी विषम परिस्थितियों एवं प्रवृत्तियों की शिनाख्त कर, उनसे आगाह करने का काम एक कलाकार ही करता है। ग़ुलाम मोहमद शेख की कविता 'दुपहर' ऐसी ही पाशविक प्रवृत्तियों के आमादापन से भिड़ती है, हमें सतर्क करती है -
''दुपहर को बाहर तिराहे पर
मैंने आरी से तुम्हारी तरफ से रास्ते को काट दिया था;
दुपहर की पसलियाँ तोड़ दी थीं
फिर भी दुपहर के कुत्ते क्यों मेरे बिस्तर के आस-पास
इकट्ठे हो रहे हैं?
दुपहर लटक रही है मेरी उँगलियों में,
मेरे तिलमिलाते तलुए लार और रेती से घिस दिए हों जैसे,
दुपहर मेरी हड्डियों में टूट रही है तड़... तड़...
शेख आगाह करते हैं -
''फूँक दो दुपहर की भाप को
इससे पहले कि वह पसलियों में प्रवेश कर जाए
दाग दो उसका कलमुँहा चेहरा।
दुपहर के पशु की बलि दो, उसे मार डालो
नहीं तो दुपहर के कुत्ते का पागलपन
सभी दीवारों को, सभी पेड़ों को, सभी फूलों को, सभी चिड़ियों को लग जाएगा।''
'कलमुँहे चेहरे वाली दुपहर' का आतंक आज आधुनिकता के अनेक छद्म उपाय अपनाकर हर ओर फैल रहा है। निरुपायता की स्थिति में अवसाद और आत्मदया की छवियाँ एक-सी लगती हैं और आत्मरक्षा के लिए हिंसा भी अहिंसक हो जाती है।
'एक घरेलू दृश्य' कविता देखें -
''घर आकर मैंने पहला काम
कमीज उतारने का किया
सारा दिन उसने मेरे धड़ की भद्दी नकल की थी
यह ख्याल आते ही मैंने उसे भन्ना कर फेंका
वह एक कोने में सिकुड़ी उकडूँ पड़ी रही...
उसकी सलवटों में
मेरी नाक/मेरे कपाल/मेरी आँखों के नीचे गड्ढे
मेरे बिचके हुए होंठ/और मेरे बाल भी
थोड़े-बहुत दिखाई दिए। मैंने घबराकर गर्दन पर हाथ रखा
गर्दन ढूँढ़ लूँ उससे पहले ही
मेरे हाथ आँखों की तरह खुलकर
टकटकी लगाकर देखने लगे
अँगुलियाँ होठों की तरह बिचक
सिसकारी भर उठीं।''
आत्मविलगाव के कारण 'समय' के भौतिक समोहन में मनुष्य की दोहरी चारित्रिकता और इस विषमकाल में सुरक्षित बचे रह जाने का झूठा संतोष अंततः आत्मदया की पीड़ा ही देता है। शेख के चित्रों के मूल रंग के स्ट्रोक्स के आस-पास इसी पीड़ा का अनुनाद तरल होकर गूँजता है। इसमें छुपी हुई अनेक अनुभूतियों को महसूस किया जा सकता है।
जगदीश स्वामीनाथन अपने चिंतन, चित्रों और कविताओं में 'अन्य' की अनिवार्यता को 'स्पेस' देते रहे हैं। इसे एक कलाकार के 'समर्पण' के अर्थ में देखा जाना चाहिए। संभावना का अभिज्ञान ही इस 'अवकाश' में घनीभूत होकर 'एक' से 'अन्य' तक विस्तृत हो जाता है। स्वामीनाथन के चित्रों में आई चिड़िया - एक चिड़िया भर नहीं रह जाती, बल्कि चिड़ियों की विभिन्न प्रजातियों की प्रतिनिधि बन जाती है। इस तरह देखी-अदेखी विभिन्न उड़ानें 'भावक' के भीतर पंख खोलने लगती हैं। पहाड़ की 'उपस्थिति' आपके 'देखने' की प्रक्रिया को उत्साहित कर देती है -
''यह जो पहाड़ है
इसके पीछे एक और पहाड़ है
जो दिखाई नहीं देता
धार-धार चढ़ जाओ इसके ऊपर
राणा के कोट तक
और वहाँ से पार झाँको
तो भी नहीं
कभी-कभी जैसे
यह पहाड़
धुंध में दुबक जाता है
और फिर चुपके से अपनी जगह लौटकर ऐसे थिर हो जाता है
मानो कहीं गया ही न हो...''
