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विमर्श

एकवर्ण समाज चाहते थे डॉ. अंबेडकर

संजय कुमार


रेखा वाल्मीकि ने सपने में भी नहीं सोचा था कि गंदगी साफ करने के पुश्तों के काम को छोड़ समाज के अन्य जातियों की तरह बढ़िया काम करेगी। लेकिन उसके सपने को साकार करने का अवसर सरकारी आदेश के तहत तब मिला था जब पंचायत के गाँव में सरकारी योजना मिड-डे-मील के लिए बच्चों का खाना बनाने वाले रसोइए के तौर पर सरकारी मुलाजिम बनाया गया। रेखा वाल्मीकि के कई पुश्त गाँव व शहरों में सफाई का काम किया करते आ रहे हैं। लेकिन रेखा वाल्मीकि खुश थी कि वह पुश्तों के काम को छोड़ समाज के अन्य जातियों की तरह बढ़िया काम करेगी। लेकिन रेखा वाल्मीकि की यह खुशी काफूर हो गई। जब स्कूल के प्रधानाचार्य ने साफ-साफ कह दिया कि देखो रेखा वाल्मीकि, सरकार ने भले ही तुम्हें बच्चों का खाना बनाने के लिए रखा हो! ...खाना तुम नहीं बनाओगी... क्योंकि बच्चे तुम्हारे हाथ का खाना बना हुआ नहीं खाएँगे... तुम, स्कूल आओ, झाड़ू-पोछा करो, खाना खाओ और जाओ। खाना हम पकवा लेंगे। रेखा वाल्मीकि के सपने टूट गए थे। ...रेखा वाल्मीकि की कहानी कोई सदियों पुरानी नहीं है, बल्कि देश के कई क्षेत्रों में दलितों के साथ घटित होते देखी जा सकती है। उत्तर प्रदेश के रमाबाई नगर के 'विवाइन' गाँव पंचायत में दलित रेखा को रसोइए के पद पर नियुक्ति मिलते ही गाँव से धमकियाँ मिलने लगी थी। विरोध का तेवर देखिए प्रधानाचार्य ने दलित रसोइए के खिलाफ नब्बे दिन के व्रत का एलान कर दिया था। बच्चों ने स्कूल आना बंद कर दिया था। यही नहीं रेखा वाल्मीकि को गाँव निकाला और हुक्का पानी बंद कर देने की धमकी भी दी गई थी। दबाव इतना था कि रेखा वाल्मीकि ने खाना बनाने से हाथ खींच लिया। स्कूलों में बच्चों के नहीं आने पर कहती हैं कि अगर मेरे खाना बनाने से बच्चे नहीं पढ़ेंगे तो मैं खाना नहीं बनाना चाहती। रेखा वाल्मीकि के इस जज्बे को समाज के ठेकेदार अपनाते और सदियों से शोषित, उपेक्षित और हाशिए पर रहने वाले दलितों को समाज के मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास करते?

तमाम दावों-प्रतिदावों के बीच जात-पाँत और छूआछूत किसी न किसी रूप में आज भी यहाँ नहीं तो वहाँ बरकार है। हालात यह है कि जाति, जाती ही नहीं। जाति टूटती नहीं। देश में जाति प्रथा एवं जाति प्रथा उन्मूलन को लेकर आवाज उठती रही है। जात-पाँत और छूआछूत का दंश झेलते हुए मुकाम पाने वाले संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीम राव अंबेडकर सहित अन्य चिंतकों ने जाति तोड़ने को लेकर आवाज बुलंद किया। बाबा साहब ने अपने आलेख 'भारत में जाति प्रथा : संरचना, उत्पत्ति और विकास' में लिखा है कि, मुझसे ज्यादा योग्य विद्वानों ने जाति के रहस्यों को खोलने का प्रयास किया है। किंतु, खेद की बात है कि अभी तक इस विषय पर चर्चा नहीं हुई है और लोगों को इसके बारे में अल्प जानकारी है। मैं जाति जैसी संस्था की जटिलताओं के प्रति सजग हूँ और मैं इतना निराशावादी नहीं हूँ कि यह कह सकूँ कि यह पहली अगम, अज्ञेय है... यह ऐसी व्यवस्था है, जिसके फलितार्थ गहन है। होने को तो यह एक स्थानीय समस्या है, लेकिन इसके परिणाम बड़े विकराल हैं। जब तक भारत में जाति प्रथा विद्यमान है, तब तक हिंदुओं में अंतर्जातीय विवाह और बाह्य लोगों से शायद ही समागम हो सके (बाबा साहब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वाड्.मय खंड-1, पृष्ठ 17 एवं 18)

