अज्ञेय रचनावली
खंड 1
अज्ञेय की संपूर्ण कविताएँ - 1
तीन
कविताएँ (1946-1953)
क्षमा की वेला
आह-
भूल मुझ से हुई-मेरा जागता है ज्ञान,
किन्तु यह जो गाँठ है साझी हमारी,
खोल सकता हूँ अकेला कौन से अभिमान के बल पर?
-हाँ, तुम्हारे चेतना-तल पर
तैर आये अगर मेरा ध्यान,
और हो अम्लान (चेतना के सलिल से धुल कर)
तो वही हो क्षमा की वेला-
अनाहत संवेदना ही में तुम्हारी लीन हो परिताप, छूटे शाप,
मुक्ति की बेला-मिटे अन्तर्दाह!
दिल्ली-गुरदासपुर
27 जुलाई, 1946
एक ऑटोग्रा फ
अल्ला रे अल्ला
होता न मनुष्य मैं, होता करमकल्ला।
रूखे कर्म-जीवन से उलझा न पल्ला।
चाहता न नाम कुछ, माँगता न दाम कुछ,
करता न काम कुछ, बैठता निठल्ला-
अल्ला रे अल्ला!
इलाहाबाद
30 जुलाई, 1946
तुम्हीं हो क्या बन्धु वह
तुम्हीं हो क्या बन्धु वह, जो हृदय में मेरे चिरन्तन जागता है?
काँप क्यों सहसा गया मेरा सतत विद्रोह का स्वर-
स्तब्ध अन्त:करण में रुक गया व्याकुल शब्द-निर्झर?
तुम्हीं हो क्या गान, जो अभिव्यंजना मुझ में अनुक्षण माँगता है?
खुल गया आक्षितिज नीलाकाश मेरी चेतना का,
छा गयी सम्मोहिनी-सी झिलमिलाती मुग्ध राका;
तुम्हीं हो क्या प्लवन वह आलोक का, जो सकल सीमा लाँघता है?
कहीं भीतर झर चले सब छद्म युग-युग की अपरिचिति के,
एक नूतन समन्वय में घुले सब आकार संसृति के;
तुम्हारा ही रूप धुँधला क्या सदा मानस-मुकुर में भासता है?
तुम्हीं हो क्या बन्धु वह, जो हृदय में मेरे चिरन्तन जागता है?
कलकत्ता
16 अक्टूबर, 1946
प्रणति
शत्रु मेरी शान्ति के-ओ बन्धु इस अस्तित्व के उल्लास के;
ऐन्द्रजालिक चेतना के-स्तम्भ डावाँडोल दुनिया में अडिग विश्वास के;
लालसा की तप्त लालिम शिखे-
स्थिर विस्तार संयम-धवल धृति के;
द्वैत के ओ दाह-
जड़ता के जगत् में अलौकिक सन्तोष सुकृति के;
अनाचारी, सर्वद्रावी, सर्वग्रासी-
ओ नियन्ता एक अभिनव शील के, व्रती मेरे यती संगी
हृदय के जगते उजाले, निवेदित इह के निवासी!
प्रणति ले ओ नियति के प्रतिरूप-जलते तेज जीवन के;
प्रखर स्वर विद्रोह के प्रतिपुरुष सात्त्विक मुक्ति के;
मेरी प्रणति ले, स्वयम्भू आलोक मन के!
प्रणति ले!
कलकत्ता
17 अक्टूबर, 1946
राह बदलती नहीं
राह बदलती नहीं-प्यार ही सहसा मर जाता है,
संगी बुरे नहीं तुम-यदि नि:संग हमारा नाता है
स्वयंसिद्ध है बिछी हुई यह जीवन की हरियाली-
जब तक हम मत बुझें सोच कर-'वह पड़ाव आता है!'
रूपनारायणपुर (रेल में)
18 अक्टूबर, 1946
विश्वास का वारिद
रो उठेगी जाग कर जब वेदना,
बहेंगी लूहें विरह की उन्मना,
-उमड़ क्या लाया करेगा हृदय में
सर्वदा विश्वास का वारिद घना?
काशी
20 अक्टूबर, 1946
किरण मर जाएगी
किरण मर जाएगी!
लाल होके झलकेगा भोर का आलोक-
उर का रहस्य ओठ सकेंगे न रोक।
प्यार की नीहार-बूँद मूक झर जाएगी!
इसी बीच किरण मर जाएगी!
ओप देगा व्योम श्लथ कुहासे का जाल-
कड़ी-कड़ी छिन्न होगी तारकों की माल।
मेरे माया-लोक की विभूति बिखर जाएगी!
इसी बीच किरण मर जाएगी!
लखनऊ
4 नवम्बर, 1946
शक्ति का उत्पात
क्रान्ति है आवत्र्त, होगी भूल उस को मानना धारा :
उपप्लव निज में नहीं उद्दिष्ट हो सकता हमारा।
जो नहीं उपयोज्य, वह गति शक्ति का उत्पाद भर है :
स्वर्ग की हो-माँगती भागीरथी भी है किनारा।
इलाहाबाद
13 नवम्बर, 1946
पराजय है याद
भोर बेला-नदी-तट की घंटियों का नाद
चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद।
नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान-
मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद!
काशी
14 नवम्बर, 1946
दीप थे अगणित
दीप थे अगणित :
मानता था मैं पूरित स्नेह है।
क्योंकि अनगिन शिखाएँ थीं, धूम था नैवेद्य-द्रव्यों से सुवासित,
और ध्वनि? कितनी न जाने घंटियाँ
टुनटुनाती थीं, न जाने शंख कितने घोखते थे नाम :
नाम वह, आतंक जिस का
चीरता थर्रा रहा था गन्ध-मूर्च्छित-से घने वातावरण को।
उपादानों की न थी कोई कमी।
मैं रहा समझे कि मैं हूँ मुग्ध। जाना तभी सहसा
लुब्ध हूँ केवल-कि ले कर जिसे अपने तईं मैं हूँ धन्य-
जीवन शून्य की है आरती!
बहा दूँ सब दीप! बुझने दो
अगर है स्नेह कम। सारी शिखाएँ लुटें। ग्रस ले धुआँ अपने-आप को!
मुखर झन्नाते रहें या मूक हों सब शब्द-पोपले वाचाल ये थोथे निहोरे।
जगा हूँ मैं : क्यों करूँ आराधना उस देवता की
जो कि मुझ को सिद्धि तो क्या दे सकेगा-
जो कि मैं ही स्वयं हूँ!
काशी
17 नवम्बर, 1946
खुलती आँख का सपना
अरे ओ खुलती आँख के सपने!
विहग-स्वर सुन जाग देखा, उषा का आलोक छाया,
झिप गयी तब रूपकत्र्री वासना की मधुर माया;
स्वप्न में छिन, सतत सुधि में, सुप्त-जागृत तुम्हें पाया-
चेतना अधजगी, पलकें लगीं तेरी याद में कँपने!
अरे ओ खुलती आँख के सपने!
मुँदा पंकज, अंक अलि को लिये, सुध-बुध भूल सोता
किन्तु हँसता विकसता है प्रात में क्या कभी रोता?
प्राप्ति का सुख प्रेय है, पर समर्पण भी धर्म होता!
स्वस्ति! गोपन भोर की पहली सुनहली किरण से अपने!
अरे ओ खुलती आँख के सपने!
मेरठ
25 दिसम्बर, 1946
पावस-प्रात, शिलङ्
भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक
की विजन को पकड़ती-सी क्लान्त बेसुर डाक-
'हाक्! हाक्! हाक्!'
मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना-
रहेगी बस एक मुट्ठी खाक!
'थाक्! थाक्! थाक्!'
शिलङ्
12 जुलाई, 1947
सागर के किनारे
तनिक ठहरूँ, चाँद उग आये, तभी जाऊँगा वहाँ नीचे
कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे। चाँद उग आये।
न उस की बुझी फीकी चाँदनी में दिखें शायद
वे दहकते लाल गुच्छ बुरूँस के जो
तुम हो। न शायद चेत हो, मैं नहीं हूँ वह डगर गीली दूब से मेदुर,
मोड़ पर जिस के नदी का कूल है, जल है,
मोड़ के भीतर-घिरे हों बाँह में ज्यों-गुच्छ लाल बुरूँस के उत्फुल्ल।
न आये याद, मैं हूँ किसी बीते साल के सीले कलेंडर की
एक बस तारीख, जो हर साल आती है।
एक बस तारीख-अंकों में लिखी ही जो न जावे
जिसे केवल चन्द्रमा का चिह्न ही बस करे सूचित-
बंक-आधा-शून्य; उलटा बंक-काला वृत्त,
यथा पूनो-तीज-तेरस-सप्तमी,
निर्जला एकादशी-या अमावस्या।
अँधेरे में ज्वार ललकेगा-
व्यथा जागेगी। न जाने दीख क्या जाए जिसे आलोक फीका
सोख लेता है। तनिक ठहरूँ। कसमसाते रुद्ध सागर के किनारे
तभी जाऊँ वहाँ नीचे-चाँद उग आये।
बांदरा (बम्बई)
9 अगस्त, 1947
दूर्वाचल
पाश्र्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढ़ती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में।
मैं ने आँख भर देखा।
दिया मन को दिलासा-पुन: आऊँगा।
(भले ही बरस-दिन-अनगिन युगों के बाद!)
क्षितिज ने पलक-सी खोली,
तमक कर दामिनी बोली-
'अरे यायावर! रहेगा याद?'
माफ्लङ् (शिलङ्)
22 सितम्बर, 1947
कितनी शान्ति! कितनी शान्ति!
कितनी शान्ति! कितनी शान्ति!
समाहित क्यों नहीं होती यहाँ भी मेरे हृदय की क्रान्ति?
क्यों नहीं अन्तर-गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य वासी,
अथिर यायावर, अचिर में चिर-प्रवासी
नहीं रुकता, चाह कर-स्वीकार कर-विश्रान्ति?
मान कर भी, सभी ईप्सा, सभी कांक्षा, जगत् की उपलब्धियाँ
सब हैं लुभानी भ्रान्ति!
तुम्हें मैं ने आह! संख्यातीत रूपों में किया है याद-
सदा प्राणों में कहीं सुनता रहा हूँ तुम्हारा संवाद-
बिना पूछे, सिद्धि कब? इस इष्ट से होगा कहाँ साक्षात्?
कौन-सी वह प्रात, जिस में खिल उठेगी-
क्लिन्न, सूनी, शिशिर-भींगी रात?
चला हूँ मैं, मुझे सम्बल रहा केवल बोध-पग-पग आ रहा हूँ पास;
रहा आतप-सा यही विश्वास
स्नेह से मृदु घाम से गतिमान रखता निविड मेरे साँस और उसाँस।
आह, संख्यातीत रूपों में तुम्हें मैं ने किया है याद!
किन्तु-सहसा हरहराते ज्वार-सा बढ़ एक हाहाकार
प्राण को झकझोर कर दुर्वार,
लील लेता रहा है मेरे अकिंचन कर्म-श्रम-व्यापार!
झेल लें अनुभूति के संचित कनक का जो इक_ा भार-
ऐसे कहाँ हैं अस्तित्व की इस जीर्ण चादर के
इकहरी बाट के ये तार!
गूँजती ही रही है दुर्दान्त एक पुकार-
कहाँ है वह लक्ष्य श्रम का-विजय जीवन की-तुम्हारा
प्रतिश्रुत वह प्यार!
हरहराते ज्वार-सा बढ़ सदा आया एक हाहाकार!
अहं! अन्तर्गुहावासी! स्व-रति! क्या मैं चीन्हता कोई न दूजी राह?
जानता क्या नहीं निज में बद्ध हो कर है नहीं निर्वाह?
क्षुद्र नलकी में समाता है कहीं बेथाह
मुक्त जीवन की सक्रिय अभिव्यंजना का तेज-दीप्त प्रवाह!
जानता हूँ। नहीं सकुचा हूँ कभी समवाय को देने स्वयं का दान,
विश्व-जन की अर्चना में नहीं बाधक था कभी इस व्यष्टि का अभिमान!
कान्ति अणु की है सदा गुरु-पुंज का सम्मान।
बना हूँ कर्ता, इसी से कहूँ-मेरी चाह, मेरा दाह,
मेरा खेद और उछाह :
मुझ सरीखी अगिन लीकों से, मुझे यह सर्वदा है ध्यान,
नयी, पक्की, सुगम और प्रशस्त बनती है युगों की राह!
तुम! जिसे मैं ने किया है याद, जिस से बँधी मेरी प्रीत-
कौन तुम? अज्ञात-वय-कुल-शील मेरे मीत!
कर्म की बाधा नहीं तुम, तुम नहीं प्रवृत्ति से उपराम-
कब तुम्हारे हित थमा संघर्ष मेरा-रुका मेरा काम?
तुम्हें धारे हृदय में, मैं खुले हाथों सदा दूँगा बाह्य का जो देय-
नहीं गिरने तक कहूँगा, 'तनिक ठहरूँ क्योंकि मेरा चुक गया पाथेय!'
तुम! हृदय के भेद मेरे, अन्तरंग सखा-सहेली हो,
खगों-से उड़ रहे जीवन-क्षणों के तुम पटु बहेली हो,
नियम भूतों के सनातन, स्फुरण की लीला नवेली हो,
किन्तु जो भी हो, निजी तुम प्रश्न मेरे, प्रेय-प्रत्यभिज्ञेय!
मेरा कर्म, मेरी दीप्ति, उद्भव-निधन, मेरी मुक्ति, तुम मेरी पहेली हो!
तुम जिसे मैं ने किया है याद, जिस से बँधी मेरी प्रीत!
लुभानी है भ्रान्ति-कितनी शान्ति! कितनी शान्ति!
शिलङ्
27 सितम्बर, 1947
शरणार्थी-1 : मानव की आँख
कोटरों से गिलगिली घृणा यह झाँकती है।
मान लेते यह किसी शीत रक्त, जड़-दृष्टि
जल-तलवासी तेंदुए के विष नेत्र हैं
और तमजात सब जन्तुओं से
मानव का वैर है क्यों कि वह सुत है
प्रकाश का-यदि इन में न होता यह स्थिर तप्त स्पन्दन तो!
मानव से मानव की मिलती है आँख पर
कोटरों से गिलगिली घृणा झाँक देती है!
इलाहाबाद स्टेशन
12 अक्टूबर, 1947
शरणार्थी-2 : पक गयी खेती
वैर की परनालियों से हँस-हँस के
हम ने सींची जो राजनीति की रेती
उस में आज बह रही ख़ूं की नदियाँ हैं।
कल ही जिस में 'ख़ाक-मिट्टी' कह के हम ने थूका था
घृणा की आज उस में पक गयी खेती
फसल काटने को अगली सदियाँ हैं।
मेरठ
15 अक्टूबर, 1947
शरणार्थी-3 : ठाँव नहीं
शहरों में कहर पड़ा है और ठाँव नहीं गाँव में
अन्तर में ख़तरे के शंख बजे, दुराशा के पंख लगे पाँव में
त्राहि! त्राहि! शरण-शरण!
रुकते नहीं युगल चरण
थमती नहीं भीतर कहीं गँूज रही एकसुर रटना
कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें कैसे बचें!
आन? मान? वह तो उफान है गुरूर का-
पहली जरूरत है जान से चिपटना!
इलाहाबाद
23 अक्टूबर, 1947
शरणार्थी-4 : मिरगी पड़ी
अच्छा भला एक जन राह चला जा रहा है।
जैसे दूर के आवारे बादल की हलकी
छाँह पकी बालियों का शालिखेत लील ले-
कारिख की रेख खींच या कि कोई काट डाले लिखतम
सहसा यों मूर्छा उसे आती है।
पुतली की जोत बुझ जाती है।
कहाँ गयी चेतना?
अरे ये तो मिरगी का रोगी है!
मिरगी का दौरा है।
चेतना स्तिमित है।
किन्तु कहीं भी तो दीखती नहीं शिथिलता-
तनी नसें, कसी मुट्ठी, भिंचे दाँत, ऐंठी मांस-पेशियाँ-
वासना स्थगित होगी किन्तु झाग झर रहा मुँह से!
आज जाने किस हिंस्र डर ने
देश को बेख़बरी में डँस लिया!
संस्कृति की चेतना मुरझा गयी!
मिरगी का दौरा पड़ा, इच्छाशक्ति बुझ गयी!
जीवन हुआ है रुद्ध मूच्र्छना की कारा में-
गति है तो ऐंठन है, शोथ है,
मुक्ति-लब्ध राष्ट्र की जो देह होती-लोथ है-
ओठ खिंचे, भिंचे दाँतों में से पूय झाग लगे झरने!
सारा राष्ट्र मिरगी ने ग्रस लिया!
इलाहाबाद
24 अक्टूबर, 1947
शरणार्थी-5 : रुकेंगे तो मरेंगे
सोचने से बचते रहे थे, अब आयी अनुशोचना।
रूढिय़ों से सरे नहीं (अटल रहे तभी तो होगी वह मरजाद!)
अब अनुसरेंगे-नाक में नकेल डाल जो भी खींच ले चलेगा
उसी को! चलो, चलो, चाहे कहीं चलो, बस बहने दो :
व्यवस्था के, शान्ति, आत्मगौरव के, धीरज के
ढूह सब ढहने दो-बुद्धि जब जड़ हो तो
मांस-पेशियों की तड़पन को
जीवन की धड़कन मान लें-
(जब घोर जाड़े में
कम्बल का सम्बल न होता पास
तब हम जबड़े की किटकिट ही से बाँधते हैं आस
कुछ गरमाई की!)
भागो, भागो, चाहे जिस ओर भागो
अपना नहीं है कोई, गति ही सहारा यहाँ-
रुकेंगे तो मरेंगे!
इलाहाबाद
24 अक्टूबर, 1947
शरणार्थी-6 : समानान्तर साँप
(1)
हम एक लम्बा साँप हैं
जो बढ़ रहा है ऐंठता-खुलता, सरकता, रेंगता।
मैं-न सिर हूँ (आँख तो हूँ ही नहीं)
दुम भी नहीं हूँ
औ' न मैं हूँ दाँत जहरीले।
मैं-कहीं उस साँप की गुंजलक में उलझा हुआ-सा
एक बेकस जीव हूँ।
ब गल से गु जरे चले तुम जा रहे जो,
सिर झुकाये, पीठ पर गट्ठर सँभाले
गोद में बच्ची लिये
उस हाथ से देते सहारा किसी बूढ़े या कि रोगी को-
पलक पर लादे हुए बोझा जुगों की हार का-
तुम्हें भी कैसे कहूँ तुम सृष्टि के सिरताज हो?
तुम भी जीव हो बेबस।
एक अदना अंग मेरे पास से हो कर सरकती
एक जीती कुलबुलाती लीक का
जो असल में समानान्तर दूसरा
एक लम्बा साँप है।
झर चुकीं कितनी न जाने केंचुलें-
झाडिय़ाँ कितनी कँटीली पार कर के बार-बार,
सूख कर फिर-फिर
मिलीं हम को जिंदगी की नयी किस्तें
किसी टुटपुँजिये
सूम जीवन-देवता के हाथ।
तुम्हारे भी साथ, निश्चय ही
हुआ होगा यही। तुम भी जो रहे हो
किसी कंजूस मरघिल्ले बँधे रातिब पर!
(2)
दो साँप चले जाते हैं।
बँध गयी है लीक दोनों की।
यह हमारा साँप-हम जा रहे हैं
उस ओर, जिस में सुना है
सब लोग अपने हैं;
वह तुम्हारा साँप-
तुम भी जा रहे हो, सोचते निश्चय, कि वह तो देश है जिस में
सत्य होते सभी सपने हैं।
यह हमारा साँप-
इस पर हम निछावर हैं।
जा रहे हैं छोड़ कर अपना सभी कुछ
छोड़ कर मिट्टी तलक अपने पसीने-ख़्ाून से सींची
किन्तु फिर भी आस बाँधे
वहाँ पर हम को निराई भी नहीं करनी पड़ेगी,
फल रहा होगा चमन अपना
अमन में आशियाँ लेंगे।
वह तुम्हारा साँप-
उस को तुम समर्पित हो।
लुट गया सब कुछ तुम्हारा
छिन गयी वह भूमि जिस को
अगम जंगल से तुम्हारे पूर्वजों ने ख़्ाून दे-दे कर उबारा था
किन्तु तुम तो मानते हो, गया जो कुछ जाय-
वहाँ पर तो हो गया अपना सवाया पावना!