'आँखिन देखी' ही सत्य नहीं होता। हम जितना देख पाते हैं उसके परे भी 'सत्य' संभव होता है, अत्यंत आसान युक्ति से जगदीश स्वामीनाथन इसे एक सूत्र की तरह हमें सिखा देते हैं। 'दूसरा पहाड़' शीर्षक इस कविता में यह अदीखता पहाड़ सिर्फ दर्शक की दृष्टि की लघु पहुँच को नहीं दिखाता बल्कि उसके पार जाने की उत्कंठा भी जगाता है। इसके बाद हम देखते हैं कि यह पहाड़ पेड़-पौधों और पत्थरों का समुच्चय भर नहीं है, यहाँ भी जीवन की साँसें अपने आरोह-अवरोह के साथ मौजूद हैं, जो जरा गौर करने की माँग भी करती हैं -
''अजी जरा आकाश को तो देखो
कितना निर्मल है
न कहीं धुंध न कोहरा न जंगल के ऊपर अटकी
कोई बादल की फुही
वह पहाड़ दिखाई नहीं देता महाराज
उस पहाड़ में गूजरों का एक पड़ाव है
वह भी दिखाई नहीं देता
न गूजर, न काली पोशाक तनी/कमरवाली उनकी औरतें
न उनके मवेशी न झबड़े कुत्ते
रात में जिनकी आँखें
अंगारों-सी धधकती हैं
इस पहाड़ के पीछे जो वादी है न महाराज
वह वादी नहीं उस पहाड़ की चुप्पी है
जो बघेरे की तरह घात लगाए बैठा है।''
अपने जीवन के इतर भी जो विपुल जीवन है, उसको समभाव और साहचर्य की भावना से प्रतिष्ठित करने का काम कलाओं के उद्देश्यों में प्रमुख है। 'सेब और सुग्गा', 'गाँव का झल्ला', 'जलता दयार', 'कौन मरा', 'मनचला पेड़' या 'पुराना रिश्ता' जैसी स्वामीनाथन की कविताएँ कवि के सरोकारों एवं स्पष्ट पक्षधरता को दर्शाती हैं। शायद यही कारण है कि आदिवास अनुभव के अमूर्त 'टोटेम' अपनी फक्कड़ किंतु स्वाभिमानी इयत्ता के साथ जगदीश स्वामीनाथन के चित्रों में मौजूद हैं। उनके चित्रों में खाली छोड़ दिए जाते रहे कैनवस में ऊपर-नीचे के अवकाशों को 'अन्य' के लिए 'स्पेस' के अर्थों में पढ़ा जा सकेगा।
जोगेन चौधरी की कविताएँ 'झील के पानी की तरह गंभीर बादलों की छाया की तरह मलिन' हैं। दरअसल 'बंगाल के अकाल' की छायाएँ जोगेन चौधरी के संवेदनशील मन पर गहरे दर्ज हो गई थीं। यह उनके चित्रों और कविताओं में सहज ही लक्षित किया जा सकता है। खुले हुए घावों और उरियाँ जिस्मों पर झुर्रियों में करुणा का कोलाहल बहुत भीषण है। अमानुषिक होते जाते समय में जोगेन की 'सितारों की तरफ' कविता में व्यक्त रोमैंटिक पलायन को समझा जा सकता है, यह अनिच्छित त्याग का रूपक बन जाता है।
''गंभीर उत्ताप नीहारिका एवं उनकी उज्ज्वलता
तय हो चुकी है मेरे रास्ते की दिशा
बादल और पानी की तरह सुकुमार
माता और पिता की तरह मेरे अपने : सितारे
दिन और बरसों-बरस घूमते हुए पहुँच जाऊँगा मैं उन तक।''
जोगेन से इस सुकुमार भावुक पलायन को असुरक्षा के दायरे में पढ़ा जा सकता है; आत्मीय की अनुपस्थिति इसका मुख्य कारण है। इसीलिए जोगेन का सकर्मक मन सतर्क होकर एक द्वंद्व जीता है -
