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कविता

दरवाजा

अनामिका


मैं एक दरवाजा थी

मुझे जितना पीटा गया

मैं उतना ही खुलती गई।

अंदर आए आने वाले तो देखा -

चल रहा है एक वृहत्चक्र -

चक्की रुकती है तो चरखा चलता है

चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई

गरज यह कि चलता ही रहता है

अनवरत कुछ-कुछ !

...और अंत में सब पर चल जाती है झाड़ू

तारे बुहारती हुई

बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर -

सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो

एक टोकरी में जमा करती जाती है

मन की दुछत्ती पर।


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हिंदी समय में अनामिका की रचनाएँ