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कविता

प्रतीक्षा

बाबुषा कोहली


ढाई छलाँग में पृथ्वी नाप लेता है अपना घोड़ा
कितनी भी चालें चलो नापे नहीं नापता ये संसार
बाहर कोलंबस होना था और भीतर से बुद्ध
कोलंबस मन पर बुद्ध को ओढ़े हम बरगद के नीचे बैठ गए
सारे के सारे उत्तर पलायन कर गए
पेड़ पर उल्टे लटके बेताल के पाँव दुखते होंगे

उत्तर की खोज में निकले चुंबक दक्षिण की ओर मुड़ जाते हैं
रास्ते मानते हैं ये बात कि कोलंबस मात्र यात्री नहीं
'त्र' पर आ की मात्रा है
जैसे जानते हैं धरती जल अग्नि आसमान और हवा ये बात
कि शोध नहीं हैं बुद्ध शुद्ध बोध हैं

लहू से लथपथ मेरे स्वप्न में उड़ती है एक चिड़िया
घूमती है गोल गोल टहनी पर वापस आ बैठती है
चहचह सी उसकी प्रतीक्षा के फल में

एक दिन सारी दिशाओं को उत्तर हो जाना चाहिए


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