''यहीं कहीं आस-पास में ही है प्रिया
किसी ओट में छिपी हुई
मेरी ही चारदीवारी के उस पार
तभी तो
मैं जाना चाहता हूँ तोड़कर यह चारदीवारी।
एक और बंधन ने जकड़ रखा है मुझे
सामने खड़ा हो गया है एक और धर्म
उसके पत्तों से झरती हैं रात की बूँदें अनवरत
धर्म : ईश्वरहीन
आँधी-पानी और पसरा पड़ा है मृत।''
('यही कहीं आसपास में ही है प्रिया')
जोगेन चौधरी की कविताओं के बरास्ते उनके चित्रों के छवि-अर्थों को प्राप्त किया जा सकता है।
चित्रकार उमेश वर्मा की एक कविता 'कुमार गंधर्व की याद में' है। एक कलाकार द्वारा समानधर्मा संगीतकार की रचना को समझने की 'आवश्यक दृष्टि' यहाँ भी दृष्टव्य है -
''गूँगा बनकर/कान बंद करके/ दिमाग से शब्द को अलग करना
अब, बेहद जरूरी है
हमें शब्द को छू-छूकर देखना होगा
शब्द को चख कर मीठा तीता कहना होगा...''
कला माध्यमों के अनुशासनों की सीमा और उसके पार जाकर उस विधा में रचना को 'परखने' की आवश्यकता को इन पंक्तियों में पहचाना जा सकता है। हम आज भी चित्रकला को रंगों-रेखाओं में पढ़ने की पाठ-विधि निर्मित नहीं कर पाए हैं, जबकि चित्रकार चित्रभाषा में 'सोचता' और 'व्यवहार' करता है। उमेश वर्मा 'सहृदय भावक' की इस योग्यता को आवश्यक ही नहीं अनिवार्य मानते हैं, जिससे कि रचना के विशिष्ट भाव-बोध को संपूर्णता में प्राप्त किया जा सके।
उमेश वर्मा 'ऊर्जा' और 'प्रकाश' को अपनी रचनात्मक का केंद्रीय विषय लंबे समय से बनाए हुए हैं। प्रकाश का विद्युत चुंबकीय विकिरण अनेक कोणों से साधते हुए उमेश वर्मा के चित्र 'पाठ' की (किसी) वैज्ञानिक दर्शकीय योग्यता की माँग करते हैं, तो गलत क्या है; यूँ सामान्य रूप से यह चित्र प्रभावोत्पादक तो ही।
विद्वतजन जानते ही हैं कि 'प्रकाश' एक चुंबकीय विकिरण है, जिसकी 'तरंगदैर्घ्य' दृश्यसीमा के भीतर होती है। किसी भी 'तरंगदैर्घ्य' के विकिरण को 'प्रकाश' माना जाता है। पदार्थ की 'तरंगदैर्घ्य' द्विकता के कारण 'प्रकाश' एक ही साथ 'तरंग' और 'द्रव्य' दोनों के गुण प्रदर्शित करता है। पदार्थ की यथार्थ प्रकृति को भौतिक और आध्यात्मिक अर्थों में एक साथ महसूस करने के बिंब के रूप में चुनना उमेश वर्मा के गुरु-गंभीर कलाकार की विशिष्टता है। उमेश वर्मा के चित्र इसी अर्थ के संदर्भ में जीवनधर्मी हैं; नवीन उत्साह से उत्सव मनाते क्योंकि इनमें अनेक संभावनाशील स्वप्नों का 'संश्लेषण' है, जो उनकी कविताओं में भी अपने निशाँ दर्ज करता है - उनकी एक कविता है - 'रुपहले-सुनहले दाँतों और लहरों के बीच'। इस कविता में विरोधाभासी युग्मों का संयोजन साहचर्य का अच्छा नमूना है -
