"खेती किसान का धड़ है और चरखा हाथ-पैर। चरखा ग्रामोद्योग-रूपी ग्रहमंडल का सूर्य। चरखे के बिना दूसरे उद्योग नहीं चल सकते, वैसे ही जैसे अगर सूरज डूब जाए तो दूसरे ग्रह नहीं चल सकते (गांधीजी)।"
खादी वस्त्र नहीं विचार है! एक विज्ञान है! एक जीवन-पद्धति है! उसका विचार है मानवता की रक्षा करना! उसका विचार है प्रकृति की रक्षा करना और उसका विचार है अहिंसा द्वारा समाज में समानता लाना!
भारतीय संस्कृति आध्यात्मवादी है, भोगवादी नहीं और खादी हमारी इच्छाओं का संयमन करवा, हमारे धन को निर्धनों की झोपड़ियों में वितरित कर उनकी उदरपूर्ति का साधन बन, क्रियात्मक रूप से हमें भोगवाद से ऊपर उठाती है, इसलिए खादी का विचार ही इस ऋषिभूमि, तपोभूमि, धर्मभूमि एवं मानवता की भूमि 'भारत-भूमि' का विचार है। तभी प्रतिष्ठित गांधीवादी कवि श्री सोहनलाल द्विवेदी ने 'खादी-वस्त्र नहीं विचार' नामक अपनी कविता में लिखा है -
"खादी अहिंस्र हथियार, न इसको वस्त्र कहो।
खादी स्वदेश एवं स्ववेश की, गंगा-यमुना जलधारा,
खादी करुणा और प्रेम का, नूतन संगम थल प्यारा।
खादी गाँवों तक सुख-सुविधा ले जानेवाली श्रमधारा।
खादी नर में नारायण का अतिपावन भाव जगाती है,
खादी दरिद्रनारायण की सेवा का पाठ पढ़ाती है।
खादी पवित्रता का प्रतीक है, करुणभाव उपजाती है,
खादी जन-जन के प्रति मानव में, प्रेमभाव उमड़ाती है
(बिंब्रॉ, 1999, पृ. 11)।''
सत्य ही है, खादी वह उत्तम जीवन-पद्धति है, जो हमें 'अर्पित हो मेरी मनुज-काया, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' की भावना दे, मानवता की पुजारी बनाती है।
जब हम खादी अर्थात् हाथ की बनी वस्तुओं का प्रयोग करते हैं, तभी मनुष्य को, मनुष्य की आवश्यकता पड़ती है। आवश्यकता ही, मानव को, मानव के निकट लाती है और यह नैकट्य ही मनुष्य को एक-दूसरे के दुख-दर्द में सम्मिलित होना सिखाता है। हाथ की बनी वस्तुएँ न प्रकृति में धुआँ फैलाती है और न ही वायुमंडल को विषाक्त बनाती हैं। इनका प्रयोग हमारे अंदर परस्पर करुणा, स्नेह और प्रेम उत्पन्न करता है। खादी 'स्वदेश-प्रेम' और 'स्वदेशी-प्रेम' की निष्ठा देती है। गाँवों को रोजगार दे, सुखी तथा संपन्न बनाती है। नर में नारायण को देखने की व्यापक दृष्टि देती है। दरिद्रनारायण की सेवा का मार्ग दिखाती है और अंततः मानव-मन में, जन-जन के प्रति प्रेमभाव उमगाती है।
बहुत साल पहले काकासाहब कालेलकर ने अपने मुखपत्र 'मंगल प्रभात' में एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था - 'खादीधारी नहीं खादी धर्मी बनो' खादी धर्मी का मतलब है - समझ-बूझ कर कातो और खादीधारी बनो। बापू ने कहा था, ''जो काते वह पहने और जो पहने वह काते।'' खादी का मतलब है, देश के सभी लोगों की आर्थिक स्वतंत्रता और समानता का आरंभ ''जब अमीर और गरीब, सब एक ही तरह का काम करेंगे, तो उससे पैदा होने वाली प्रीति के बंधनों से बँधकर और आपस के भेदभावों को भूलकर वो किस हद तक एक-दूसरे के बराबर हो जाएँगे (बंग, 1988, पृ. 11)?'' यानी हृदय से जुड़ जाएँगे।