बाबा साहब के कथन आज भी प्रासंगिक है। बाबा साहब ने आगे लिखा है कि - "आज भारत में जाति समस्या ने एक दिलचस्प मोड़ ले लिया है, क्योंकि इस अप्राकृतिक विधान को तिलांजलि देने के लिए सतत प्रयत्न हो रहे है। (बाबा साहब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वाड्.मय खंड-1, पृष्ठ-34)।

बाबा साहब की चिंता में देश की वह तसवीर है जो सभ्य समाज देखना तो चाहता है लेकिन जाति प्रथा के खात्मे के प्रति सजगता वैसी नहीं दिखती जैसा कि बाबा साहब और अन्य चिंतकों ने देखी। दलित के मंदिरों में प्रवेश पर रोक अगर प्रवेश किया तो उन पर जान लेवा हमला, दलित युवक ने उच्च जाति की लड़की से प्रेम विवाह किया तो उसे और पूरे समाज पर हमला और अपने हक-हूक की बात की तो प्रताड़ना। दुर्भाग्य है कि यह सब आज भी किसी न किसी रूप में समाज में व्याप्त है। सच तो यह है कि सदियों बाद भी वंचितों को स्वीकार करने में समाज हिचकिचाता आ रहा है। बदलाव की एकाध घटना हालाँकि देखने को मिलती है, लेकिन वह समाज की पूरी तसवीर नहीं है।

समाज की तसवीर में जाति व्यवस्था विद्वमान है। बाबा साहब को अपने जीवन संघर्ष में कटु अनुभवों से गुजरना पड़ा था। अनुभव से बाबा साहब ने काफी कुछ सीखा था। उनके अनुभव उनके चिंतन में साफ दिखता है। दलितों की स्थिति में सुधार और समतामूलक समाज की स्थापना के व्यापक आंदोलन भी दिखता है। उनकी रूचि सबसे अधिक जाति समस्या में थी। चर्चित समाजवादी चिंतक मधु लिमये ने अपनी पुस्तक डॉ. अंबेडकर एक चिंतन में 'जाति संस्था के उन्मूलन का आह्वान' अध्याय में लिखा हैं कि - "जाति के उद्गम के संबंध में वंश या नस्ल का सिद्धांत अंबेडकर को मान्य नहीं था। उनकी मान्यता थी कि भारतीय समाज वंश या नस्ल की दृष्टि से शुद्ध नहीं था यह एक मिश्रित समाज था, कई नस्लों का मिला-जुला समाज। उनका विचार था कि चूँकि यूरोप के विद्वान रंग के पूर्वाग्रहों से युक्त थे अतः उन्होंने रंग को नस्ल के साथ जोड़कर जाति को स्पष्ट करने का प्रयास किया, यह गलत था। वे डॉ. केलकर की इस मान्यता से सहमत थे कि कोई परिवार या कबीला आर्य नस्ल का है या द्रविड़-नस्ल का, इस सवाल ने विदेशियों के आने से पहले भारतीयों को कभी परेशान नहीं किया।' (डॉ. अंबेडकर एक चिंतन - मधु लिमये, पृष्ठ-15)

जातिवाद के खिलाफ शूद्रों का आक्रोश आज भी दिखता है। इसके लिए मनुस्मृति को घेरे में लिया जाता है। मनुस्मृति की प्रतियाँ जलाने की खबर मीडिया में आती रहती है। हालाँकि, यह आक्रोश नया नहीं है। महाड़ में 29 दिसंबर 1927 को सत्याग्रहियों की एक सभा में डॉ. अंबेडकर और उनके अनुयायियों ने न केवल घोषणा पत्र के सिद्धांतों को प्रस्तुत किया बल्कि उनके एक ब्राह्मण अनुयायी ने 'मनुस्मृति' के अन्यायपूर्ण अंशों को पढ़कर सुनाया। इसके बाद भारत में एक वर्ण समाज (समतामूलक समाज) की स्थापना का प्रस्ताव पास किया और और 'मनुस्मृति' को जलाया गया। यह विरोध का प्रतीक था और भारत के इतिहास में स्मरणीय दिन था। जाति व्यवस्था पर चारों तरफ से हल्ला बोला गया था। सारे भारत में हिंदुओं में रोष की लहर दौड़ गई। किंतु विद्रोही डॉ. अंबेडकर अडिग रहे। (डॉ. अंबेडकर एक चिंतन - मधु लिमये, पृष्ठ-18)