''रुपहले-सुनहले दाँतों/और रुपहली-सुनहली लहरों
के बीच के क्षेत्र में
अब्दुल और रामदीन की झुग्गियाँ
गुमसुम बैठे हुए लड़के और लड़कियाँ
कच्चे और बच्चे
सूर्य के सोखती
हरी लाल कोंपलों का इतिहास
पूरी तरह जला हुआ बरगद
धधकते शोलों के बाद की गर्म राख
गौरैया या उनके चिरौठों के अवशेष
घोसलों का शाखों-जटाओं के बीच/अब अनबसा नगर।
रुपहले-सुनहले दाँतों की हँसी की विक्षिप्त आग
रुपहली-सुनहली लहरों की पागल विध्वंसक उठान
अब्दुल और रामदीन और कच्चों और बच्चों का
स्तब्ध वार्तालाप। बरगद और गौरैया और चिरौटों का न होना
कि 'फूल' ढूँढ़ने में अब्दुल और रामदीन का व्यस्त होना
'फूलों' को 'अनसुना' करने की ओर उन्हीं के साथ
चहचहाने की दिली ख्वाहिश
पास के घूरे पर अंकुरित आम की गुठली
हरी-लाल आम्र कोंपलों का
सूर्य को जज्ब कर लेने का फिर प्रयास।''
इस 'एब्सर्ड'-सी कविता में कई प्रतीक हैं, कई दृश्य हैं, जिनका समवेत 'अब्दुल' और 'रामदीन' और कच्चों और बच्चों का स्तब्ध वार्तालाप बन जाता है। देश में दो समुदायों के बीच पैदा किए गए सांप्रदायिक अलगावों के तमाम कुकृत्यों और कारसेवा के निहितार्थों में इस स्तब्ध वार्तालाप को सुना जा सकता है। यह कविता मनुष्यता के क्षरण का शोकगीत है। लेकिन रचनाकार में उम्मीद बाकी है। वह उसी 'ऊर्जा' को परिवर्तनकारी कारक मानता है जो घूरे पर अंकुरित आम की गुठली से प्रस्फुटित हो रही है, जो प्रकाश-संश्लेषण के द्वारा हरी-लाल आम्र कोंपलों में जज्ब हो रही है। उमेश वर्मा इस 'ऊर्जा' और 'प्रकाश' को इसीलिए अपनी कला की भी मूल 'ऊर्जा' मानते हैं।
विखंडन के विरुद्ध संलयन की भी एक प्रक्रिया समानांतर चलती रहती है। वरिष्ठ चित्रकार जय झरोटिया के चित्रों में इसे देखा जा सकता है। पाब्लो पिकासो ने अपनी डायरी में लिखा था कि मेरे पास हरा रंग खत्म हो गया तो मैं पेड़ की पत्तियों को लाल रंग से रँग दूँगा। यह कला-कौशल है कि समर्थ चित्रकार एक रंग से दूसरे रंग का काम ले लेता है। हम पेड़ को हरा देखने के अभ्यस्त हैं। चित्रकार उसे लाल रंग से रँग देता है फिर भी हम पेड़ को पेड़ के रूप में ही पहचान पाते हैं। एक रंग के कार्य का दूसरे रंग में अनुवाद कलाकार का जादू ही है।
जय झरोटिया की एक कविता है - 'रंगीन सपना'। पंक्तियाँ देखें -
''मैंने जादूगरी से सोचा है
तुम्हें बनाऊँगा लाल
घोड़े को हरा
और लालटेन जली होगी
जो दिखाएगी रास्ता
हम चलेंगे वहाँ
जहाँ सुकून होगा
केवल सुकून
इसी ऊँची पहाड़ी के पीछे
है पीले रंग की खान
वहीं पर उगता है नीला सूरज
हरा गुलाब, लाल पेड़, सुनहरा खेत