सत्य तो यह है कि वर्तमान युग 'कलों' का युग है। इन कलों ने भोग की वस्तुओं में इतनी वृद्धि कर दी है कि साधारण व्यक्ति इस मृगमरीचिका से निकल नहीं पाता है। हम देखेंगे कि मिल के श्वेत वस्त्र का प्रभाव भिन्न है, हाथ से कते-बुने श्वेत वस्त्र का प्रभाव भिन्न है। श्वेत रंग और उस पर वस्त्र खादी का, जब इस श्वेत रंग के खादी-वस्त्र में सूर्य की किरणें शरीर तक पहुँचती हैं तो वे उत्तेजना के स्थान पर, शांति प्रदान करती हैं। उत्तेजना व्यक्ति को गलत कामों की ओर ले जाती है तथा शांति उत्पादक-कार्यों की ओर। यह दैवी गुण-शांति, हमें सदा दूसरों का भला करने की प्रेरणा देती है। जो शक्ति शरीर-श्रम से अर्जित की जाती है अर्थात् उत्पादक-श्रम से बनती है, वही शक्ति, मनुष्य को मानव बनाए रखने में सहायक होती है।
'मर जाऊँ तो भी होवे, मेरा कफन स्वदेशी'' ऐसा संवेदनशील प्रज्ञावान् मनुष्य को ही संकल्प लेना होगा कि मैं खादी ही पहनूँगा। तभी वह व्यक्ति 'समाज-निर्माता' बन, जघन्य अपराधों से त्राहि-त्राहि करने वाले मानव को, शांति-सुधा प्रदान कर सकता है।
खादी का अर्थशास्त्र अमीर बनने के अर्थशास्त्र की माँगों को संतुष्ट नहीं करता, परंतु यह आलस्य और बेकारी की समस्या का तत्काल और स्थायी हल है। यह कृषि का पूरक है, क्योंकि यह अन्य कुटीर उद्योगों का विकास करता है। मिलों ने अधिक उत्पादन के कारण, सुख के साधनों में इतनी अधिक वृद्धि कर दी है कि आज हर व्यक्ति, अन्य व्यक्ति से छीना-झपटी की होड़ में लगा हुआ है। उधर सुख-सुविधा के साधन हर पल नए बनते जा रहे हैं, इसलिए समाज में न कोई संतुष्ट है, न हो सकता है और असंतुष्ट का, भ्रष्टाचार का रास्ता पकड़ना स्वाभाविक ही है। आज के समय में भ्रष्टाचार का बाहुल्य है। आम जनता को रोटी के लाले पड़े हैं। स्मरण रहे, हर देश की सच्ची पूँजी, उस देश के वासियों का स्वास्थ्य और चरित्र है। इस वैभव के होते, भ्रष्टाचार पनप ही नहीं सकता। बेकारी और महँगाई न रहने से भ्रष्टाचार भी बहुत कम रह जाएगा। गाँव फिर से आबाद होंगे। कपास की पैदावार से लेकर, कपड़ा बुनने तक की प्रक्रिया जब गाँव में ही पूरी होने लगेगी तो गाँव के अबला-वृद्ध तरुण सभी को काम मिल जाएगा। उन्हें उदर-पूर्ति के लिए, प्रेमचंद के 'गोदान' के गोबर की भाँति, मजदूर बनकर, शहरों में ठोकरें नहीं खानी पड़ेंगी। शहर में जाकर वे अपना स्वास्थ्य और चरित्र दोनों खो बैठते हैं, यह हानि भी न होगी।
अन्न और वस्त्र, शरीर के लिए अत्यंत आवश्यक वस्तु हैं। प्राचीन काल में खेती की तरह वस्त्रोत्पादन - कपड़ा बनाने - का काम भी बहुत बड़े परिणाम में होता था। वस्त्रोत्पादन - खादी के धंधे में किसान, सुनार, लुहार, लुढ़वैये, धुनिये, कत्तिन, जुलाहे, धोबी, रंगरेज आदि का काम मिलने से संपत्ति का उचित बँटवारा होता रहता था। इससे समाज में संतोष, सुख और शांति छाई हुई थी। सब जगह समान वर्षा होने से जिस तरह सबको एक समान आनंद होता है, उसी तरह खादी के कारण पैसे का समान बँटवारा होता रहता था जिससे सब में समान संतोष फैला हुआ था। ऐसी स्थिति में कोई 'जीवन-कलह' नामक शब्द जानता ही न था। वर्णव्यवस्था के आधार-भूत अनेक तत्वों में मर्यादित धन-तृष्णा अथवा भोग-लालसा से खादी का विशेष संबंध है। खादी के कारण सबको मर्यादित किंतु सबको समान रूप से धन मिलता रहने के कारण सारा समाज एक समान संतुष्ट रहता है। समाज की आत्मा के इस प्रकार संतुष्ट रहने के कारण उसे ऐहिक और पारमार्थिक उन्नति के लिए अवसर मिल जाता है। खादी समाज की बिखरी हुई कड़ियों को पुनः जोड़ देगी।