(3)
यह हमारा साँप जो फुंकारता है,
और वह फुंकार मेरी नहीं होती
किन्तु फिर भी हम न जाने क्यों
मान लेते हैं कि जो फुंकारता है, वह
घिनौना हो, हमारा साँप है।
वह तुम्हारा साँप-तुम्हें दीक्षा मिली है
सब घृण्य हैं फूत्कार हिंसा के
किन्तु जब वह उगलता है भा फ जहरीली,
तुम्हें रोमांच होता है-
तुम्हारा साँप जो ठहरा!
(4)
उस अमावस रात में-घुप कन्दराओं में
जहाँ फौलादी अँधेरा तना रहता है
खड़ी दीवार-सा आड़ कर के
नीति की, आचार, निष्ठा की
तर्जनी की वर्जना से
और सत्ता के असुर के नेवते आयी
बल-लिप्सा नंगी नाचती है :
उस समय दीवार के इस पार जब छाया हुआ होगा
सुनसान सन्नाटा उस समय सहसा पलट कर
साँप डस लेंगे निगल जाएँगे-
तुम्हें वह, तुम जिसे अपना साँप कहते हो
हमें यह, जो हमारा ही साँप है!
(5)
रुको, देखूँ मैं तुम्हारी आँख,
पहचानूँ कि उन में जो चमकती है-
या चमकनी चाहिए क्योंकि शायद
इस समय वह मुसीबत की राख से ढँक कर
बहुत मन्दी सुलगती हो-
तड़पती इनसानियत की लौ-
रुको, पहचानूँ कि क्या वह भिन्न है बिलकुल
उस हठीली धुकधुकी से
जनम से ही जिसे मैं दिल से लगाये हूँ?
रुको, तुम भी करो ऊँचा सीस, मेरी ओर
मुँह फेरो-करो आँखें चार झिझक को
छोड़ मेरी आँख में देखो,
नहीं जलती क्या वहाँ भी जोत-
काँपती हो, टिमटिमाती हो, शरीर छोड़ती हो,
धुएँ में घुट रही हो-
जीत वैसी ही जिसे तुम ने
सदा अपने हृदय में जलती हुई पाया-
किसी महती शक्ति ने अपनी धधकती महज्ज्वाला से छुला कर
जिसे देहों की मशालों में
जलाया!
(6)
रुकूँ मैं भी! क्यों तुम्हें तुम कहूँ?
अपने को अलग मानूँ? साँप दो हैं
हम नहीं। और फिर
मनुजता के पतन की इसी अवस्था में भी
साँप दोनों हैं पतित दोनों
तभी दोनों एक!
(7)
केंचुलें हैं, केंचुले हैं, झाड़ दो!
छल-मकर की तनी झिल्ली फाड़ दो!
साँप के विष-दाँत तोड़ उखाड़ दो!
आजकल का चलन है-सब जन्तुओं की खाल पहने हैं-
गले गीदड़-लोमड़ी की,
बाघ की है खाल काँधों पर
दिल ढँका है भेड़ की गुलगुली चमड़ी से
हाथ में थैला मगर की खाल का
और पैरों में-जगमगाती साँप की केंचुल
बनी है श्री चरण का सैंडल
किन्तु भीतर कहीं भेड़-बकरी,
बाघ-गीदड़, साँप के बहुरूप के अन्दर
कहीं पर रौंदा हुआ अब भी तड़पता है
सनातन मानव-खरा इनसान-
क्षण भर रुको तो उस को जगा लें!
नहीं है यह धर्म, ये तो पैतरे हैं उन दरिन्दों के
रूढि़ के नाखून पर मरजाद की मखमल चढ़ा कर
जो विचारों पर झपट्टा मारते हैं-
बड़े स्वार्थी की कुटिल चालें!
साथ आओ-गिलगिले ये साँप बैरी हैं हमारे
इन्हें आज पछाड़ दो यह मकर
की तनी झिल्ली फाड़ दो
केंचुले हैं केंचुले हैं झाड़ दो!
इलाहाबाद
27-29 अक्टूबर, 1947
शरणार्थी-7 : गाड़ी रुक गयी
रात गाड़ी रुक गयी वीरान में।
नींद से जागा चमक कर, सुना
पिछले किसी डिब्बे में किसी ने
मार कर छुरा किसी को दिया बाहर फेंक
रुकी है गाड़ी-यहीं पड़ताल होगी।
न जाने कौन था वह पर हृदय ने
तभी साखी दी रात में कोई अभागा
मार बैठा छुरा अपने ही हृदय में
स्वयं अपने को उठा कर फेंक बैठा
दनदनाती बढ़ रही कुल मनुजता की रेल से।
और उस के लिए रुकना पड़ेगा
मनुजता के यान को मुक्ति-उन्मुख रथ
हमारा-वाहिनी सारी-यहाँ रुक जाएगी-
देह अपने रोग का भी भार ढोती है।
धिक्! पुन: धिक्कार! और यह धिक्कार
हिन्दू या मुसल्मां नहीं, यह धिक्कार
आक्रोश है अपमानिता मेरी मनुजता का!
काशी
4 नवम्बर, 1947
शरणार्थी-8 : हमारा रक्त
यह इधर बहा मेरे भाई का रक्त
वह उधर रहा उतना ही लाल
तुम्हारी एक बहिन का रक्त!
बह गया, मिलीं दोनों धारा
जा कर मिट्टी में हुईं एक
पर धरा न चेती मिट्टी जागी नहीं
न अंकुर उस में फूटा।
यह दूषित दान नहीं लेती-
क्योंकि घृणा के तीखे विष से आज हो गया है
अशक्त निस्तेज और निर्वीर्य हमारा रक्त!
काशी
5 नवम्बर, 1947
शरणार्थी-9 : श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा
(1)
धरती थर्रायी, पूरब में सहसा उठा बवंडर
महाकाल का थप्पड़-सा जा पड़ा
चाँदपुर-नोआखाली-फेनी-चट्टग्राम-त्रिपुरा में
स्तब्ध रह गया लोक
सुना हिंसा का दैत्य, नशे में धुत्त, रौंद कर चला गया है
जाति द्वेष की दीमक-खायी पोली मिट्टी
उठा वहाँ चीत्कार असंख्य दीनों पददलितों का
अपमानिता धर्षिता नारी का सहस्रमुख
फटा हुआ सुर फटे हृदय की आह
गूँज गयी-थर्राया सहम गया आकाश
फटी आँखों की भट्टी में जो खून
उतर आया था वह जल गया।
(2)
श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा
के कानों पर जूँ तब रेंगी,
तनिक सरक कर थुलथुल
माया को आसन पर और
व्यवस्था से पधराकर
बोले-'आये हो, हाँ, आओ
बेचारी दुखियारी!
मंगल करनी सब दुख हरनी
माँ मरजादा फतवा देंगी।
'सदा द्रौपदी की लज्जा को
ढँका कृष्णा ने चीर बढ़ा कर
धर्म हमारा है करुणाकर
हम न करेंगे बहिष्कार
म्लेच्छ-धर्षिता का भी, चाहे
उस लांछन की छाप अमिट है।
साथ न बैठे-हाथ हमारे वह पाएगी
सदा दया का टुक्कड़-' सहसा जूँ रुक गयी।
तनिक सरकी थी-नारिवर्ग का घर्षण
(तीन, तीस या तीन हज़ार-आँकड़ों का जीवन में उतना मूल्य नहीं है-)
इतना ही बस था समर्थ। श्री पंडा जागे
यह भी उन की अनुकम्पा थी और नहीं क्या
अपने आसन से डिग जाते?
लुट जाती मरजाद सनातन?
इसीलिए जूँ रुकी। सो गये
श्री मद्धर्मधुरंधर पंडा।
मानवता को लगीं घोंटने फिर
गुंजलकें मरु रूढि़ की।
काशी-इलाहाबाद (रेल में)
6 नवम्बर, 1947
शरणार्थी-10 : कहती है पत्रिका
कहती है पत्रिका
चलेगा कैसे उन का देश?
मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणागत-
देखें अब कैसे उन का मैला ढुलता है!
'मेहतर तो सब रहे हमारे
हुए हमारे फिर शरणगत।'
अगर वहीं के वे हो जाते
पंगु देश के सही, मगर होते आज़ाद नागरिक।
होते द्रोही!
यह क्या कम है यहाँ लौट कर
जनम-जनम तक जुगों-जुगों तक
मिले उन्हें अधिकार, एक स्वाधीन राष्ट्र का
मैला ढोवें?
इलाहाबाद
7 नवम्बर, 1947
शरणार्थी-11 : जीना है बन सीने का साँप
हम ने भी सोचा था कि अच्छी ची ज है स्वराज
हम ने भी सोचा था कि हमारा सिर
ऊँचा होगा ऐक्य में। जानते हैं पर आज
अपने ही बल के
अपने ही छल के
अपने ही कौशल के
अपनी समस्त सभ्यता के सारे
संचित प्रपंच के सहारे
जीना है हमें तो, बन सीने का साँप उस अपने समाज के
जो हमारा एक मात्र अक्षन्तव्य शत्रु है
क्यों कि हम आज हो के मोहताज
उस के भिखारी शरणार्थी हैं।
मुरादाबाद स्टेशन (आधी रात)
12 नवम्बर, 1947
कतकी पूनो
छिटक रही है चाँदनी, मदमाती उन्मादिनी
कलगी-मौर सजाव ले कास हुए हैं बावले
पकी ज्वार से निकल शशों की जोड़ी गयी फलाँगती-
सन्नाटे में बाँक नदी की जगी चमक कर झाँकती!
कुहरा झीना और महीन, झर-झर पड़े अकासनीम
उजली-लालिम मालती गन्ध के डोरे डालती,
मन में दुबकी है हुलास ज्यों परछाईं हो चोर की-
तेरी बाट अगोरते ये आँखें हुईं चकोर की!
इलाहाबाद-लखनऊ (रेल में)
30 नवम्बर, 1947
वसन्त की बदली
यह वसन्त की बदली पर क्या जाने कहीं बरस ही जाय?
विरस ठूँठ में कहीं प्यार की कोंपल एक सरस ही जाय?
दूर-दूर, भूली ऊषा की सोयी किरण एक अलसानी-
उस की चितवन की हलकी-सी सिहरन मुझे परस ही जाय?
लखनऊ
8 मार्च, 1948
मुझे सब कुछ याद है
मुझे सब कुछ याद है। मैं उन सबों को भी
नहीं भूला। तुम्हारी देह पर जो
खोलती हैं अनमनी मेरी उँगलियाँ-और जिन का खेलना
सच है, मुझे जो भुला देता है-
सभी मेरी इन्द्रियों की चेतना उन में जगी है।
इन्द्रियाँ सब जागती हैं। और सब भूली हुई हैं खेल में
जिस में तुम्हारा मैं सखा हूँ-
मानवों की सृष्टियों के जाल से उन्मुक्त-
पगहा तोड़ भागे हुए मृग-सा-
स्वयं मानव, चिरन्तन की सृष्टि का लघु अंग।
किन्तु सोयी इन्द्रियों को जगा कर जो स्वयं सोता है-
वह सभी को याद करता है।
जो भुलाता है, नहीं वह भूल पाता। जो रमाता है, स्वयं निर्लेप है वह।
वही कहता है कि वे सब प्यार भी
जी रहे हैं-तड़पते हैं-हैं।
वे सब हैं।
और मेरे प्यार, तुम भी हो। चाँदनी भी है।
मधु के गन्ध बहुविध-पल्लवों के, कोरकों के-
गन्धवह में बसे, वे भी हैं। चाँदनी भी है।
नहीं है तो मैं नहीं हूँ।
इसलिए तुम प्यार लो मेरा-कि वह तो है। प्यार-निधि।
नहीं है तो मैं नहीं हूँ। किन्तु जो मिट गये उन का
प्यार ही तो प्यार है।
प्यार लो मेरा-उसी में चाँदनी है। उस में तुम
उसी में बीते हुए सब प्यार भी हैं।
नहीं है तो मैं नहीं हूँ-जो कि उन सब को कभी भूला नहीं हूँ।
मुझे सब कुछ याद है।
इलाहाबाद (होली पूर्णिमा)
30 मार्च, 1948
'अकेली न जैयो राधे जमुना के तीर'
'उस पार चलो ना! कितना अच्छा है नरसल का झुरमुट!'
अनमना भी सुन सका मैं
गूँजते से तप्त अन्त:स्वर तुम्हारे तरल कूजन में।
'अरे, उस धूमिल विजन में?'
स्वर मेरा था चिकना ही, 'अब घना हो चला झुटपुट।
नदी पर ही रहें, कैसी चाँदनी-सी है खिली!
उस पार की रेती उदास है।'
'केवल बातें! हम आ जाते अभी लौट कर छिन में-'
मान कुछ, मनुहार कुछ, कुछ व्यंग्य वाणी में।
दामिनी की कोर-सी चमकी अँगुलियाँ शान्त पानी में।
'नदी किनारे रेती पर आता है कोई दिन में?'
'कवि बने हो! युक्तियाँ हैं सभी थोथी-निरा शब्दों का विलास है।'
काली तब पड़ गयी साँझ की रेख।
साँस लम्बी स्निग्ध होती है-
मौन ही है गोद जिस में अनकही कुल व्यथा सोती है।
मैं रह गया क्षितिज को अपलक देख। और अन्त:स्वर रहा मन में-
'क्या जरूरी है दिखना तुम्हें वह जो दर्द मेरे पास है?'
इलाहाबाद
22 जून, 1948
जब पपीहे ने पुकारा
जब पपीहे ने पुकारा-मुझे दीखा-
दो पंखुरियाँ झरीं लाल गुलाब की, तकतीं पियासी
पिया-से ऊपर झुके उस फूल को
ओठ ज्यों ओठों तले।
मुकुर में देखा गया हो दृश्य पानीदार आँखों के।
हँस दिया मन दर्द से-
'ओ मूढ़! तूने अब तलक कुछ नहीं सीखा।'
जब पपीहे ने पुकारा-मुझे दीखा।
इलाहाबाद
1 अगस्त, 1948
माहीवाल से
शान्त हो! काल को भी समय थोड़ा चाहिए।
जो घड़े-कच्चे, अपात्र!-डुबा गये मँझधार
तेरी सोहनी को चन्द्रभागा की उफनती छालियों में
उन्हीं में से उसी का जल अनन्तर तू पी सकेगा
औ' कहेगा, 'आह, कितनी तृप्ति!'
क्रौंच बैठा हो कभी वल्मीक पर तो मत समझ
वह अनुष्टुप् बाँचता है संगिनी से स्मरण के-
जान ले, वह दीमकों की टोह में है।
कविजनोचित न हो चाहे, यही सच्चा साक्ष्य है :
एक दिन तू सोहनी से पूछ लेना।
इलाहाबाद
8 अगस्त, 1848
शरद
सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी,
गगन के वदन में फिर नयी एक दमक आयी।
दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब :
ढोलकों में उछाह और उमंग की गमक आयी।
बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली,
शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली।
झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते :
झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली।
बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती-
उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती।
गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी-
शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती।
मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती
कहीं उस के रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती!
घर-भवन-प्रासाद खँडहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में
गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती!
साँझ। सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया।
हार का प्रतीक-'दिया सो दिया, भुला दिया जो किया!'
किन्तु-शारदा चाँदनी का साक्ष्य-यह संकेत जय का है-
प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया!
इलाहाबाद
5 सितम्बर, 1948
क्वाँर की बयार
इतराया यह मौर ज्वार का क्वाँर की बयार चली,
शशि गगन-पार हँसे न हँसे-शेफाली आँसू ढार चली!
नभ से रवहीन दीन बगुलों की डार चली;
मन की सब अनकही रही पर मैं बात हार चली!
इलाहाबाद
अक्टूबर, 1948
सो रहा है झोंप
सो रहा है झोंप अँधियाला नदी की जाँघ पर :
डाह से सिहरी हुई यह चाँदनी
चोर पैरों से उझक कर झाँक जाती है।
प्रस्फुटन के दो क्षणों का मोल शेफाली
विजन की धूल पर चुपचाप
अपने मुग्ध प्राणों से अजाने आँक जाती है।
लखनऊ-इलाहाबाद
अक्टूबर, 1948
'............'
उनींदी चाँदनी उठ खोल अन्तिम मेघ वातायन
मिलें दो-चार हम को भी शरद के हास मुक्ताकन
अक्टूबर, 1948
सबेरे-सबेरे
सबेरे-सबेरे नहीं आती बुलबुल,
न श्यामा सुरीली न फुटकी न दँहगल सुनाती हैं बोली;
नहीं फूलसुँघनी, पतेना-सहेली लगाती हैं फेरे।
जैसे ही जागा, कहीं पर अभागा अडड़़ाता है कागा-
काँय! काँय! काँय!
बोलो भला सच-सच
कैसे विश्व-प्रेम फिर ध्यावे कोई?
कैसे आशीर्वच-'मुदन्तु सर्वे प्रसीदन्तु सर्वे,
सर्वे सुखिन: सन्तु।' गावे कोई?
ऐसी औंधी खोपड़ी क्यों पावे कोई?
काँय! काँय! काँय!
क्या करें, कहाँ जायँ?
मुँह से यही हाय! निकले है मेरे-
'धत्तेरे! नाम जाय!'
सच, मुँह-अँधेरे सबेरे-सबेरे!
इलाहाबाद
23 दिसम्बर, 1948
सपने मैं ने भी देखे हैं
सपने मैं ने भी देखे हैं-
मेरे भी हैं देश जहाँ पर
स्फटिक-नील सलिलाओं के पुलिनों पर सुर-धनु सेतु बने रहते हैं।
मेरी भी उमँगी कांक्षाएँ लीला-कर से छू आती हैं रंगारंग फानूस
व्यूह-रचित अम्बर-तलवासी द्यौस्पितर के!
आज अगर मैं जगा हुआ हूँ अनिमिष-
आज स्वप्न-वीथी से मेरे पैर अटपटे भटक गये हैं-
तो वह क्यों? इसलिए कि आज प्रत्येक स्वप्नदर्शी के आगे
गति से अलग नहीं पथ की यति कोई!
अपने से बाहर आने को छोड़ नहीं आवास दूसरा।
भीतर-भले स्वयं साँई बसते हों।
पिया-पिया की रटना! पिया न जाने आज कहाँ हैं :
सूली पर जो सेज बिछी है, वह-वह मेरी है!
इलाहबाद
6 जनवरी, 1949
पुनराविष्कार
कुछ नहीं, यहाँ भी अन्धकार ही है,
काम-रूपिणी वासना का विकार ही है।
यह गुँथीला व्योमग्रासी धुआँ जैसा
आततायी दृप्त-दुर्दम प्यार ही है।
इलाहाबाद
19 जनवरी, 1949
हमारे देश
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढँके ढुलमुल गँवारू
झोंपड़ी में ही हमारा देश बसता है।
इन्हीं के ढोल-मादल-बाँसुरी के
उमँगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है।
इन्हीं के मर्म को अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता है।
इन्हीं में लहराती अल्हड़
अयानी संस्कृति की दुर्दशा पर
सभ्यता का भूत हँसता है।
राँची-मुरी (बस में)
6 फरवरी, 1949
जीवन
यहीं पर
सब हँसी
सब गान होगा शेष :
यहाँ से
एक जिज्ञासा
अनुत्तर जगेगी अनिमेष!
इलाहाबद
मई, 1949
नयी व्यंजना
तुम जो कुछ कहना चाहोगे विगत युगों में कहा जा चुका :
सुख का आविष्कार तुम्हारा? बार-बार वह सहा जा चुका!
रहने दो, वह नहीं तुम्हारा, केवल अपना हो सकता जो
मानव के प्रत्येक अहं में सामाजिक अभिव्यक्ति पा चुका!
एक मौन ही है जो अब भी नयी कहानी कह सकता है;
इसी एक घट में नवयुग की गंगा का जल रह सकता है;
संसृतियों की, संस्कृतियों की तोड़ सभ्यता की चट्टानें-
नयी व्यंजना का सोता बस इसी राह से बह सकता है!
