आचार्य हम इनमें कोई नहीं
	कोई नहीं कोई नहीं कोई नहीं
	मुग्धा प्रगल्भा विदग्धा या सुरतिगर्विता
	परकीया भी नहीं न स्वकीया ही
	मुग्धाएँ जब थीं हम
	देनी थी हमको परीक्षाएँ
	बोर्ड के सिवा भी कई
	संस्थानों में प्रवेश की परीक्षाएँ देते हुए
	हमें फुर्सत ही नहीं मिली
	आनंद सम्मोहिता या रति को विदा होने की
	रात में जगी भी हम तो मोटी पुस्तकों में सर खपाती हुई
	चौराहे तक निकली भी जब अँधेरे में
	मुदिता या अभिसारिका भाव से तो नहीं
	घर के कपड़ों में बस निकल पड़ी
	चुइंगम लाने की खातिर कि नींद भागे
	प्ररूढ़यौवन हुईं जब हम
	नौकरी के सौ झमेले थे सर पर
	वलासिकल स्वकीयाएँ तन-मन से करती थीं
	पतिगृह की सेवा हम तन-मन धन से
	परिजन-पुरजन की ससुराल-नैहर की
	घर की और बाहर की
	दत्तचित्त सेवाएँ करती हुई
	झेलती रहीं कचरमकुट्ट
	स्वाधीनपतिका नहीं न ही प्रवस्यपतिका
	आनंदसम्मोहिता भी नहीं न ही कलहांतरिता !
	कलह कभी करने का भी जी हुआ तो किससे करतीं -
	बालबुद्धि ही थे परमेश्वर हमारे
	लगे ही नहीं वे कभी भी बराबर के -
	'पिया मोर बालक हम तरुनी,
	पिया ले ली - गोदक चलली बजार' का छंद साधती हुई
	आज जिस बाजार में हम खड़ी हैं न आचार्य जी
	उसमें पहेली नहीं चुटकुला है हर जीव
	तुमुल कोलाहल कलह का ऐसा
	घनघोर सा सिलसिला है यहाँ
	कबीर जी की लुकाठी से
	सुलग रहे हैं बॉनफायर !
	दो चार ब्लॉगों पर
	सुगबुगाता है कुछ री-मिक्स-सा
	लुसफुसा रही कुछ इधर-उधर
	बाजार से गुजरा हूँ खरीददार नहीं हूँ की
	झिलमिल-सी अंतरपाठीयता
	हाँ तो मैं यह कह रही थी -
	कि कुट्टिनी-खंडिता वगैरह भी
	हम तो नहीं है
	हमारा अलग से ही बनना होगा प्रभेद
	फूट गए हैं घड़े
	सिकहर पर टँगे नौ रसों के
	घाल-मेल हो गया है अब रसधारों का -
	वीर में वात्सल्य बहता है
	शृंगार में बहती है कुछ भयावहता
	शांत भी वीभत्स या रौद्र से जा मिला है !
	हर क्षण हमारा है नौ रसों का कॉकटेल
	और हम भी हैं शायद मिश्र-प्रजाति वाले
	बाँस का टूसा !
	सुना था कहीं
	चीन देश में होती है
	बाँसों की ऐसी प्रजाति
	जिसका टूसा पड़ा रहता है
	पचपन बरस धरती के भीतर
	और तब जब चमकती है बिजली कहीं
	धरती की छाती दरक जाती है,
	फोड़-फाड़कर सारी चट्टानें
	झाँकता है बाँस का टूसा
	धरती से बाहर !
	भूले भटके जो आ जाती हैं
	मादक घटाएँ उधर
	उनकी छाया घूँट-भर पीकर
	दिन दूनी रात चौगुनी गति से अचानक
	बढ़ जाता है बाँस का टूसा
	यों बेहिसाब
	कि उसकी गर्दन झुक जाती है,
	कोई भी कंधा नहीं मिलता
	जिस पर टिके उसका माथा।
	हाँ हम समझती हैं उनका दुख
	जिनको सर रखने को कोई भी कंधा नहीं मिलता,
	सन्न-सन्न बहती हैं सारी दिशाएँ उनके भीतर !
	मलिनवस्त्र राधा का दुख एक ऐसा ही दुख था
	हरि के पसीने से भीग गया
	और बिरह की धूप में सूखा
	तार-तार आँचल वह राधा का
	क्यों उँगलियों पर लपेटती थी राधा,
	यह हम समझती हैं -
	हालाँकि किसी कृष्ण को हमने कभी भी
	कहीं भी नहीं देखा
	पर राधाएँ हमने देखी हैं इधर-उधर !
	नागमती पद्मावत वाली -
	बड़े पलंग पर कहीं एक ओर लुढ़की पड़ी
	या गहन बारिश में निपट अकेली
	अपनी झोंपड़ी छवाती हुई
	दीखती हैं कैसी
	जानती हैं हम ये अच्छी तरह से !
	कुछ हममें अब भी बचा है दुख
	अपभ्रंश गीतों की चिर विरहिनों का !
	युद्ध से घायल हो कर लौटे घोड़े का
	दुख जानती हैं हम,
	जानती हैं ये कि लगता है कैसा जब
	घुड़साल में उनको कहीं एक ओर बाँधकर
	अनमने कदमों से चल देता है घुड़सवार
	और कभी वापस नहीं लौटता।
	धीरे-धीरे भूल जाता है पोर-पोर उनका -
	क्या होता है खरहरा
	और नाल गप से गले मिलती है कैसे -
	कटे-फटे खुर भूल जाते हैं !
	अच्छी तरह हम समझती हैं
	हर बात पर चौंकती हैं क्यों
	उत्कंठिताएँ !
	धीरा-अधीरा वो रहती है क्योंकर?
	काम नहीं आते क्यों उनके
	वर्षों से संचित संज्ञान और अनुभव ?
	क्यों खोटे सिक्के हो जाते हैं
	सारे शुभाशय ?
	बजता नहीं कभी भूल से फिर भी
	हाथों में क्यों हरदम रखती हैं
	अपना मोबाइल ?
	क्यों ध्यान से पढ़ती है मेसेज
	विज्ञापन कम्पनियों के
	अपना धुँधला चश्मा पोंछकर ?
	किसका है इंतजार इनको ?
	कोई कभी भी नहीं आता इनके सिरहाने !
	सिर्फ एक वैद्यराज आते हैं
	और भटकटैया में अश्वगंधा की
	बस 'भावना' मिलाकर
	कुछ रसायन-सा पिलाते हैं।
	गौरेया की नींद सोती हैं
	और छपाक जाग जाती है
	जो आधी रात कुहकती है कुरलियाँ
	सूखी तलैया में
	छाती पर हाथ धरे सोचती हैं कुछ-कुछ।
	छाती पर हाथ धरे क्या सोचती हैं वे ?