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कविता

जलपरियाँ

बाबुषा कोहली


उन मछलियों को अपने काँटों में मत फाँसो
उनकी छाती में पहले ही काँटा गड़ा है
कौन कहता है मछलियों की आवाज नहीं होती
मछलियों की पलकों में उलझी हैं सिसकियाँ
टुकुर-टुकुर बोलती जाती हैं निरंतर
उनके स्वर से बुना हुआ है समुद्र का सन्नाटा

ऐसा कोई समुद्र नहीं जहाँ मछलियाँ रहती हों
समुद्र ठहरे हुए हैं मछलियों की आँखों में
दुनिया देख ली हमने बहुत सातों समुद्र पार किए

जलपरियों के लिए कहीं भी सड़कें नहीं मिलतीं


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