कलकत्ता
जून, 1949
कवि, हुआ क्या फिर
कवि, हुआ क्या फिर
तुम्हारे हृदय को यदि लग गयी है ठेस?
चिड़ी-दिल को जमा लो मूठ पर ('ऐहे, सितम, सैयाद!')
न जाने किस झरे गुल की सिसकती याद में बुलबुल तड़पती है-
न पूछो, दोस्त! हम भी रो रहे हैं लिये टूटा दिल!
('मियाँ, बुलबुल लड़ाओगे?')
तुम्हारी भावनाएँ जग उठी हैं!
बिछ चली पनचादरें ये एक चुल्लू आँसुओं की-डूब मर, बरसात!
सुनो कवि! भावनाएँ नहीं हैं सोता, भावनाएँ खाद हैं केवल!
जरा उन को दबा रक्खो-
जरा-सा और पकने दो, ताने और तचने दो
अँधेरी तहों की पुट में पिघलने और पचने दो;
रिसने और रचने दो-
कि उन का सार बन कर चेतना की धरा को कुछ उर्वरा कर दे;
भावनाएँ तभी फलती हैं कि उन से लोक के कल्याण का अंकुर कहीं फूटे।
कवि, हृदय को लग गयी है ठेस? धरा में हल चलेगा!
मगर तुम तो गरेबाँ टोह कर देखो
कि क्या वह लोक के कल्याण का भी बीज तुम में है?
इलाहाबाद
9 सितम्बर, 1949
बन्धु हैं नदियाँ
इसी जुमना के किनारे एक दिन
मैं ने सुनी थी दु:ख की गाथा तुम्हारी
और सहसा कहा था बेबस : 'तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।'
गहे थे दो हाथ मौन समाधि में स्वीकार की।
इसी जमुना के किनारे आज
मैं ने फिर कहा है वह : 'तुम्हें मैं प्यार करता हूँ।'
और उत्तर में सुनी है दु:ख की गाथा तुम्हारी,
गहे हैं दो हाथ मौन समाधि में उत्सर्ग की।
न जाने फिर
इसी जमुना के किनारे एक दिन
कर सकूँगा नहीं बातें प्यार की
सुननी न होगी दु:ख की गाथा-
एक दिन जब बनेगा उत्सर्ग स्वीकृति उच्चतर आदेश की!
बन्धु हैं नदियाँ : प्रकृति भी बन्धु है
और क्या जाने, कदाचित्
बन्धु
मानव भी!
दिल्ली-इलाहाबाद (मोटर से)
8 अक्टूबर, 1949
हरी घास पर क्षण-भर
आओ बैठें
इसी ढाल की हरी घास पर।
माली-चौकीदारों का यह समय नहीं है,
और घास तो अधुनातन मानव-मन की भावना की तरह
सदा बिछी है-हरी, न्यौती, कोई आ कर रौंदे।
आओ, बैठो।
तनिक और सट कर, कि हमारे बीच स्नेह-भर का व्यवधान रहे, बस,
नहीं दरारें सभ्य शिष्ट जीवन की।
चाहे बोलो, चाहे धीरे-धीरे बोलो, स्वगत गुनगुनाओ,
चाहे चुप रह जाओ-
हो प्रकृतस्थ : तनो मत कटी-छँटी उस बाड़ सरीखी,
नमो, खुल खिलो, सहज मिलो
अन्त:स्मित, अन्त:संयत हरी घास-सी।
क्षण-भर भुला सकें हम
नगरी की बेचैन बुदकती गड्ड-मड्ड अकुलाहट-
और न मानें उसे पलायन;
क्षण-भर देख सकें आकाश, धरा, दूर्वा, मेघाली,
पौधे, लता दोलती, फूल, झरे पत्ते, तितली-भुनगे,
फुनगी पर पूँछ उठा कर इतराती छोटी-सी चिड़िया-
और न सहसा चोर कह उठे मन में-
प्रकृतिवाद है स्खलन
क्योंकि युग जनवादी है।
क्षण-भर हम न रहें रह कर भी :
सुनें गूँज भीतर के सूने सन्नाटे में किसी दूर सागर की लोल लहर की
जिस की छाती की हम दोनों छोटी-सी सिहरन हैं-
जैसे सीपी सदा सुना करती है।
क्षण-भर लय हों-मैं भी, तुम भी,
और न सिमटें सोच कि हम ने
अपने से भी बड़ा किसी भी अपर को क्यों माना!
क्षण-भर अनायास हम याद करें :
तिरती नाव नदी में,
धूल-भरे पथ पर असाढ़ की भभक, झील में साथ तैरना,
हँसी अकारण खड़े महा वट की छाया में,
वदन घाम से लाल, स्वेद से जमी अलक-लट,
चीड़ों का वन, साथ-साथ दुलकी चलते दो घोड़े,
गीली हवा नदी की, फूले नथुने, भर्रायी सीटी स्टीमर की,
खँडहर, ग्रथित अँगुलियाँ, बाँसे का मधु,
डाकिये के पैरों की चाप,
अधजानी बबूल की धूल मिली-सी गन्ध,
झरा रेशम शिरीष का, कविता के पद,
मसजिद के गुम्बद के पीछे सूर्य डूबता धीरे-धीरे,
झरने के चमकीले पत्थर, मोर-मोरनी, घुँघरू,
सन्थाली झूमुर का लम्बा कसक-भरा आलाप,
रेल का आह की तरह धीरे-धीरे खिंचना, लहरें
आँधी-पानी,
नदी किनारे की रेती पर बित्ते-भर की छाँह झाड़ की
अंगुल-अंगुल नाप-नाप कर तोड़े तिनकों का समूह,
लू,
मौन।
याद कर सकें अनायास : और न मानें
हम अतीत के शरणार्थी हैं;
स्मरण हमारा-जीवन के अनुभव का प्रत्यवलोकन-
हमें न हीन बनावे प्रत्यभिमुख होने के पाप-बोध से।
आओ बैठो : क्षण-भर :
यह क्षण हमें मिला है नहीं नगर-सेठों की फैया जी से।
हमें मिला है यह अपने जीवन की निधि से ब्याज सरीखा।
आओ बैठो : क्षण-भर तुम्हें निहारूँ
अपनी जानी एक-एक रेखा पहचानूँ
चेहरे की, आँखों की-अन्तर्मन की
और-हमारी साझे की अनगिन स्मृतियों की :
तुम्हें निहारूँ,
झिझक न हो कि निरखना दबी वासना की विकृति है!
धीरे-धीरे
धुँधले में चेहरे की रेखाएँ मिट जाएँ-
केवल नेत्र जगें : उतनी ही धीरे
हरी घास की पत्ती-पत्ती भी मिट जावे लिपट झाडिय़ों के पैरों में
और झाडिय़ाँ भी घुल जावें क्षिति-रेखा के मसृण ध्वान्त में;
केवल बना रहे विस्तार-हमारा बोध
मुक्ति का,
सीमाहीन खुलेपन का ही।
चलो, उठें अब,
अब तक हम थे बन्धु सैर को आये-
(देखे हैं क्या कभी घास पर लोट-पोट होते सतभैये शोर मचाते?)
और रहे बैठे तो लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके प्रेमी बैठे हैं।
-वह हम हों भी तो यह हरी घास ही जाने :
(जिस के खुले निमन्त्रण के बल जग ने सदा उसे रौंदा है
और वह नहीं बोली),
नहीं सुनें हम वह नगरी के नागरिकों से
जिन की भाषा में अतिशय चिकनाई है साबुन की
किन्तु नहीं है करुणा।
उठो, चलें, प्रिय!
इलाहाबाद
14 अक्टूबर, 1949
पहला दौंगरा
गगन में मेघ घिर आये।
तुम्हारी याद
स्मृति के पिंजड़े में बाँध कर मैं ने नहीं रक्खी,
तुम्हारे स्नेह को भरना पुरानी कुप्पियों में स्वत्व की
मैं ने ही नहीं चाहा।
गगन में मेघ घिरते हैं
तुम्हारी याद घिरती है।
उमड़ कर विवश बूँदें बरसती हैं-
तुम्हारी सुधि बरसती है।
न जाने अन्तरात्मा में मुझे यह कौन कहता है
तुम्हें भी यही प्रिय होता। क्यों कि तुम ने भी निकट से दु:ख जाना था।
दु:ख सब को माँजता है
और-चाहे स्वयं सब को मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु-
जिन को माँजता है
उन्हें यह सीख देता है कि सब को मुक्त रखें।
मगर जो हो
अभी तो मेघ घिर आये
पड़ा यह दौंगरा पहला
धरा ललकी, उठी, बिखरी हवा में
बास सोंधी मुग्ध मिट्टी की।
भिगो दो, आह!
ओ रे मेघ, क्या तुम जानते हो
तुम्हारे साथ कितने हियों में कितनी असीसें उमड़ आयी हैं?
इलाहाबाद
20 अक्टूबर, 1949
मेरा तारा
ऐसे ही थे मेघ क्वाँर के,
यही चाँद कहता था मुझ को आँख मार के :
''अजी तुम्हारा मैं हूँ साथी-
जीवन-भर इस धुली चाँदनी में तुम खेला करना खेल प्यार के!''
वही मेघ हैं, साँझ क्वाँर की,
वही चाँद, ध्वनि वैसी दूर पार की :
''केवल मैं ही चिर-संगी हूँ, क्यों कि अकेला हूँ उतना ही
अपनी हिम-शीतल दुनिया में, जितने तुम उस दुनिया में हो
महाशून्य आकाश हमारा पथ है : छोड़ो चिन्ता वार-पार की!''
उस दिन वह छोटा-सा तारा
वत्सल था-पर चुप था।
आज वही चुप है, पर वत्सल।
स्मित, यद्यपि बेचारा,
मेरा तारा।
बख्तियारपुर (कलकत्ता जाते हुए)
31 अक्टूबर, 1949
आत्मा बोली
आत्मा बोली :
सुनो, छोड़ दो यह असमान लड़ाई
लडऩा ही क्या है चरित्र? यश जय ही?
धैर्य पराजय में-यह भी गौरव है!
मैं ने कहा :
पराजय में तो धैर्य सहज है, क्योंकि पराजय परिणति तो है।
मैं तो अभी अधर में हूँ-लड़ता हूँ।
आत्मा बोली :
किस बूते पर? मेरे दो ही सहकर्मी : प्यार-सिखाता है जो देना,
आशा-जो चुक जाने पर भी रिक्त नहीं होने देती है।
अब तो मैं हूँ निपट अकेली!
मैं ने कहा :
सखी मेरी, तुम भले मान लो मुझे अकिंचन
पर क्या मेरी आस्था भी नगण्य है?
दे कर-देते-देते चुक जाने पर
वही प्रेरणा देती है-मैं दे सकने को और नया कुछ रचूँ! फिर रचूँ!
अभी न हारो, अच्छी आत्मा,
मैं हूँ, तुम हो,
और अभी मेरी आस्था है!
कलकत्ता जाते हुए (रेल में)
31 अक्टूबर, 1949
कलगी बाजरे की
हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरी बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुईं,
टटकी कली चम्पे की, व गैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादू के-
निजी किस सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
अगर मैं यह कहूँ-
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरी बाजरे की?
आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का-ऐश्वर्य का-औदार्य का-
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर
दोलती कलगी अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकान्त होता हूँ समर्पित।
शब्द जादू हैं-
मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है?
कलकत्ता
10 नवम्बर, 1949
नदी के द्वीप
हम नदी के दीप हैं।
हम नहीं कहते कि हम को छोड़ कर स्रोतस्विनी वह जाय।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अन्तरीप, उभार, सैकत कूल,
सब गोलाइयाँ उस की गढ़ी हैं।
माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं।
किन्तु हम हैं द्वीप।
हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के
किन्तु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
और फिर हम चूर्ण हो कर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बन कर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।
द्वीप हैं हम।
यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड में।
वह बृहद् भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी, तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हम को मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, संस्कार देती चलो :
यदि ऐसा कभी हो
तुम्हारे आह्वाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से-अतिचार से-
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे,
यह स्रोतस्विनी की कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाय
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत हो कर
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नये व्यक्तित्व का आकार।
मात, उसे फिर संस्कार तुम देना।
इलाहाबाद
11 सितम्बर, 1949
छन्द है यह फूल
छन्द है यह फूल, पत्ती प्रास।
सभी कुछ में है नियम की साँस।
कौन-सा वह अर्थ जिसकी अलंकृति कर नहीं सकती
यही पैरों तले की घास?
समर्पण लय, कर्म है संगीत
टेक करुणा-सजग मानव-प्रीति।
यति न खोजो-अहं ही यति है!-स्वयं रणरणित होते
रहो, मेरे मीत!
इलाहाबाद
29 दिसम्बर ,1949
बने मंजूष यह अन्तस्
किसी एकान्त का लघु द्वीप मेरे प्राण में बच जाय
जिस से लोक-रव भी कर्म के समवेत में रच जाय।
बने मंजूष यह अन्तस् समर्पण के हुताशन का-
अकरुणा का हलाहल भी रसायन बन मुझे पच जाय।
इलाहाबाद
29 दिसम्बर, 1949
जनवरी छब्बीस
(1)
आज हम अपने युगों के स्वप्न को
यह नयी आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
आज हम अक्लान्त, ध्रुव, अविराम गति से बढ़े चलने का
कठिन व्रत धर रहे हैं
आज हम समवाय के हित, स्वेच्छया
आत्म-अनुशासन नया यह वर रहे हैं।
निराशा की दीर्घ तमसा में सजग रह हम
हुताशन पालते थे साधना का-
आज हम अपने युगों के स्वप्न को
आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
(2)
सुनो हे नागरिक! अभिनव सभ्य भारत के नये जनराज्य के
सुनो! यह मंजूषा तुम्हारी है।
पला है आलोक चिर-दिन यह तुम्हारे स्नेह से, तुम्हारे ही रक्त से।
तुम्हीं दाता हो, तुम्हीं होता, तुम्हीं यजमान हो।
यह तुम्हारा पर्व है।
भूमि-सुत! इस पुण्य-भू की प्रजा, स्रष्टा तुम्हीं हो इस नये रूपाकार के
तुम्हीं से उद्भूत हो कर बल तुम्हारा
साधना का तेज-तप की दीप्ति-तुम को नया गौरव दे रही है!
यह तुम्हारे कर्म का ही प्रस्फुटन है।
नागरिक, जय! प्रजा-जन, जय! राष्ट्र के सच्चे विधायक, जय!
हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं : और मंजूषा तुम्हारी है
और यह आलोक तुम्हारे ही अडिग विश्वास का आलोक है।
किन्तु रूपाकार यह केवल प्रतिज्ञा है
उत्तरोत्तर लोक का कल्याण ही है साध्य :
अनुशासन उसी के हेतु है।
(3)
यह प्रतिज्ञा ही हमारा दाय है लम्बे युगों की साधना का,
जिसे हम ने धर्म जाना।
स्वयं अपनी अस्थियाँ दे कर हमीं ने असत् पर सत् की
विजय का मर्म जाना।
सम्पुटित पर हाथ, जिस ने गोलियाँ निज वक्ष पर झेलीं,
शमन कर ज्वार हिंसा का-
उसी के नत-शीश धीरज को हमारे स्तिमित चिर-संस्कार ने
सच्चा कृती का कर्म जाना।
साधना रुकती नहीं : आलोक जैसे नहीं बँधता।
यह सुघर मंजूष भी झर गिरा सुन्दर फूल है पथ-कूल का।
माँग पथ की इसी से चुकती नहीं।
फिर भी बीन लो यह फूल
स्मरण कर लो इसी पथ पर गिरे सेनानी जयी को,
बढ़ चलो फिर शोध में अपने उसी धुँधले युगों के स्वप्न की
जिसे हम आलोक-मंजूषा समर्पित कर रहे हैं।
आज हम अपने युगों के स्वप्न को यह नयी आलोक-मंजूषा
समर्पित कर रहे हैं।
इलाहाबाद
23 जनवरी, 1950
घास-फूल धैर्य का
दृश्यों के अन्तराल में जीवन बिला गया
संशय के दंश से साहस तिलमिला गया
प्यार पर हारा नहीं अमल विनय से
घास-फूल धैर्य का चुपके खिला गया।
इलाहाबाद
23 फरवरी, 1950
खद्योत-दर्शन
चाँद तो थक गया, गगन भी बादलों से ढक गया
बन तो बनैला है-अभी क्या ठिकाना कितनी दूर तक फैला है!
अन्धकार। घनसार।
अरे पर देखो तो वो पत्तियों में
जुगनू टिमक गया!
बैजनाथ कांगड़ा,
जून, 1950
तारा-दर्शन
हम ने हाथ नहीं बढ़ाया : हम ने आँखों से चूम लिया।
खड़े ही रहे हम, थिर, हाँ, हमारे भीतर ही ब्रह्मांड घूम लिया।
'कितनी दूर होते हैं तारे', हम सोचते तो सोचते ही रह जाते-
'कब भला भाग्य जागेंगे हमारे?'
पर हम सोच कुछ सके नहीं, पल अपलक
खड़े रहे, उद्ग्रीव मानो चातक रह जाए ठिठक,
फिर, हाँ, स्वाती तो हमारी आँखों में ही उतर आया!
(खड़े रहे हम, थिर, हाँ, हम ने हाथ नहीं बढ़ाया।)
वसिष्ठ मुनि मनाली
जून, 1950
काँगड़े की छोरियाँ
काँगड़े की छोरियाँ कुछ भोरियाँ सब गोरियाँ
लाला जी, जेवर बनवा दो खाली करो तिजोरियाँ!
काँगड़े की छोरियाँ!
ज्वार-मका की क्यारियाँ हरियाँ-भरियाँ प्यारियाँ
धन-खेतों में प्रहर हवा की सुना रही है लोरियाँ-
काँगड़े की छोरियाँ!
पुतलियाँ चंचल कालियाँ कानों झुमके-बालियाँ
हम चौड़े में खड़े लुट गये बनी न हम से चोरियाँ-
काँगड़े की छोरियाँ!
काँगड़े की छोरियाँ कुछ भोरियाँ सब गोरियाँ।
काँगड़ा-नूरपुर (बस में)
24 जून, 1950
तुम फिर आ गये, क्वाँर?
भाले की अनी-सी बनी बगुलों की डार,
फुटकियाँ छिट-फुट गोल बाँध डोलती
सिहरन उठती है एक देह में
कोई तो पधारा नहीं, मेरे सूने गेह में-
तुम फिर आ गये, क्वाँर?
दिल्ली
अक्टूबर, 1950
चाँदनी जी लो
शरद चाँदनी बरसी
अँजुरी भर कर पी लो।
ऊँघ रहे हैं तारे सिहरी सरसी
ओ प्रिय कुमुद ताकते अनझिप
क्षण में तुम भी जी लो।
सींच रही है ओस हमारे गाने
घने कुहासे में झिपते चेहरे पहचाने
खम्भों पर बत्तियाँ खड़ी हैं सीठी
ठिठक गये हैं मानो पल-छिन आने-जाने।
उठी ललक हिय उमँगा अनकहनी अलसानी
जगी लालसा मीठी
खड़े रहो ढिंग, गहो हाथ पाहुन मनभाने,
ओ प्रिय, रहो साथ
भर-भर कर अँजुरी पी लो
बरसी शरद चाँदनी
मेरा अन्त:स्पन्दन तुम भी क्षण-क्षण जी लो!
शरद चाँदनी बरसी अँजुरी भर कर पी लो।
दिल्ली
22 अक्टूबर, 1950
झरने के लिए
हवा से सिहरती हैं पत्तियाँ-किन्तु झरने के लिए।
उमँगती हैं छालियाँ
किसी दूर कछार पर खा कर पछाड़ें फिर बिखरने के लिए!
मरणधर्मा है सभी कुछ किन्तु फिर भी वहो, मीठी हवा,
जीवन की क्रियाओं को तुम्हीं तो तीव्र करती हो!
बहो, मीठी हवा, तुम बहती रहो,
पगली हवा, गति बढ़े जीवन की।
उभरने के लिए
जीवन-यदपि मरने के लिए-
सिहर झरने के लिए!