गांधी दृष्टि में ''खादी का मतलब है, देश के सभी लोगों की आर्थिक स्वतंत्रता और समानता का आरंभ। ...हमें इस बात का दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि हम अपने जीवन की सभी जरूरतों को हिंदुस्तान की बनी चीजों से और उनमें भी हमारे गाँव में रहनेवाली आम जनता की मेहनत और अक्ल से बनी चीजों के जरिए पूरा करेंगे...। आज हिंदुस्तान के सात लाख गाँवों को चूर कर और बर्बाद करके हिंदुस्तान के और ग्रेट ब्रिटेन के जो दस-पाँच शहर माला-माल हो रहे हैं, उनके बदले हमारे सात लाख गाँव स्वावलंबी और स्वयंपूर्ण बनें, और अपनी राजी-खुशी से हिंदुस्तान के शहरों और बाहर की दुनिया के लिए इस तरह उपयोगी बनें कि दोनों पक्षों को फायदा पहुँचे।
मेरे विचार में खादी हिंदुस्तान की समस्त जनता की एकता की, उसकी आर्थिक स्वतंत्रता और समांता की प्रतीक है, और इसलिए जवाहरलाल के काव्यमय शब्दों कहूँ तो वह 'हिंदुस्तान की आजादी की पोशाक है।'
फिर खादी-वृति का अर्थ है, जीवन के लिए जरूरी चीजों की उत्पत्ति और उनके बँटवारे का विकेंद्रीकरण। इसलिए अब तक जो सिद्धांत बना है, वह यह है कि हर एक गाँव को अपनी जरूरत की सब चीजें खुद पैदा कर लेनी चाहिए और शहरों की जरूरतें पूरी करने के लिए कुछ अधिक उत्पत्ति करनी चाहिए (गांधी, 1946, पृ. 19)।''
गांधीजी भारत में चरखे को चूल्हे की तरह सर्वव्यापी बनाना चाहते थे। उनका कहना था, ''भारत को यदि कोई मुफ्त में पकाकर खाना दिया करे, तो जिस प्रकार उसके चूल्हे उखाड़ फेंकना अनुचित है, उसी प्रकार चरखे को धता बता देना लाभदायक नहीं हुआ। चूल्हे में कितना बखेड़ा है। घर-घर चूल्हा और घर-घर आग, कितना अनर्थ है। हर गृहिणी को सुबह हुई कि धुआँ खाना पड़ता है, कितना अत्याचार है। ऐसी मनमोहक दलीलों के भुलावे में आकर यदि चूल्हे को उखाड़ फेंके और हर गाँव में लोग भोजनालयों में ही भोजन करें तो? तो भारत के बच्चों को दर-दर भटकना पड़ेगा, इसमें जरा भी संदेह नहीं। चूल्हे का नाश पूरी तरह तो अनर्थशास्त्र है। उसे तो शास्त्र का नाम देना भी शोभा नहीं देता (दीक्षित, 2010, पृ. 23)।''
आज हम चरखे को नष्ट करके भूख और व्यभिचार को अपने घर न्यौत दिया है। जिस प्रकार चूल्हे को हटाना मानों मौत को बुलाना है। बेरोजगारी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यदि हम चरखे की पुनः स्थापना करें तो हमारे खंडहरवत् टूटे-फूटे घर फिर से दमक उठेंगे।
गांधीजी की दृष्टि बहुत व्यापक थी। उनका कहना था, "चरखे से भारत का संकट दूर होगा, भूखों को रोटी मिलेगी, स्त्रियों की लाज बचेगी, काहिलों की सुस्ती मिटेगी, स्वराज्यवादियों को स्वराज्य मिलेगा और संयम पालने वालों को सहायता मिलेगी। जब यह पवित्र भाव चरखे का साथ जुड़ जाएगा तब जाकर सूत पर भगवान नाचने लगेंगे और मेरे बुजुर्ग मित्र को चरखा चलाते हुए भगवान के भी दर्शन होंगे। जैसी जिसकी भावना होती है, उसे वैसा ही फल मिलता है (गांधी, 1924)।"
