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कविता

प्रेम गिलहरी दिल अखरोट

बाबुषा कोहली


स्वप्न में लगी चोट का उपचार नींद के बाहर खोजना चूक है

होना तो यह था
कि तुम अपने दिल की एक नस निकालते
और बाँध देते मेरी लहूलुहान उँगली पर
मेरी हँसली पर जमा पानी उलीचते
और रख देते वहाँ धूप मुट्ठी भर
हुआ यह कि जिन पर्वतों पर मैंने तुम्हारा नाम उकेरा
वहाँ से बह निकलीं कलकल करती नदियाँ
और मेरी गर्दन से जा चिपकी कागज की एक नाव

क्षितिज तक पैदल चली थी थाम कर तुम्हारी उँगली
उस दिन तुम्हारा कद मेरे पिता जितना बढ़ गया था

उसी रात नदी में अपनी पतवारें फेंक आई थी

***

ईश्वर की प्रिय संतान हो
छुटपन से ही माँ मुझसे कहती आई हैं
होना तो यह था
कि कबाड़ में मिले उस दीपक को धरती पर घिसते ही
धुएँ के पीछे से प्रकट हो जाता कोई देवदूत और मेरे आदेश का दास बन जाता
हुआ यह कि पत्थर पर रगड़ खाने से काँसे की देह पीड़ा से कराह उठी

ऐन उसी दिन कान के पीछे उभर आई एक हरी बेल
कोई रंग होता 'माइग्रेन' का तो हरा ही होता

***

कितना अच्छा लगता था दीवारों पर लिखना और पौधों को पानी देना

होना तो यह था
कि तुम्हारी पीठ पर नक्काशीदार आयतें लिखा करती हमेशा
और छाती को सींचती ही रहती उम्र भर
हुआ यह कि छठी की चाँद रातों में मैंने उगाए जूठे सेब तुम्हारी छाती पर
और तुम्हारी पीठ से टकरा-टकरा कर लौटती रहीं मेरी चीखें

उन दिनों जंगल टेसू की तरह दहका करते थे
मैं तुम्हारे पाँव के अँगूठे पर टोटके बाँधा करती थी
एक बार उतरने दो मेरी चीख अपनी छाती पर
किसी बरगद के कान पर उसी दिन
मैं कान के पीछे वाली नस की असह्य पीड़ा का का विसर्जन कर दूँगी

***

एक अरसा गुजरा जब डॉक्टर ने 'मायोपिया' से लेकर इथियोपिया तक की बातें कीं और आँखों पर ऐनक चढ़वा दी
होना तो यह था कि उन 'ग्लासेज' को पहन कर अब तक मुझे दूर का दिखने लगना था पर हुआ यह कि ये चश्मा भी मेरे किसी काम का न निकला
पहले तो रास्ते ही नहीं दिखते थे और अब बड़े-बड़े गड्ढे और जानलेवा मोड़ भी नजर नहीं आते

***

होना तो यह था
कि तुम होते कोई घना बरगद
और मैं तुम्हारी शाखों पर फुदकती फिरती
अपनी टुकुर-टुकुर आँखों में भर लेती सब हरियाली
कभी पत्तों में छुपती कभी दिखती तने के पीछे
सारी छाँव घूँट-घूँट पी लेती

हुआ यह तमीज भूल गया एक बरगद
अपने बरगद होने की
छाँव, हरियाली, ठौर कुछ भी नहीं मिलता

धूप धूप भटकता रहा प्रेम भूखे
कौर कौर दिल कुतरता रहा


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