दिल्ली
26 नवम्बर, 1950
ऊगा तारा
ऊगा तारा :
मैं ने देखा नहीं कि कब बुझ गया
लाल आलोक सूर्य का। पर जब देखा, देखा यही :
कि पेड़ों-चट्टानों में उलझी हारी हुई लालिमा में द्योतित है शुक्र
अकेला तारा।
फिर आएँगे और :
कवि कह गये कि हाँ, जब सिंह चला जाता है
तब आते हैं-
नहीं! नहीं, वह मेरा शुक्र
कभी उच्छिष्ट नहीं खाता है!
मैं जो रहा अनमना-देखा नहीं हारना रवि का
याद कर रहा था वह दिन-क्षण-वह युग-सन्धि
हार जब सब कुछ, झुक कर
अन्धकार के आगे घुटने टेक दीन होने को
काँप रहा था तन-तब
तुम ने सहसा मुझे जगा कर उस हतप्रज्ञ पराजय की तन्द्रा से
देख मुझे स्थिर आँखों से (बुध-शुक्र युगल मेरे मानस का)
यही कहा था :
देखो, अब भी चमक रहा है तारा!
शुक्र अकेला तारा तब से चमक रहा है
कितने हार चुके हैं सूरज
कितनी हेरा गयीं लालियाँ कितने पत्रहीन सूखे पेड़ों में।
लो प्रणाम लो, तारे
आँखों के, प्राणों के, सूनी सन्ध्याओं के एक सहारे!
ऊगा तारा :
पेड़ों-चट्टानों में उलझी हारी हुई लालिमा में द्योतित है एक
अकेला तारा
शुक्र
हमारा।
चौंसठ योगिनी, भेड़ाघाट (जबलपुर)
3 जनवरी, 1951
वह नाम
...यही तो गा रहे हैं पेड़
यही सरिता की लहर में काँपता है
यही धारा के प्रपातित बिन्दुओं का हास है।
...इसी से मर्मरित होंगी लताएँ,
सिहर कर झर जाएँगी कलियाँ अदेखी
मेघ घन होंगे, बलाकाएँ उड़ेंगी,
झाडिय़ों में चिहुँक कर पंछी
उभारे लोम, सहसा बिखर कर उड़ जाएँगे
ओस चमकेगी विकीरित रंग का उल्लास ले पहली किरण में।
...फैली धुन्ध में बाँधे हुए है अखिल संसृति
नियम में शिव के यही तो नाम...
यही तो नाम-जिसे उच्चारते ये ओठ आतुर
झिझक जाते हैं।
...पास आओ
जागरित दो मानसों के संस्फुरण में
नाम वह संगीत बन कर मुखर होता है।
कहाँ हैं दोनों तुम्हारे हाथ-सम्पुटित कर के मुझे दो :
कोकनद का कोष वह गुंजरित होगा नाम से-
उस नाम से...
भेड़घाट (जबलपुर)
4 जनवरी, 1951
वहाँ-रात
पत्थरों के उन कँगूरों पर
अजानी गन्ध-सी अब छा गयी होगी उपेक्षित रात।
बिछलती डगर-सी सुनसान सरिता पर
ठिठक कर सहम कर थम गयी होगी बात।
अनमनी-सी धुन्ध में चुपचाप
हताशा में ठगे-से, वेदना से, क्लिन्न, पुरनम टिमकते तारे।
हार कर मुरझा गये होंगे अँधेरे से बिचारे-
विरस रेतीली नदी के दोनों किनारे।
रुके होंगे युगल चकवे बाँध अन्तिम बार
जल पर
वृत्त मिट जाते दिवस के प्यार का-
अपनी हार का।
गन्ध-लोभी व्यस्त मौना कोष कर के बन्द
पड़ी होगी मौन
समेटे पंख, खींचे डंक, मोम के निज भौन में निष्पन्द!
पंचमी की चाँदनी कँपती उँगलियों से
आँख पथरायी समय की आँज जावेगी।
लिखत को 'आज' की फिर पोंछ 'कल' के लिए पाटी माँज जावेगी।
कहा तो सहज, पीछे लौट देखेंगे नहीं-
पर नकारों के सहारे कब चला जीवन?
स्मरण को पाथेय बनने दो :
कभी भी अनुभूति उमड़ेगी प्लवन का सान्द्र घन भी बन!
इलाहाबाद
19 जनवरी, 1951
प्रथम किरण
भोर की प्रथम किरण फीकी।
अनजाने जागी हो याद किसी की-
अपनी मीठी नीकी।
धीरे-धीरे उदित
रवि का लाल-लाल गोला
चौंक कहीं पर
छिपा मुदित बनपाखी बोला
दिन है जय है यह बहुजन की।
प्रणति, लाल रवि, ओ जन-जीवन
लो यह मेरी
सकल भावना तन की, मन की-
वह बनपाखी जाने गरिमा
महिमा
मेरे छोटे चेतन छन की!
इलाहाबाद-दिल्ली (रेल में)
3 फरवरी, 1951
हवाई यात्रा
फैला है पठार, सलवट की ओट बिछा है कन्धा :
काली परती, भूरे ऊसर, तोतापरी खेत गेहूँ के,
कितनी हैं थिगलियाँ पुराने इस कन्धे पर!
सिलीं मेंड़ की या पगडंडी की जर्जर डोरी से-
उपयोगी थिगलियाँ।
कहीं पर
किसी मनचले कलाकार की आँकी-बाँकी हरी लीक
कुलिया की।
कन्धे पर यह जमी हुई है चौसर :
इतनी ऊँचे से गोटें तो नहीं दीखतीं
पर घर पहचाने जाते हैं।
इधर रहा यह गोल रहँट का :
काले-चिट्टे चींटे खींच रहे हैं एक सुरमचू,
सुरमेदानी नहीं दीखती : मस्से-सा कुएँ का मुँह है।
उधर बिछे हैं ढेर नाज के-टीले खलिहानों के-
सोने के मन-लोभन पाँसे।
मैं तो हूँ उड़ रहा खिलाड़ी :
जाने-अनजाने माने हूँ जोखम का है खेल हवाई यात्रा।
पर नीचे चौसर के अगल-ब गल जो पाँसे डाले खेल बिछाये
हरदम रहता-
उस अपने आड़ी किसान की जोखम मुझ से बहुत बड़ी है-
मैं जो अपनी एक जान को ही चिपटे हूँ-
वह अपने आगे-पीछे सैकड़ों पीढिय़ाँ दाँव-दाँव पर बद देता है।
ऊँचाई कम चली : शीघ्र ही वायुयान उतरेगा।
बड़े शहर के ढंग और हैं : हम गोटें हैं वहाँ :
दाँव गहरे हैं उस चौपट के।
दिल्ली-बम्बई
23 मार्च, 1951
हवाएँ चेत की
बह चुकीं बहकीं हवाएँ चेत की
कट गयीं पूलें हमारे खेत की
कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की
गिन रहा होगा महाजन सेंत की।
गुरदासपुर, अमृतसर (बस में)
23 अप्रैल, 1951
शरद की साँझ के पंछी
ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से-
भार-मुक्त-से तिर जाते हैं पंछी डैने बिना हिलाये।
जो होता है मैं सहसा गा उठूँ
उमँगते स्वर जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने-कहीं किसी ने-गाये।
किन्तु अधूरा है आकाश, हवा के स्वर बन्दी हैं
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ
हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ जब तक
नहीं उमँगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर, तारों में स्थिर मेरे तारे,
जब तक नहीं तुम्हारी लम्बायित परछाईं
कर जाती आकाश अधूरा पूरा।
भार-मुक्त ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध
मैं।
यह लो : लाली में से उभर चम्पई
उठा दूज का चाँद कँटीला।
दिल्ली
8 मई, 1951
मालाबार का एक दृश्य
तालों के जाल घने, कहीं लदे-छदे
कहीं ठूँठ तने; केलों के कुंज बने, सीसल की मेंड़ बँधे।
कबरी में खोंस फूल गुड़हल का सुलगे अंगार-सा
साड़ी लाल धारे
-ज्वार-माल डाले मूर्ति आबनूस काठ की-
सेंहुड़ के सामने कँटीली खड़ी बाला मालाबार की।
जून, 1951
वेदना की कोर
चेतना की नदी बहती जाए तेरी ओर
मौन तेरे ध्यान में मैं रहूँ आत्म-विभोर
अलग हूँ, पर विरह की धमनी तड़पती लिये स्पन्दित स्नेह
और मेरे प्यार में, ओ हृदय के आलोक मेरे
वेदना की कोर।
दिल्ली
अगस्त, 1951
बावरा अहेरी
भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथ :
छोटी-छोटी चिडिय़ाँ, मँझोले परेवे, बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले डौल के बेडौल
उड़ते जहा ज,
कलस-त्रिसूल वाले मन्दिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल धुस्सों वाली उपयोग-सुन्दरी
बेपनाह काया की :
गोधूली की धूल को, मोटरों के धूएँ को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची
तन्वि रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्ïदंड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को हरा देंगी!
बावरे अहेरी रे,
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट है :
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद दे आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर दे :
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखें आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे से ये कनक-तारे तेरे-
बावरे अहेरी।
दिल्ली
2 सितम्बर, 1951
वर्षान्त
जिस दिन आया था वसन्त, उपवन में जागी हँसी अतर्कित,
हम सोच रहे थे,
ऋतुओं के अनुक्रम में पहली मधु है, शीत, शरद् या वर्षा
जिस दिन फूटा तारा-नभ की छाती मानो हुए कंटकित-
हमें यही चिन्ता थी
तारों की किरणें किस कारण से काँपती हैं?
जिस दिन जागा भाव, उलझते बैठे थे हम
जाँच रहे थे भावन, चिन्तन, कर्म-प्रेरणा के सम्बन्ध परस्पर।
आज-
आज, हाँ-
इस बालू के तट पर-(किस का तट, जो अन्तहीन फैला ही फैला
दीठ जहाँ तक भी जाती है!)-
बैठे हम अवसन्न-भाव से पूछ रहे हैं :
कहाँ गया वह ज्वार, हमारा जीवन, यह हिल्लोलित सागर कैसे,
कहाँ गया?
लो : मुट्ठी भर रेत उठाओ :
ठीक कह रहा हूँ मैं, हँसी नहीं है,
उसे उँगलियों में से बह जाने दो : बस।
यों।
इस यों में ही हैं सब जिज्ञासाओं के उत्तर।
फिर भी
जिज्ञासा का उत्तर अन्त नहीं है
जीवन का कौतूहल है अदम्य : जीवन की आशा
नहीं छोड़ सकती अन्वेषण;
यह जो इतना लम्बा है कछार बालू का
पार कहीं इस का होना ही होगा
सागर की ही यह जूठन है :
पहुँच सकें हम, बस इतना है।
साथ चले रह सकते हो क्या?
बोलो, साथी, है क्या साहस?
दिल्ली
1 जनवरी, 1952
दफ्तर : शाम
बाहर देख आया हूँ (और भी जाते हैं,
बीड़ी-सिगरेट फूँक आते हैं या कि पान खाते हैं
और जिस देह में है ख़्ाून नहीं, रसना में रस नहीं,
उस की लाल पीक से दीवारें रँग आते हैं)
मैं भी देख आया हूँ-
वही तो तारे हैं, वही आकाश है।
किन्तु यहाँ आस-पास घुमडऩ है, त्रास है
मशीनों की गडग़ड़ाहट में
भोली (कितनी भोली) आत्माओं की अनुरणन की मोहमयी प्यास है।
यन्त्र हमें दलते हैं और हम अपने को छलते हैं,
'थोड़ा और खट लो, थोड़ा और पिस लो-
यन्त्र का उद्देश्य तो बस शीघ्र अवकाश, और अवकाश,
एक मात्र अवकाश है!'
बाहर हैं वे-वही तारे, वही एक शुक्र तारा,
वही सूनी ममता से भरा आकाश है!
दिल्ली
20 मार्च, 1952
जाता हूँ सोने
अकारण उदास भर सहमी उसाँस अपने सूने कोने
(कहाँ तेरी बाँह?) मैं जाता हूँ सोने।
फीके अकास के तारों की छाँह में बिना आस, बिना प्यास
अन्धा बिस्वास ले, कि तेरे पास आता हूँ मैं तेरा ही होने।
अपने घरौंदे के उदास सूने कोने
मैं जाता हूँ सोने।
दिल्ली
4 अगस्त, 1952
सन्ध्या तारा
कभी मैं चाहता हूँ कभी पहचान लेता हूँ
कभी मैं जानता हूँ चाहना-पहचानना कुछ भी नहीं बा की-
तुम्हें मैं ने पा लिया है।
कभी बदली की तहों में डूब जाता है सुलगता लाल दिन का,
बलाका रेख-सी स्मृति की कभी नभ पार करती चली जाती है
कभी आँगन में अकेले सद्य जागे मुग्ध शिशु जैसा
स्वत: सम्पूर्ण तारा चमक आता है।
कानपुर (रेल में)
2 सितम्बर, 1952
तडिद्दर्शन
अरे किसे तुम पकड़ते हो? आकाश में असंख्य तारे हैं
दूर हैं, अज्ञात हैं, इसीलिए वे हमारे हैं।
बा की यहाँ?-क्यों व्यर्थ अकड़ते हो?
अरे, सब एक-से बेचारे हैं!
दिल्ली
सितम्बर, 1952
विज्ञप्ति
फूल को प्यार करो पर झरे तो झर जाने दो,
जीवन का रस लो : देह-मन-आत्मा की रसना से
पर जो मरे उसे मर जाने दो।
जरा है भुजा तितीर्षा की : मत बनो बाधा-
जिजीविषु को तर जाने दो।
आसक्ति नहीं, आनन्द है सम्पूर्ण व्यक्ति की अभिव्यक्ति :
मरूँ मैं, किन्तु मुझे घोषित यह कर जाने दो।
भीमताल, देहरादून (मोटर में)
24 सितम्बर, 1952
सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम
सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम।
एक सिहरन, जो मन को रोमांचित कर जाय
एक विकसन, जो मन को रंजित कर जाय
एक समर्पण जो आत्मा को तल्लीनता दे।
अँधेरी रात जागते शिशु की तरह मुस्करा उठे;
दिन हो एक आलोक-द्वार जिस से मुझे जाना है।
(समय मेरा रथ और उल्लास मेरा घोड़ा।)
मेरा जीवन-घास की पत्ती से झूलती हुई यह अयानी ओस-बूँद-
सूर्य की पहली किरण से जगमगा उठे और स्वयं किरणें
विकीरित करने लगे।
मेरा कर्म मेरे गले का जुआ नहीं, वह जोती हुई भूमि बन जाय
जिस में मुझे नया बीज बोना है।
गाते हुए गान
गाते हुए मन्त्र
गाते हुए नाम :
सवेरे-सवेरे तुम्हारा नाम।
दिल्ली
अक्टूबर, 1952
नख-शिख
तुम्हारी देह
मुझ को कनक-चम्पे की कली है
दूर ही से स्मरण में भी गन्ध देती है।
(रूप स्पर्शातीत वह जिस की लुनाई
कुहासे-सी चेतना को मोह ले)
तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस-बूँदें हैं
अछूती, ज्योतिमय, भीतर द्रवित।
(मानो विधाता के हृदय में
जग गयी हो भाप करुणा की अपरिमित।)
तुम्हारे ओठ-
पर उसे दहकते दाडि़म-पुहुप को
मूक तकता रह सकूँ मैं-
(सह सकूँ मैं
ताप ऊष्मा का मुझे जो लील लेती है!)
दिल्ली
26 नवम्बर, 1952
शोषक भैया
डरो मत, शोषक भैया : पी लो।
मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है, हृद्य है।
पी लो, शोषक भैया : डरो मत।
शायद तुम्हें पचे नहीं-अपना मेदा तुम देखो, मेरा क्या दोष है।
मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला या हलका भी हो
इस का जिम्मा मैं तो नहीं ले सकता, शोषक भैया!
जैसे कि सागर की लहर सुन्दर हो, यह तो ठीक,
पर यह आश्वासन तो नहीं दे सकती कि किनारे को लील नहीं लेगी?
डरो मत, शोषक भैया : मेरा रक्त ताज़ा है,
मेरी लहर भी ताज़ा और शक्तिशाली है।
ताज़ा, जैसे भट्टी से ढलते गले इस्पात की धार,
शक्तिशाली, जैसे तिसूल : और पानीदार।
पी लो, शोषक भैया : डरो मत।
मुझ से क्या डरना?
वह मैं नहीं, वह तो तुम्हारा प्रेम-सम्बन्ध है जो तुम्हारा काल है।
शोषक भैया!
दिल्ली
1953
अन्धड़
झरने दो
साँस-साँस से भरने दो धूल! धूसरित करने दो
देह को-जो दूध की धुली तो नहीं! सिहरने दो।
झरने दो।
तिरने दो
पौन के हिंडोलों में पत्तियों को गिरने दो।
टूटने दो टहनियाँ फूटने दो शूल। फिर वायुमंडल को थिरने दो
निथुरे समीर पर बिथुरे सुवास, अरे फूल! मधु है, सुमिरने दो!
तिरने दो!
रसने दो
आकाश का विदग्ध उर उमसने दो कसने दो
घुमडऩे-उमडऩे दो, दुर्निवार मेघ को रस-धार बरसने दो!
स्नेह की बौछार तले धरती को पागल-सी हँसने दो-
मेरा मुग्ध मानस विकसने दो!
रसने दो!
आने दो
हहराती इस लहर को काट कर गिराने दो कूल।
उसी के वक्ष पर फिर पछाड़ खाने दो, सुध बिसराने दो-
गल कर वत्सल हो जाने दो।
आने दो!
दिल्ली
26 मार्च, 1953
आज तुम शब्द न दो
आज तुम शब्द न दो, न दो, कल भी मैं कहूँगा।
तुम पर्वत हो, अभ्र-भेदी शिला-खंडों के गरिष्ठ पुंज
चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो,
तुम्हारे रन्ध्र-रन्ध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूट कर मैं बहूँगा।
तुम्हीं ने दिया यह स्पन्द
तुम्हीं ने धमनी में बाँधा है लहू का वेग यह मैं अनुक्षण जानता हूँ।
गति जहाँ सब कुछ है, तुम धृति पारमिता, जीवन के सहज छन्द
तुम्हें पहचानता हूँ।
माँगो तुम चाहे जो : माँगोगे, दूँगा; तुम दोगे जो मैं सहूँगा।
आज नहीं, कल सही
कल नहीं, युग-युग बाद ही :
मेरा तो नहीं है यह
चाहे वह मेरी असमर्थता से बँधा हो।
मेरा भाव-यन्त्र? एक मडिय़ा है सूखी घास-फूस की
उस में छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान-
साध्य नहीं मुझ से, किसी से चाहे सधा हो।
आज नहीं, कल सही
चाहूँ भी तो कब तक छाती में दबाये यह आग मैं रहूँगा?
आज तुम शब्द न दो, न दो-कल भी मैं कहूँगा।
दिल्ली
21 अगस्त, 1953
यह दीप अकेला
यह दीप अकेला स्नेह-भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।
यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गाएगा?
पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लाएगा?
यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगाएगा।
यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।
यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युग-संचय,
यह गोरस : जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय,
यह अंकुर : फाड़ धरा को रवि को तकता निर्भय,
यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुत : इस को भी शक्ति को दे दो।
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिस की गहराई को स्वयं उसी ने नापा;
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कडुवे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा।
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय, इस को भक्ति को दे दो :
यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा
है गर्व-भरा मदमाता, पर इस को भी पंक्ति को दे दो।
नयी दिल्ली ('आल्प्स' कहवाघर में)
18 अक्टूबर, 1953
उषा-दर्शन
मैं ने कहा, डूब चाँद!