और रंगीन सपना
सुकून का।''
यह एक कलाकार का रंगीन सपना है। कविता में वाक्य वैचित्र्य किसी झूठ को दर्शाने के लिए नहीं किया गया है बल्कि यह उसी तरह कलाकार की सामर्थ्य का हिस्सा है जैसे कि पाब्लो पिकासो ने लिखा था। जय झरोटिया के कलाकार का यह 'सुकून का रंगीन सपना' इसीलिए 'सच की तरह' है। कला का यही जादू है। एक से अनेक और अनेक से एक के विखंडन और संलयन का जादू जय झरोटिया के कलाकार को प्रिय है -
''एक हल्की-सी रेखा/जो दिखती है दूर क्षितिज पर
जिस पर लटकी है धरा/ जिस पर टिकी है आस
लगता ऐसा ही जब देखो तो
जब देखो तो वहाँ नहीं है
पर देखो तो लगती है, है वहाँ
मगर देखो तो कहीं और है आसमान
कहीं और है जमीन
जैसे तुम और मैं
जब देखो तो लगते हैं, जुड़े हैं
जब देखो तो वहाँ नहीं है जोड़
पर देखो तो लगता है, है वहाँ।'' (एक अहसास)
मंजूषा गांगुली के चित्रों और कविताओं में प्रकृति के क्षरण का विरोध स्पष्ट तौर पर प्रकट हुआ है। उनकी 'ओट' शीर्षक कविता की पंक्तियाँ देखें -
''भरभराकर/पिघलने को ही थे
मेरे पूर्वज दिन
उस समूचे दृश्य पर/जिसमें मैंने अभी-अभी
मीनारों को/आसमान समेटता दिखाया था
कि तभी/मैंने वहाँ मीनारों की जगह
सफेद उजले हाथी बना दिए
जो बन गए हैं अब/घनी ओट
उस पिघलने के विरुद्ध।''
यही 'कलात्मक साहस' है जो योजनाबद्ध नहीं होता, नियमीकृत नहीं होता जबकि इस साहस के भी स्पष्ट कारण होते ही हैं। मंजूषा के चित्रों में स्त्रीरूपा प्रकृति की गति-अवगति का भौतिकता के परिप्रेक्ष्य में 'पाठ' विडंबना का सृजन करता है। यहीं से मंजूषा भावुक रौमैंटिकता की दृष्टि से अपने चित्रों और कविताओं को मुक्त कर लेती हैं।
इस 'पाठ' के माध्यम से मैंने यह पाया कि स्पष्ट स्वर में न बोलती हुई कला का भी एक 'से' होता है। जीवन की राजनीति और कला की राजनीति में दूरी तब लगभग समाप्त हो जाती है जब कलाकार मानवीय उद्देश्य के साथ रचनारत हो और उसमें 'कलात्मक साहस' हो।
'नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतना नामे को बहूनां।' (श्वेताश्वरोपनिषद्)
यही वह दृष्टि है - कलादृष्टि - और इसी में विभिन्न कलाओं के अंतस्सबंधों की जड़ें हैं। इन्हीं का विस्तार दूसरों की दुनिया से जुड़कर कला की शक्ति बन जाता है; और वह कला जीवनधर्मी सामर्थ्य प्राप्त कर लेती है। इसी सामर्थ्य का परीक्षण अपनी सीमित समझ एवं क्षमता की कमी को जानते हुए जिस विद्यार्थी-पन से मैंने इस 'पाठ' में किया है, उससे मेरी संवेदना एवं ज्ञान को समृद्ध करने के कुछ सार्थक तत्व प्राप्त हुए हैं। मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है।