जातिविहीन समाज यानी एक वर्ण समाज को लेकर बाबा साहब का आंदोलन कई मायने में महत्वपूर्ण रहा है। उनकी सोच थी एक समाज हो, जहाँ आदमी की पहचान जाति से न हो। लेकिन, मनुवादी हिंदुओं पर इसका खास असर नहीं पड़ा। ऐसे में वंचित वर्ग ने हिंदुओं के आगे घुटने नहीं टेके और सभ्य समाज से मुँह मोड़ कर बौद्ध धर्म को गले लगाने लगे। बाबा साहब ने भी बौद्ध धर्म को अपनाया। बाबा साहब ने वंचितों खासकर दलितों को समाज में समान हक दिलाने के लिए एक वर्ण समाज का सपना देखा था। इस सपने के लिए वैचारिक लड़ाई लड़ी। सभ्य हिंदू समाज को समझाने का प्रयत्न किया, लेकिन सोच को बदल नहीं पाए। सभ्य समाज कल भी नहीं बदला था और आज भी अपनी पुरानी सोच को लेकर कायम है। आरक्षण का सवाल आते ही विरोधी स्वर तेज हो जाते हैं। जिस आरक्षण का प्रावधान संविधान में किया गया उसका खास मकसद था कि सामाजिक-शैक्षणिक पिछडे़पन को दूर करने की संवैधानिक पहल। आरक्षण नौकरी देने की व्यवस्था नहीं है बल्कि 85 प्रतिशत वंचित बहुजन दलित-आदिवासी, पिछड़ी जाति के लोगों को भागीदारी और प्रतिनिधित्व देने का सुनिश्चित प्रावधान है। जिस तरह से आरक्षण के सवाल पर विरोघी स्वर गोलबंद होते है उसी तरह यह स्वर जातिवाद के खिलाफ गोलबंदी नहीं दिखता।

बाबा साहब कहते थे जाति व्यवस्था एक बहुमंजिल इमारत की तरह है जिसमें प्रवेश करने के लिए न कोई दरवाजा हैं न खिड़कियाँ। जो जिस मंजिल पर जन्म लेता है उसी मंजिल पर मर जाता है। बाबा साहब इस मंजिल को ध्वस्त करना चाहते थे। लेकिन, उस दौर की महान हस्तियाँ भी इस मुहिम में आने से हिचकती थीं। चर्चित दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय अपनी पुस्तक, महानायक बाबा साहब डॉ. अंबेडकर में लिखते हैं कि - "अब गांधी ने अस्पृश्यता निवारण अभियान को राजनैतिक शक्ल दे दी थी। शायद पहली बार उन्होंने कहा, ''छुआछूत हिंदू धर्म पर एक बड़ा भारी कलंक है''। उनकी दृष्टि में छुआछूत मिटाने के लिए, जाति विनाश की आवश्यकता नहीं। जबकि डॉ. अंबेडकर का मत था कि - ''जब तक जाति समाप्त नहीं होती, छुआछूत का अंत नहीं होगा।'' (महानायक बाबा साहब डॉ. अंबेडकर, मोहन दास नैमिशराय, पृष्ठ-69)

बाबा साहब जाति उन्मूलन के रास्ते आने वाले बाधाओं से अवगत थे। यहीं नहीं उनके विरोधी तेवर से सब घबराते थे। दिसंबर 1935 में डॉ. अंबेडकर को लाहौर के जात-पाँत तोड़क मंडल द्वारा सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए बुलाया गया था। डॉ. अंबेडकर ने आयोजकों को बताया कि - "वे यह प्रस्थापना चाहते हैं कि जाति व्यवस्था के आधारभूत सिद्धांतों को तोड़े बिना जाति को नहीं तोड़ा जा सकता। उन्होंने अपने भाषण का प्रारूप आयोजकों को भेजा तो वे घबरा गए। उन्होंने भाषण के एक अंश को हटाने का आग्रह किया। डॉ. अंबेडकर सहमत नहीं हुए और सम्मेलन का विचार छोड़ दिया। (डॉ. अंबेडकर एक चिंतन - मधु लिमये, पृष्ठ-18)

जात-पाँत तोड़ने को लेकर डॉ. अंबेडकर की मुहिम आज भी प्रासंगिक है। उन्होंने एकवर्ण समाज का जो सपना देखा था उसके पहल के लिए अपने स्तर पर बौद्धिक लड़ाई लड़ी। जम कर आवाज उठाई। जाति व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में बाबा साहब के प्रयासों को फिर से जीवंत करना होगा। ताकि मुख्यधारा में सभी एक साथ आए और आगे बढ़े।


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