रात को सिहरने दे, कुइँयों को मरने दे,
आक्षितिज तम फैल जाने दे।
-पर तम थमा और मुझ ही में जम गया।
मैं ने कहा-उठ रही लजीजी भोर-रश्मि, सोयी
दुनिया में तुझे कोई देखे मत, मेरे भीतर समा जा तू,
चुपके से मेरी यह हिमाहत नलिनी खिला जा तू।
-वो प्रगल्भा मानमयी
बावली-सी उठ सारी दुनिया में फैल गयी।
दिल्ली
23 अक्टूबर, 1953
जो कहा नहीं गया
है, अभी कुछ और जो कहा नहीं गया।
उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गयी,
सुख की स्मिति कसक-भरी, निर्धन की नैन-कोरों में काँप गयी,
बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गयी।
अधूरी हो, पर सहज थी अनुभूति :
मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गयी-
फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।
निर्विकार मरु तक को सींचा है
तो क्या? नदी-नाले, ताल-कुएँ से पानी उलीचा है
तो क्या? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तैरा हूँ, पारंगत हूँ,
इसी अंहकार के मारे
अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ
उस विशाल में मुझ से बहा नहीं गया।
इस लिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया।
शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ है
पर इसी लिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
शायद केवल इतना ही : जो दर्द है
वह बड़ा है, मुझ से ही सहा नहीं गया।
तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया।
दिल्ली
27 अक्टूबर, 1953
देह-वल्ली
देह-वल्ली!
रूप को एक बार बेझिझक देख लो।
पिंजरा है? पर मन इसी में से उपजा।
जिस की उन्नति शक्ति आत्मा है।
देखो देह-वल्ली। भव्य बीज रूपाकारों का :
'निर्गन्धा इव किंशुका:!'
गन्ध के उपभोक्ता किन्तु कहें तो-
कब हम वसन्त के उन्मेष को नहीं उस एक संकेत से पहचान सके?
कब वह नहीं हुआ जीवन के चिरन्तन स्वयम्भाव का प्रतीक?
देखो : व्रीडाहीन। इस कान्ति को आँखों में समेट लो।
देखो रूप-नामहीन एक ज्योति
अस्मिता इयत्ता की ज्वाला अपराजिता अनावृता।
दिल्ली
15 नवम्बर, 1953
यही एक अमरत्व है
ना, ना; फेर नहीं आतीं ये सुन्दर रातें, ना ये सुन्दर दिन!
नहीं बाँध कर रक्खा जाता, छोटा-सा पल-छिन।
चढ़ डोले पर चली जा रही, काल की दुलहिन।
साथी, उसी गैल में तुम स्वेच्छा से अपना घोड़ा डाल दो,
यह जो अप्रतिहत संगीत है तुम भी उस पर ताल दो।
यह सुन्दर है, यह शिव है,
यह मेरा हो, पर बँधा नहीं है मुझसे, निजी धर्म के मत्र्य है।
जीवन नि:संग समर्पण है, जीवन का एक यही तो सत्य है।
जो होता है जब होता है तब एक बार ही
सदा के लिए हो जाता है : यही एक अमरत्व है।
क्षण-क्षण जो मरता दिखता है अविरल अन्त:सत्त्व है।
जीवन की गति धारा है यह एक लड़ी है-क्रम तो अनवच्छिन्न है,
हर क्षण आगे-पीछे बँधा हुआ है, इसी लिए पर अद्वितीय है, भिन्न है।
पर मनुष्य से नहीं कहीं कुछ : इसी तर्क से जीवन स्वत: प्रमाण है।
दो, दो, खुले हाथ से दो : कि अस्मिता विलय एक मात्र कल्याण है।
ना, कुछ फेर नहीं आने का, साथी, ना ये दिन, ना रात,
फेर नहीं खिलने वाले हैं
एक अकेली सरसी के ये अद्वितीय जलजात।
इसे मान लो : तदनन्तर यदि रुकना चाहो रुक लो,
विलमाने में रस लो।
या फिर हँसने का ही मन हो तो वह हँसी दिव्य है :
हँस लो।
दिल्ली
22 जनवरी, 1954
सत्य तो बहुत मिले
खोज में जब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले।
कुछ नये कुछ पुराने मिले, कुछ अपने कुछ बिराने मिले
कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले, कुछ अकड़ू, कुछ मुँह-चुराने मिले,
कुछ घुटे-मँजे स फेदपोश मिले, कुछ दईमारे खानाबदोश मिले।
कुछ ने लुभाया, कुछ ने डराया
कुछ ने परचाया, कुछ ने भरमाया-
सत्य तो बहुत मिले
खोज में जब निकल ही आया।
कुछ पड़े मिले कुछ खड़े मिले, कुछ झड़े मिले कुछ सड़े मिले
कुछ निखरे कुछ बिखरे कुछ धुँधले कुछ सुथरे-
अब सत्य रहे-कहे, अनकहे।
खोज में जब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले।
पर तुम-
नभ के तुम कि गुहा-गह्वर के तुम, मोम के तुम, पत्थर के तुम-
तुम किसी देवता से नहीं निकले :
तुम मेरे साथ मेरे ही आँसू में गले, मेरे ही रक्त पर पले
अनुभव के दाह पर क्षण-क्षण उकसती
मेरी अशमित चिता पर तुम मेरे ही साथ जले।
तुम-
तुम्हें तो भस्म हो मैं ने फिर अपनी भभूत में पाया।
अंग रमाया।
-तभी तो पाया।
खोज में जब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले-एक ही पाया।
काशी (रेल में)
15 फरवरी, 1954
पुनर्दर्शनीय
कब, कहाँ, यह नहीं। जब भी जहाँ भी हो जाए मिलना।
केवल यह : कि जब भी मिलो तब खिलना।
दिल्ली
6 मार्च, 1954
टेसू
ग्रीष्म तो न जाने कब आएगा!
लू के दुर्दम घोड़े पर वह अनलोद्भव अवतार-पुरुष
कब आ कर धरती को तपाएगा
उस ताप से जिस से वह तप:पूत, तप:कृशा
फिर माँग सके, सह सके वह पावस की मिलन-निशा
जिस में नव मेघ-दूत शावक-सा
आ कर अदम्य जीवन के द्रावक सँदेसे से उसे हुलसाएगा-
ग्रीष्म तो न जाने कब आएगा!
तब तक मैं उस का एक अकिंचन अग्रदूत
अपनी अखंड आस्था के साक्ष्य-रूप
मश्शाल जला दूँ-
न सही क्षयग्रस्त नगर में-
इस वनखंडी में आग लगा दूँ।
नागपुर-जबलपुर (मोटर में)
17 मार्च, 1954
मरु और खेत
मरु बोला : हाय यह हास्यास्पद ममता!
ओ रे खेत, किस हेतु यह यत्न, यह उथल-पुथल,
यह-कह ही डालूँ-आडम्बर?
देखना-जब बहेगी लू, जब पड़ेगा पाला,
जब आएगी ब र्फ की बर्छियों से हाड़ों को भेदती-सी
उत्तर की निष्ठुर हवा,
झुलसेंगे, पाले से मरेंगे तुम्हारे पात-पात अंकुर,
तब कैसे दर्द होगा!
मेरी-मुझ अचंचल को देखो; मेरी यह सीख है :
ममता की सर्वदु:ख-मूल है
बीज मात्र वेदना का बीज है!
हँसा खेत : मरु काका, ठीक है। होगा वही
लू बहेगी, पाला भी पड़ेगा-दु:ख होगा ही।
किन्तु जब मेरी छाती फोड़ कर अंकुर एक फूटेगा
और भोली गर्व-भरी आस्था से निहारेगा,
तब-उस एक मात्र क्षण में-किन्तु काका, आप से क्या कहूँ और...
नव-सर्जन में जो अपने को होम कर होते हैं आनन्दमग्न
उन की तो दृष्टि और होती है!
इलाहाबाद-दिल्ली (रेल में)
18 मार्च, 1954
इतिहास का न्याय
जो जिये वे ध्वजा फहराते घर लौटे
जो मरे वे खेत रहे।
जो झूमते नगर लौटे, डूबे जय-रस में।
(खँडहरों के प्रेत और कौन हैं-
जिन के मुड़े हों पैर पीछे को?)
जो खेत रहे थे, वे अंकुरित हुए
इतिहासों की उर्वर मिट्टी में,
कुसुमित पल्लवित हुए स्वप्न-कल्पी लोक-मानस में।
दिल्ली
18 मार्च, 1954
शाश्वत सम्बन्ध
क्रमश: मृत्यु भी सत्य ही है; उसे हम छोड़ नहीं सकते।
हाँ, शिवता सुन्दरता हम उसे दे सकते हैं,
अभी किन्तु जीवन : अन्तहीन तपस्या जिस से हम
मुँह मोड़ नहीं सकते।
यह सम्बन्ध (या विपर्यास?) शाश्वत है क्यों कि इसे
हम चाहे अर्थ में ले सकते हैं।
दिल्ली
19 मार्च, 1954
चातक पिउ बोलो
चातक पिउ बोलो बोलो!
झम-झम-झम पानी सुन-सुन रात बिहानी
दिग्वधु! घूँघट खोलो खोलो!
नभ खुल-खुल खिल आया भू-पट हरियाया
मन-विहग! पंख तोलो तोलो!
दिल्ली
10 मई, 1954
रेंक
रेंक रे रेंक गधे रेंक रे रेंक!
कुटिया के पीछे का आँगन डेढ़ बित्ते का
छेंक ले छेंक गधे रेंक रे रेंक!
रेंक रे रेंक गधे रे रेंक
अपने ही रूप पर होता लोट-पोट, टाँगें
नभ ही ओर फेंक रे फेंक
गधे, ऊँट का साक्ष्य क्या? रेंक रे रेंक!
अन्योक्ति? ऊँह, होगी : गधा होगा सो होगा,
पर बोलिए, ऊँट क्या आप हैं?
दिल्ली
13 जून, 1954
साँप
साँप! तुम सभ्य तो हुए नहीं-
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ-(उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डँसना-विष कहाँ पाया?
दिल्ली
15 जून, 1954
शब्द
किसी को शब्द हैं कंकड़ :
कूट लो, पीस लो, छान लो, डिबियों में डाल दो
थोड़ी-सी सुगन्ध दे के कभी किसी मेले के रेले में
कुंकुम के नाम पर निकाल दो।
किसी को शब्द हैं सीपियाँ :
लाखों का उलट-फेर, कभी एक मोती मिल जाएगा :
दूसरे सराहेंगे-डाह भी करेंगे कोई
पारखी स्वयं को मान पाएगा।
किसी को शब्द हैं नैवेद्य।
थोड़ा-सा प्रसादवत्, मुदित, विभोर वह पाता है।
उसी में कृतार्थ, धन्य, सभी को लुटाता है
अपना हृदय
वह प्रेममय।
दिल्ली
21 जून, 1954
एक रोगिणी बालिका के प्रति
सीखा है तारे ने उमँगना जैसे धूप ने विकसना
हरी घास ने पैरों में लोट-लोट बिछलना-विलसना,
और तुम ने-पगली बिटिया-हँसना, हँसना, हँसना,
सीखा है मेरे भी मन ने उमसना, मेरी आँखों ने बरसना,
और मेरी भावना ने
आशीर्वाद के सुवास-सा तुम्हारे आस-पास बसना!
दिल्ली
सितम्बर, 1954
एक मंगलाचरण
भावों का अनन्त क्षीरोदधि शब्द-शेष फैले सहस्र-फण,
एक अर्थ से तुम हो अच्युत, मुझ को भी दे दो करुणा-कण!
दिल्ली (बस में)
19 सितम्बर, 1954
मैं वहाँ हूँ
दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ!
यह नहीं कि मैं भागता हूँ :
मैं सेतु हूँ-जो है और जो होगा दोनों को मिलाता हूँ-
मैं हूँ, मैं यहाँ हूँ, पर सेतु हूँ इसलिए
दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ!
यह जो मिट्टी गोड़ता है, कोदई खाता है और गेहूँ खिलाता है
उस की मैं साधना हूँ।
यह जो मिट्टी फोड़ता है, मडिय़ा में रहता है और महलों को बनाता है
उसी की मैं आस्था हूँ।
यह जो कज्जल-पुता खानों में उतरता है
पर चमाचम विमानों को आकाश में उड़ाता है,
यह जो नंगे बदन, दम साध, पानी में उतरता है
और बाज़ार के लिए पानीदार मोती निकाल लाता है,
यह जो कलम घिसता है, चाकरी करता है पर सरकार को चलाता है
उसी की मैं व्यथा हूँ।
यह जो कचरा ढोता है,
यह झल्ली लिये फिरता है और बेघरा घूरे पर सोता है,
यह जो गदहे हाँकता है, यह तो तन्दूर झोंकता है,
यह जो कीचड़ उलीचती है,
यह जो मनियार सजाती है,
यह जो कन्धे पर चूडिय़ों की पोटली लिये गली-गली झाँकती है,
यह जो दूसरों का उतारन फींचती है,
यह जो रद्दी बटोरता है,
यह जो पापड़ बेलता है, बीड़ी लपेटता है, वर्क कूटता है,
धौंकनी फूँकता है, कलई गलाता है, रेढ़ी ठेलता है,
चौक लीपता है, बासन माँजता है, ईंटें उछालता है,
रूई धुनता है, गारा सानता है, खटिया बुनता है
मशक से सड़क सींचता है,
रिक्शा में अपना प्रतिरूप लादे खींचता है,
जो भी जहाँ भी पिसता है पर हारता नहीं, न मरता है-
पीडि़त श्रमरत मानव
अविजित दुर्जेय मानव
कमकर, श्रमकर, शिल्पी, स्रष्टा-
उस की मैं कथा हूँ।
दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ-
यह नहीं कि मैं भागता हूँ :
मैं सेतु हूँ-जो है और जो होगा, दोनों को मिलाता हूँ-
पर सेतु हूँ इस लिए
दूर दूर दूर...मैं वहाँ हूँ।
किन्तु मैं वहाँ हूँ तो ऐसा नहीं है कि मैं यहाँ नहीं हूँ।
मैं दूर हूँ, जो है और जो होगा उस के बीच सेतु हूँ
तो ऐसा नहीं है कि जो है उसे मैं ने स्वीकार कर लिया है।
मैं आस्था हूँ तो मैं निरन्तर उठते रहने की शक्ति हूँ,
मैं व्यथा हूँ तो मैं मुक्ति का श्वास हूँ,
मैं गाथा हूँ तो मैं मानव का अलिखित इतिहास हूँ,
मैं साधना हूँ तो मैं प्रयत्न में कभी श्ाििथल न होने का निश्चय हूँ,
मैं संघर्ष हूँ जिसे विश्राम नहीं,
जो है मैं उसे बदलता हूँ,
जो मेरा कर्म है, उस में मुझे संशय का नाम नहीं
वह मेरा अपनी साँस-सा पहचाना है,
लेकिन घृणा-घृणा से मुझे काम नहीं
क्यों कि मैं ने डर नहीं जाना है।
मैं अभय हूँ,
मैं भक्ति हूँ,
मैं जय हूँ।
दूर दूर दूर...मैं सेतु हूँ,
किन्तु शून्य से शून्य तक का सतंरगी सेतु नहीं,
वह सेतु, जो मानव से मानव का हाथ मिलने से बनता है,
जो हृदय से हृदय को, श्रम की शिखा से श्रम की शिखा को,
कल्पना के पंख से कल्पना के पंख को,
विवेक की किरण से विवेक की किरण को,
अनुभव के स्तम्भ से अनुभव के स्तम्भ को मिलाता है
जो मानव को एक करता है,
समूह का अनुभव जिस की मेहराबें हैं
और जन-जीवन की अजस्र प्रवाहमयी नदी जिसके नीचे से बहती है
मुड़ती, बल खाती, नये मार्ग फोड़ती, नये कगारे तोड़ती,
चिर परिवर्तनशीला, सागर की ओर जाती, जाती, जाती...
मैं वहाँ हूँ-दूर, दूर, दूर!
दिल्ली (बस में)
20 सितम्बर, 1954
इतिहास की हवा
झरोखे में से बहती हवा का एक झोंका इतराता आता है
और इतिहास के पन्नों को उड़ाता चला जाता है
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी झरोखे से झरती हुई
बिल्लौर-सी जम जाती है।
जमी हुई चाँदनी के झलमलाते ताजमहल के नीचे
बागडिय़ों के झोंपड़ों के छप्पर उभर आते हैं
जिन के खर के आरी सरीखे किनारे मानो आँखों की कोरों को
चीर जाते हैं-
और छप्पर की छत पर बैठी एक भैंस पागुर कर रही है।
इतिहास के पन्नों पर पगुराती हुई भैंस की आँखों में
इतिहास के और पन्ने हैं।
और उन में इतराती हुई बहकी हवाओं के दूसरे झोंके।
बागडिय़ों के झोंपड़ों से झाँकते हैं जाने कितने चापहीन एकलव्य :
भैंस की आँखें मानो द्रोण की मिट्टी की मूरतें हैं।
ताजमहल के शिल्पियों के हाथ कटवा दिये गये थे,
द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अँगूठा माँग लिया था,
अभिनव द्रोण किन्तु कहता है :
'वत्स, वीर,
धरो चाप, साधो तीर, धरती को विद्ध करो-
अमृत-सा कूप-जल यहीं फूट निकले!'
और फिर चुपके से एकलव्य के नये कुएँ में भाँग डाल देता है।
(एकलव्य एक है
और आज आस्था भी उस में क्या जाने कहीं कम हो-
क्या जाने वह अँगूठा भी दे न दे-
पर कुएँ का पानी तो समाज पिएगा!)
असंख्य झोंपडिय़ों से असंख्य बागडिय़े एकलव्य
आते हैं, कमान तानते हैं, तीर साधते हैं,
कुएँ से पानी पीते हैं,
और फिर कहते हैं : धन्य, धन्य, गुरुदेव,
आपने अगूँठा नहीं माँगा जो :
पितरों को नहीं तो हम क्या दिखाते?
लीजिए : हमारे संस्कार हम देते हैं,
पुरखों के झोंपड़ों में आग हम लगाते हैं, घर-घर का भेद हम लाते हैं।
अपने को पराया नहीं, आप का!-बनाते हैं,
तनु हमें छोडि़ए, मन आप लीजिए,
आत्मा तो होती ही नहीं, धनु हमें दीजिए।
दिग्बोध हम मिटा देंगे, दिग्विजय आप कीजिए।
द्रोणचार्य आँखों में भाँग भर
झोंपड़े से ऊँचा उठाते हैं वरद कर,
भैंस भाँग खाती है
और सारे एकलव्य उस की आँखों में समा जाते हैं।
(2)
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी झरोखे से झरती हुई
बिल्लौर-सी जम जाती है :
बिल्लौर-सी, जिस में पहाड़ी झील का अपलक पानी है
नभ की ओर उठी हिमालय की अपलक गीली आँख का
जिस में मुनिवृन्द तपस्या में रत हैं
और उन की पोष्य राजहंसावलियाँ अविराम
नीर-क्षीर विविक्त करती विचरती हैं।
नहीं नहीं नहीं! ये हंसावलियाँ नहीं, ये ब्रह्मपुत्र की मछलियाँ हैं
जिन्हें चीनी सिपाहियों ने डायनामाइट लगा कर सन्न कर दिया है :
ये हज़ारों मछलियों की चिट्टी-चिट्टी पेटियाँ हैं जो धीरे-धीरे प्राणहीन
हो कर फूल जाएँगी
क्योंकि सिपाहियों को एक-आध मछली की भूख थी :
नहीं नहीं नहीं! ये हज़ारों मछलियों की हज़ारों उलटी हुई चिट्टी पेटियाँ
बिकिनी से बह कर आयी हुई प्रशान्त सागर की सम्पदा हैं
जिसे अमरीकियों ने विस्फोटित अणु की विकिरित शक्ति से
दूषित कर दिया है!
ये हंसावलियाँ नीर-क्षीर नहीं
अन्त-हीन सागर में विष-वपन कर रही हैं।
भैंस की आँखें-पहाड़ी झील का अपलक पानी-
हंसावलियाँ-मछलियाँ
इतिहास के धुँधुआते छप्परों और उड़ते हुए पन्नों पर
टाँके गये बिम्ब, प्रतीक, रूपक, संकेत!
क्योंकि ये झुंड के झुंड चिट्टे-चिट्टे गाले
वास्तव में हमारे उन किशोर शिक्षार्थी बालकों के विश्वास-भरे
चमकते चेहरों की
सहसा विजडि़त की गयी आँखें हैं
जिन के नैतिक मान हम ने आधुनिकता के विस्फोट में उड़ा दिये
और जिन के शिक्षा-स्रोत हम ने वशातीत विषों से दूषित कर दिये हैं।
क्या यह फूटा अणु हमारा व्यक्तित्व है?