हर इनसान का पहला फर्ज अपने पड़ोसी के प्रति है। इसमें परदेशी के प्रति द्वेष नहीं और स्वदेशी के लिए पक्षपात नहीं। शरीरधारी की सेवा करने की शक्ति की मर्यादा होती है। वह अपने पड़ोसी के लिए भी मुश्किल से फर्ज पूरा कर पाता है। अगर पड़ोसी के प्रति सब अपना धर्म ठीक-ठीक पालन कर सकें तो दुनिया में कोई मदद के बिना दुख न पाए। इसलिए यह कहा जा सकता है कि मनुष्य पड़ोसी की सेवा करके दुनिया की सेवा करता है। असल में तो इस स्वदेशी में अपने-पराए का भेद ही नहीं। पड़ोसी के प्रति धर्म पालन करने का अर्थ है, जगत के प्रति धर्म पालन, और किसी तरह दुनिया की सेवा हो ही नहीं सकती। जिसके ख्याल में सारा जगत ही कुटुंब है, उसमें अपनी जगह पर रहकर भी सबकी सेवा करने की शक्ति होनी चाहिए। वह तो पड़ोसी की सेवा के जरिए ही हो सकती है (उपाध्याय, 1995, पृ. 163)
कई साम्यवादी विचारकों ने गांधीजी के खादी-आंदोलन की आलोचना भी की है। वे मानते हैं कि किसान को जो खाली समय मिलता है, वह मजदूर के लिए आवश्यक है, क्योंकि वह आठ महीने लगातार कमर-तोड़ मेहनत करता है। लेकिन गांधीजी कहते हैं कि वह चरखा तो खाली समय में चला ही सकता है, क्योंकि चरखे से मानसिक शक्ति भी मिलती है और किसान अपने समय का उपयोग भी कर सकेगा। वे कहते हैं कि इस खाली समय का उपयोग राष्ट्र के लिए होना चाहिए। औद्योगीकरण और पश्चिम की भौतिक सभ्यता के बारे में गांधीजी की दृष्टि को (तथाकथित) आधुनिक लोग स्वीकार नहीं करते। इलाहाबाद के 'लीडर' अखबार ने लिखा है कि गांधीजी की खादी, मिल के सूत या मिल में बने कपड़े के स्थान पर हाथकते कपड़े की स्थापना, विकास की अवधारणा को पीछे की ओर ले जाएगी (दीक्षित, 2010, पृ. 29)।
पश्चिमी समझ वाले लोग गांधीजी के खादी विचार को विज्ञान विरोधी मानते हैं। जबकि कपास उत्पादन से लेकर कपड़ा बनाने तक की सारी प्रक्रिया वैज्ञानिक है। गांधीजी तो यह भी मानते थे कि केवल खादी का कपड़ा पहनने से ही सब कुछ नहीं होगा, बल्कि उसके साथ-साथ हमें अपने आचार और विचार में भी वैज्ञानिकता लानी पड़ेगी। खादी का विज्ञान कोई प्रयोगशाला का विज्ञान नहीं है बल्कि यह प्रायोगिक विज्ञान है और समाज में समरसता लाने का विज्ञान है। इस समरसतापरक विज्ञान में केवल वैज्ञानिक और पढ़े-लिखे लोग ही शामिल नहीं हो सकते, बल्कि अनपढ़ लोग भी इसमें अपनी भूमिका निभा सकते हैं। खादी की तकनीक कोई कचरा पैदा नहीं करती और न ही पर्यावरण का नुकसान पहुँचाती है बल्कि कचरामुक्त उत्पादन और सहज उपभोग पर अधारित होता है। खादी की खपत, उसके उत्पति स्थल से जितनी नजदीक हो सके, उतनी होनी चाहिए। खादी का मूल तत्व यह है कि प्रत्येक गाँव अपनी भोजन, वस्त्र की आवश्यकताओं में स्वावलंबी बन जाए, यह तभी संभव होगा जब कातने वाले करीबन हर गाँव में कपास उगाएँगे। साथ-ही-साथ गांधीजी का एक सूत्र वाक्य को भी आत्मसाथ करेंगे, वह है - "कातो, समझ बूझ कर कातो; कातें वे खद्दर पहनें, पहनें वे जरूर कातें। 'समझ बूझ कर' के मानी है कि चर्खा यानी कताई अहिंसा का प्रतीक है। गौर करो, प्रत्यक्ष होगा। कातने के मानी हैं, कपास खेत से चुनना, बिनौले बेलन से निकालना, रुई तुनना, पूनी बनाना, सूत मनमाना अंक का निकालना, और दुबटा कर परेतना (गांधी, 1945)" यह समझ स्वतंत्रता सेनानियों को थी, किंतु समय से साथ कम होता गया। गांधीजी यहाँ तक कहते थे कि जिस तरह चरखा आज भारत को सुख-शांति दे रहा है, शायद कल वह दुनिया को भी दे, क्योंकि वह अधिकतम लोगों की अधिकतम भलाई करता है। सबको विकास के लिए समान अवसर मिलना चाहिए। अवसर मिले तो प्रत्येक व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की एक जैसी संभावना है। चरखा इसी भावना का प्रतीक है।
