वे बारिश में धूप की तरह आती हैं -
	थोड़े समय के लिए और अचानक !
	हाथ के बुने स्वेटर, इंद्रधनुष, तिल के लड्डू
	और सधोर की साड़ी लेकर
	वे आती हैं झूला झुलाने
	पहली मितली की खबर पाकर
	और गर्भ सहलाकर
	लेती हैं अंतरिम रपट
	गृहचक्र, बिस्तर और खुदरा उदासियों की।
	
	झाड़ती हैं जाले, सँभालती हैं बक्से
	मेहनत से सुलझाती हैं भीतर तक उलझे बाल
	कर देती हैं चोटी-पाटी
	और डाँटती भी जाती हैं कि री पगली तू
	किस धुन में रहती है
	कि बालों की गाँठें भी तुझसे
	ठीक से निकलती नहीं।
	
	बालों के बहाने
	वे गाँठें सुलझाती हैं जीवन की
	करती हैं परिहास, सुनाती हैं किस्से
	और फिर हँसती-हँसाती
	दबी-सधी आवाज में बताती जाती हैं -
	चटनी-अचार-मूँगबड़ियाँ और बेस्वाद संबंध
	चटपटा बनाने के गुप्त मसाले और नुस्खे -
	सारी उन तकलीफों के जिन पर
	ध्यान भी नहीं जाता औरों का।
	आँखों के नीचे धीरे-धीरे
	जिसके पसर जाते हैं साये
	और गर्भ से रिसते हैं महीनों चुपचाप -
	खून के आँसू-से
	चालीस के आसपास के अकेलेपन के उन
	काले-कत्थई चकत्तों का
	मौसियों के वैद्यक में
	एक ही इलाज है -
	हँसी और कालीपूजा
	और पूरे मोहल्ले की अम्मागिरी।
	
	बीसवीं शती की कूड़ागाड़ी
	लेती गई खेत से कोड़कर अपने
	जीवन की कुछ जरूरी चीजें -
	जैसे मौसीपन, बुआपन, चाचीपंथी,
	अम्मागिरी मग्न सारे भुवन की।