हमारी आत्मा
हमारी इयत्ता है?
(3)
झरोखे में से बहकी हवा का एक झोंका इतराता हुआ आता है
और इतिहास के पन्नों को उड़ाता बिखेरता चला जाता है
दिक्चक्रवाल से सिमट कर चाँदनी झरोखे से झरती हुई
जम जाती है : वह एक स्फटिक का मुकुर है
जिस में मैं अपना चेहरा देख सकता हूँ।
मेरे चेहरे में बागडिय़ों के झोंपड़ों से झाँकता है एकलव्य,
द्रोणाचार्य अभिसन्धि करते हैं
मुनियों की व्याजहीन आँखों में पोष्य राजहंस-माला नीर-क्षीर करती है।
लाख-लाख मछलियाँ पेटियाँ उलट कर दम तोड़ देती हैं :
मेरे चेहरे में भोले बालकों का भवितव्य का विश्वास है।
स्फटिक के मुकुर में मैं अपना चेहरा देख सकता हूँ :
लेकिन क्या वह चेहरा माँगा हुआ चेहरा है
और क्या मुझे लौटा देना होगा?
क्या जीवन-पिंड और कीड़े-मकोड़े, केंचुए-केकड़े,
विषैले-वनैले हिंस्र जन्तु से मानव तक की विकास-परम्परा
माँगी हुई है और मुझे लौटा देनी होगी?
क्या यह भोले बालकों के भवितव्य का विश्वास माँगा हुआ विश्वास है?
क्या यह इतिहास माँगा हुआ इतिहास है
क्या यह विवेक का मुकुर लौटा देना होगा
इस से पहले कि वह टूट जाय?
मुकुर उत्तर नहीं देता :
न दे, मुकुर उत्तरदायी नहीं है।
इतिहास उत्तर नहीं देता, इतिहास भी उत्तरदायी नहीं है :
परम्परा भी उत्तरदायी नहीं है। चेहरा भी उत्तरदायी नहीं है।
पर झरोखे में से इतराता हुआ बहकी हवा का झोंका पूछता है :
मैं, मैं, क्या मैं भी उत्तरदायी नहीं हूँ?
इतिहास के प्रति, चेहरे के प्रति,
परम्परा के प्रति, मुकुर के प्रति-
बालकों के भवितव्य के भोले विश्वास के प्रति
क्या मैं उत्तरदायी नहीं हूँ?
दिल्ली (बस में)
6 अक्टूबर, 1954
क्यों कि तुम हो
मेघों को सहसा चिकनी अरुणाई छू जाती है
तारागण से एक शान्ति-सी छन-छन कर आती है
क्यों कि तुम हो।
फुटकी की लहरिल उड़ान
शाश्वत के मूक गान की स्वर लिपि-सी संज्ञा के पट पर अँक जाती है
जुगनू की छोटी-सी द्युति में नये अर्थ की
अनपहचाने अभिप्राय-सी किरण चमक जाती है
क्यों कि तुम हो।
जीवन का हर कर्म समर्पण हो जाता है
आस्था का आप्लवन एक संशय के कल्मष धो जाता है
क्यों कि तुम हो।
कठिन विषमताओं के जीवन में लोकोत्तर सुख का स्पन्दन मैं भरता हूँ
अनुभव की कच्ची मिट्टी को तदाकार कंचन करता हूँ
क्यों कि तुम हो।
तुम तुम हो; मैं-क्या हूँ?
ऊँची उड़ान, छोटे कृतित्व की लम्बी परम्परा हूँ,
पर कवि हूँ स्रष्टा, द्रष्टा, दाता :
जो पाता हूँ अपने को भी कर उसे गलाता-चमकाता हूँ
अपने को मट्टी कर उस का अंकुर पनपाता हूँ
पुष्प-सा, सलिल-सा, प्रसाद-सा, कंचन-सा, शस्य-सा, पुण्य-सा,
अनिर्वच आह्वाद-सा लुटाता हूँ
क्यों कि तुम हो।
दिल्ली-इलाहाबाद (रेल में)
18 अक्टूबर, 1954
गोवर्द्धन
कल जो जला रहे थे दीप
आज संलग्न-भाव से माँज रहे हैं फर्श
कि कैसे दा ग तेल के छूटें।
कल घर में दीवाली थी,
आज गली में छोकरे कर रहे विमर्श
कि कैसे गल कर बही मोम वे लूटें।
कल हम पुकार कर कहते थे : 'अरे, हमें भी कोई गलबहियाँ दो!'
आज यह रटना है : 'नहीं-नहीं, यह मार्ग रपटना है
राम रे, कैसे भव-बन्धन टूटें!'
दिल्ली
27 अक्टूबर, 1954
सीढ़ियाँ
अम्बार है जूठी पत्तलों का : निश्चय ही पाहुने आये थे।
बिखरी पड़ी हैं डालियाँ-पत्तियाँ : किसी ने तोरण सजाये थे।
गली में मचा है कोहराम भारी : मु फ्त का पैसा किसी ने पाया था।
उठती है आवाजतीखे क्रन्दन की : निश्चय ही कोई बहू लाया था।
दिल्ली
27 अक्टूबर, 1954
अतिथि सब गये
अतिथि सब गये : सन्नाटा
ज्वार आया था, गया : अब भाटा।
कुछ काम, दोस्त? हाँ, बैठो, देखो,
किस कुत्ते ने कौन पत्तल चाटा!
नयी दिल्ली
27 अक्टूबर, 1954
विपर्यय
जो राज करें उन्हें गुमान भी न हो
कि उन के अधिकार पर किसी को शक है,
और जिन्हें मुक्त जीना चाहिए
उन्हें अपनी कारा में इस की ख़बर ही न हो
कि उन का यह हक है!
दिल्ली
1 नवम्बर, 1954
हमने पौधे से कहा
हमने पौधे से कहा : मित्र, हमें फूल दो।
उस की फुनगी से चिनगियाँ दो फूटीं।
डाली से उस ने फुलझड़ी छोड़ दी :
हम मुग्ध देखते रहे कि कब कली फूटे-
कि कायश्री उस की समीरण में झूम गयी,
हमें जान पड़ा, कहीं गन्ध की फुहारें झर रही हैं
और देखा सहसा :
लच्छा-सा डोंडियों का, गुच्छा एक फूल का
हम मुग्ध ताका किये।
किन्तु हम जो देखते थे क्या वह निर्माण था?
गुच्छे हम नोच लें परन्तु वही क्या सृष्टि है?
मिट्टी के नीचे, जहाँ एक बुदबुदाता अन्धकार था
कीड़े आँख-ओट कुलबुलाते थे
रिसता था जिस की नस-नस में
मैल किस-किस का और कब-कब का
(काल की तो सीमा नहीं, देश की अगर हो
हम नहीं जानते :
और मैल दोनों का-
सीमाहीन काल का, व्यासहीन देश का-
माटी में रिसता है, मिसता है,
सोखता ही रहता है)-
मिट्टी के नीचे बुदबुदाते अन्धकार में
पौधे की जड़ क्रियमाण थी :
पौधे का हाथ? आँख? जीभ? त्वचा?
पौधे का हाथ? प्राण? चेतना?
मिट्टी के नीचे क्रियमाण थी :
पौधे की जड़ : सृष्टि-शक्ति : आद्य मातृका।
ऊपर वह हँसता-सिहरता था
और हम देख-देख खिलते विहरते थे
किन्तु वह अनुपल, अनुक्षण, और और गहरे
टोहता था बुदबुदाते उस अन्धकार में :
सड़ा दे दो, गला दे दो, पचा दे दो,
कचरा दो राख दो अशुच दो उच्छिष्ट दो-
वह तो है सृजन-रत : उसे सब रस है।
उसे सब रस है
और इस हेतु (हम जानें या न जानें यही
हमें सारे फूल हैं,
घास-फूस, डाल-पात, लता-क्षुप,
ओषधि-वनस्पति, द्रुमाली, वन-वीथियाँ।
रूप-सत्य, रस-सत्य, गन्ध-सत्य,
रूप-शिव।
मित्र, हमें फूल दो-
हमने पौधे से कहा :
बन्धु, हमें काव्य दो।
किन्तु तुम (नभचारी!) मिट्टी की ओर मत देखना,
किन्तु तुम (गतिशील!) जड़ें मत छोडऩा,
किन्तु तुम (प्रकाश-सुत!) टोहना न कभी अन्धकार को,
किन्तु तुम (रससिद्ध!) कर्दम से नाता मत जोडऩा,
किन्तु तुम (स्वयम्भू!) पुष्टि की अपेक्षा मत रखना!
गहरे न जाना कहीं, आँचल बचाना सदा, दामन हमेशा पाक रखना,
पंकज-सा पंक में, कंज-पत्र में सलिल-सा
तुहिन की बूँद में प्रकम्प हेम-शिरा-सा असम्पृक्त रहना।
धाक रखना।
लाज रखना, नाम रखना, नाक रखना।
बन्धु, हमें काव्य दो,
सुन्दर दो, शिव दो, सार-सत्य दो,
किन्तु किन्तु
किन्तु किन्तु
किन्तु किन्तु-
हमने कवि से कहा।
दिल्ली
23 नवम्बर, 1954
मेरे विचार हैं दीप
मेरे विचार हैं दीप : मेरा प्यार? वह आकाश है।
वे नहीं देते उसे आलोक : वह भी स्नेह उन को नहीं देता।
अलग दोनों की इयत्ता है।
किन्तु उन की ओट की गहराइयाँ उस की झलकती हैं
और उस के सामने ही सत्य उन का रूप
दिखता है विशद, सहसा अनिर्वचनीय!
मेरा प्यार? वह आकाश है।
दिल्ली
21 दिसम्बर, 1954
तुम कदाचित् न भी जानो
मंजरी की गन्ध भारी हो गयी है
अलस है गुंजार भौंरे की-अलस और उदास।
क्लान्त पिक रह-रह तड़प कर कूकता है। जा रहा मधु-मास।
मुस्कराते रूप!
तुम कदाचित् न भी जानो-यह विदा है।
ओस-मधुकण : वस्त्र सारे सीझ कर श्लथ हो गये हैं।
रात के सहमे चिहुँकते बाल-खग अब निडर हो चुप हो गये हैं।
अटपटी लाली उषा की हुई प्रगल्भ, विभोर।
उमड़ती है लौ दिये की जा रहा है भोर।
ओ विहँसते रूप!
तुम कदाचित् न भी जानो-यह विदा है।
दिसम्बर, 1954
घुमड़न के बाद
अब हम फिर साथ हैं।
न जाने कैसे, प्रमादवश, थोड़ा भटक गये थे।
तभी चुपके से ऊपर काले बादल लटक गये थे।
हमारे तारे-स्थिर निष्ठावान्-कुहासे में अटक गये थे।
इतनी तो बात है।
तारे दूर हैं, बादल है चंचल : झट से घेर लेते हैं।
इसी भ्रम में हम इस गहरी सचाई से मुँह फेर लेते हैं।
कि तारे स्पर्श से भरे हैं,
ओझल हों, पर हीरे से वहीं पर धरे हैं,
और वज्र-से अमिट हैं लेखे जो उन्होंने हमारे ह्रत्पट पर उकेरे हैं
(भाग्य के नहीं, प्रत्ययों के, जो मार्ग-संगी तेरे-मेरे हैं)
यों ही हमें लगता है कि बड़ी डरावनी रात है।
मार्ग कभी धुँधला हो, दिक्चक्र थोड़े ही खो जाता है
ज्ञान अधूरा है, सही, विवेक थोड़े ही सो जाता है!
आस्था न काँपे, मानव फिर मिट्टी का भी देवता हो जाता है।
तेरा वरद, मेरा अभयद, यों हमारे साथ है।
अब हम फिर साथ हैं।
1955
नयी कविता : एक सम्भाव्य भूमिका
आप ने दस वर्ष हमें और दिये
बड़ी आप ने अनुकम्पा की। हम नत-शिर हैं।
हम में तो आस्था है : कृतज्ञ होते
हमें डर नहीं लगता कि उखड़ न जावें कहीं।
दस वर्ष और! पूरी एक पीढ़ी!
कौन सत्य अविकल रूप में जी सका है अधिक?
अवश्य आप हँस लें :
हँस कर देखें फिर साक्ष्य इतिहास का जिस की दुहाई आप देते हैं।
बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण को कितने हुए थे दिन
थेर महासभा जब जुटी यह खोजने कि सत्य तथागत का
कौन-कौन मत-सम्प्रदायों में बिला गया!
और ईसा-(जिन का कि एक पट्ट शिष्य ने
मरने से कुछ क्षण पूर्व ही था कर दिया प्रत्याख्यान)
जिस मनुपुत्र के लिए थे शूल पर चढ़े-
उसे जब होश हुआ सत्य उन का खोजने का
तब कोई चारा ही बचा न था
इस के सिवा कि वह खड्गहस्त दसियों शताब्दियों तक
अपने पड़ोसियों के गले काटता चले!
('प्यार करो अपने पड़ोसियों को आत्मवत्'-कहा था मसीहा ने!)
'सत्य क्या है?' बेसिनी में पानी मँगा लीजिए :
सूली का सुना के हुक्म हाथ धोये जाएँगे!
बुद्ध : ईसा : दूर हैं।
जिस का थपेड़ा स्वयं हम को न लगे वह कैसा इतिहास है?
ठीक है। आप का जो 'गाँधीयन' सत्य है
उस को क्या यही सात-आठ वर्ष पहले
गाँधी पहचानते थे?
तुलना नहीं है यह। हम को चर्राया नहीं शौ क मसीहाई का।
सत्य का सुरभि-पूत स्पर्श हमें मिल जाय क्षण-भर :
एक क्षण उस के आलोक से सम्पृक्त हो विभोर हम हो सकें-
और हम जीना नहीं चाहते :
हमारे पाये सत्य के मसीहा तो
हमारे मरते ही, बन्धु, आप बन जाएँगे!
दस वर्ष! दस वर्ष और! वह बहुत है।
हमें किसी कल्पित अमरता का मोह नहीं।
आज के विविक्त अद्वितीय इस क्षण को
पूरा हम जी लें, पी लें, आत्मसात् कर लें-
उस की विविक्त अद्वितीयता आप को, कमपि को, कखग को
अपनी-सी पहचनवा सकें, रसमय कर के दिखा सकें-
शाश्वत हमारे लिए वही है। अजर अमर है
वेदितव्य अक्षर है।
एक क्षण : क्षण में प्रवहमान व्याप्त सम्पूर्णता।
इस से कदापि बड़ा नहीं था महाम्बुधि जो पिया था अगस्त्य ने।
एक क्षण। होने का, अस्तित्व का अजस्र अद्वितीय क्षण!
होने के सत्य का, सत्य के साक्षात् का, साक्षात् के क्षण का-
क्षण के अखंड पारावार का
आज हम आचमन करते हैं। और मसीहाई?
संकल्प हम उस का करते हैं आप को :
'जम्बूद्वीपे भरतखंडे अमुक शर्मणा मया।'
इलाहाबाद
6 फरवरी, 1955
साँझ : मोड़ पर विदा
हाँ, यह मोड़ आ गया।
जाओ पथ के साथी,
और न बिलमो।
मेरी मं िजल अनजानी है
दूर तुम्हारी क्या कम होगी?
और न बिलमो,
जाओ पथ के साथी।
हाँ, उस आद्र्र भाव को रहने दो वाष्पाकुल
वह मेरा पहचाना है।
धन्यवाद का पात्र? मैं नहीं, पथ है।
पथ ने ही मुझ को प्रतिभा दी-
यह मोड़ कसक अब देगा।
और न बिलमो
जाओ, पथ के साथी।
और तुम्हारी यह अनकही आद्र्रता-
(इसी नदी पर तिर आती है नौका सरस्वती की)-
मुझ को देगी वाणी
और न बिलमो
जाओ।
कोई पथ का मोड़ किसी को अलग नहीं करता है
जैसे पथ का संगम मन का घटक नहीं है
और तुम्हारे लिए? धार तीक्ष्ण हो संवेदन की-
नये अरुण पथ लहरावेंगे :
किन्तु न बिलमो-
ये अनकहनी और न अब मुझ से कहलाओ-
पथ के साथी
जाओ।
रीवाँ
21 फरवरी, 1955
मुझे तीन दो शब्द
मुझे तीन दो शब्द कि मैं कविता कह पाऊँ।
एक शब्द वह जो न कभी जिह्वा पर लाऊँ,
और दूसरा : जिसे कह सकूँ
किन्तु दर्द मेरे से जो ओछा पड़ता हो।
और तीसरा : खरा धातु, पर जिस को पा कर पूछूँ-
क्या न बिना इस के भी काम चलेगा? और मौन रह जाऊँ।
मुझे तीन दो शब्द कि मैं कविता कह पाऊँ।
रीवाँ
21 फरवरी, 1955
मैं तुम्हारा प्रतिभू हूँ
मेरे आह्वान से अगर प्रेत जागते हैं, मेरे सगो, मेरे भाइयो,
तो तुम चौंकते क्यों हो? मुझे दोष क्यों देते हो?
वे तुम्हारे ही तो प्रेत हैं
तुम्हें किसने कहा था, मेरे भाइयो, कि
तुम अधूरे और अतृप्त मर जाओ?
मैं तुम्हारे साथ जिया हूँ, तुम्हारे साथ मैं ने कष्ट पाया है,
यातनाएँ सही हैं,
किन्तु तुम्हारे साथ मैं मरा नहीं हूँ
क्योंकि तुम ने तुम्हारा शेष कष्ट भोगने के लिए मुझे चुना :
मैं अपने ही नहीं, तुम्हारे भी सलीब का वाहक हूँ
जिस के आसपास तुम्हारे प्रेत मँडराते हैं
और मेरे उस प्रयास पर चौंकते हैं जिसे उन्होंने अधूरा छोड़ दिया था।
पर डरो मत, मैं मरूँगा नहीं
क्योंकि मैं अधूरा नहीं मरूँगा, अतृप्त नहीं मरूँगा।
तुम मर कर प्रेत हो सकते हो क्यों कि तुम अपने हो,
मैं नहीं मर सकता क्यों कि मैं तुम्हारा हूँ,
मैं प्रतिभू हूँ, मैं प्रतिनिधि हूँ, मैं सन्देशवाहक हूँ
मैं सम्पूर्णता की ओर उठा हुआ तुम्हारा दुर्दमनीय हाथ हूँ।
मैं तुम्हें उलाहना नहीं देता क्यों कि तुम मेरे भाई हो
पर बोलो, मेरे भाईयो, मेरे सगो, तुम अधूरे और अतृप्त क्यों मर गये
जब कि मैं तुम्हारे भी अधूरेपन और अतृप्ति को ले कर जी सका हूँ
और तुम्हारी पूर्णता और तृप्ति के लिए जीता रह सकूँगा?
मेरे आह्वान से अगर प्रेत जगते हैं
तो चौंको मत, पहचानो कि वे तुम्हारे प्रेत हैं :
उन्हें अपलक देख सकोगे तो पहचानोगे
और जानोगे कि तुम भी अभी मरे नहीं हो,
कि पाप ने तुम्हें अभिभूत किया है, जड़ किया है,
पर तुम्हारी आत्मा क्षरित नहीं हुई है।
अपने प्रेत के साथ हाथ मिला कर
तुम उस विकिरित शक्ति को फिर सम्पुंजित कर सकोगे :
वही संजीवन है
वही सम्पृक्ति है
वही मुक्ति है।
मेरे भाइयो, मेरे सगो, मेरे आह्वान से चौंको मत,
मैं तुम्हारा प्रतिभू हूँ
मुझ में जिस दायित्व का तुमने न्यास किया था
उस से मुझे मुक्त करो, और मेरे साथ मुक्त हो जाओ, मेरे भाइयो!
दिल्ली (बस में)
19 मार्च, 1955
ओ लहर
जिधर से आ रही है लहर
अपना रुख़ उधर को मोड़ दो
तट से बाँधती हैं जो शिराएँ मोह उन का छोड़ दो,
वक्ष सागर का नहीं है राजपथ :
लीक पकड़े चल सकोगे तुम उसे धीमे पदों से रौंदते-
यह दुराशा छोड़ दो!