गांधीजी ने खादी विचार को आधारभूत रूप दिया और चरखा संघ के माध्यम से उसे क्रियान्वित करने का प्रयास किया। चरखा संघ ने 1950-51 ई0 तक खादी को वैचारिक आधार पर लाभ-हानि रहित शुद्ध उद्योग व्यापार रूप में चलाने का प्रयास किया, हालाँकि उस समय भी विचार और व्यवहार में दूरी रहती थी, लेकिन यहाँ कहा जा सकता है कि सैद्धांतिक लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास निष्ठापूर्वक किया जाता था। चरखा संघ के समय विचार व्यवहार के बीच की दूरी का एक उदाहरण लिया जा सकता है। गांधीजी ने खादी काम में लगे कामगरों को जीवन-निर्वाह के लायक पारिश्रमिक देने की बात कही और प्रति कत्तिन दैनिक 8 आने पारिश्रमिक मिले, इस पर जोर दिया। परंतु उस समय तक विकसित खादी उत्पादन साधनों-यंत्रों की उत्पादन क्षमता, खादी की कीमत तथा अन्य बातों को ध्यान में रखकर उतना पारिश्रमिक देना संभव नहीं हो सका। शायद उन्हीं बातों को ध्यान में रखकर गांधीजी ने अधिक विकसित साधनों के विकास पर जोर दिया। यहाँ यह बात स्मरणीय है कि उन दिनों खादी केंद्र सभी प्रकार के रचनात्मक कार्यक्रमों, समाज सेवा तथा नयी समाज रचना के केंद्र के रूप में कार्य करते थे - उन दिनों खादी आश्रम राष्ट्रीय राजनैतिक कार्यक्रमों के केंद्र बिंदु, तथा प्रकाश स्तंभ भी थे। बहुत बार खादी के कार्यकर्ता खादी आश्रमों को बंद करके राजनैतिक आंदोलन में भी जुट जाते थे और जेल भी चले जाते थे। इसके अतिरिक्त खादी कार्यकर्ताओं में गांधीजी के साथ प्रत्यक्ष संपर्क, वैचारिक प्रेरणा एवं निष्ठा भी थी।
तात्पर्य यह है कि यह जब तक विषमता बढ़ती रहेगी, तब तक समस्याएँ अपना सर और ऊँचा करती जाएँगी। राजनीतिक पाटियाँ भले ही 'गरीबी मिटाओ' का नारा बुलंद करती जाएँ, या 'हर मुँह को रोटी तथा हर हाथ को काम' की बात कहती रहें, सब व्यर्थ हैं, 'नक्कारखाने में तूती की आवाज' की तरह वातावरण में, यह नारा गूँज कर ही रह जाएगा। विषमता तो तभी मिट सकेगी, जब हम खादी के विचार को समझकर जीवन में अपना लेंगे। खादी पहनते ही कपड़ा मिल-मालिक आसमान से धरती पर गिरेंगे। उनकी संग्रहशक्ति ही न रहेगी। खादी-विचार, जड़ से ऊपर चेतन को, मशीन से ऊपर मनुष्य को तथा धन से ऊपर मानव को, महत्व देता हैं, इसलिए खादी-विचार ही भारतीय विचार है, यह निर्भ्रांत सत्य है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
उपाध्याय, पं. रा.ना. (1995), गांधी विचार यात्रा, नई दिल्ली : भारतीय प्रकाशन संस्थान।
गांधी, मो.क. (1946), रचनात्मक कार्यक्रम उसका रहस्य और स्थान, अहमदाबाद : नवजीवन प्रकाशन मंदिर।
गांधी, मो.क. (1924, जून 26), नवजीवन, अहमदाबाद : गुजराती समाचार पत्र।
गांधी, मो.क. (1945, मार्च 28), सेवाग्राम।
दीक्षित, प्र. (2010), खादी एक ऐतिहसयिक समग्र दृष्टि, सेवाग्राम : गांधी सेवा संघ।
बंग, ठा.दा. (1988), रचनात्मक-कार्यक्रम (कल और आज), वाराणसी : सर्व सेवा संघ प्रकाशन।
बिंब्रॉ, सी. (1999), खादी-दर्शन, दिल्ली : पुस्तक मंदिर।