आह, यह उल्लास, यह आनन्द वह जाने कि जिस से
अनगिनत बाँहें बढ़ा कर ढीठ याचक-सा लिपटता अंग से
माँगता ही माँगता सागर रहा है
और जिस ने जोड़ कर कुछ नहीं रक्खा-
सदा बढ़-चढ़ कर दिया है-
जो सदा उन्मुक्त हाथों, मुक्त मन, देता रहा है,
अन्तहीन अकूल अथाह सागर का थपेड़ा
सदा जिस ने समुद्र छाती पर सहा है
आह! यह उल्लास, यह आनन्द, वह जाने
बहा है
सनसनाता पवन जिस की लटों से छन कर,
थम गयी है तारिका जिस के लिए
व्योमपट पर जड़ी हरि की कनी-सी ज्वलित जय-संकेत-सी बन कर
हर लहर ने शोर कर जिस को
अनागत ज्योति का स्पन्दित सँदेसा भर
कहा है।
जिधर से आ रही है लहर
अपना रुख़ उधर को मोड़ दो :
तरी सागर की सुता है, संगिनी है पवन की,
उसे मिलने दो ललक कर लहर से :
वहीं उस को जय मिलेगी तो मिलेगी
या, मिलेगी लय; असंशय
तुम तरी तो छोड़ दो बढ़ती लहर पर!
डर?
कौन? किसका? हरहराती आ, लहर, मेरी लहर
फेन के अनगिन किरीटों को झुका कर
तू मुखर आह्वान कर मेरा, मुझे वर
जिधर से आ रही है तू!
जिधर से मुझ पर थपेड़े पडेंग़े अविराम
उधर ही तो मुक्त पारावार है।
दुर्द्धर लहर
तू आ!
ओ दुर्दान्त अथाह सागर की लहर,
दूर पर धु्रव, अजाने पर प्रेय
मेरे ध्येय
मेरे लक्ष्य की गम्भीर अर्थवती डगर
ओ लहर!
जिधर से आ रही है लहर
अपना रुख़ उधर को मोड़ दो
तरी अपनी चिर असंशय
लहर ही पर छोड़ दो!
दिल्ली (कनाट प्लेस में खड़े-खड़े)
3 अप्रैल, 1955
देना जीवन
जीवन,
देना ऐसा सुख जो सहा न जाय,
इतना दर्द कि कहा न जाय।
ताप कृच्छ्रïतम मेरा हो, अनुभूति तीव्रतम-
मैं अपना मत होऊँ!
मुझ से स्नेह झरे जिस में मैं सब को दे आलोक अमलतर
ऐसा दिया सँजोऊँ!
देना जीवन, सुख, दुख, तड़पन
जो भी देना, इतना भर-भर, एक अहं में वह न समाय-
एक जिंदगी एक मरण का घेरा जिस को बाँध न पाय,
बच रहने की प्यास मिटा दे जो इसलिए अमर कर जाय।
किन्तु साथ ही / देना साहस
हो अन्याय किसी के भी प्रति पर मुझ से चुप रहा न जाय,
आस्था जिस के सुख का प्लावन ज्वार व्यथा का बहा न पाय।
आकांक्षा का मधुर कुहासा, संशय का तम, करे न ओझल
वह पैना विवेक जिस को दुश्चिन्ता कोई करे न बोझल
सच का आग्रह, निष्ठा की हठ,
अग-जग के विरोध का धक्का जिस को ढहा न पाय।
देना, जीवन, देना।
दिल्ली
22 अप्रैल, 1955
महानगर : रात
धीरे धीरे धीरे चली जाएँगी सभी मोटरें, बुझ जाएँगी
सभी बत्तियाँ, छा जाएगा एक तनाव-भरा सन्नाटा
जो उस को अपने भारी बूटों से रौंद-रौंद चलने वाले
वर्दीधारी का
प्यार नहीं, किन्तु वाञ्छित है।
तब जो पत्थर-पिटी पटरियों पर इन
अपने पैर पटकता और घिसटता
टप्-थब्, टप्-थब्, टप्-थब्
नामहीन आएगा...
तब जो ओट खड़ी खम्भे के अँधियारे में चेहरे की मुर्दनी छिपाये
थकी उँगलियों से सूजी आँखों से रूखे बाल हटाती
लट की मैली झालर के पीछे से बोलेगी :
'दया कीजिए, जैंटिलमैन...'
और लगेगा झूठा जिस के स्वर का दर्द
क्यों कि अभ्यास नहीं है अभी उसे सच के अभिनय का,
तब जो ओठों पर निर्बुद्धि हँसी चिपकाये
मानो सीलन से विवर्ण दीवार पर लगा किसी पुराने
कौतुक-नाटक का फटियल-सा इश्तहार हो,
कुत्तों के कौतूहल के प्रति उदासीन
उस के प्रति भी जिस को तुम ने सन्नाटे की रक्षा पर तैनात किया है,
धुआँ-भरी आँखों से अपनी परछाईं तक बिन पहचाने,
तन्मय-हाँ, सस्ती शराब में तन्मय-
चला जा रहा होगा धीरे-धीरे-
बोलो, उस को देने को है
कोई उत्तर?
होगा?
होगा?
क्या? ये खेल-तमाशे, ये सिनेमाघर और थियेटर?
रंग-बिरंगी बिजली द्वारा किये प्रचारित
द्रव्य जिन्हें वह कभी नहीं जानेगा?
यह गलियों की नुक्कड़-नुक्कड़ पर पक्के पेशाबघरों की सुविधा,
ये कचरा-पेटियाँ सुघड़
(आह कचरे के लिए यहाँ कितना आकर्षण!)
असन्दिग्ध ये सभी सभ्यता के लक्षण हैं
और सभ्यता बहुत बड़ी सुविधा है सभ्य, तुम्हारे लिए!
किन्तु क्या जाने ठोकर खा कहीं रुके वह,
आँख उठा कर ताके और अचानक तुम को ले पहचान-
अचानक पूछे धीरे-धीरे-धीरे
'हाँ, पर मानव
तुम हो किस के लिए?'
स्ट्रैट फर्ड। ऐवन
जून, 1955
हवाई यात्रा : ऊँची उड़ान
यह ऊपर आकाश नहीं,
है रूपहीन आलोक मात्र। हम अचल-पंख तिरते जाते हैं भार-मुक्त।
नीचे यह ता जी धुनी रुई की उजली बादल-सेज बिछी है
स्वप्न-मसृण : या यहाँ हमीं अपना सपना है?
लेकिन उतरो :
इस झीनी चादर में है जो घुटन, भेद कर आओ।
दीखीं क्या वे दूर लकीरें-धुँधली छायाएँ-कुछ काली, कुछ चमकीली
मुग्धकारी कुछ, कुछ जहरीली?
होती मूत्र्त महानगरी है : संसृति के अवतंस मनुज की कृति वह
अविश्राम उद्यम ही कीर्तिपताका।
उतरो थोड़ा और :
घनी कुछ हो आने दो
रासायनिक धुन्ध के इस चीकट कम्बल की नयी घुटन को :
मानव का समूह-जीवन इस झिल्ली में ही पनप रहा है!
उतरो थोड़ा और : धरा पर
हाँ, वह देखा, लगते ही आघात ठोस धरती का
धमनी में भारी हो आया मानव-रक्त और कानों में
गूँजा सन्नाटा संसृति का!
उतरो थोड़ा और : साँस ले गहरी
अपने उडऩखटोले की खिड़की को खोलो और पैर रक्खो मिट्टी पर :
खड़ा मिलेगा वहाँ सामने तुम को
अनपेक्षित प्रतिरूप तुम्हारा
नर, जिस की अनझिप आँखों में नारायण की व्यथा भरी है!
लन्दन-पैरिस-विएना (विमान में)
जून, 1955
रूप की प्यास
दृश्य के भीतर से सहसा कुछ उमड़ कर बोला :
सुन्दर के सम्मुख तुम्हारी जो उदासी है-
वह क्या केवल रूप, रूप, रूप की प्यासी है
जिस ने बस रूप देखा है उस ने बस
भले ही कितनी भी उत्कट लालसा से केवल कुछ चाहा है
जिस ने पर दिया अपना है दान
उस ने अपने को, अपने साथ सब को, अपनी सर्वमयता को निबाहा है।
मैं गिरा : पराजय से, पीड़ा से लोचन आये भर-से
पर मैं ने मुँह नहीं खोला।
मेल्क मठ (आस्ट्रिया)
19 जून, 1955
धूप-बत्तियाँ
ये तुम्हारे नाम की दो बत्तियाँ हैं धूप की।
डोरियाँ दो गन्ध की
जो न बोलें किन्तु तुम को छू सकें।
जो विदेही स्निग्ध बाँहों से तुम्हें वलयित किये रह जाएँ
क्या है और मेरे पास?
हाँ, आस :
मैं स्वयं तुम तक पहुँच सकता नहीं
पर भाव के कितने न जाने सेतु अनुक्षण बाँधता हूँ-
आस!
तुम तक
और तुम तक
और
तुम तक!
स्टॉकहोम
23 जून, 1955
सूर्यास्त
धूप
माँ की हँसी के प्रतिबिम्ब-सी शिशु-वदन पर-
हुई भासित
नये चीड़ों से कँटीली पार की गिरि-शृंखला पर :
रीति :
मन पर वेदना के बिना,
तर्कातीत, बस स्वीकार से ही सिहर कर
बोला :
'नहीं, फिर आना नहीं होगा।'
सिग्तुना (स्वीडन)
24 जून, 1955
एक दिन जब
एक दिन जब
सिवा अपनी व्यथा के कुछ याद करने को नहीं होगा-
क्यों कि कृतियाँ दूसरों के याद करने के लिए हैं :
एक दिन जब
दे न पाया जो, उसी की नोक बेबस सालती रह जाएगी-
क्यों कि दे पाया अगर कुछ, याद उस को आज
मैं करता नहीं हूँ, और, जीवन! शक्ति दो
उस दिन न चाहूँ याद करना :
एक दिन जब
प्यार से, संघर्ष से, आक्रोश से, करुणा-घृणा से, रोष से,
विद्वेष से, उल्लास से,
निविड सब संवेदनाओं की सघन अनुभूति से
बँधा वेष्टित, विद्ध जीवन की अनी से-स्वयं अपने प्यार से-
एक दिन जब
हाय! पहली बार!-
जानूँगा कि जीवन
जो कभी हारा नहीं था, हारता ही किसी से जो नहीं,
अपने से चला अब हार:
एक दिन-उस दिन-जिसे अपनी पराजय भी
दे सकूँगा समुद, नि:संकोच
उसी को आज अपना गीत देता हूँ।
आबिस्को (उत्तरी स्वीडन)
4 जुलाई, 1955
बर्फ की झील
चट-चट-चट कर सहसा तड़क गये हिमखंड जमे सरसी के
तल पर :
लुढ़क-लुढ़क कर स्थिर...वसन्त का आना
-यद्यपि पहले नहीं किसी ने जाना-
होता रहा अलक्षित।
नयी किरण ने छुए श्रृंग : हो गये सुनहले
बहते सारे हिमद्वीप। हाँ, गाओ,
'हेम-किरीटी राजकिशोरों का दल
नव-वसन्त के अभिनन्दन को मचल रहा है।'
गाओ, गाओ, गान नहीं झूठा हो सकता!
गाओ! पर ये हेम-मुकुट हैं केवल :
दूर सूर्य के लीला-स्मित से शोभन कौतुक-पुतले।
नीचे की हिमशिला पिघल कर जिस दिन स्वयं मिलेगी सरसी जल में
नव-वसन्त को उस दिन, उस दिन मेरा शीश झुकेगा!
क्योंकि तपस्या चमक नहीं है : वह है गलना :
गल कर मिट जाना-मिल जाना-
पाना।
कोपेन हागेन
17 जुलाई, 1955
पश्चिम के समूह-जन
एक मृषा जिस में सब डूबे हुए हैं-
क्यों कि एक सत्य जिस से सब ऊबे हुए हैं।
एक तृषा जो मिट नहीं सकती इस लिए मरने नहीं देती;
एक गति जो विवश चलाती है इसलिए कुछ करने नहीं देती।
स्वातन्त्र्य के नाम पर मारते हैं मरते हैं
क्यों कि स्वातन्त्र्य से डरते हैं।
डार्टिंगटन हॉल, टॉटनेस
18 अगस्त, 1955
एक छाप
एक छाप रंगों की एक छाप ध्वनि की
एक सुख स्मृति का-एक व्यथा मन की।
डार्टिंगटन हॉल, टॉटनेस
18 अगस्त, 1955
बार-बार अथ से
आँखें देखेंगी तो आकृति अन्धकार में सोयी
कान सुनेंगे लय नि:स्वप्न में खोयी।
याद करेगा मन तो स्तम्भित चिन्तन का पल
आत्मा पकड़ेगी तो निराकार का आँचल।
बार-बार अथ से ही यह पूरा होगा जीवन
सब कुछ दे कर ही तो कह पाऊँगा : ओ धन!
ओ धन, ओ मेरे धन!
डार्टिंगटन हॉल, टॉटनेस
18 अगस्त, 1955
आगन्तुक
आँख ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं।
भावना से छुआ पर मन ने पहचाना नहीं।
राह मैं ने बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आये भी, गये भी,
-कदाचित्, कई बार-
पर हुआ घर आना नहीं।
डार्टिंगटन हॉल, टॉटनेस
18 अगस्त, 1955
भर गया गगन में धुआँ
जो था, सब हम ने मिटा दिया
इस आत्मतोष से भरे कि उस के हमीं बनाने वाले हैं
भर गया गगन में धुआँ हमारे कहते-कहते :
'स्वर्ग धरा पर हम ले आने वाले हैं!'
टॉटनेस, लंदन
19 अगस्त, 1955
जितना तुम्हारा सच है
(1)
कहा सागर ने : चुप रहो!
मैं अपनी अबाधता जैसे सहता हूँ, अपनी मर्यादा तुम सहो।
जिसे बाँध तुम नहीं सकते
उस में अखिन्न मन बहो।
मौन भी अभिव्यंजना है : जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।
कहा नदी ने भी : नहीं, मत बोलो,
तुम्हारी आँखों की ज्योति से अधिक है चौंध जिस रूप की
उस का अवगुंठन मत खोलो
दीठ से टोह कर नहीं, मन के उन्मेष से
उसे जानो : उसे पकड़ो मत, उसी के हो लो।
कहा आकाश ने भी : नहीं, शब्द मत चाहो
दाता ही स्पद्र्धा हो जहाँ, मन होता है मँगते का।
दे सकते हैं वही जो चुप, झुक कर ले लेते हैं।
आकांक्षा इतनी है, साधना भी लाये हो?
तुम नहीं व्याप सकते, तुम में जो व्यापा है उसी को निबाहो।
(2)
यही कहा पर्वत ने, यही घन-वन ने,
यही बोला झरना, यों कहा सुमन ने।
तितलियाँ, पतंगे, मोर और हिरने,
यही बोले सारस, ताल, खेत, कुएँ, झरने।
नगर के राज-पथ, चौबारे, अटारियाँ,
चीख़्ती-चिल्लाती हुई दौड़ती जनाकुल गाडिय़ाँ।
अग-जग एकमत! मैं भी सहमत हूँ।
मौन, नत हूँ।
तब कहता है फूल : अरे, तुम मेरे हो।
वन कहता है : वाह, तुम मेरे मित्र हो।
नदी का उलाहना है : मुझे भूल जाओगे?
और भीड़-भरे राज-पथ का : बड़े तुम विचित्र हो!
सभी के अस्पष्ट समवेत को
अर्थ देता कहता है नभ : मैंने प्राण तुम्हें दिये हैं
आकार तुम्हें दिया है, स्वयं भले मैं शून्य हूँ।
हम सब सब-कुछ, अपना, तुम्हारा, दोनों दे रहे हैं तुम को
अनुक्षण;
अरे ओ क्षुद्र-मन!
और तुम हम को एक अपनी वाणी भी तो
सौंप नहीं सकते?
सौंपता हूँ।
एडिनबरा, लन्दन (रेल में)
28 अगस्त, 1955
क्यों आज
हम यहाँ आज बैठे-बैठे
हैं खिला रहे जो फूल खिले थे कल, परसों, तरसों-नरसों।
यों हमें चाहते बीत गये दिन पर दिन, मास-मास, बरसों।
जो आगे था वह हमने कभी नहीं पूछा :
वह आगे था, हम बाँध नहीं सकते थे उस सपने को
और चाहते नहीं बाँधना।
अन्धकार में अनपहचाने धन की
हम को टोह नहीं थी, हम सम्पन्न समझते थे अपने को।
जो पीछे था वह जाना था, वह धन था।
पर आकांक्षा-भरी हमारी अँगुलियों से हटता-हटता
चला गया वह दूर-दूर
छाया में, धुँधले में, धीरे-धीरे अन्धकार में लीन हुआ।
यों वृत्त हो गया पूर्ण : अँधेरा हम पर जयी हुआ।
क्यों कि हमारी अपनी आँखों का आलोक नहीं हम जान सके,
क्यों कि हमारी गढ़ी हुई दो प्राचीरों के बीच बिछा
उद्यान नहीं पहचान सके-
चिर वर्तमान की निमिष, प्रभामय,
भोले शिशु-सा किलक-भरा निज हाथ उठाये स्पन्दनहीन हुआ।
क्यों आज समूची वनखंडी का चकित पल्लवन सहज स्वयं हम जी न सके
क्यों उड़ता सौरभ खुली हवा का फिर जड़-जंगम को लौटे-हम पी न सके?
क्यों आज घास की ये हँसती आँखें हम अन्धे रौंद सके
इस लिए कि बरसों पहले कल वह जो फूला था
फूल अनोखा
अग्निशिखा के रंग का सूरजमुखी रहा?
जेनेवा
12 सितम्बर, 1955
योग-फल
सुख मिला : उसे हम कह न सके।
दुख हुआ : उसे हम सह न सके।
संस्पर्श वृहत् का उतरा सुर-सरि-सा : हम बह न सके।
यों बीत गया सब : हम मरे नहीं पर हाय! कदाचित्
जीवित भी हम रह न सके!
जेनेवा
12 सितम्बर, 1955
आदम को एक पुराने ईश्वर का शाप
जाओ
अब रोओ-
जाओ!
सोओ
और पाओ
जागो
और खोओ
स्मृति में अनुरागो
वास्तव में
ख़्ाून के आँसू रोओ।
बार-बार
निषिद्ध फल खाओ
बार-बार
शत्रु का प्रलोभन तुम जानो
आँसू में, खून में, पसीने में
हार-हार
मुझे पहचानो।
मृषा को वरना
तृषा से मरना
लौट-लौट आना
मार्ग कहाँ पाना?
रोओ, रोओ, रोओ-
जाओ!
पूर्वी बर्लिन
4 अक्टूबर, 1955
जिस दिन तुम
जिस दिन तुम मार्ग पूछने निकले, उसी दिन
तुम तीर्थाटक से निरे बेघरे हो गये; तुम्हारा पथ खो गया।
जिस दिन तुम ने कहा, विवेक तो नाम है श्रद्धा के
अस्वीकार का, उस दिन तुम हुए तर्कना के : विवेक तुम्हारा सो गया।
फिर भी तुम मरे नहीं : तुम से तुम्हारी सम्भावनाएँ बड़ी हैं।
वही, ओ आलोक-सुत, पिता तम-भ्रान्ति के,
आज भी तुम्हारा दीपस्तम्भ बन खड़ी हैं।
चलो : अभी आस है
कितना बड़ा सम्बल तुम्हारे पास है कि तुम में कहीं पहुँचने की चाह है।
यह तुम छटपटाते हो कि काँटों में उलझ गये,
चट्टान से टकराये, बीहड़ में फँस गये,
फिसलन थी, रपटे; गिरे खड्ग-खाई में; कहीं कीच-दलदल में
धँस गये,
लम्बी अँधियाली किसी घाटी में
टेढे-मेढ़े कोस पर कोस नापते रहे,
लम्बी अँधियाली शीत रात में
बिना दूर दीप तक के सहारे के ठिठुरते-काँपते रहे
गिरते, पड़ते, मुड़ते, पलटते, कभी पैर सहलाते, कभी माथा पोंछते
चले तुम जा रहे हो खीझते, झींकते, सोचते
कि लक्ष्य जाने कहाँ है, किधर है, (है भी या कि भ्रम है?)-
बीहड़ में अकेले भी निश्चिन्त रहो!
स्थिर जानो :
अरे यही तो सीधी क्या, एक मात्र राह है!
पेरिस
26 अक्टूबर, 1955
मैं-मेरा, तू-तेरा
जो मेरा है वह बार-बार मुखरित होता है
पर जो मैं हूँ उसे नहीं वाणी दे पाता।
जो तेरा है पल्लवित हुआ है रंग-रूप धर शतधा
पर जो तू है नहीं पकड़ में आता।
जो मैं हूँ वह एक पुंज है दुर्दम आकांक्षा का
पर उस के बल पर जो मेरा है मैं बार-बार देता हूँ।
जो तू है वह अनासक्ति पारमिता पर उसके वातायन से
जो तेरा है तू मुझ से, इस से, उस से, सब से फिर-फिर भर-भर
स्मित, निर्विकल्प ले लेता है।
पेरिस
27 अक्टूबर, 1955
कोई कहे या न कहे
यह व्यथा की बात कोई कहे या न कहे।
सपने अपने झर जाने दो, झुलसाती लू को आने दो
पर उस अक्षोभ्य तक केवल मलय समीर बहे।
यह बिदा का गीत कोई सुने या सुने।
मेरा पथ अगम अँधेरा हो, अनुभव का कटु फल मेरा हो
वह अक्षत केवल स्मृति के फूल चुने!
फिरेंज (इटली)
दिसम्बर, 1955
सागर और गिरगिट
सागर भी रंग बदलता है, गिरगिट भी रंग बदलता है।
सागर को पूजा मिलती है, गिरगिट कुत्सा पर पलता है।
सागर है बली : बिचारा गिरगिट भूमि चूमता चलता है।
या यह : गिरगिट का जीवनमय होना ही हम मनुजों को खलता है?
नैपोली-पोर्ट सईद (जहा ज में)
1 फरवरी, 1956
खुल गयी नाव
खुल गयी नाव
घिर आयी संझा, सूरज डूबा सागर तीरे।
धुँधले पड़ते-से जल-पंछी
भर धीरज से मूक लगे मँडलाने,
सूना तारा उगा, चमक कर, साथी लगा बुलाने।
तब फिर सिहरी हवा, लहरियाँ काँपीं,
तब फिर मूर्छित व्यथा विदा की जागी धीरे-धीरे।
स्वेज अदन (जहा ज में)
5 फरवरी, 1956
तुम हँसी हो
तुम हँसी हो-जो न मेरे ओठ पर दीखे,
मुझे हर मोड़ पर मिलती रही है।
धूप-मुझ पर जो न छायी हो,
किन्तु जिस की ओर
मेरे रुद्ध जीवन की कुटी की खिड़कियाँ खुलती रही हैं।
तुम दया हो जो मुझे विधि ने न दी हो,
किन्तु मुझ को दूसरों से बाँधती है
जो कि मेरी ही तरह इनसान हैं,
आँख जिन से न भी मेरी मिले,
जिन को किन्तु मेरी चेतना पहचानती है।
धैर्य हो तुम : जो नहीं प्रतिबिम्ब मेरे कर्म के धुँधले मुकुर में पा सका,
किन्तु जो संघर्ष-रत मेरे प्रतिम का, मनुज का,
अनकहा पर एक धमनी में बहा सन्देश मुझ तक ला सका,
व्यक्ति की इकली व्यथा के बीज को
जो लोक-मानस की सुविस्तृत भूमि में पनपा सका।
हँसी ओ उच्छल, दया ओ अनिमेष,
धैर्य ओ अच्युत, आप्त, अशेष।
जहाज 'आसिया' में (लालसागर)
6 फरवरी, 1956
आखेटक
कई बार आकर्ण तान धनु/लक्ष्य साध कर
तीर छोड़ता हूँ मैं-
कोई गिरता नहीं, किन्तु सद्य: उपलब्धि मुझे होती है :
आखेटक का रस सत्वर मुझ को मिल जाता है।
कभी-कभी पर निरुद्देश्य, निर्लक्ष्य,
तीर से रहित धनुष की प्रत्यंचा को / देता हूँ टंकार अनमना :
मेरे हाथ कुछ नहीं आता, दूर कहीं, पर
हाय! मर्म में कोई बिंध जाता है!
दिल्ली
होली, 1956
पुरुष और नारी
सूरज ने खींच लकीर लाल नभ का उर चीर दिया।
पुरुष उठा, पीछे न देख मुड़ चला गया!
यों नारी का जो रजनी है; धरती है, वधुका है, माता है,
प्यार हर बार छला गया।
नयी दिल्ली
अप्रैल, 1956
साधुवाद
उसे नहीं जो सरसाता है
स्वाति-बूँद, जो हरसाता है
सागर-तट की सीपी की, तल पर ला सरसाता है।
ताकि सहज मुक्ता वह दे दे-सीपी सोती।
नहीं! साधुवाद उस को जो कहीं अनवरत
भर कौशल से हाथ अनमने
निर्मम बल से एक-एक सीपी का मुख खोला करता है
और मर्म में रख देता है कनी रेत की, एक अनी-सी
कसके जो, पर रक्खे अक्षत, मिले दर्द से जिस के कर से
सीपी का उर जिस के वर से
रच ले मोती!
दिल्ली
1 मई, 1956
वैशाख की आँधी
नभ अन्तज्र्योतित है पीत किसी आलोक से
बादल की काली गुदड़ी का मोती
टोह रही है बिजली ज्यों बरछी की नोक से।
कुछ जो घुमड़ रहा है क्षिति में
उसे नीम के झरते बौर रहे हैं टोक से;
'ठहरो-अभी झूम जाएगा अगजग
बरबस तीखे मद की झोंक से।'
हहर-हहर घहराया काला बद्दल
लेकिन पहले आया झक्कड़/जाने कहाँ-कहाँ की धूल का :
स्वर लाया सरसर पीपल का, मर्मर कछार के झाऊ का,
खड़खड़ पलास का, अमलतास का,
और झरा रेशम शिरीष के फूल का!
आयी पानी :
अरी धूल झगडै़ल, चढ़ी
पछवा के कन्धों पर तू थी इतराती,
ले काट चिकोटी अब भी :
बस एक स्नेह की बूँद और तू हुई पस्त-
पैरों में बिछ-बिछ जाती,
सोंधी महक उड़ाती!
सह सकें स्नेह, वह और रूप होते हैं, अरी अयानी!
नाच, नाच मन, मुदित, मस्त :
आया पानी!
दिल्ली
मई, 1956
सागर-तट की सीपियाँ
सीपियाँ
ये शुभ्र-नीलम : दर्द की आँखें फटी-सी
जो कभी अब नहीं मोती दे सकेंगी।
यह गन्ध-दूषित : मुख-विवर जो किरकिराते रेत-कन से
अचकचा कर अधखुला ही रह गया है।
ये बन्द, बाहर खुरदरी, छेदों-भरी :
हाय रे, अपनी घुटन का ले सहारा मुक्त होना चाहना
नि:सीम सागर से-
उसी के उच्छिष्ट का!
ये टूटी हुई रंगीन :
इन्द्र-धनु रौंदे हुए ये-
रेत से मिस चले से भी स्निग्ध, रंगारंग-
जैसे प्यार।
और यह, जो-
चलो, यह अच्छा हुआ जो लह उस को कोख में लेती गयी-
न जाने क्यों मुझे उस के कँटीले रूप से संकोच होता था।
देहरादून
मई, 1956
कवि के प्रति कवि
दर्प किया : शक्ति नहीं मिली।
सुख लिया-छीन-छीन कर भर-भर सुख लिया :
अभिव्यक्ति नहीं मिली।
दु:ख दिया, दु:ख पिया, दु:ख जिया : मुक्ति नहीं मिली।
कुछ लिखा : वह हाट-हाट बिका
फूले हम, सफल हुए : मोह पर झरा नहीं, टँगा-सा रहा टिका
हृदय की कली नहीं खिली।
बँधते हम रूप के दाम में रहे,
स्रजते पर सृष्टि से चिपटते,
आलोक-प्रभव पर लय की लहर से लिपटते
रमते हम काम में, राम में, नाम में रहे :
अनासक्ति नहीं मिली।
नम: कवि, जो भी तुम नाम ही नाम छोड़ गये;
जो जब-जब हम शास्त्र रच मुदित हुए
संचित हमारा अहंकार स्मित-भर से तोड़ गये;
मरु की ओर अदृश्य बढ़ी अन्त:सलिला को
सहज, कुछ कहे बिन फिर भीतर को मोड़ गये।
दिल्ली
15 मई, 1956
सर्जना के क्षण
एक क्षण-भर और रहने दो मुझे अभिभूत :
फिर जहाँ मैं ने सँजो कर और भी सब रखी हैं ज्योति: शिखाएँ
वहीं तुम भी चली जाना-शान्त तेजोरूप।
एक क्षण-भर और :
लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी हो नहीं सकते।
बूँद स्वाती की भले हो, बेधती है मर्म सीपी का उसी निर्मम त्वरा से
वज्र जिसे से फोड़ता चट्टान को
भले ही फिर व्यथा के तम में बरस पर बरस बीतें
एक मुक्ता-रूप को पकते।
दिल्ली
17 मई, 1956
हम कृती नहीं हैं
हम कृती नहीं हैं
कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्।
क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब
इस विलास का योग मिला?-जो
हों, इतने भर को ही
भरसक तपते-जलते रहे-रह गये?
हम हुए, यही बस,
नामहीन हम, निर्विशेष्य,
कुछ हम ने किया नहीं।
या केवल
मानव होने की पीड़ा का एक नया स्तर खोला :
नया रन्ध्र इस रुँधे दर्द को भी दिवार में फोड़ा :
उस से फूटा जो आलोक, उसे
-छितरा जाने से पहले-
निर्निमेष आँखों से देखा
निर्मम मानस से पहचाना
नाम दिया।
चाहे
तकने में आँखें फूट जाएँ,
चाहे अर्थ-भार से तन कर भाषा की झिल्ली फट जाए,
चाहे
परिचित को गहरे उकेरते
संवेदन का प्याला टूट जाए :
देखा
पहचाना
नाम दिया।
कृती नहीं हैं :
हों, बस इतने भर को हम
आजीवन तपते-जलते रहे-रह गये।
दिल्ली (बस में)
26 अक्टूबर, 1956
सुख-क्षण
यह दु:सह सुख-क्षण
मिला अचानक हमें
अतर्कित।
तभी गया तो छोड़ गया
यह दर्द अकथ्य, अकल्पित।
रंग-बिरंगी मेघ-पताकाओं से
घिर आया नभ सारा :
नीरव टूट गिर गया जलता
एक अकेला तारा।
साउथ एवेन्यू, नयी दिल्ली
6 दिसम्बर, 1956
चाँदनी चुप-चाप
चाँदनी चुप-चाप सारी रात
सूने आँगन में
जाल रचती रही।
मेरी रूपहीन अभिलाषा
अधूरेपन की मद्धिम
आँच पर तचती रही।
व्यथा मेरी अनकही
आनन्द की सम्भावना के
मनश्चित्रों से परचती रही।
मैं दम साधे रहा,
मन में अलक्षित
आँधी मचती रही :
प्रात: बस इतना कि मेरी बात
सारी रात
उघड़ कर वासना का
रूप लेने से बचती रही।
साउथ एवेन्यू, नयी दिल्ली
दिसम्बर, 1956
सपने का सच
सपने के प्यार को
तुम्हें दिखाऊँ
-यों सच को
सुन्दर होने दूँ।
सपने के सुन्दर को
प्यार करूँ, सब को दिखलाऊँ-
सच होने दूँ।
पर सपने के सच को
किसे दिखाऊँ
जिस से वह सुन्दर हो
और उसे कर सकूँ प्यार?
नयी दिल्ली (स्वप्न में)
22 जनवरी, 1957
प्याला : सतहें जीवन!
वह जगमग एक काँच का प्याला था
जिस में मद-भरमाये हम ने
भर रक्खा
तीखा भभके-खिंचा उजाला था।
कौंध उसी की से
वह फूट गया।
उस में जो रस था (मद?)
मिट्टी में रिस
वह धीरे-धीरे सूख गया-
पर रस की प्यास नहीं सूखी।
इस लिए हृदय में गाला हम ने एक कुआँ।
रस से लेंगे मन सींच!
काँच-प्याले के टुकड़े से लाये उलीच
जो, आँख मीच
हम पीने लगे-
विषैला कड़वा धुआँ!
यों बाद हृदय के
मन भी टूट गया।
जीवन! वह अब भी है।
विकिरित प्रकाश की किरणें
रंग-बिरंगी अनथक नाच रहीं कच-टुकड़े के
हर स्तर पर।
हम बार-बार गहरे उतरे-
कितना गहरे!-पर
जब-जब जो कुछ भी लाये
उस से बस
और सतह पर भीड़ बढ़ गयी।
सतहें-सतहें-
सब फेंक रही हैं लौट-लौट
वह कौंध जिसे हम भर न रख सके
प्याले में : छिछली उथली घनी चौंध से अन्ध
घूमते हैं हम अपने रचे हुए
मायावी उजियाले में।
गहरे में-कुछ इतना सूना जो
भिद कर भी लौटा ही देता है प्रकाश :
सतहों पर-टूटी चमकीली सतहों को बाँध-बाँध
उलझाने वाला सतहों का ही जटिल पाश!
सतहें-कच-टुकड़े :
यही जुटा पाये हम;
भीतर किरण रही जो
वह नीलाम चढ़ गयी!
मोती बाग, नयी दिल्ली
1 अप्रैल, 1957
ब्राह्म मुहूर्त : स्वस्तिवाचन
जियो उस प्यार में
जो मैं ने तुम्हें दिया है,
उस दु:ख में नहीं, जिसे
बेझिझक मैं ने पिया है।
उस गान में जियो
जो मैं ने तुम्हें सुनाया है,
उस आह में नहीं, जिसे
मैं ने तुम से छिपाया है।
उस द्वार से गु जरो
जो मैं ने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अन्धकार से नहीं
जिस की गहराई को
बार-बार मैं ने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।
वह छादन तुम्हारा घर हो
जिस मैं असीसों से बुनता हूँ, बुनूँगा;
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हें मैं राह से चुनता हूँ, चुनूँगा।
वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ, बनाता रहूँगा;
मैं जो रोड़ा हूँ उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता-सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।
सागर के किनारे तक
तुम्हें पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो :
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन-तरी हो, अरुण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्ग!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।
नयी दिल्ली
6 अप्रैल, 1957
एक प्रश्न
क्या घृणा की एक झौंसी साँस भी
छू लेगी तुम्हारा गात-
प्यार की हवाएँ सोंधी
यों ही बह जाएँगी?
एक सूखे पत्ते की ही खड़-खड़
बाँधेगी तुम्हारा ध्यान-
लाख-लाख कोंपलों की मृदुल गुजारें
अनसुनी रह जाएँगी?
चौखटे की दीमक का
उद्यम अनवरत देख तुम
खिड़की से बाहर न झाँकोगे :
पक्षियों की बीटों का क्या :
उपयोग होगा, इसी चिन्ता में
जमीन को कुरेदते-
ऊपर का मुक्त-मुक्त-मुक्त
आकाश नहीं ताकोगे?
साउथ एवेन्यू, नयी दिल्ली
6 अप्रैल, 1957
मोह-बन्ध हम दोनों
एक बार जो मिले रहे
फिर मिले, इसे क्या कहूँ :
कि दुनिया इतनी छोटी है-
या इतनी बड़ी?
हम में जो कौंध गयी थी
एक बार पहचान, उसी में
आज जुड़ी जो नयी कड़ी-
क्या कहूँ इसे :
इतिहास दुबारा घटित नहीं होता, या वह है
पुनर्घटित की एक लड़ी?
बिछुड़ जाएँगे फिर हम, फिर भी
हार आज को नहीं गिनेंगे,
इस को अभी, आज क्या कहूँ :
कि जीवन एक मोह है जो साहस को हर लेता है,
या कि एक साहस, जो काट रहा है
बन्ध मोह के घड़ी-घड़ी?
दिल्ली-कलकत्ता-कटक (रेल में)
10-12 अप्रैल, 1957
चेहरे असंख्य : आँखें असंख्य
चेहरे थे असंख्य, आँखें थीं,
दर्द सभी में था-
जीवन का दंश सभी ने जाना था।
पर दो केवल दो
मेरे मन में कौंध गयीं।
क्यों?
क्या उन में अतिरिक्त दर्द था
जो अतीत में मेरा परिचित कभी रहा,
या मुझ में कोई छायास्मृति जागी थी
जिस को मैं ने उन आँखों में पढ़ा
कि जैसे सदा दूसरों में हम
जाने-अनजाने केवल
अपने ही को पढ़ते हैं?
मैं नहीं जानता किस की वे आँखें थीं,
नहीं समझता फिर उन को देखूँगा
(परिचय मन ही मन चाहा हो, उद्यम कोई नहीं किया),
किन्तु उसी की कौंध
मुझे फिर-फिर दिखलाती है
चेहरे असंख्य, आँखें असंख्य,
जिन सब में दर्द भरा है
पर जिन को मैं पहले नहीं देख पाया था।
वही अपरिचित दो आँखें ही
चिर-माध्यम हैं सब आँखों से, सब दर्दों से
मेरे चिर-परिचय का।
विषुव सम्मिलनी, कटक
13 अप्रैल, 1957
हरा-भरा है देश
हरे-भरे हैं खेत
मगर खलिहान नहीं :
बहुत महतो का मान-
मगर दो मुट्ठी धान नहीं।
भरा है दिल पर नीयत नहीं :
हरी है कोख-तबीयत नहीं।
भरी हैं आँखें पेट नहीं :
भरे हैं बनिये के काग ज-
टेंट नहीं। हरा-भरा है देश :
रुँधा मिट्टी में ताप
पोसता है विष-वट का मूल-
फलेंगे जिस में शाप।
मरा क्या और मरे
इस लिए अगर जिये तो क्या :
जिसे पीने को पानी नहीं
लहू का घूँट पिये तो क्या;
पकेगा फल, चखना होगा
उन्ही को जो जीते हैं आज :
जिन्हें है बहुत शील का ज्ञान-
नहीं है लाज। तपी मिट्टी जो सोख न ले
अरे, क्या है इतना पानी?
कि व्यर्थ है उद्बोधन, आह्वान-
व्यर्थ कवि की बानी?
कोणार्क-कटक
15 अप्रैल, 1957
शब्द और सत्य
यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है :
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे
उस में सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ?
कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते करें,
प्रयोजन मेरा इतना है :
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ-
दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।
मोती बाग, नयी दिल्ली
15 जून, 1957
पगली आलोक-किरण
ओ तू पगली आलोक-किरण,
सूअर की खोली के कर्दम पर बार-बार चमकी,
पर साधक की कुटिया को वज्र-अछूता
अन्धकार में छोड़ गयी?
मोती बाग, नयी दिल्ली
17 जून, 1957
जागरण-क्षण
बरसों की मेरी नींद रही।
बह गया समय की धारा में जो,
कौन मूर्ख उस को वापस माँगे?
मैं आज जाग कर खोज रहा हूँ
वह क्षण जिस में मैं जागा हूँ।
मोती बाग, नयी दिल्ली
18 जून, 1957
तू-मैं
तू फाड़-फाड़ कर छप्पर चाहे
जिस को तिस को देता जा
मैं मोती अपने हिय के उन में भरा करूँ।
तू जहाँ कहीं जी करे
घड़े के घड़े अमृत बरसाया कर
मैं उस की बूँद-बूँद के संचय के हित सौ-सौ बार मरूँ।
तू सुर-लोकों के द्वार खोल नित नये
राह पर नन्दन-वन कुसुमाता जा-
मैं बार-बार हठ कर के यह, अनन्य यह मानव-लोक वरूँ।
मोती बाग, नयी दिल्ली
18 जून, 1957